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अंग्रेजी प्रकाशकों की नकलचेपी करते नए-नए फैशनेबुल हुए हिन्दी प्रकाशक लोकार्पण( बुक रिलीज) पर जितने पैसे खर्च कर रहे हैं, संजनाजी की पूरी दूकान में उस लोकार्पण में हाईटी पर खर्च किए जानेवाली रकम जितनी भी पूंजी नहीं लगी होगी..न तो उन्हें आक्सफोर्ड बुक सेंटर या इंडिया हैबिटेट, इंडिया इंटरनेशनल की सुरक्षा मिली है..इनकी न तो एफबी पर पेज है और न ही बाकी प्रकाशकों की तरह लाइक-कमेंट में अपना बाजार देख पाती हैं. जो है, सब धरातल पर, कुछ भी वर्चुअल नहीं.
आए दिन मंडी हाउस में कमाई का जरिया ढूंढती पुलिस और मंडराते ठेकेदारों के निशाने पर होती हैं. उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि एक पेड़ के नीचे चंद फैली किताबें, स्कूटी पर टंगा थैला, सीट पर फैली बिल-बुक, कैल्कुलेटर भर से दूकान की शक्ल लेती ये जगह छिनी जा सकती है, उनकी इस दूकान को तहस-नहस किया जा सकता है. लेकिन
संजनाजी( संजना तिवारी ) जिस आत्मीयता से अपने पाठक-ग्राहकों से बात करती हैं, आवाज में जितनी स्थिरता और यकीं है, वो न बड़े-बड़े प्रकाशकों के मालिक, उनकी सेल्स टीम और न ही लेखकों को फ्लाईओवर सपने दिखाते डिलिंग एजेंट में कभी दिखाई दिए. संजनाजी की हिन्दी और उनकी भाषा अगर आप और हम जैसे लोग जो इसकी कमाई खाते हैं, पूरा कारोबार इसी हिन्दी पर टिका है, शर्म से सिर झुका लेंगे. दस मिनट बातचीत कर लेंगे तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि हम हिन्दी के लोग जिन क्षेत्रीय भाषाओं को बचाने और हिन्दी का झंड़ा बुलंद करने की ऐंठन में रहते हैं, उसी अकड़ के बीच से हम भाषा के स्तर पर कितने तंग हो गए हैं.
हमने संजनाजी की शॉप पर करीब बीस मिनट बिताए जिनसे से दस मिनट उनकी बातें गौर से सुनता रहा. मैं उन्हें पिछले चौदह सालों से जानता हूं..सो कई पुरानी बातें भी जानना चाह रहा था. इस दस मिनट में उन्होंने जितनी बातें की, मैंने नोट किया कि कम से कम पच्चीस ऐसे शब्द हैं जिसका इस्तेमाल मैंने पिछले पांच-छह सालों से किया ही नहीं. जिनमे दस-बारह तो ऐसे हैं जिन्हें कि एक से एक हिन्दी सेमिनारों और पुस्तक परिचर्चा तक में नहीं सुना. हिन्दी बोलते-बरतते, उसी से रोटी-पानी का जुगाड़ करते हुए हम उससे कितने दूर होते चले गए हैं. इतना दूर कि जब वो बोल रहीं थी तो लग रहा था सामने नित्यानंद तिवारी की क्लास का छात्र खड़ा हो. इतनी सधी हुई आवाज में हिन्दी के शब्दों का उच्चारण, ठहरकर उसका चयन अच्छे से अच्छे हिन्दी के शिक्षकों में दिखाई नहीं देता. बात-बात में शमशेर की कविता की पंक्तियां, आषाढ़ का एक दिन के दृश्य की चर्चा..
संजनाजी सिर्फ किताबें बेचती नहीं हैं. उन किताबों में छपे शब्दों, छिपे भावों को जीती हैं. यकीन न हो तो आप जाकर कोई भी किताब उठाकर उसके बारे में पूछिएगा. उस किताब का हिन्दी साहित्य में महत्व और उसके लिखे जाने की प्रासंगिकता पर जिस गंभीरता से बात करेंगी, आपको सहज अंदाजा लग जाएगा कि आप आलोचना के नाम पर फर्जीवाडे और प्रायोजित दुनिया से निकलकर एक ऐसी जगह पर आ पहुंचे हैं जहां किताब के बारे में प्रकाशक को खुश करने या बिक्री बढ़ाने के लिए कोई उसके बारे में नहीं कह रहा है बल्कि रचनाकार की रचना की उस जमीन तक पहुंचाने के लिए कह रहा जिसकी जिम्मेदारी उस हर शख्स को है, जिसके हाथ से वो पाठ, वो रचना गुजरती है.
संजनाजी किताबों को पाठकों के हाथ में थमाते हुए उसके प्रति गहरी संवेदना और लगाव भी सौंपने का काम कर रही हैं. वो उस किताब के बारे में इतना कुछ बता देती हैं कि यदि आप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र नहीं है जिसे कि सिलेबस की मांग के तहत खरीदनी ही हैं तो आप मन भी बदल सकता है कि रहने देते हैं जब मूल बातें जान ही लीं..ये भी संभव है कि उन्हें सुनने के बाद सिर्फ अपने लिए नहीं, अपने उन तमाम नजदीकी लोगों के लिए एक प्रति खरीदना चाहें जिनका साहित्य के प्रति थोड़ा भी लगाव है.
संजनाजी के साथ और उनकी इस दूकान के आसपास जितनी देर तक रहा, एक मिनट खाली बैठा नहीं देखा..हमसे भी वो एक तरफ बात करती जा रही थीं तो दूसरी तरफ मेरे दोस्त की खरीदी किताबों के लिए बिल बना रहीं थीं. एक के बाद एक पाठक-ग्राहक उनके पास आते रहे.
आज से चौदह साल पहले जब उनसे श्रीराम सेंटर की बुक शॉप पर पहली मुलाकात से लेकर ज्ञानपीठ प्रकाशन, दरियागंज की मुलाकात, इतनी सारे संदर्भ और मुद्दे थे कि दो घंटे भी बैठ जाता तो बातें खत्म नहीं होती..लेकिन लगातार आ रहे लोगों को देखकर खुद ही थोड़ा बुरा लग रहा था कि ये इनके काम का समय है...शाम को ही ज्यादा लोग आते हैं तो विदा लिया.
पूंजी की कमी और पुलिस के डर से इस अस्थायी दूकान में संजनाजी बहुत ज्यादा किताबें नहीं रखतीं..ज्यादातर वो किताबें जिन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के लोग बतौर पाठ्य पुस्तक या अपने मतलब के लिए जरुरी मानते हैं..लेकिन संजनाजी किताबें खरीदने लगभग रोज दरियागंज जाती हैं. उनके पाठक-ग्राहक उनसे फोन पर किताब का नाम लिखवा देते हैं और वो उन्हें अगले दिन उपलब्ध करा देतीं हैं.
...अच्छा संजनाजी, अभी आपके काम का समय है. किसी दिन दोपहर के वक्त आता हूं जब कम लोग होंगे..मेरी भी एक किताब आनेवाली है, लप्रेक की..लेकर आउंगा छपने पर..अच्छा वो जो रवीश की इश्क में शहर होना है, आयी है, उसी श्रृंखला में ? हां, ठीक है. वैसे मैंने आपकी मंडी में मीडिया भी रखी थी..जरूर आइएगा.
आप जो मुझसे और बाकी लोगों से किताब कहां मिलेगी की बात इनबॉक्स किया करते हैं न, मैं आपको इनबॉक्स में इनका नंबर दूंगा, आप अपनी जरुरत की किताबें इनसे खरदीएगा..आपको किताब के अलावा भी बहुत कुछ पढ़ने-समझने को मिलेगा.
चलते-चलते मैंने संजनाजी की इस अस्थायी दूकान की तरफ एक बार फिर से नजर डाली. स्कूटी की हैंडल में टंगा उनका बैग औरसीट पर बिल बुक और कैल्कुलेटर.. बार-बार एक भी चीज कचोट रही थी- दिनभर में उन्हें कितनी बार बैग हटाकर दूसरी स्कूटी या बाईक की हैंडल में टांगना पड़ता होगा और कितनी बार सीट से ये चीजें उठानी पड़ती होगी..दिल्ली की कितनी स्कूटी-बाईक थोड़े वक्त के लिए संजनाजी के लिए कैश काउंटर बनती होंगी. 
‪#‎दरबदरदिल्ली‬
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स्त्री छवि की पुश-बैक

Posted On 10:40 am by विनीत कुमार | 1 comments

"यू ऑर श्यो अबाउट दिस ? आय एम श्यो अबाउट अस एंड आइ डोन्ट वॉन्ट टू हाइड एनिथिंग मोर"…
ऑनलाइन शॉपिंग वेंचर मिन्त्रा डॉट कॉम ने बोल्ड इज बियूटिफुल के तहत लेसबियन पर आधारित देश का पहला विज्ञापन जारी किया तो देखते ही देखते सोशल मीडिया पर ये वीडियो वायरल हो गई. ये स्वाभाविक ही था क्योंकि एक तरफ दुनियाभर में समलैंगिकता को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण से बहस चल रही हो और भारत जैसे देश में बहस का आधार नैतिकता और संस्कृति रही हो वहां ये विज्ञापन इस संबंध को बेहद स्वाभाविक और साहसिक तरीके से डिफेंड करता है. लिहाजा, एक-एक करके इस पर देश के प्रमुख समाचारपत्रों, वेबसाइट ने फीचर प्रकाशित किए.

इस विज्ञापन में घर से बाहर रहनेवाली जिन दो स्त्री के आपसी रिश्ते को बेहद खुलेपन और सामाजिक रुप से स्वीकार करने की साहस तक दिखाया गया है, इस पर दूसरे कई एंगिल से बहस हो सकती है लेकिन दो अलग-अलग पृष्ठभूमि से आनेवाली स्त्री के पारिवारिक पसंद-नापसंद को ध्यान में रखकर संतुलन बनाने की जो कोशिशें दिखाई जाती हैं, वो बेहद दिलचस्प है. आपको पूरे प्रसंग में चेतन भगत के लिखे उपन्यास और उस पर बनी फिल्म टू स्टेट्स का ध्यान हो आएगा.. विज्ञापन में अपनी मेट की इच्छा और पसंद पर शॉर्ट हेयर कट रखनेवाली महिला उसकी मां के आगे उसी की तरह दिखने की कोशिश में उसका कुर्ता  पहनती है, उनके लिए कॉफी बनाने की बात करती है..

लेकिन हर मोर्चे पर उनके नापसंद किए जाने की संभावना के बाद निराश हो जाती है..और यही वो बिन्दु है जहां माता-पिता के इन चीजों के पसंद-नापसंद किए जाने की संभावना के बीच इस समलैंगिक रिश्ते, बोल्ड इज बियूटिफुल और तब मिन्त्रा डॉट कॉम की प्लेसिंग की जाती है..यानी महिलाओं की ऐसी दुनिया जो फैशन के स्तर पर चुनाव करते वक्त भले ही अपने या अपनी मेट के माता-पिता की पसंद का ख्याल करती हो लेकिन जिंदगी के फैसले लेते वक्त  खुद की और एक-दूसरे को अंतिम सत्य मानती हैं. यहां आकर मिन्त्रा के प्रोडक्ट से ज्यादा उसे इस्तेमाल करनेवाले चरित्र यूनिक दिखाए जाते हैं. इस विश्वास के साथ कि यदि दर्शक ने इस छवि को अपना लिया तो प्रोडक्ट उसके पीछे-पीछे अपने आप चले आएंगे. 

गौर करें तो समलैंगिकता के इस सवाल से थोड़ा हटकर पिछले साल के कुछ उन विज्ञापनों पर गौर करें तो दूरदर्शन के आदिम विज्ञापनों ने आधुनिक स्त्री, कुशल और स्मार्ट पत्नी-बहू और मां की जो छवि स्थिर कर दिए थे, उन्हें ध्वस्त करते नजर आते हैं. दूरदर्शन पर सालों से प्रसारित विज्ञापनों में वो स्त्री आधुनिक और कुशल है जो पति की शर्ट की कॉलर पर घिसनेवाली टिकिया में अठन्नी-सिक्के बचा लेती है, छुन्नू-मुन्नू के धब्बे लगे कपड़े के दाग छुड़ाना जानती हैं, रोहन को ऐसे साबुन से नहलाती है कि कभी बीमार नहीं होता. ऐसी हेल्थड्रिंक देती हैं कि हमेशा टॉप करता है, गर्लचाइल्ड के लिए ऐसी सेनेटरी नैपकिन चुनती है कि वो दिनभर टेंशन फ्री रहती हैं..अादि-आदि.


इस हिसाब से देखें तो पिछले कुछ सालों से प्रसारित विज्ञापनों ने तथाकथित इन आधुनिक  लेकिन स्त्रियों को घर के कामकाज से मुक्त एक ऐसी दुनिया की ओर ले जाते हैं जहां वो चूल्हें-चौके, साफ-सफाई के काम से मुक्त है. वो पत्नी के पहले बॉस है और पति उसके मातहत काम करता है( संदर्भ एयरटेल), वो ऐसा जीवनसाथी चुनती है कि उसके साथ-साथ पिछली शादी से हुई पांच-छह साल की बेटी को भी अपना लेता है( तनिष्क जूलरी), वो आत्मविश्वास से इतनी लवरेज है कि एक दिन ऐसे मुकाम पर पहुंचेगा कि होनेवाला जीवनसाथी खुद चलकर आएगा( फेयर एंड लवली). ऐसे विज्ञापनों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जहां स्त्रियां खुलेपन और हैसियत के मामले में बहुत आगे जा चुकी है  जिसे सामाजिक स्तर पर हासिल करने में पता नहीं कितने साल लग जाएं.

दिलचस्प है कि ऐसे विज्ञापनों की जब खेप आती है तो विज्ञापन जिसे बाजार की चालबाजी कहकर नजरअंदाज किया जाता रहा है,  उसे खींचकर विमर्श की चौखट तक लाया जाता है. इन पर एक के बाद एक स्त्री विमर्श और सशक्तिकरण के फॉर्मूले फिट किए जाते हैं और इस सुकून के साथ निष्कर्ष तक पहुंचा जाता है कि ऐसे विज्ञापनों से आनेवाले समय में सामाजिक स्तर पर भी स्त्रियों की स्थिति मजबूत होगी. विज्ञापन में जो स्त्री छवि एक्सक्लूसिव है, वो असल जिंदगी में दिखने लगेगा और तब इसके तार स्वाभाविक रुप से लोकतंत्र के साथ जुड़ जाएंगे. लेकिन 


विज्ञापन में स्त्री छवि एकरेखीय और हमेशा आगे की तरफ नहीं बढ़ती. वो बार-बार पीछे की ओर लौटती है. इतना पीछे कि समलैंगिक संबंध को सहज माननेवाली स्त्री के बरक्स ऐसी स्त्री छवि शामिल की जाती है जो न केवल टिपिकल अरेंज मैरिज में यकीन रखती हैं बल्कि अपने ही जीवनसाथी के साथ उस संकोच के साथ पेश आती है जिससे भारतीय सिनेमा के दर्शक छोड़ न,कोई देख लेगा..क्या कर रहे हो, मां-बाबूजी आते ही होंगे जैसे संवादों और सुहागरात के बिस्तर से उतरकर धरती में समा जानेवाले शर्मीलेपन से बड़ी मुश्किल से मुक्त हुआ है.
कोका कोला की विदाई सीरिज विज्ञापन में आलिया भट्ट जो कि अपनी अब तक की सारी फिल्मों में बिंदास और खुलेपन के लिए टीनएजर्स के बीच पॉपुलर है, एक ऐसी ब्याहाता की छवि लिए शामिल है जो अपने पति के साथ तभी सहज हो पाती है जब वो उसकी पसंद-नापसंद जाहिर करने की बात करता है..और तब एयरटेल,तनिष्क,फेयर एंड लवली और अब मिन्त्रा ने विज्ञापन में स्त्री की जो छवि बनाई, उससे धड़ाम से गिरकर वहां पहुंचती है जहां "पिया वही जो कोक मन भाए" की जमीन तैयार है. अब आप कर लीजिए विज्ञापन के जरिए स्त्री की खुलती नई दुनिया की बात.
मूलतः प्रकाशित- लाइव इंडिया पत्रिका
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