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आचार्य अरस्तुजी के अनुसार

Posted On 1:55 am by विनीत कुमार | 0 comments

हिन्दी मी काव्यशास्त्र का एक पेपर होता है जिसमे अपने मन का लिखने कि गुंजाइश न के बराबर होती है । इसलिये हर दूसरे -तीसरे वाक्य के साथ जोड़ना पड़ता है- फलां के अनुसार । कल के इस पेपर मई कुछ बच्चे यह भी क्रियेटिव नज़र आये। पूरी बात तो वही लिखी जो बात हिन्दी पड़ने वाले शुरू से करते आ रहे है लेकिन इन्त्रो मी सबको मौका मिल गया अपनी बात झोकने कि तो देखिये उनकी बानगी-
सबाल है, काव्य लक्षण क्या क्या है, परिभासित करे । बन्दे ने लिखा-
कविता सब लोग अपने-अपने मतलब के लिये करते है। किसी को मन होता है कि इससे धन-दौलत कमाये, कोई नाम के लिये लिखता है और कोई लोग कविता का नाम पर काओवं- कावों करके पोल्तिस मी अपनी पकड़ बनाना चाहता है। बन्दा मुझे उत्तर- आधुनिक जान पड़ा , उसने सारे मेटा नर्रेतिव को तोड़ दिया और अपने इस उत्तर मी कही भी कुन्तक, विश्वनाथ का नाम नही लिया , और आज के हिसाब से जो कवी , कविता और सम्मान के लिये मार-काट मच रही है, सब लिख दिया । संस्कृत का खुल्ला नकार। इंग्लिश का भी कही कोई नाम नही। भाई ये है क्रेअतिविटी । आप बताते रहे क्लास मी कि हमारी परंपरा ये , वो , लेकिन आज कि हिन्दी फसल आपके हिसाब से नही चलेगी।
एक बन्दे ने रस को लेकर प्रेमचंद के क्या विचार है, पूरे सात पन्ने मे लिखा। क्यो नही लिखेगा, आप भी तो बात-बात मे मार्क्स और लोहिया को पेलते हो। पेपर भले ही संस्कृत कि किताब पड़कर तैयार कि गयी हू लेकिन जबाब भी संस्कृत के हिसाब से हो, जरुरी तो नही.
एक बन्दे ने पूरे भारतीय काव्यशास्त्र को शोषण का मामला बताया और कम्युनिस्ट मनिफेस्तो झोक डाला।
और एक बन्दे ने तो लिखा आचार्य अरस्तूजी के अनुसार। वो हिंदूवादी तरीके से पेपर को देख रह था, लेकिन आप ये नही कह सकते कि उसे ये बात पता नही कि अरस्तू भारतीय नही थे.
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कल रामजस कॉलेज की एक लड़की को जैकेट पहने देखा। देखकर बहुत अच्छा लगा । जैकेट पर लिखा था - रामजस कॉलेज , डिपार्टमेन्ट ऑफ़ हिन्दी ।
campus मे अपने कॉलेज और डिपार्टमेन्ट के नाम पर टीशर्ट, गर्म कपडे निकालने का पुराना चलन है। हॉस्टल मे लोग अपने हॉस्टल के नाम पर टीशर्ट निकालते है।
टीशर्ट निकालने के अलग-अलग मतलब हो सकते है। ये मतलब निकालने और खरीदने वाले के लिये अलग-अलग होते है। जो निकलते है उन्हें एक आइटम मे ७५ से १०० रुपये की कमाई हो जाती है और काम भी कोई बेकार का नही है। अगर आपने कोई अलग ढंग का आइटम निकाल दिया तो लोग लंबे समय तक याद रखते है आपको। अपनी पहचान बनने का ये भी एक बेहतर तरीका है। अच्छा इसी बहाने आपका पीआर बनेगा और आप इलेक्शन मे कल्चरल सेक्रेटरी के लिये सोच सकते है। कॉलेज मे लड़कियों से दोस्ती हो सकती है। हिन्दू मे तो एक -दो मेरे फ्र्स्तु दोस्त टीशर्ट लेने अपने कमरे मे बुलाते और शाम मे कमला नगर मे मोमोज़ खिलाते कि मुझे गर्ल-फ्रेंड मिल गयी है, आज पहला दिन था, कमरे मे आयी थी....पार्टी .... । ये तो तब मामला समझ मे आता जब अगले दिन गार्ड से लड़की पूछती जो भैया / सर टीशर्ट निकालते है , उनका कौन सा रूम है और पहुचती। और वापस अपने पैसे मांगती या फिर कहती कि सर साइज़ बड़ा है, छोटे दे दे या फिर इसमे मे तो छेद है, दूसरी पीस दे दे ।
हमलोग सबसे पहले आइटम खरीदते , क्यो यही एक ऐसा आइटम होता जिससे अपनी हैसिअत का पता नही चलता . हम तो चाहते कि कॉलेज के नाम से जीन पैंट भी निकले, जूते भी। कभी-कभी टीशर्ट निकालना पोल्तिक्स की बात हो जाती और वोट के हिसाब से ग्राहक गिनते कि कौन-कौन लेगा।
निकालने वाले अक्सर दबंग या फिर फुरसतिया किस्म के लोग होते है । टीशर्ट निकालने मे हिन्दी के लोग शामिल होते है लेकिन कभी भी हमने हिन्दी डिपार्टमेन्ट के नाम पर कुछ निकालते नही देखा।
ऐसा नही है कि हिन्दी के बच्चो की कॉलेज मे संख्या कम होती है लेकिन कोई हिन्दी टीशर्ट पर प्रिंट कराना ही नही चाहता । हिन्दू मे जब मैंने एक बार बात कि भैया मुक्तिबोध या कबीर की कुछ पंक्तिया लिखकर अपने विभाग का टीशर्ट क्यो नही निकालते । तो बन्दे ने कहा कि यार तुम हमेशा चुतियापा क्यो करते हो , कौन हिन्दी कि टीशर्ट पहनकर घूमेगा । लड़किया पहले खूब अच्छे से बात करती है लेकिन जब पता चलता है कि हिन्दी से है तो कट ने लगती है और हिन्दी कि लड़किया तो पहले से ही सलवार -कमीज़ मे पता चल जाता है कि की है। एक-दो जीन पहनती भी है तो टॉपके साथ इतना कुछ पहनती है कि कही से कांफिदेंस ही नही झलकता। एक जूनिएर ने कहा क्या सर आप हमेशा तैल करने मे लगे रहते है। आरुशी से इंग्लिश मे बात करता हू और वो भी बहुत स्पेस देती है और अब हिन्दी कि टीशर्ट पहनकर घुमूँगा।

आख़िर मैंने एक प्लेन टीशर्ट ख़रीदा और उस पर लिखा-

अब अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने ही होंगे

और पहनकर घूमता । कई लोगो ने पूछा कहा से करवाए और मैंने कहा, खुद से कर लिया।
कल लड़की को हिन्दी लिखा पहने देखा तो सचमुच बहुत अच्छा लगा कि-
चलो लोगो को अब ये बताने मे शर्म नही आती ही वो हिन्दी का स्टूडेंट है...

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हिन्दी; एक्सपर्ट ब्रिड

Posted On 2:35 am by विनीत कुमार | 1 comments

चार दिनों तक MA फर्स्ट ईअर के बच्चो के बीच ड्यूटी बजाने के बाद कल मुझे फ़ाइनल ईअर के बच्चो के बीच भेजा गया । यहाँ का अनुभव वहाँ से बिल्कुल अलग और मौलिक रहा । फ़ाइनल ईअर मे होता क्या है कि चार पेपर सबो का एक ही होता है लेकिन बाक़ी के चार पेपर आपकी मर्जी पर है कि आप क्या लेते है। क्या लेते है माने कि आगे जाकर आप किस रुप मी हिन्दी कि सेवा करना चाहते है । अगर मीडिया एक्सपर्ट के तौर पर तो जनसंचार लें , और नाटक मे माहिर होना चाहते है तो रंगमंच लें । कविता को लेकर गंभीर है और आपको लगता है कि कविता से दुनिया को बदला जा सकता है और हिन्दी कि सेवा भी कि जा सकती है तो आप आधुनिक कविता लें। एक बात और, आपको इस बात का अहसास हो गया है कि हिन्दी से ज्यादा बेहतर अंग्रेजी मे लिखा गया है और उसे हिन्दी मी लाने कि जरुरत है तो आप अनुवाद भी ले सकते है। बाक़ी हिंदुस्तान के रास-रंग को जानने के लिये रीतिकाल है ही.

आप जो भी आप्शन लेते है उसके साथ सपनो का पैकेज फ्री मे मिल जाता है। पहले ही क्लास मे आपको बता दिया जायेगा कि फलां आप्शन लेकर आप कितनी ऊँचाई पर पहुंच सकते है और साथ ही आपको आइवरी टावर पर बैठे कुछ लोंगो का नाम बता दिया जायेगा । ये लोग ज्यादातर दिल्ली विश्वविद्यालय मे मिलेंगे । आपको बात ज्यादा हकीकत की लगेगी। और आप वही से जोड़ना-घटाना शुरू कर देते है । और आपके भीतर वेज़-वियाग्रा कि ताकत आ जाती है। लाइफ बनी मालुम होती है। आपका मन हो तो बिहार-उपी जहा से भी आप आते हू, ख़त लिख सकते है कि बाबूजी अब तो एक्सपर्ट बनके ही लौटेंगे ।
लेकिन खेला कहा होता है और आपका नरक कहा हो जाता है सो देखिये। जैसा कि कल कल रंगमच के और अनुवाद के बच्चो के साथ हुआ।
रंगमंच के बच्चो ने सबाल मिलते ही हंगामा करना शुरू कर दिया । एक लड़की ने साफ - साफ कहा कि मैडम ने कहा था कि जितना डी सकस हुआ है उतना ही आयेगा और जो सबाल आया है उसकी तो चर्चा ही नही हुई है। मामला मेरे से थमा नही और मैंने गुरुओं को बुला लाया। उनसे बात हुई तो पता चला कि संस्कृत नाटक सबाल आया है और बच्चे ने तैयार नही किया है। इंचार्ज ने हैरानी से सबाल को देखा, मानो जानना चाह रहे हों कि पूरा नाटक जान गये, एक्सपर्ट होने का दाबा भी बन गया और संस्कृत नाटक पर कोई बात नही। खैर आप्शन मी ग्रीक नाटक देकर मामले को सल्ताया गया। कोई नही, रोटी-दाल न मिले पिज्जा ही खा लो , संस्कृत न सही ग्रीक ही लिख दो।
इधर अनुवाद के बच्चो के साथ अलग परेशानी, उनका कहना था कि एक सबाल के अलाबे बाक़ी के सबाल कल के पेपर के है। और लगे फिर शोर करने। बुलाया गुरुजी को, और उन्होने कहा कि इसमे बदलाब नही होगा। कुछ बच्चों ने कहा भी कोई बदलाब चाहते भी नही है। घर से तैयार करके आये थे।
मुझे तो इनके एक्सपर्ट बनने की उम्मीद जाती रही। कि भाया बात-बात एडजस्ट करना पड़े तब तो हुआ, और अपने ही आप्शन के सबाल मे लासक गये तो बाक़ी का क्या होगा। एक्सपर्ट बनने के लिये कुछ एक्स्ट्रा भी पड़ना परता है भाई। नही तो करू हल्ला कि संस्कृत नाटक के बारे मे तुम्हे कुछ नही आता। या फिर एक्सपर्ट बनने के बाद देखोगे, क्योकि इस्क्का भी ट्रेंड है भाई.....
नोट; इंग्लिश से हिन्दी ट्रांस करके लिख रह हू, कई के स्पेल्ल्लिंग सही नही बन पा रहे है, आप सुधार कर देखे, प्लीज.....


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मुजफ्फरपुर के राम्लीलागाची मे चार लड़कियों ने मिलकर अपना न्यूज़ चैनल शुरू किया है । इनका कहना है कि बडे-बडे चैनल देश-दुनिया कि खबर दिखाते है लेकिन हमारे गाव की जो समस्याएँ है उनपर किसी का ध्यान नही जाता , इसलिये हमने सोचा कि अपना चैनल शुरू किया जाये। सच मे जहाँ बडे-बडे चैनल अपने हाथ खडे कर देते है, वहाँ लड़कियों का ये प्रयास काबिले तारीफ है।
इन लड़कियों के पास कोई ओबी वैन नही है, न कोई तेज रफ़्तार की गाड़ी है और न ही बहुत सारे कैमरे और रिपोर्टर्स । और तो और गाँव मे न तो बिजली रहती है और न ही लोगो के घर मे केबल कनेक्शन की पहुच है । ये लड़कियां सायीकल पर केमरा, माईक और बाक़ी चीज़ लेकर निकलती है और दिनभर न्यूज़ इकट्ठा कर शाम को सबसे ज्यादा भीड़ वाले इलाके मे प्रोजेक्टर पर दिखाती है । शुरू-शुरू मे तो इनका बहुत विरोध हुआ लेकिन लड़कियों कि लगातार कोशिशो कि बदौलत उनका ये अप्पन समाचार आज खासा पोपुलर होता जा रहा जा रहा है । खबर मिलने के बाद मैंने इसकी चर्चा दिल्ली मे लोगो से कि तो उन्हें भी बहुत हैरानी हुई । सफर के सेक्रेटरी राकेश सिंह ने उत्साह जताते हुये बताया कि दिसम्बर २२ से ३० तक बिहार मे जो वर्कशॉप हो रहा है , उसमे लोकल खबरों को कवर करने कि ट्रेनिंग दी जायेगी । वहाँ के बच्चे पहले से ही कोम्मुनिटी प्रोपर्टी को लेकर फिल्म बना रहे है । सफर खुद भी सामुदायिक टीवी चैनल शुरू करने जा रहा है ।
मुख्यधारा के बरक्स इस तरह के प्रयास पत्रकारिता को सही अर्थो मे स्थापित कर सकेंगे । बिहार कि इन लड़कियां को ढेर सारी शुभ काम नाएं ......

* SAFAR : वैकल्पिक मीडिया के लिये लगातार काम करनेवाला संगठन है .
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जहाज से देखो गुजरात

Posted On 9:16 pm by विनीत कुमार | 1 comments

लेफ्ट, राइट, कमल, पंजा, कलम और टीवी पता नहीं किस-किस चश्मे से अब तक आपने गुजरात को देखा। बहुत हो गया, अब जरा चश्मा उतार फेंकिए और गुजरात को जहाज पर चढ़कर देखिए, आपको सब जगह हरियाली नजर आएगी।
एनडीवी पर गुजरात की गद्दी प्रोग्राम में अपने रवीश गुजरात में आणंद के लोगों से बात कर रहे थे। सब कुछ तो सामान्य ही था, जैसा कि और कार्यक्रमों में हुआ करता हैं। शुरुआत में कुछ मुद्दों पर बहसा-बहसी और फिर बाद में किसी एक बात को लेकर आपसी सहमति। लेकिन यहां एक नयी बात हो गई कि जब कांग्रेस ने बीजेपी यानि मोदी को पानी, बिजली के मुद्दे पर घेरना चाहा तो बीजेपी के एक बंदे ने एकदम से हटकर तर्क दे ड़ाला वो ये कि- गुजरात में अगर हरियाली देखनी है तो लोग जहाज पर बैठकर देंखे, सब जगह हरियाली नजर आएगी। और जब हरियाली है तो क्या वो बिना पानी बिजली के आ गयी। ऐसी बात को साहित्य में हमलोग वक्रोक्ति अलंकार कहते है। यहां कोई भी बात सीधे-सीधे नहीं कही जाती, कुंतक का पूरा दर्शन है इसके उपर। बंदे ने जब ऐसा कहा तो रवीश को भी अच्छा लगा कि बंदा कुछ क्रिएटिव किस्म का है। वैसे रवीश को एक महिला पहले ही क्रिएटिव मिल गई थी, जिसे कि कविता करने का सुझाव दिया, अच्छा बोल रही थी।खुश होकर एक छोटा-सा ब्रेक ले लिया।

हिन्दी में एक उपन्यास है रेणु का मैला आंचल। आपमें से कई लोगों ने पढ़ा भी होगा। रेणु ने पूर्णिया (बिहार) के एक छोटे से गांव मेरीगंज की चर्चा की है। एक तरह से यही उपन्यास का नायक भी है औऱ इसकी आंचलिक उपन्यास के रुप में पहचान बनी।
मुझे याद है जब हिन्दू कॉलेज के मास्टर साहब इसे पढ़ाया करते तो शुरु करने के पहले अक्सर कहा करते, इसे पढ़ने के लिए आपको मेरीगंज में बस या मोटर पर बैठकर नहीं पंगडंडियों पर चलकर समझना होगा, गांव को रेल की खिड़की से झांककर नहीं देखा जा सकता। तब बात समझ में नहीं आती और जिनकी पृष्ठभूमि शहर की होती उनको तो ये उपन्यास ही बहुत बकवास लगता। साल में मैला आंचल और राग दरबारी एक बार पढ़ना हो ही जाता है। बंदे ने जब ऐसी बात कर दी तो चीजें फिर से हरी हो गयी.
भाई साहब, आप जहाज से गुजरात देखेंगे। आप अगर नेता आदमी हैं तब तो देख आइए, लेकिन आम जनता के साथ बहुत परेशानी है।
क्या गुजरात वाकई इतना विकास कर चुका है कि मोदी अपना गदा और मुकुट बेचकर फ्री में बस चलवा रहे हैं तो अब जहाज भी चलवा लेंगे।
जनाब सरकार की तरह जनता जायजा नहीं लेना चाहती जो कि हवाई दौरे से ली जाती है, वाकई पानी-बिजली चाहती है।
उबाल में तो आप बोल गए कि जहाज पर से देखो गुजरात को तो ये काम तो आप गुजरात नरसंहार के समय भी कर सकते थे। एक और बताउं-
मैं झारखंड से हूं, आप जहाज तो छोडिए, बस में बैठकर खिड़की से झांकेंगे तो पूरा झारखंड खूब हरा-भरा दिखेगा लेकिन सब जगह फसल नहीं है, कहीं जगहों पर तो सिर्फ झाडियां ही झाडियां ही है और लोगों के बीच खाने-पीने की किल्लत बनी रहती है। मैं ये नहीं कहता कि आपका गुजरात भी ऐसा ही है, है और होगा खुशहाल लेकिन भइया ढंग का तर्क दो। सिर्फ ताली पिटवाने के लिए आए थे तब तो कोई बात नहीं लेकिन मुद्दों पर बात करने आए थे तो कभी तो वोटर या जनता की तरह बात करो, अपना तो कुछ रहा ही नहीं, परेशानी रहते हुए पर भी सबों की जुबान पर नेता वचन इतना क्यों हावी है भाई।।।
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राधा की ब्यूटी, कृष्ण अपसेट

Posted On 9:30 pm by विनीत कुमार | 8 comments

दो दिनों से विभाग की ड्यूटी बजा रहा हूं। एम ए इन्टरनल की परिक्षाएं चल रही है। यही हाल रहा तो मैं बहुत जल्द ही सरकार का दामाद वाला शब्द वापस ले लूंगा। लेकिन अभी इतनी जल्दी नहीं।
खैर, अब मैं किसी काम को बेकार नहीं मानता और झेल से झेल काम करने में भी बोर नहीं होता। इस उम्मीद से मन लगाकर करता हूं कि ब्लॉग का माल निकल ही आएगा। परीक्षक का काम इसी नीयत से ले लिया। सोचा, चलो साहित्य की जो नई फसलें तैयार हो रही है, उसे देखने-समझने का मौका मिलेगा।
नई फसल को समझने का एक ही तरीका था कि जो बच्चे लिख रहे हैं, उसे बीच-बीच में पढ़ा जाए। मौका तो बहुत कम मिला लेकिन कोशिश में लगा रहा। ज्यादा पढ़ने में लगा रहता तो बच्चे शोर मचाना शुरु कर देते और मास्टरजी बीच में आ जाते तो फिर हमें ही लताड़ते, जब कॉपी-सवाल बांटने पर कंन्ट्रोल नहीं कर सकते तो फिर पढ़ाओगे कैसे भइया और इंटरव्यू में जाउं तो कहने लगें कि पहले एक-दो साल कॉपी-सवाल बांटकर बच्चों को शांत रखना सीखो। लेकिन कहते हैं न-
जहां न पहुंचे,
कवि औ डॉलर
वहां पहुंचे ब्लॉगर।।
सो मैं भी कुछ-कुछ पढ़ने लगा। दोनों दिन मेरी ड्यूटी एम ए प्रीवियस के बच्चों के बीच रही। पहले दिन आदिकाल का पेपर था। विद्यापति, रासो वगैरह लिखना था। आधे से ज्यादा बच्चों ने तो घंटेभर से ज्यादा में विद्यापति की राधा के आंचल को ढलकाया। एक बच्ची ने तो सीधे लिखा कि-
राधा के झुकते ही आंचल ढलक गया और उसके पुष्ट उरोज पर कृष्ण की नजर पड़ गयी लेकिन राधा ने उसे तुरंत ढंक लिया। कृष्ण ठीक से देख नहीं पाए, ऐसा लगा जैसे अचानक बिजली कौंध गयी हो और इसी बात को लेकर वे बेचैन हैं।
एक बंदा थोड़ा समझदार था और थोड़ा साहित्यकार किस्म का। उसने इसी बात को लिखा-
राधा के झुकते ही आंचल ढलक गया और कृष्ण को उसका सौन्दर्य दिख गया। बिम्ब के लिए प्रभाव का बढिया प्रयोग।
एक बंदा बार-बार विद्यापति की तुलना बायरन से करना चाह रहा था और बार-बार बयारन लिख रहा था। मास्टर इंग्लिश राइटर का नाम देखकर इंप्रेस हों इसके लिए वो बयारन को अंडरलाइन कर रहा था।
इंटरडिसिप्लीन का सबसे बेहतर नमूना दिखा, कोने में बैठे एक बंदे की कॉपी पर। हर सवाल में कोई न कोई मैप या कोई ग्राफ बनाता। विद्यापति की रचना कहां-कहां लोकप्रिय हुई, इसके लिए भारत का नक्शा बनाया और गोला बना-बनाकर सबसे अधिक, अधिक और सबसे कम प्रभावित क्षेत्र को दिखाया।
ऐसा नक्शा मैं सिर्फ मौसम आजतक में देखा करता हूं।
दूसरे सवाल में कि विद्यापति किस-किस विचारधारा से प्रभावित हुए, बंदे ने सीएनबीसी की तरह एक ग्राफ बनाया और एक्स, बाई और बीच में जीरो लिखा। फिर ग्राफ के जरिए न केवल ये बताया कि किस-किस से प्रभावित हुए बल्कि चढ़ाव-उतार से मात्रा तक बता दिया। लो भाई करो चेक कॉपी। भूगोल तो जानते हो न, नहीं तो तुम्हारे बूते का काम नहीं है, मास्टर को खुल्ला चैलेंज।
कल भकितकाल के पेपर में एक बंदे ने कबीर की सामाजिकरता पर बात करते हुए लिखा-
कबीर ने हिन्दुओं को प्रताडित करते हुए लिखा कि-

पोती पढ़ि-पढ़ि जग मुआ पंडित कोई नहीं हुआ।

लग रहा था बंदा पढ़कर नहीं प्रवचन और कमल मार्का भाषण सुनकर आ गया है। अब ऐसे में कोई कबीर को हिन्दुओं का दुश्मन मान ले तो क्या बेजा है।
ज्यादातर बच्चे बार-बार रामचरित्र का प्रयोग करते नजर आए। कुछ तो बार-बार दिमाग को ठोकते
नजर आए। मानो आईआईटी का पेपर लिख रहे हों या फिर हमें इम्प्रेस करना चाह रहे हों कि देखो कितना मुश्किल पेपर लिख रहा हूं, होगा आपसे।

कुछ लोग बीच-बीच में यू नो, आइ मीन बोलते दिख गए।
मैंने जो मतलब निकाला वो ये कि-
ये बच्चे मानकर चलते हैं कि कुछ भी लिख दो, मास्टर छांटकर नंबर दे ही देगा। मास्टर को सिरफ हिन्दी ही आती है, इसलिए नक्शे और ग्राफ बना दो।
इंगलीस तो पढ़ा नहीं होगा इसलिए बयारन को भी बीच-बीच में झोंको।
और सबसे ज्यादा तो कि ये बंदा जो कॉपी बांट रहा है, छोटू है एमए पास होगा ही नहीं।
तो सरजी, मैडमजी ये है हिन्दी की नई फसल। इसमें कुछ बच्चे काबिल और होनहार हैं, उनपर मेरी कोई भी बातें लागू नहीं होती। उनके लिए ढेर सारी शुभकामनाएं।।।
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लेखक ब्लॉगर हैं

Posted On 8:48 pm by विनीत कुमार | 5 comments

आशीष दो पेज की अखबारनुमा पत्रिका निकालते हैं- मीडिया स्कैन। मुझे पता नहीं था कि उसमें क्या और किस ढंग का मटेरियल छापते हैं और न ही पहले कभी इनसे मेरी मुलाकात या बातचीत ही हुई। लेकिन मेरी एक पोस्ट पढ़कर जब इन्होंने कहा कि क्या इसे मैं मीडिया स्कैन में छाप दूं तो बिना कोई जिरह के मैंने कहा छाप दीजिए। वैसे भी जहां मीडिया शब्द जुड़ा हो और बंदा भी तो मैं किसी भी बात के लिए आमतौर पर मना नहीं करता।
मीडिया स्कैन का अंक मिला। मेरी पोस्ट टीवी में फोटो तो आएगा सरपी थी। और साथ में मेरा परिचय भी । परिचय के तौर पर लिखा था लेखक ब्लॉगर हैं। पहले तो थोड़ा गुस्सा आया। नाम के लिए मरनेवाले हर किसी को गुस्सा आएगा कि इतना रगड़ा है और एक बंदा मेरा परिचय ब्लॉगर के रुप में छाप रहा है। सोचा था कि कुछ जोड-जाड़कर अच्छा परिचय देगा। लेकिन लिखा है लेखक ब्लॉगर हैं। बेकार कह दिया था छापने को।
बाद में इस लाइन का ढ़ंग से, ठंडे दिमाग से मतलब समझने की कोशिश की। तो कई बातें एक साथ याद आ गयीं।
सबसे पहले तो जनसत्ता में ब्लॉग लिखी में मुम्बई से आए अनिल रघुराज की मायूसी कि दिल्ली में उन्हें नियमित ब्लॉग लिखने के बावजूद भी किसी ने खास तब्बजो नहीं दी। अनिलजी को दुख इस बात का रहा होगा( मेरे हिसाब से) कि दिल्ली पढ़ने-लिखनेवालों की जगह है। ऐसी जगह जहां दिल्ली के घरों का कूड़-कचरा निकलकर जब दरियागंज तक पहुंचता है तो दुर्लभ किताबो की शक्ल में तब्दील हो जाता है और लोग उसे बीन-बीनकर पढ़ते है। धूल-धक्कड की बिना परवाह किए और यहां हम रोज ताजा माल दे रहे तो भी इज्जत नहीं। यहां तो जिसका स्क्रीन जितना कीमती होगा, माल में उतनी चमक होगी। अनिलजी की चिंता जायज है। अपने कैंपस की बात कहूं, किसी लेखक या कवि को तब तक महान नहीं माना जाता, जब तक कि दो-चार मास्टरजी कह न दे या फिर जनसत्ता में कुछ छप न जाए। और फिर देखिए कैसे बंदे कैंसर की दवाई की तरह उस लेखक की किताब खोजते फिरेंगे। कई बार तो मैंने देखा है कि किताब छपी है उनकी १९९२ में और बंदा परेशान होकर मेरे से पूछ रहा है कि फलांजी की नई किताब आयी है देखे हो और अगर बता दिए तो दर्जन के भाव में फोटो कॉपी करा ली जाती है। तो ऐसे हमारे कैंपसे में कोई लेखक फेमस होता है। लेकिन मास्टरजी वाला कम्पल्शन तो हर जगह (दिल्ली) में नहीं होनी चाहिए। तो फिर । तो फिर क्या संसंद और विधान-सभा का भी तो असर है भइया हिन्दी जगत में। आप बम्बै से आकर फेमस हो जाओ रातो-रात और कला,साहित्य, फिल्म आदि की तरह ब्लॉग में विशेष योगदान के लिए राज्य सभा के लिए मनोनित भी हो जाओ औऱ जो बंदा सालों से दिल्ली में बैठकर इसी तोड़-जोड़ में लगा है वो क्या कच्चू छिलेगा। हो गया, आप यहां आए, लोगों से मिले-जुले, इतना बहुत है। बाकी बम्बै दिल्ली से ज्यादा से सेफ है, वहीं कुछ देखिए।
ब्लॉग लिखते-लिखते एक बार हमें भी गलतफहमी हो गयी थी कि मैं लेखक होने की प्रक्रिया से गुजर रहा हूं क्योंकि कमोवेश मैं भी तो सभ्यता समीक्षा ही कर रहा हूं।( मुक्तिबोध की कविता,लेखन को सभ्यता-समीक्षा कहा जाता है, उस हिसाब से सभ्यता समीक्षक हुए) । सो मैंने अपने एक साथी से, जो कि हिन्दी की लब्ध प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते रहते ,कहा- यार मैं भी कहीं छपना चाहता हूं, मास्टरी की नौकरी के इंटरव्यू में कुछ तो दिखाने लायक रहेगा। ब्लॉग देखकर तो नौकरी मिलने से रही, और फिर कौन देखेगा, लैपटॉप खोलकर। जब तक सेट करुंगा, तब तक सब साफ। साथी का जबाब था-
छपने को तो छप सकते हो लेकिन दिक्कत ये है कि जो संपादकजी हैं वो ब्लॉगरों से बहुत चिढ़ते हैं औऱ फिर तुमही सोचो न, इस तरह से लिखना भी कोई राइटिंग है।
मतलब साफ था कि मैं लेखक नहीं हूं। छपने का इरादा छोड़ दिया। लेकिन जब आशीष ने ब्लॉगर के पहले लेखक छापा तो अच्छा लगा और भविष्य के लिए उम्मीद भी जगी। अनिलजी चाहें तो अपने इस छोटे दोस्त के लेखक का दर्जा पाने पर साथ में खुश हो सकते हैं। वैसे दुविधा और शर्तें अब भी बाकी है।
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रेडियो डे है आज

Posted On 11:21 pm by विनीत कुमार | 4 comments

सुबह उठते ही खुराफाती नितिन ने बताया कि आज रेडियो डे है। चिपक के बैठिए क्योंकि आज हम आपको मिलवाएंगे, फादर ऑफ दि इंडियन रेडियो, अनीन सयानी से। नितिन बार-बार चिपक के बैठने की बात कर ही रहा था कि मैं कहीं और चला गया, कुछ और ही सोचने लगा और जब रहा नहीं गया तो ब्लॉग लिखने बैठ गया।
रेडियो के साथ मेरी यादें बडे ही अलग ढंग से जुड़ी है। मुझे याद है छुटपन में मैं हवामहल खूब सुना करता था और वो समय पापा के घर आने का होता था। अक्सर लाइट नहीं होती थी और दरवाजा खोलने जाने के लिए टार्च का होना जरुरी हो जाता था। लेकिन टार्च की बैटरी मैं रेडियो में डाले रहता।...पापा के जैसे-तैसे घर के अंदर पहुंचने के बाद वो सबसे पहले मेरे उपर से रेडियो का भूत उतारने का काम करते थे। अंधेरे में अक्सर चोट खा जाते। मार खाकर थोड़ा सुधरता कि इससे पहले ये समझने लगा कि पापा को इस तरह रेडियो सुनने से खुन्नस होती है तब तो हवामहल सुनने का काम डेली रुटीन में शामिल हो गया। हवामहल सुनने से ज्यादा मजा पापा के झल्लाते हुए देखने में आता था।
स्कूलिंग के बाद लम्बे समय तक घर से अलग और अकेले रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। घर से निकलते समय टार्च की दोनो बैटरी निकालकर रेडियो में डाल दिया। पापा जबरदस्त ढंग से सेंटी हो गए और रेडियो जिसे कि बाजा कहा करते थे, मुझे दे दिया। अकलेपन में रेडियो को गर्लफ्रैंड का दर्जा दिया और ग्रेजुएशन तक गले लगाए रखा।
एम.ए. करने जब दिल्ली आया तो बाकायदा एक पेपर रेडियो पर ही पढ़ना था। लेकिन थोड़ा बोरिंग था, कुछ-कुछ इतिहास और फिजिक्स जैसा, जिसमें कि शुरु से ही अपने हाथ तंग थे। इतने डेट्स याद करने होते कि कब कहां और किसके सौजन्य से रेडियो स्टेशन स्थापित किए गए। तब सिलेबस तैयार करने वालों को खूब गरियाता कि स्साले ये सिलेबेस ऐसे डिजाइन करते हैं कि बढिया से बढिया टॉपिक का नरक कर देते हैं, पढ़ने की इच्छा मर जाती है। ऐसा लगता कि गर्लफ्रैंड से बतियाने के पहले उसके गांव की भौगोलिक स्थिति के बारे मे जानने की शर्त रख दी गयी हो। अपने शाप से एक-दो मास्टर अब रिटायर भी हो गए।
एम.फिल. रिसर्च का टॉपिक एफ.एम. चैनलों पर ही ले लिया। सारा झंझंट ही खत्म। टॉपिक पास होने के पहले एक छोटा-सा इंटरव्यू भी हुआ। टॉपिक सुनकर सारे लोग ठहाके लगाने लगे। मैं थोड़ा रुआंसा हो गया लेकिन बाद में मीडियावाली मैडम ने सब संभाल लिया। गाइड से मिलता अक्सर पूछते- क्यों भइया रेडियो तो सुन रहे हो, सुनते हो न। मैं हांजी, हांजी करके मुस्करा देता। बाद में मामला यहां भी थोड़ा भारी पड़ गया। सरजी ने कहा, ऐसा करो दो-तीन बार सारे एफ.एम.चैनलों को लगातार चौबीस घंटे तक सुनो, देखो कैसा लगता है। शुरु में तो रात के दो बजे तक बहुत नींद आती और इस चक्कर में रिकार्डर की चोरी हो गयी। डूसू इसेक्शन का समय था और कोई भी टीवी रुम में आ जाया करता। खैर, रातभर जूस और पानी पीकर रेडियो सुनता। अब कोई हजार रुपये दे तो ये न हो सकेगा। लेकिन याद करता हूं तो बहुत मजा आता है सबकुछ सोचकर। सारे एड और जॉकिज के पेट वर्ड याद हो गए थे, हमेश मौज में रहता।
बार-बार आकाशवाणी भवन भी जाता, कुछ लिटरेचर जुटाने। एक झाजी ने बड़ी मदद की थी उस समय, अपनी तरफ का बोलकर। थीसिस लेकर जब उन्हें दिखाने गया तो उन्होंने पूछा था कि आपको कैसा लगा यहां आकर। मैंने कहा था माफ कीजिए, यहां आकर लगता है कि मैं झारखंड के कोयला विभाग में आ गया हूं, जहां ट्रक पर माल लोड होने और बाबूओं की कंटीजेंसी का बिल बनाने का काम होता है। यहां कभी नहीं लगता कि मैं रेडियो स्टेशन आया हूं। उसके बाद उनके पास जाना नहीं हुआ।
इस बीच मेरे एक दोस्त ने जेएनयू के एक मास्टर साहब से मेरा परिचय कराया। मास्टर साहब ने गाइड सहित मेरा टॉपिक पूछा और कहा कि अच्छा है अब बाजा पर भी काम शुरु हो गया है। झारखंड में तो ये बात फैल गयी थी कि फलां बाबू का लड़का भडुआगिरी पर रिसर्च कर रहा है।
थीसिस पर इंटरव्यू लेने आए थे अपने हास्य कवि अशोक चक्रधर। पूछने पर वो सबकुछ बताया जो मैं बताना चाहता था। अंत में उन्होंने कहा कि कुछ मजेवाली बात सुनाओ और तब मैंने कई विज्ञापन सुनाए और अंत में थोड़ा कैजुअल होने पर बताया-
सरजी, रेडियो सुननेवाले ऑल्वेज खुश
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बाजा में भी भोटिंग बिरजू

Posted On 4:15 am by विनीत कुमार | 0 comments

मौज में था,शोरुम से निकलते हुए कमोवेश चिल्लानेवाले अंदाज में बोलने लगा- हमसे जो टकराएगा
म्यूजिक में मिल जाएगा....
और इसी को बार-बार दोहरा रहा था। तभी बाहर शोरुम की निगरानी करनेवाले गार्डसाहब ने पूछा,भइया दिल्ली में कौनो इलेक्सन हो रहा है जो आप ऐसे चिल्ला रहे हैं, अंदर मालिक ने चंदा देने से मना कर दिया का। मैंने कहा, नहीं भइया ऐसी कोई बात नहीं है। तो फिर जब इलेक्सन गुजरात में है तो माफ कीजिएगा बाबूजी छोटी मुंह बड़ी बात, लेकिन आप दिल्ली में काहे चिल्ला रहे हैं। बंदे का कहना एकदम सही था।
मैं भी यही सब सोच रहा था जब इधर फिर से एफ.एम. रेडियो सुनना शुरु किया तो। रिसर्च के दौरान खूब सुना करता था लेकिन अब सुनने से ज्यादा काम देखने का हो गया तो छूट गया था। इस डेढ़ साल में काफी कुछ बदल गया है एफ.एम. और कई जॉकिज इधर-उधर चले गए। कई नए चैनल्स भी आए। मैं जो चिल्ला रहा था हमसे जो टकराएगा, म्यूजिक में मिल जाएगा, एक नए चैनल से ही सीखा।
फीवर 104 एक नया चैनल है जिसमें आजकल म्यूजिक इलेक्शन चल रहा है, जहां आप कोई गाना पसंद कीजिए और उस पर दिल्ली की जनता यानि ऑडिएंस से वोट मांगिए औऱ ज्यादा वोट मांगने पर आपको ढेरों इनाम मिलेंगे।...तो बोलिए--
हमसे जो टकराएगा, म्यूजिक में मिल जाएगा।
जीतेगा भाई जीतेगा, अपना म्यूजिक जीतेगा।
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, इसाई
म्यूजिक है सबका भाई।
म्यूजिक इलेक्शन जिंदाबाद
जिंदाबाद, जिंदाबाद।।।
जॉकिज आपको एहसास कराता या कराती है कि आपने सारेगम में वोट दिया क्या मिला, व्ऑइस ऑफ इंडिया में वोट किया क्या मिला। मतलब सोमेधा और ऑनिक को वोट देकर अपना कटाए ही तो। कल को चैनल ये भी कह सकता है कि गुजरात और दिल्ली के लिए वोटिंग करके आपको क्या मिल गया। यहां वोट कीजिए, यहां आपको मिलेंगे ढेरों इनाम।
ये मौका वाकई में देश के उन बुद्धिजीवियों और मिडिल क्लास के लिए है जो वोटिंग तो खून-खराबे और भगदड़ मचने की डर से नहीं जाते और सरकार बनने के बाद सबसे ज्यादा ऑथेंटिक रुप से बात करते हैं। नेताओं के लिहाज से ये फालतू जनता है, बकवास है, कचरा है, आप इससे वोट नहीं उगाह सकते। पढ़ने-लिखने और बहस करनेवालों के लिए भले ही ये मतलब के आदमी हैं लेकिन हमारे लिए खर-पतवार हैं।नेताओं के लिए ये रिजेक्चेड माल हैं।
अब देखिए मनोरंजन की दुनिया में अगर भारी पूंजी शामिल हो जाए जिसे कि एडोर्नो ने कल्चर इंडस्ट्री कहा है तो समाज की सारी रिजेक्टेड चीजें काम में आ जाएंगी। जैसे यहां नेताओं के रिजेक्टेड लोगों को काम में लाने का काम फीवर 104 कर रहा है।
इस तरह के सारे चैनल इस क्लास को ढांढस देते हैं कि तुम चिंता किस बात की कर रहे हो, नेता भले ही न माने तुम्हें वोटर, तुम्हें बिना खून-खराबे की वोटिंग करने का शौक है न, हम देते हैं तुम्हें मौका। बस उठाओ अपना मोबाइल और टाइप कर दो हमारे बताए नंबर पर। पैसे की ताकत जब तुम्हारे पास है तो कौन सा मजा और शौक अधूरा रह जाएगा भाई।
और देखिए कि राजनीति के लिए वोटिंग के बरक्स कैसे पूरी मनोरंजन की दुनिया में वोटिंग कल्चर स्टैबलिश हो गया है। तो इसे कहते हैं पूंजी की ताकत और कल्चर का इंडस्ट्री में बदल जाना, जहां सारी चीजें शॉफ्ट होगी, किसी चीज के लिए मार-काट नहीं होगी और जिस सिस्टम में आप फिलहाल जी रहे हो उसमें धीरे-धीरे मितली आनी शुरु हो जाएगी। इसलिए सिस्टम को गरियाने का विकल्प चारो तरफ है, बस एक नजर दौड़ाकर लपकने भर की देरी है।
लेकिन संतों यहां गच्चा खाने का काम नहीं है, म्यूजिक पर बात करके जितना इनोसेंट ये सब कुछ लगता है, क्या मामला ऐसा ही है या फिर नंदीग्राम से तसलीमा पर ला पटकने का खेल यहां भी जारी है।
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रजाई बनाम उत्तर-आधुनिक

Posted On 4:00 am by विनीत कुमार | 8 comments

हिन्दी समाज बड़ी तेजी से उत्तर-आधुनिक हो रहा है। दिल्ली में तो इसकी वजह समझ में आती है लेकिन कोई बंदा पुणे में बिना कोई प्लानिंग के उत्तर-आधुनिक हो जाए तो थोड़ी हैरत तो जरुर होगी भाई।
ये आठ के ठाठ है बंधु में मैंने बताया था कि दिल्ली में आए पांच साल हो गए और अभी तक मैंने स्वेटर नहीं खरीदे और ये भी कहा था कि मैं आपसे मांग नहीं रहा लेकिन परसों जो मेरे साथ कांड हुआ है अब मैं मना नहीं करुंगा। पिछली बार पोस्ट लिखने के बाद ही कईयों के मेल आए और फोन किया कि दिल्ली में ठंड़ बहुत अधिक पड़ती है बचके रहना। मेरी एक दोस्त ने राय दी कि स्वेटर खरीद लो भाई और मैं भी मन बना चुका था कि खरीद ही लूंगा लेकिन नसीब कुछ और ही बयान करती है।
परसों एक भाई साहब खोजते-खोजते आए और पूछा कि आप ही विनीत हैं, मैंने कहा- हां भाई क्या बात है। उन्होंने बताया कि मैं बाकुड़ा( पश्चिम बंगाल) से आया हूं। पता चला है कि आपके पास मेरे दोस्त की रजाई है, तीन साल पहले आपके पास छोड़ गया था, उसने कहा है कि आप मुझे दे दीजिए। आप फोन पर बात कर सकते हैं।
मैं फ्लैशबैक में चला गया। तीन साल पहले एक दोस्त ने रजाई खरीदी थी लेकिन दिल्ली में बीस दिन से ज्यादा नहीं टिक पाया था। जाते समय उसने कहा कि रख लीजिए कोई लेगा तो दे दीजिएगा। मैंने तब साफ कर दिया था कि भाई हमसे कोई भी लेगा तो बात दोस्ती-यारी की हो जाएगी, कोई पैसा नहीं देगा। फिर भी उसने रजाई छोड़ दी। इस बीच मैंने अपनी पुरानी रजाई मेस में काम करनेवाले साथियों को दे दी तब मैं मेस सेक्रेटरी था। सोचा ये भी याद करेंगे। और दोस्त की नई रजाई इस्तेमाल करने लगा। आज वही रजाई मुझे लौटानी थी।
मैंने कहा,यार तुम दूसरी रजाई ले लो, इस ठंड़ में मैं कहां मरुं और इसके नाप से रजाई के कवर भी सिलवा लिए हैं। बंदे का जबाब था रजाई तो देनी ही होगी सर, पुणे में ही मैंने इस रजाई के 250 रुपये दे दिए हैं। मैं समझ गया जमाना लद गया है, सचमुच कम से कम जीने के स्तर पर हिन्दी में कोई अब निराला पैदा नहीं होगा, हां पोस्ट-मॉर्डनिस्टों की तादाद भले ही बढ़ती रहे।
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हम दर्शक दो कौड़ी के

Posted On 11:40 am by विनीत कुमार | 4 comments

हमारे एक कवि लिख गए कि-
जहां लिखा है प्यार
वहां लिख दो सड़क
फर्क नहीं पड़ता है
हमारे देश का मुहावरा है
फर्क नहीं पड़ता है...
कवि ने ये बात देश की स्थिति और मानसिकता को लेकर कही है, लेकिन हम इसे मीडिया के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
कल जी स्पोर्ट्स ने दर्शकों को खूब मामू बनाया। बंदे गए थे आइसीएल का मैच देखने और वहां करीब बीस मिनट करीना का नाच दिखा दिया। माने, आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास। ये तो शुक्र मनाइए कि पब्लिक को मजा आया क्योंकि नाच हुआ था, अब कल को मैच के बीच में बापूजी का प्रवचन घुसेड दे कि भारत और पाकिस्तान के बीच हो रहे मैच को देखने के लिए कैसे संयम बरता जाए तो जनता बिदक सकती है और टिकट के पैसे भी मांग सकती है। एकदम नयी बात कर दी जी स्पोर्ट्स ने। और उसका नतीजा देखिए-
स्टार प्लस ने स्कोर को पट्टी पर चलाया और क्रिकेटर के शॉट्स की जगह करीना का मौजा-मौजा दिखाता रहा। और स्लग चलाया- मसालेदार क्रिकेट। क्रिकेट में सिने का पोलिएशन हो गया।
आज आप देखेंगे कि खबरों में पॉलिएशन का काम तेजी से हो रहा है। इंडिया 20-20 जीतती है तो शाहरुख के फोनो लिए जाते हैं, एक्सपर्ट कमेंट्स के तौर पर और फिर मामला खिसककर उनके पर्सनल मैटर और बेटे पर आ जाता है। हम फूद्दू ऑडिएंस को पता भी नहीं चल पाता कि कब क्रिकेट खिसककर बॉलीबुड पर चला गया। यही हाल बीसीसीआई के मामले में होता है। बात होत-होते खेल की पॉलिटिक्स के पाले में चला जाती है। विज्ञापनों में तो ये बात समझ में आती है कि जो लेडिस कभी कपड़े नहीं धोती वो मिराज साबुन बेच रही है लेकिन ये काम अब खबरों में भी तेजी से शुरु हो गया है। खबरें फ्री प्ले होकर घूमती है, अब आप इसे खेल की खबर समझे, राजनीति की या फिर वॉलीवुड की ये सब आपकी समझ पर है। लेकिन इससे दो-तीन बाते बहुत साफ हो जाती है-
एक तो ऐसा होने से खबरों की विश्वसनीयता घटती है, अब हर जगह मनोरंजन बोलकर कुछ भी नहीं पेला जा रहा है। चैनलवाले आप ऑडिएंस की आदत खराब कर रहे हैं। आप खतरनाक काम कर रहे हैं।
एक स्तर पर आप हार चुके हैं,आप होम वर्क नहीं करना चाहते खबरों के उपर इसलिए सबकुछ को सॉफ्ट स्टोरी के नाम पर चला देते हैं। ऐसा करने से ऑडिएंस का डिविएशन होता है। उन चैनलों पर तो और भी हैरत होती है जिनके पास लाइसेंस तो है खबरिया चैनल की लेकिन होड़ लगा रहे हैं मनोरंजन प्रधान चैनलों से। एक ही रट लगाए जाते हैं कि जनता यही सब देखना चाहती है, तो भइया जनता तो ये भी देखना चाहती है प्रकाश सिंह जैसे पत्रकारों का क्या हुआ, हमारे गांव में बिजली कब आएगी। है माद्दा दिखाने की ये सब। यहां तो चुप मार जाओगे।
रोज दिखा रहे हो किलर बस का कहर। कभी रिसर्च किया ड्राइवरों की जिंदगी पर, क्या है उनके जीने का हिसाब-किताब। तो ले-देकर वही क्रिकेट, क्राइम,सिनेमा और सिलेब्रेटी है और उसी को दिनभर फेंटते रहो और हम फूद्दू जनता देश की बड़ी खबर समझकर पचाते रहेंगे और फेंटने से जो झाग पैदा होगा उसे यूपीएससी के इंटरव्यू के लिए बचाकर रखेंगे।
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