अपने नाम से मिले एक खुले पत्र का जवाबः संदर्भ तरुण तेजपाल प्रकरण
Posted On 9:17 pm by विनीत कुमार | 3 comments
मीडियाखबर में "युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के नाम खुला पत्र, संदर्भ तरुण तेजपाल यौन उत्पीडन " शीर्षक से एक पोस्ट प्रकाशित हुई..समय की कमी के कारण सुबह से इस पोस्ट के वर्चुअल स्पेस पर खुले रहने के बावजूद अब जवाब देना हो पाया. जाहिर है, खुले पत्र का जवाब भी खुला है सो आप सब भी पढ़ें.
साथी अखिलेशजी,
मेरी पोस्ट पढ़ने और उस पर इतनी गंभीरता से अपनी बात रखने के लिए आपका बेहद शुक्रिया. मेरे नाम से खुला पत्र वर्चुअल स्पेस पर सुबह से ही खुला रखने के बावजूद इसे अभी पढ़ पाया. मोबाईल से छिटपुट एफबी कमेंट, लाइक के अलावे इसे दिन की व्यस्तता की वजह से नहीं पढ़ पाया. खैर,
मैं आपके इस पत्र का पंक्ति दर पंक्ति कितना जवाब दे पा रहा हूं, ये तो तय नहीं कर सकता. संभव है कुछ चीजें छूट जाए लेकिन दो-तीन प्रमुख आपकी असहमतियों और धारणा को लेकर जरुर अपनी बात रखना चाहूंगा.
पहली बात तो ये कि जिस तरह शोमा चौधरी ने इस पूरे प्रकरण को तहलका का अंदुरुनी मामला बताया क्या मेरे लिखे में यही बात दोहरायी गई है या फिर इसका मैंने कहीं समर्थन किया है ? अगर उनकी तरह हम भी इसी तरह मान रहे होते तो आपके सहित उन दर्जनों टिप्पणीकारों की बात का जवाब नहीं लिख रहे होते जो वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय हैं. मेरी तो छोड़िए, तहलका के लगभग आधे दर्जन लोग फेसबुक पर इस घटना के बाद भी स्वाभाविक रुप से सक्रिय हैं और मैंने उनकी टिप्पणी में भी कहीं नहीं देखा कि तरुण तेजपाल का बचाव, महिला पत्रकार के प्रति असहमति और इस पूरे मामले को अंदुरुनी बताकर चुप्प मार गए हैं. संभव है कि वो आप जैसे रेडिकल होकर अपनी बात नहीं कर रहे हैं जो आप खुद भी देख रहे हैं लेकिन बेशर्मी से तरुण तेजपाल का समर्थन और महिला पत्रकार से असहमत भी नहीं हो रहे हैं जैसा कि आमतौर पर होता रहा है. क्या इन दोनों स्थितियों के बीच सोच का कोई सिरा काम नहीं कर रहा...हम रेडिकल होकर सपाट होने की दशा में इस कदर बढ़ जाएं कि सर-दर बराबर करके ही बात करें. क्या इन पत्रकारों को इतना भी कन्सीडर नहीं किया जा सकता कि इन्होंने अपनी जमीर को ताक पर रखकर खुला समर्थन के बजाय तहलका( एक मीडिया संस्थान) और तरुण तेजपाल एक व्यक्ति बार-बार अलग करके देखने की लोगों से अपील की ?
अब रही बात मेरी..जिस शख्स की चर्चा करते हुए आपने इतनी बार युवा मीडिया विश्लेषक और तहलका का कॉलमनिस्ट का प्रयोग किया है कि पूरे पत्र में पूर्ण-विराम और कौमा लगाए जाने की संख्या इससे थोड़ी ही कम होगी. फिर भी, आपकी बातचीत से ये साफ निकलकर आया जैसा कि मेरे करीब डेढ़ दिन तक इस मामले में कुछ भी नहीं लिखे जाने के कारण कयास भी लगाए जाते रहे और इनबॉक्स और फोन के जरिए हम तक पहुंचे भी कि चूंकि मैं इस पत्रिका का कॉलमनिस्ट हूं इसलिए इस मामले में चुप हूं. मैं तो इस पत्रिका के लिए सास-बहू सीरियलों, एफ एम रेडियो और विज्ञापनों पर लिखता हूं जिसे कि पढ़े-लिखे समाज का अति गंभीर समाज सिरे से नकारता आया है..अब जिसके लिए ये माध्यम ही कूड़ा है तो भला लिखनेवाले को कितना गंभीर माना-समझा जाए ? जब इस तरह के संदेश और फोन मेरे पास आ रहे थे, उसी समय मेरे दिमाग में सवाल आया कि इस पत्रिका के लिए आनंद प्रधान जो कि खासतौर से न्यूज मीडिया पर ही लिखते हैं, उनकी चुप्पी जो कि अब तक बरकरार है, लोग किस तरह से ले रहे होंगे. मेरे साथ तो सास-बहू के कारण फिर भी थोड़ा फासला है लेकिन जो सीधे न्यूज मीडिया पर ही लिखता आया हो, उसकी तो आप और हालत खराब करने जा रहे हैं..लेकिन नहीं, शायद आप ऐसे लगातार होते रहे मुख्यधारा मीडिया के मसले पर उनकी चुप्पी को लेकर या तो आप( आप मतलब हमारी चुप्पी को लगातार नोटिस करनेवाले लोग) अभ्यस्त हो चुके हैं या फिर पहले से ही मान ले रहे हैं कि मेरी तरह उन्हें भी अपना कॉलम बचाना है तो पूछने का क्या लाभ, पहले से विदित ही है कि क्या प्रतिक्रिया देंगे..जिस तरह न्यूज चैनलों को लेकर आप मान चुके हैं कि एबीपी, जी न्यूज, इंडिया न्यूज,न्यूज 24 तो पहले से ही गंध मचाता आया है, इस पर सरोकार की बात करने का क्या मतलब है ?
तो ऐसी स्थिति में मेरी तरफ से दो ही चीज हो सकती है..सबसे पहले मैं सार्वजनिक रुप से ये घोषणा करुं कि चूंकि तहलका का पूरी तरह से नैतिक पतन हो चुका है इसलिए मैं इस पत्रिका की अपनी कॉलम लिखना बंद करता हूं..और दूसरा कि अब तक के लिखे पर पानी डालते हुए ये कहूं कि उस रात बेहद भावुक हो गया था और इस बीच कुछ रेडिकल माइंडसेट का मार्गदर्शन नहीं मिला तो गड़बड़ा गया. आप उसे भूल जाएं..मेरे इस कथन को सिर्फ याद रखें कि तरुण तेजपाल ने गुनाह किया है, वो जघन्य अपराध जिसके लिए माफी नहीं है, समाज में जगह नहीं है, उन्हें सलाखों के पीछे होना चाहिए. आपके हिसाब से मैंने ये दोनों बात करने में चूक रहा हूं जिसे स्पष्ट करना बेहद जरुरी है.
पहली बात तो ये कि मैं अपनी तरफ से तहलका में कॉलम नहीं लिखने का फैसला नहीं करने जा रहा हूं..इसके पीछे उन थोड़े पैसे और शोहरत का लोभ नहीं है जो इस उठापटक जिंदगी में वक्त-वेवक्त काम आते हैं. इसकी वजह अपने ही अनुभव हैं. मैंने तहलका के जिस पन्ने के लिए लिखना शुरु किया था, उसकी जगह और पत्रिका में उसकी हैसियत पहले से मालूम थी. चाट मसाला के ठीक बगल में. हम पहले से जानते थे कि लॉग्जरे, बिकनी पहनायी मैक्यून के बीच हमें सस्ता साहित्य मंडल या पीपीएच का स्टॉल लगाने नहीं कहा जा रहा है बल्कि इसी लॉग्जरे की फेडेड शेड में कुछ लिखने कहा जा रहा है और वो है टीवी शो पर टिप्पणी. मैं कहीं भी लिखते हुए उस मंच को ठीक-ठीक समझता हूं और फिर उस मिजाज के भीतर क्या बदला जा सकता है इस पर विचार करता हूं..तो मैं पहले से बहुत क्लियर था कि तहलका को जिस कारण जाना जाता है, मुझे इस पन्ने में ऐसा कुछ भी करने का मौका नहीं मिलने जा रहा है. हां ये जरुर है कि धीरे-धीरे इस पन्ने को इस तरह हम करेंगे कि वो इस पत्रिका के मिजाज के आसपास की चीज लगेगी. अगर ऐसा नहीं था तो कायदे से मुझे पहले ही कॉलम लिखने के बाद आगे न लिखने का फैसला ले लेना चाहिए था क्योंकि हम चाट मसाला के ठीक बाजू में टीवी शो के ठिए लगाने बैठ गए थे..हां ये जरुर है कि मैंने टीवी पर, एफ एम पर और विज्ञापनों पर लिखते हुए बाकी से अलग लिखने-सोचने की कोशिश जरुर की बल्कि इन विषयों पर तो बाकी जगह कॉलम है भी नहीं, अंग्रेजी सहित एफएम और विज्ञापनों पर तो बिल्कुल भी नहीं.
मेरे लिए ये बेहद आसान रास्ता था कि बीमारी, कॉलेज, व्यस्तता का बहाना बनाकर सिरे से गायब हो जाता या फिर बत्तख,शुतुरमुर्ग की तस्वीरें टांगकर आपसे लाइक-कमेंट की आशा रखता जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं है. एक से एक मीडिया दिग्गज जो उंटी से लेकर खूंटी( झारखंड) तक के मीडिया संगोष्ठियों में होते हैं, यही कला विकसित की है और मैं ऐसा नहीं कर रहा हूं और अलग से आपके सामने रेखांकित कर रहा हूं तो इसलिए नहीं कि मैं पराक्रमी और इनसे अलग हूं. सच कहूं तो लिखे बिना रहा ही नहीं जाता..कुछ दिन नहीं लिखता हूं तो लगता है जीवन में ऑक्सीजन की कमी हो गई है...लिखे बिना सच में मुझसे जिया नहीं जाएगा और वो भी बिना किसी डेडलाइन और चेकबख्शी के...ये मेरी कमजोरी है, शायद वक्त के साथ-साथ बाकी दिग्गजों की तरह दृढ़ हो जाउं. ऐसे में मुझे जो बेहतर स्थिति लगी वो ये कि मैं जो और जैसा महसूस करता हूं लिखता चलूं..तहलका को मेरी इस टिप्पणी से दिक्कत होगी और भविष्य में मेरी जरुरत नहीं होगी तो लिखना बंद कर दिया जाएगा.. कॉलम तो चुप रहकर भी बचाए जा सकते हैं.. खामखां पचड़े में पड़ने की क्या जरुरत है ?
अब रही तीसरी बात कि हम किसी न किसी तरह से अपने लिखे के जरिए बौद्धिक बचाव कर रहे हैं..अखिलेशजी, मेनस्ट्रीम मीडिया में तरुण तेजपाल की पुत्री की इस पूरे मामले में इस बात की चर्चा है कि उन्होंने अपने पिता के बजाय इस महिला पत्रकार का साथ दिया. कुछ राइटअप में इसके लिए तेजपाल परिवार की परवरिश को क्रेडिट भी दी गई..हालांकि मैं इस परवरिश से कहीं ज्यादा व्यक्तिगत स्तर के फैसले को ज्यादा मजबूती से रेखांकित करना चाहूंगा..क्योंकि मैंने खुद भी महसूस किया है कि जिस तरह की मेरी मां और पिता ने परवरिश की, हम उससे बेहद अलग और उलट हो गए. अच्छा हुए या खराब इस तरह स्याह-सफेद तो बता नहीं सकता फिर भी...लेकिन क्या वैचारिकी की दुनिया में मेरी परवरिश इतनी गई बीती है कि हम उस पत्रिका में अपना कॉलम बचाने के लिए गलत का पक्ष ले रहे हैं जहां के स्वयं पत्रकारों ने खुलकर इसका समर्थन नहीं किया..इसे तरुण तेजपाल की पुत्री से अलग करके रेखांकित करने की जरुरत है.
आपने तो फिर भी लिखकर असहमति जतायी है जिसका जवाब देते हुए मुझे बेहद संतोष हो रहा है, अच्छा लग रहा है लेकिन फोन पर विनीत, तुम ऐसा लिख सकते हो..तुम ऐसा सोचते हो..ये गिल्ट में ले जाने की जिद, इसका हम जैसे टिप्पणीकार क्या करेंगे ? क्या महिला पत्रकार के साथ खड़े होते हुए तहलका पत्रिका के बचे रहने की बात नहीं की जा सकती. आपने जिन आयोजकों और विज्ञापनदाताओं का नाम गिनाते हुए इसे बाकी की ही पत्रिका की तरह बताया है, उससे मुझे कोई असहमति नहीं है बल्कि मंडी में मीडिया की बात करते हुए इतनी बुनियादी समझ तो मेरी भी है कि हम जब तक किसी मीडिया संस्थान की रिवन्यू स्ट्रक्चर पर बात नहीं करते, उसकी पत्रकारिता पर बात करना, विश्लेषण का एक सिरा है, पूरा नहीं. लेकिन इन सबके बावजूद अगर तहलका सरोकारी पत्रकारिता नहीं कर रहा है, इसे आप कॉर्पोरेट गवर्नेंस ही मान लें और बाकी पत्रिकाओं की कार्पोरेट गवर्नेंस से तुलना करें तो कुछ अलग नहीं लगता..मैं इस पत्रिका को किसी भी हाल में उस सरोकारी मुल्लमे के साथ नहीं देख रहा हूं खासकर तब जब इसमे छपे विज्ञापन पर कंपनियों और संस्थानों के लोगो पठार की ही तरह दूर से नजर आते हैं..हमने न तो कल तक किसी मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा माना था और न ही अब मान रहे हैं..हम बस सीएसआर के स्तर पर तुलना कर रहे हैं..रेडिकल माइंड से सोचने पर जो कि सोचा भी जाना चाहिए तो ये सीएसआर का फंडा आपको वाहियात लगेगा लेकिन आनेवाले समय में बल्कि अभी से ही विश्लेषण का आधार यही होगा. खालिस सरोकारी पत्रकारिता के स्तर पर देखने से मार खा जाएंगे हम सब...हमे ये पत्रिका ये करते हुए भी बाकियों से अलग लगती रही है और इसलिए हमने इसकी बात कही और ऐसा कहने से तरुण तेजपाल के गुनाह किसी भी स्तर पर न तो कम होते हैं और न ही पिछले दिनों से जो चला आ रहा है, उससे तहलका की छवि की भरपाई हो सकेगी.
एक जरुरी बात और..अभी जबकि पूरा मेनस्ट्रीम मीडिया तरुण तेजपाल को लेकर केंन्द्रित है, मुझे दीपक चौरसिया, सायमा सहर, कमर वहीद नकवी, सुधीर चौधरी आदि से जुड़े मुद्दे को शामिल करने का क्या तुक है ? हमें इस पर गौर करने की क्या जरुरत है कि जो एन के सिंह सालों से बीइए जैसी शेषनाग की शैय्या पर बैठकर न्यूज चैनलों के पारिजात और चंदनवन जैसा सुराज होने की बात कहते रहे हैं, आज लाइव इंडिया जैसे उस दागदार चैनल में क्या बेहतर करने चले गए जिस पर उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन करने का मामला शामिल है और जिसमे शिक्षिका के कपड़े फड़वाने से लेकर जान ले-लेने के लिए चैनल ने माहौल बनाए थे. बिल्डर-रियल एस्टेट के मालिक के इस चैनल से ऐसा क्या सरोकार वो कर लेंगे जिसे मीडिया इतिहास याद रखेगा..लेकिन नहीं, ये सवाल भी आपके हिसाब से स्थगित किए जाने चाहिएं और फिलहाल सिर्फ और सिर्फ तरुण तेजपाल पर बात हो.
आप मेरे लिखे का मिलान मेनस्ट्रीम मीडिया पर चल रही खबरों की फोटोकॉपी से करेंगे तो अभी नहीं शुरु से असहजता महसूस होगी क्योंकि हमने पॉपुलर माध्यमों पर लिखते हुए भी उसके सवाल ठीक उसी तरह नहीं उठाए जिस तरह वो उठाता रहा है..हम अपने लिखे से किसी को क्यों स्टैंड आर्टिस्ट बनाने जाएं...ऐसे में सोने की खुदाई पर बेतहाशा कवरेज से लेकर आसाराम इंडिया न्यूज हो जाने पर कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए..हम तरुण तेजपाल के खिलाफ खड़े होकर मीडिया के उस धत्तकर्म से पूरी तरह अपने को भला कैसे काट सकते हैं जो वक्त-वेवक्त आपके-हमारे यकीन की डोज पिला जाता है. एक बड़ी आबादी है जो इन न्यूजों पर चल रही यौन उत्पीड़न की खबर को लेकर लहालोट हो सकता है लेकिन अगर आप इनकी पूरी भाषा ौर पैकेजिंग पर गौर करेंगे तो लगेगा कि ये बलात्कार से लेकर छेड़छाड़, स्त्री हिंसा की वर्कशॉप चला रहे हैं. बलात्कार की इन्होंने टेलीविजन के अपने संस्करण तैयार कर लिए है...ये काम मुझे अभी तक इस पत्रिका में नहीं दिखाई दे रहे.. मूड्स के विज्ञापन मिलने की एवज में जिस दिन ये पत्रिका इंडिया टुडे हो जाएगी, हम उस दिन बेहतर कार्पोरेट गवर्नेंस का भी दावा छोड़ देंगे.
हमने सायमा सहर से लेकर उमा खुराना जैसे मुद्दे इसलिए उठाए क्योंकि इस पर मेनस्ट्रीम मीडिया ने हमेशा से न केवल चुप्पी साध ली बल्कि इस मामले को पूरी तरह दबाया, कुचला.. हम लगातार लिखते रहे कि ये फर्जी स्टिंग ऑपरेशन करनेवाला प्रकाश सिंह दिनोंदिन और ताकतवर होता जा रहा है लेकिन वो होता रहा और उसी मीडिया में उसे स्वीकृति मिलती रही. उसी दागदार सुधीर चौधरी के समर्थन में जंतर-मंतर में कैंडिल मार्च निकले जिस पर कि सौ करोड़ रुपये की दलाली के आरोप लगे..किससे सवाल किया आपने, किसे रोका आपने. बीइए-एनबीए को ऐसी घुड़की दी कि चारों खाने चित्त और आज वो प्राइम टाइम का मसीहा बनकर दर्शकों के दिमाग पर काबिज होने की कोशिश में है. आत्महत्या के लिए उकसानेवाले मामले को दिल्ली से दो दिन के लिए मीडियाकर्मी जाते हैं औऱ मामले को रफा-दफा कर आते हैं, कोई बोलनेवाला नहीं. गोवाहाटी यौन उत्पीड़न मामले में वीडियो बनाने-उकसानेवाला रिपोर्टर सालभर के भीतर दोबारा उस चैनल में चला जाता है, कोई नोटिस लेनेवाला नहीं, जरा पूछिए तो सही दिबांग, आशुतोष और एन के सिंह से तो कि क्या किया आपने अपनी कमेटी का ?
अखिलेशजी, आज आप सबों को तरुण तेजपाल सिर्फ मुद्दा लग रहे हैं लेकिन मैं ऐसे तरुण तेजपाल के बनने की प्रक्रिया को अपनी बातचीत में शामिल करना चाहता हूं और माफ कीजिएगा आपको पढ़कर बुरा लगेगा कि हम इस प्रक्रिया और इसमे शामिल लोगों को भी अभी तक कुछ नहीं कर पा रहे. मैं ये बात हताशा में नहीं कह रहा हू बल्कि उस नंगे सच को रखकर कह रहा हूं जहां एक्सेप्टेंस बरकरार है. आप जिसे साख के खाक में मिल जाने की बात कर रहे हैं, कल अगर इसी तरुण तेजपाल की समाज में फिर से एक्सेप्टेंस बन जाती है तो साख बहुत पीछे छूट जाती है..ये काम अब पीआर एजेंसियां करने लगी है और ऐसा हमने हाल ही में जी न्यूज मामले में देखा है. लाइव इंडिया प्रकरण तो भूल ही चुके होंगे कई लोग...नया ज्ञानोदय के विभूति छिनाल प्रकरण को याद करते हैं तो यही एक्सेपटेंस इतना साफ है कि उस लेखिका को छिनाल कहे जानेवाले हंटर साहब के साथ मंच साझा करने में कोई आपत्ति नहीं लगी और रेडिकल माइंडसेट के कई लोग आहत हुए..हां ये जरुर है कि तो भी हमें व्यक्तिगत स्तर पर चीजों को ले जाकर फैसले ले जाने के बजाय सैद्धांतिक आधारों पर ही केंद्रित रहना चाहिए.
मैंने इन सबके बीच तहलका और तरुण तेजपाल को अलग से देखे जाने की बात इसलिए की क्योंकि इस मामले में कई चैनलों ने लगातार तहलका प्रकरण लिखकर स्टोरी चलायी..मामला एक व्यक्ति का था और है लेकिन पैकेज में तहलका की वो कवर स्टोरी के पन्ने उछाले गए जो यकीनन एक बेहतरीन पत्रकारिता अभ्यास का नमूना है. मुझे ये बात शिद्दत से महसूस हुई कि तरुण तेजपाल के बहाने इस पत्रिका के उस दौर को भी ब्लर किए जाने की कोशिशें की गईं जिसने मीडिया को नए सिरे से परिभाषित किया. हम व्यक्तिगत स्तर पर लिखनेवाले लोग हैं. हमारी साख और एक्सेपटेंस के बीच का फासला बहुत कम है..ऐसे में हम एक कॉलम बचाने के लिए, कुछ पैसे के लिए, शोहरत के लिए विश्लेषण शामिल नहीं कर सकते..आपकी असहमति अपनी जगह बिल्कुल जायज है लेकिन किसी की नियत पर इतना जल्दी सवाल उठाना......जब सारे फैसले इसी तरह से लिए जाएंगे तो लिखने-पढ़ने और ठहरकर सोचने की दुनिया का क्या मतलब रह जाएगा..
तरुण तेजपाल मामले में बाकी मामलों के मुकाबले आपको मेरा पक्ष मुलायम लगा, ऐसा स्वाभाविक ही है..कई बार तात्कालिकता की आंच में विचारना की लौ अलग से नजर नहीं आती.
आपका
विनीत
आपके लिए तहलका का मतलब सिर्फ तरुण तेजपाल है या रहा है इसलिए आप तरुण तेजपाल और तहलका को एक-दूसरे का पर्यायवाची मान रहे हैं. इसकी दो वजह हो सकती है..या तो आपने इधर कुछ सालों से इसे पढ़ना बंद कर दिया है या फिर आप इस पत्रिका को सिर्फ उनका लिखा पढ़ने के लिए खरीदते रहे हैं. हमारी पढ़ने की ट्रेनिंग कभी इतनी एक्सक्लूसिव नहीं रही. हम पत्रिका में लेख क्या शर्तिया इलाज और शर्माएं नहीं इलाज कराए..लिकोरिया,श्वेत प्रदर, धातु कमी के निदान के विज्ञापन भी पाठ सामग्री का हिस्सा मानकर पढ़ते हैं.
मेरे लिए तहलका का मतलब रेउती लाल, आशीष खेतान, अतुल चौरसिया, विकास बहुगुणा और बृजेश सिंह, विकास कुमार,प्रियंका दुबे और पूजा सिंह जैसे नए लोगों के लिए भी उतना ही है..और ये नाम मेरे लिए व्यक्ति भर नहीं है, पत्रकारिता के बुनियादी स्वर हैं. जिस दिन ये दीपक चौरसिया, दिलीप मंडल,प्रभु चावला हो जाएंगे..इन्हें भी पढ़ना छोड़ दूंगा..ये गर्व करनेवाले लोग नहीं, सोचने की दुनिया में हमारी जरुरत के लोग हैं. तरुण तेजपाल के विरोध और महिला पत्रकार के साथ होने की आड़ में "मुख्यधारा मीडिया के के जरुरी विकल्प" को लेकर इस तरह की गंध मत मचाइए. हमने आपको बहुत छोटे-छोटे मतलब के लिए मैनेज होते देखा है. आपको और समाज को इस तरुण तेजपाल की जरुरत नहीं है लेकिन तहलका की जरुरत फिर भी बनी रहेगी और कुछ नहीं तो उसने इतना काम तो जरुर किया है कि आप इसके न होने को एक कमी के रुप में महसूस कर सकेंगे. आप हमसे इस पूरे मामले में जितनी खुलकर बात रखने की उम्मीद रखते हैं, उतना ही खुलकर आप कह सकते हैं कि आपका काम सिर्फ इंडिया टुडे, बिंदिया, सरस सलिल से चल जाएगा..अगर चल जाएगा तब तो कोई बात नहीं लेकिन नहीं चलेगा तो पर्यायवाची शब्द गढ़ने बंद कीजिए और अपनी ठोस पहचान न बना पाने, मालिक के हाथों मजबूर होने और चाहकर भी जमीनी स्तर की पत्रकारिता न कर पाने की फ्रस्ट्रेशन को हम पर मत लादिए.. हम आपकी तरह चटखदार लेआउट नहीं बना सकते, फोटोशॉप की गहरी समझ नहीं है, कट पेस्ट और सेक्स सर्वे में पिछड़ जाएंगे लेकिन कम से कम सरोकार शब्द को परिभाषित करने के लिए आपकी एफबी दीवार झांकने की जरुरत कभी नहीं होगी.
देख रहा हूं टीवी स्क्रीन पर कि आप महिला पत्रकार के साथ होने के नाम पर अपनी कुंठा की पैकेज कैसे बना रहे हैं..इसी को टेलीविजन का सर्वेश्रेष्ठ रुप कहते हैं तो आपको कार्पोरेट के सारे अवार्ड मुबारक हों जिसके लिए आप लोलिआते फिरते हैं और अगर ऑनलाइन वोटिंग के जरिए पुरस्कार का प्रावधान हो तो हम जैसों को फोन कर-करके लाइक-कमेंट करने के लिए नाक में दम कर देते हैं...कुछ नहीं भी होगा तो हम मीडिया की किताब लिखकर छोटे-बड़े, छुटभैय्ये नेताओं के पास जाकर हाजिरी नहीं लगाएंगे कि अब तो हम इंटल हो गए कुछ राज्यसभा,थिंक टैंक, मीडिया सलाहकार की जुगाड़ लगा दें..और न लग पाए तो फिर उसी अन्डरवर्ल्ड के चाकर बन जाएं और कलेजा ठोककर कहें कि पैसा मालिक देता है तो उसकी सुनें या फिर आपकी सुनें. मुबारक को आपको ये सब. लेकिन भाई साहब, जब नेटवर्क 18 में सैंकड़ों मीडियाकर्मियों को रातोंरात सड़क पर ला दिया गया और उसी नोएडा फिल्म सिटी की आलीशान बिल्डिंग में आप अपने मीडियाकर्मियों को नौकरी का हवाला देकर विरोध में शामिल न होने के लिए हड़का रहे थे, तहलका के यही नए चेहरे सामने थे..आपने तो प्रतिरोध का स्वाभाविक स्वर भी मार दिया.. बात करते हैं.
आज आप तरुण तेजपाल से अपने चरित्र की तुलना करके जितनी मर्जी हो जश्न मनाएं लेकिन अपने संस्थान की पत्रिका, चैनल और अखबार को तहलका की बराबरी में रखकर खड़ी करने से पहले खुद के साथ-साथ इन्हें आइने के सामने जरुर रखना पड़ेगा..रही बात मेरी तो मैला आंचल के सारे पात्र वामनदास नहीं होते...और हां अगर थोड़ी भी सेंस बची हो और यादाश्त शक्ति दुरुस्त है तो समझिए कि ये महिला उसी तहलका की पत्रकार है जिसके लिखे की आप फोटोकॉपी कराकर पढ़ते आए हें, टेबल पर कटिंग काटकर रखते आए हैं..आपको अतिरिक्त और गैरजरुरी ढंग से उसका पिता,भाई बनकर सहानुभूति और घुटने में सिर गड़ाकर फुटेज चलाने की कोई जरुरत नहीं है.
आप दिनभर हमसे फोन, एसएमएस और एफबी इनबॉक्स के जरिए सवाल करते रहे कि तरुण तेजपाल को लेकर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ? आप कभी मुझे जी न्यूज, कभी एबीपी न्यूज तो कभी न्यूज 24 देखने की बात कहते रहे...आपकी आंखें न्यूज चैनलों पर टिकी थी तो भी हमसे पूछ रहे थे- ये तहलका का क्या मामला चल रहा है ?
मुझे नहीं पता कि ये सवाल आाप सिर्फ मुझसे कर रहे थे या फिर मुझ जैसे मेरे बाकी साथियों से भी जिनका कि इस पत्रिका से संबंध है. मैं पिछले ढाई-तीन सालों से इस पत्रिका के लिए पहले तो सिर्फ टेलीविजन पर लेकिन अब एफ एम रेडियो और विज्ञापन पर कॉलम लिखता आया हूं. सास-बहू सीरियलों और बुद्धिजीवियों द्वारा एफ एम को सतही चीज करार दिए जाते रहने के बावजूद मैंने एक-एक राइट अप के लिए इन माध्यमों को जिया है, छोटी-छोटी चीजों को लेकर लगातार मेहनत की है..पता नहीं, आप पढ़ते हुए ये सब महसूस कर पाते हैं या नहीं. खैर, आपके सवाल पूछे जाने के पीछे मुझे लगता है कि चूंकि मैं हर छोटे-छोटे सवालों और मामूली बातों को लेकर भी अपडेट करता रहता हूं तो आखिर इतनी बड़ी घटना जिसमे देश के लगभग सारे न्यूज चैनलों की प्राइम टाइम समा गई, क्यों चुप हूं..कहीं इसलिए तो नहीं कि ये सब मैं अपने कॉलम को आगे बचाए रखने के लिए कर रहा हूं..एक तरह से कहें तो इन सवालों के जरिए आप मेरी प्रतिबद्धता को जानना-समझना चाह रहे हैं जैसा कि आज से कोई चार साल पहले विभूति-छिनाल प्रकरण में नया ज्ञानोदय को लेकर मेरा पक्ष जानना चाह रहे थे..ये अलग बात है कि इसके बाद आपने किसी भी दूसरी साहित्यिक पत्रिका या मंच को लेकर मेरा पक्ष जानना नहीं चाहा. तब मैं नया ज्ञानोदय में तब मैं मीडिया कॉलम लिख रहा था.
सच कहूं तो दिनभर में मैं अकेले झीजता रहा, मुझे तहलका के अपने उन तमाम दोस्तों का बारी-बारी से चेहरा याद आता रहा जो एक से एक स्टोरी, पुरस्कार, सफलता,प्रोत्साहन की कहानी हम सब से साझा करते रहे. कैसा लग रहा होगा उन्हें, बार-बार यही ख्याल मन में आता..लगा किसी तरह इनसे मिलूं और सोचते-सोचते लगा अब बर्दाश्त नहीं होगा तो बहुत मनुहार करके दिल्ली के सबसे प्यारे दोस्त को बस एक दिन के लिए मेरे साथ रुक जाने को कहा. लगा आज अकेले रात नहीं कट पाएगी. ऐसा तब भी हुआ था जब 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में बरखा दत्त की नीरा राडिया से बातचीत के टेप जारी हुए थे.. ये तो तय है कि हम जब तक मीडिया आलोचना की दुनिया में सक्रिय हैं, हमारी प्रतिबद्धता बार-बार परखी जाएगी और सौ फीसद मरकर भी शायद साबित न हो पाए. लेकिन इन सबके बावजूद जब अपनी हैसियत और क्षमता से इसे बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हैं. ये अलग बात है कि हम भी तो उसी हाड-मांस के बने हैं जिससे आप बनकर सवाल की मुद्रा में सामने होते हैं.
कायदे से तो एक मीडिया आलोचक के लिए हर मीडियाकर्मी और संस्थान एक से होने चाहिए लेकिन मेरे लिए जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी का विज्ञापन के नाम पर दलाली करने में नाम आने और बरखा दत्त के नीरा राडिया के साथ की बातचीत के टेप जारी होना एक नहीं है. स्टार न्यूज( अब एबीपी) के अविनाश पांडे पर उसी चैनल की सायमा सहर द्वारा यौन उत्पीड़न का न केवल आरोप लगाने बल्कि उसके लिए लंबी लड़ाई लड़ने और किसी दूसरे चैनल में आए दिन ऐसे मामले को चलता कर देने का मामला एक नहीं है. ठीक उसी तरह तहलका के एडीटर इन चीफ तरुण तेजपाल पर आरोप/आत्मस्वीकृति किसी दूसरे संपादक पर लगनेवाले आरोपों जैसा नहीं है. जिन बाकी चैनलों और मीडिया संस्थानों में दलाली, कमिशन,यौन उत्पीड़न आदि के मामले होते आए हैं, उन सबने मीडिया के भीतर के स्थायी माहौल और छवि निर्मित करने जैसा काम किया है लेकिन बरखा दत्त, तरुण तेजपाल, नविका कुमार..ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनके कटघरे में आने से हमारे भीतर वो यकीन तेजी से चटखता है जिन्हें देखकर, पढ़कर हमने पत्रकारिता के पेशे में आने का मन बनाया. कुछ लोगों ने शायद इनकी जगह दीपक चौरसिया, प्रभु चावला, सुधीर चौधरी जैसे लोगों को भी देखकर बनाया हो और उम्मीदें टूटी हों. ऐसे में इन लोगों के बहाने जब बिचैलिए, लाइजनिंग, यौन उत्पीड़न जैसे किसी भी मामले पर चर्चा होती है तो वो सिर्फ इन पर बात नहीं होती बल्कि उस पत्रकारिता पर भी लगातार चोट करने की कोशिशें होती है जिनके जरिए प्रतिरोध,सवाल और बदलाव होते रहने की उम्मीदें दिखती आयीं हैं. अब ये अलग से बताने की जरुरत है कि हम तरुण तेजपाल के पक्ष से बात कर रहे हैं या फिर उसी संस्थान की महिला पत्रकार के पक्ष में खड़े हैं जिन्होंने साहस के साथ अपने पेशे का सम्मान किया और चीजें हमारे सामने हैं, ये अलग बात है कि दो-तीन दिन ये सब देखते-समझते रहने को भी आप में से कुछ उसकी कौन सी मजबूरी जैसे सवालों के बछौर करते रहेंगे..फिर भी. इधर जो शख्स खुद अपने पक्ष में खड़ा नहीं है, हम उसके पक्ष में खड़े होने का अतिरिक्त पराक्रम भला कैसे दिखा सकते हैं ?
हम तो इस महिला पत्रकार जो रिश्ते में मेरी दोस्त लगेंगी, जिससे मैं कभी मिला नहीं और ये भी नहीं जानता कि किस बीट के लिए काम करती है, को शुक्रिया अदा करते हैं कि ऐसा करके उन्होंने मीडिया इन्डस्ट्री में काम कर रही उन सैंकड़ों महिला पत्रकारों की समाज में तेजी से बनी रही स्टीरियो इमेज को थोड़ा ही सही ध्वस्त करने का काम किया है कि ये तरक्की पाने के लिए किसी भी हद तक मैनेज हो जाती है..नो- नहीं मैनेज होती है..जिस मीडिया मंडी में उपर से नीचे तक सब तेजी से छीज रहा हो, सड़ गया हो..वहां ये करना निजी स्तर के साहस से कहीं ज्यादा एक सोशल कमिटमेंट है और आनेवाले समय में ये बाकी महिला मीडियाकर्मियों को इन स्थितियों में पड़ने पर भिड़ जाने के लिए साहस पैदा करेगा. हम इनके साथ उसी तरह से हैं जैसा कि अब तक निर्भया, दामिनी और उन तमाम लड़कियों-स्त्रियों के साथ रहे हैं..व्यक्तिगत स्तर की जान-पहचान और वाइ च्वाइस नहीं, एक वैचारिकी के तहत जिसका कि हम सबके भीतर बचा रहना बेहद जरुरी है. ऐसे मौके पर अक्सर कुंवर नारायण याद आते हैं-
या तो अ ब स की तरह जीना है
या तो सुकरात की तरह जहर पीना है...
दुनियादारी में फंसे हम जैसे लोग जहर तो पी नहीं सकते लेकिन जिंदगी की कुछ कड़वाहट तो झेल ही सकते हैं. बस ये है कि इस कड़वाहट के बीच हम ये भी महसूस कर रहे हैं कि तमाम मीडिया संस्थानों ने इस मामले को जिस तत्परता से अपनी रनडाउन में फीड किया, ठीक इसी तरह की घटना स्टार न्यूज में सायमा सहर के साथ आज से तीन-चार साल पहले घटित हुई थी जिसकी लड़ाई वो अभी भी लड़ रही है..तब मीडिया के सारे दिग्गजों ने ठीक उतनी ही चुप्पी साध ली थी जितना कि अभी मुखर हैं. आजतक के भीतर छेड़छाड़ का मामला आया था, तब हमारे वही संपादक कमर वहीद नकवी ने आज की तरह एक लाइन का बयान जारी करना उचित नहीं समझा था और यही दीपक चौरसिया पर आरोप लगे कि उन्होंने महिला आयोग से सायमा का केस रफा-दफा करवाने में छक्का-पंजा किया. सायमा की इस खबर के द टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स में छापे जाने के बाद स्टार न्यूज की तरफ से फोन किए गए और फिर कोई स्टोरी नहीं आयी. स्टार न्यूज के दफ्तर के आगे विरोध में नाटक हुए, सैंकड़ों लोगों ने देखा पर कहीं एक लाइन की पट्टी तक नहीं चली. नेटवर्क 18 की पिछले दिनों की बेशर्मी पर पूरे नोएडा फिल्म सिटी में धरना-प्रदर्शन हुआ लेकिन नेशन को फेस करनेवाले और डंके की चोट पर बात करनेवाले इनके चैनलों ने एक लाइन तक नहीं लिखा कि हम ढाई-तीन सौ लोगों को किकआउट कर रहे हैं..हालांकि ये यौन उत्पीड़न जैसा मामला नहीं है, शायद सीरियस भी न हो लेकिन आज के शो फेस द पीपल में सागरिका घोष आखिर किस नैतिक साहस के बूते ये कहतीं नजर आयीं कि हम मीडिया जब तक खुद तल्ख नहीं होंगे, इन्डस्ट्री के बीच सुधार नहीं होगा..आजतक पर कथावाचन कर रहे पुण्य प्रसून वाजपेयी अपने तत्कालीन दागदार संपादक सुधीर चौधरी की गिरफ्तारी को किस नैतिकता के आधार पर देश के लिए आपातकाल बता गए..ये सारी घटनाएं गूगल की सैंकड़ों हायपर लिंक और ब्लॉगस्पॉट, डॉट इन पोस्टों में मौजूद हैं..कितना कुछ कहा जाए.
इन सबको याद करके यहां कांग्रेस-बीजेपी खेलने का न तो कोई इरादा है और न ही इससे तरुण तेजपाल को लेकर जो कुछ भी चीजें आ रही है, उस पर पर्दा पड़ जाएगा और ऐसा किया भी क्यों जाए लेकिन इतना जरुर है कि इन घटनाओं की मीडिया कवरेज पर गौर करें तो आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि मीडिया मंडी में सरोकार, प्रोवूमेन इमेज बनाए जाने की कोशिशों के बावजूद एक खास किस्म की लंपटता, धूर्तता हावी है जो यकीन हो जानेवाली घटना को भी बेहूदा बना जाते हैं...असल काम इस मोर्चे पर करने का है जो कि फिलहाल किसी भी स्तर पर संभव दिखाई नहीं देता..हां, इसी बहाने वो संपादक, सीनियर प्रोड्यूसर, एंकर और यहां तक कि मीडिया संस्थान उस कॉमिक रिलीफ का मजा जरुर ले पा रहे हैं जिसके बीच से एक दुस्साहसी खिलाड़ी( पत्रकारिता के स्तर पर) के जाने की संभावना दिखाई दे रही है..निजी कुंठा का भी अपना उत्सव होता है जिसमे क्या पता कल को इस पत्रिका से बुरी तरह चोट खाए राजनीतिक भी हां जी, हां जी करने लग जाएं. बाकी जब सबकी मनोहर कहानियां बनती है तो इसकी क्यों न बनाएं..?
मीडिया संस्थानों से अपील- जिस महिला पत्रकार ने इस साहस का परिचय दिया है, प्लीज उसकी स्टोरी बताने समझाने के लिए तरुण तेजपाल की तस्वीर के पीछे घुटने में सिर झुकाए, शर्म से गड़ जानेवाली मुद्रावाली तस्वीर न लगाएं..आपके लिए जो यौन उत्पीड़न को बर्दाश्त करती है वो भी बेचारी और लाचार है, और जो आवाज उठाती है वो भी...कुछ तो विजुअल सेंस डेवलप कीजिए..हम दर्शकों का नहीं तो कम से कम उस साहस और जज्बे को तो सलाम कीजिए जो न जाने कितने को बेहद बौना साबित कर जाते हैं.
ओमप्रकाश वाल्मीकिः जो डिब्बाबंद विमर्श के खिलाफ डटे रहे
Posted On 12:46 am by विनीत कुमार | 1 comments
तो तुम देहरादून के इस राजपुर रोड़ से अंडे लाने कहां जाते हो ? वाल्मीकिजी ने दून रीडिंग्स में जब देखा तो बिना कुछ पूछे पहला सवाल यही किया और जब तक मैं कुछ कहता, उनकी पत्नी चंद्रावतीजी ने जोर से हंसते हुए कहा- अच्छा, तो इस गर्मी में भी अंडे खाना जारी है..नहीं-नहीं, वो तो शिमला में खाया करता था न, सितंबर की ठंड से बचने के लिए, अप्रैल की इस गर्मी में थोड़े ही न. सच पूछिए तो शिमला में रहते हुए अंडे खाने जाना तो बहाना भर होता, हम तो किसी और नियत से रोज शाम कट लेते. वो काफी देर मेरी हथेली पकड़े रहे और पढ़ाई-लिखाई के पहले स्वास्थ्य को लेकर पूछते रहे. वाल्मीकिजी से ये मेरी दूसरी और आखिरी मुलाकात थी.
सितंबर 2010 में शिमला उच्च अध्ययन संस्थान( IIAS) ने दस दिनों के लिए हिन्दी की आधुनिकताः एक पुनर्विचार पर साहित्य और सामाजिक विज्ञान के अलग-अलग संदर्भों से जुड़े लोगों को बुलाया था जिसका एक सत्र माध्यमों पर आधारित था. कार्यक्रम के संयोजक अभय कुमार दुबे ने हमे भी टेलीविजन की भाषा पर पर्चा पढ़ने का मौका दिया था और बाकी विषयों के साथ-साथ स्त्री और दलित विमर्श पर पूरे-पूरे दिन के सत्र थे. ओमप्रकाश वाल्मीकि से वही मेरी पहली लेकिन सबसे लंबी और गहरी मुलाकात थी. इतनी गहरी और गाढ़ी कि इन सात दिनों में रोज शाम घंटों उनके साथ बैठकर उनके जीवन को सुनने की आदत सी पड़ गई थी..कभी यकीन ही नहीं होता था कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि शिमला के राष्ट्रपति निवास का वो कमरा और वाल्मीकिजी के साथ की शाम एक साथ छूट सकती है.
यकीन मानिए, उस कमरे में वाकायदा वाल्मीकिजी की चौपाल सजती थी. मैं, पटना से आए प्रमोद रंजन( फारवर्ड प्रेस के मौजूदा संपादक), शीबा असलम फहमी, राजीव रंजन गिरि, तब सीएसडीएस-सराय से जुड़े राकेश कुमार सिंह और फिलहाल अंतिम जन का संपादन कर रहे राजीव रंजन गिरि. इनमे एक-दो इधर-उधर हो जाते लेकिन अमूमन मैं और राकेशजी तो होते ही होते. चंद्रावतीजी के मुझ पर अतिरिक्त स्नेह किए जाने पर हम उनके मच्छरदानी लगाए जाने तक उनके ही कमरे में जमे रहते और वैसे भी निवास के उतने बड़े कमरे में मुझे अकेले सोने का मन भी न करता. खैर,
होता यूं था कि सुबह के दस बजे से लेकर शाम के छह बजे तक हम जैसे बच्चे दुबेजी की क्लास से छूटकर इधर शिमला के माल रोड की रंगीनियत देखने मचल उठते तो उधर हमसे बड़े बच्चे मसलन संजीव और रविकांत आचमन क्रिया के लिए..अब सारे सत्र खत्म होने के बाद भी ऑफटाइम जिरह न होने लग जाए, मैं तेजी से अंड़े खाने के बहाने से रोज माल रोड की तरफ भागता. इस बीच कोई मुझे खोजता कि चंद्रावतीजी पूरे आत्मविश्वास से कहती- वो तो अंडे खाने माल रोड गया है, आएगा तो इधर ही आएगा. और होता भी यही था कि मैं माल रोड से सीधे वाल्मीकिजी के कमरे पहुंच जाता. फिर धीरे-धीरे बाकी लोग भी या पहले से ही जमे रहते लोग.
फिर न जाने कितनी देर, जब तक मेस का खाना खत्म हो जाने का डर न सताने लग जाता, तब तक हम उनकी बातें, संस्मरण सुना करते..चार-पांच दिन लगातार सुनने के बाद हमने कहा भी- सर, आपको नहीं लगता, जूठन को फिर से लिखा जाना चाहिए. मेरा मतलब है जो बातें अभी आप कह रहे हैं, उसे भी शामिल कर दें.. हालांकि वो ज्यादातर बार अपनी बातें रखते हुए कहते- हम कुछ नया नहीं कह रहे हैं, सब कहीं न कहीं लिखा है. लेकिन उनकी जुबानी सारी बातें सुनकर लगता कि हम जूठन का न केवल पुनर्पाठ कर रहे हैं बल्कि स्वतंत्र एक ऐसी रचना से गुजर रहे हैं जो सिर्फ एक दलित लेखक की आत्मकथा नहीं है बल्कि एक ऐसे दुस्साहसी नागरिक की कहानी है जो जाति की जकड़नों से तो अपने को मुक्त कर ही रहा है साथ ही साथ नागरिक समाज की विसंगतियों को सीधे चुनौती दे रहा है..वो जितना धार्मिक सत्ता को चुनौती दे रहा है, उतना ही उन सार्वजनिक संस्थानों के रवैये को भी जिसका मारा और जिसके भीतर सिर्फ दलित ही नहीं पिसता है. जूठन, सलाम और अन्य कहानियों का पाठ करते हुए कई बार हम इसे अलग से रेखांकित नहीं कर पाते लेकिन थोड़े वक्त के लिए अगर लेखक का दलित होना हटाकर भी देखें( हालांकि ये राजनीतिक स्तर पर पूरी तरह गलत होगा) तो भी रचना और व्यवहार के स्तर पर जड़ हो चुके संस्थानों से सीधे टक्कर लेते ये एक असाधारण व्यक्तित्व के रुप में नजर आते हैं जो कि प्रत्यक्ष रुप से आसपास के रचनाकारों में ऐसे कम ही दिखाई देते हैं. ऐसे में उनकी पूरी रचनाधर्मिता को दलित के खांचे में लाकर देखने से एक स्वतंत्र और मजबूत पहचान तो बनी है लेकिन जीवन के स्तर पर जो व्यवहार और समझ की झलक बार-बार उनकी लंबी बातचीत से निकलकर आती रही, वो कायदे से रेखांकित नहीं हो पाया. ये लेखक अपने जीवन और रचना में ठीक वैसा ही था जैसा कि हम एक प्रतिबद्ध क्रिएटिव माइंड की कल्पना में देख पाते हैं..
खैर, जो वाल्मीकिजी अपनी हर आगे कही जानेवाली बात के पहले कहते आए कि ये मैंने पहले भी लिखा है, जूठन को फिर से लिखे जाने पर कहा- हां, सही कह रहे हो,यहां से जाने के बाद इस पर प्लान करते हैं..मुझे नहीं पता कि इस दिशा में उन्होंने फिर कुछ किया भी या नहीं लेकिन ऐसा किए जाने से जूठन और संवर्धित होती.
बेहद करीब से उनके साथ बिताए गई करीब ये सात शामों में मैंने साफ-साफ महसूस किया कि इस लेखक ने अपने जीवन में चाहे जितने भी अपमान, ऑफिस में भेदभाव सहे हों और एक हद तक साहित्यिक दुनिया में दुर्भावना के शिकार हुआ लेकिन जीवन के प्रति अद्मय उत्साह क्या होता है, कोई इनसे सीखता..अव्वल तो किसी भी काम या सम्मान के पीछे मैं-मैं नहीं...एक मामूलीपन लिए रंगमंच के चरित्र की शक्ल में अपनी बात रखने की अदा उन्हें हिन्दी के दिग्गज रचनाकारों से कितनी अलग कर जाती थी, ये बात मैं रोज शाम महसूस करता और अगली शाम का इंतजार करता.. उनके जाने की खबर के बीच जब मैं उन्हें याद करता हूं तो उसी मामूलीपन अदा के बीच विचारों की भव्यता का ध्यान आता है.
शिमला में वाल्मीकिजी ने दलित लेखन की आधुनिकता और सांस्कृतिक विरासत पर अपनी बात रखी थी. हालांकि सत्र की शुरुआत में ही अभय कुमार दुबे ने ये कहा था कि इस राष्ट्रपति निवास की छत इतनी उंची है कि किसी भी विचारधारा को,किसी भी मत से टकराने में कोई असुविधा नहीं होगी,ये विचारों का कारखाना है और हम सब यहां मिस्त्री हैं इसलिए जो चाहें,जैसे चाहें,स्वाभाविक तरीके से अपनी बात यहां रख सकते हैं। लेकिन वाल्मीकिजी की बात के बाद माहौल में खासी गर्माहट पैदा हो गयी थी जो कि स्वाभाविक ही था..उन्होंने बेहद ही स्पष्ट तरीके से कहा था कि " अकादमिक जगत के हिन्दी साहित्य और हिन्दी के विद्वानों पर आरोप लगाते हुए कहा कि जो बदलाव के साहित्य है उसे अकादमिक जगत में,कोर्स में शामिल नहीं किया जाता औऱ इधर इन विद्वानों की सोच में दलित के लिए किंचित मात्र भी संवेदना का कोई अंश नहीं रहा है।..जिस मुख्यधारा का हिस्सा ये विद्वान और साहित्यिक लोग हैं,कम से कम उस मुख्यधारा से स्वयं को जोड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। हिन्दी के आलोचक,लेखक,बुद्धिजीवी,दलित साहित्य की आंतरिकता को समझने से पहले ही उस पर तलवार लेकर पिल पड़ते हैं। उसे अधकचरा,कमजोर शिल्पहीन जैसे आरोपों से सुसज्जित कर अपनी साहित्यिक श्रेष्ठता का दम्भ भरने लगते हैं। दलित लेखकों की बात को ठीक से सुने बगैर या बिना पढ़े वक्तव्य देने का रिवाज हिन्दी में स्थापित हो चुका है,इसकी चपेट में महान नाम भी आ चुके हैं जिन्हें हिन्दी जगत सिर आंखों पर बिठाये हुए है।" इस बात पर वहां जो बहस होनी थी वो तो हुई ही, उस शाम वो थोड़े अस्वाभाविक लेकिन ज्यादा तल्ख अंदाज में अपने संस्मरण सुना रहे थे.
मैं लगातार महसूस कर रहा था कि ये लेखक अपने लिखे शब्दों और कही बातों को लेकर कितना प्रतिबद्ध है, वो घालमेल की विचारना में रत्तीभर न तो खुद पड़ता है और न ही उस समुदाय के पड़ने की पीड़ा को किसी भी रुप में बर्दाश्त कर पाता है जिसे कि उत्थान के नाम पर उत्पाद की शक्ल में देखा-समझा जाता रहा है. ये वो शाम थी जिसमे हम देख पा रहे थे कि वो उनका व्यक्तिगत अनुभव और भोगा हुआ सच बहुवचन बनकर एक ठोस विमर्श की शक्ल में स्थापित हो पाया है. उन्हें ये बात खुलेआम कहने में कभी कोई संकोच नहीं हुआ कि जिस हिन्दी साहित्य पर मठाधीशों को नाज है, ये उनका साहित्य नहीं है..
किसी लेखक के साथ इतने लंबे और आत्मीय होने का इसके पहले और अब तक का कोई अनुभव नहीं रहा. बहुत ही भारी मन से और रोने-रोन की हालत में उनसे विदा लेना हुआ था. देहरादून आना तो जरुर मिलना और आप दिल्ली आइएगा तो जरुर बताइएगा के साथ हम अपने-अपने ठिकाने पर लौट आए थे.
दून रीडिंग्स में लगभग सात महीने बाद एक बार फिर उन्हें सुनने का मौका मिला. अबकी बार विषय बहुत स्पष्ट तो नहीं लेकिन सत्र का नाम था- विंड ऑफ चेंज. इस सत्र में वाल्मीकिजी की बातों में शिमला से ज्यादा गर्माहट थी..ज्यादातर अंग्रेजीदां पत्रकार अब तक बेस्टसेलर और बेस्ट शोवर में ही डोल रहे थे,वाल्मीकिजी के बोलने के बाद उन्हें घेर लिया. हिन्दी के कुछ शब्दों को उन्होंने अलग से नोट किया था जिसका अर्थ हम जैसों से पूछने के बाद उनसे सवाल-जवाब करने लगे थे. इस सत्र में उन्होंने कहा था- हो सकता है कि संतों ने समाज में बयार लाने का काम किया जैसा कि भक्ति साहित्य बताता है लेकिन दलितों को बयार नहीं, चक्रवात लाने की जरुरत है और ये सामंजस्य से नहीं संघर्ष से आएगा.
वाल्मीकिजी को मैंने जितना पढ़ा और जो दो बार सुना उतने से ये समझ पाया कि उन्होंने सामंजस्य के नाम पर जबरदस्ती ग्रे एरिया पैदा करने की कोशिशें नहीं की बल्कि इस ग्रे एरिया के बीच भी स्याह-सफेद स्थिति को बारीकी से देख पाने की काबिलियत थी. वो जब हिन्दी साहित्य को अपने लिए गर्व की चीज नहीं और हिन्दू होना अपमानित होना है ( क्योंकि इसी ने अछूत करार दिया) मानते हैं तो उस स्पष्टता की ओर बढ़ते हुए एक समानांतर विमर्श और सत्ता कायम करने की तरह बढ़ते हैं जो कि अस्मितामूलक विमर्श का बीज बिन्दु है. हिन्दी के मठाधीशों ने विमर्श के इस रुप को या तो विरुद्धों का सामंजस्य वाली कलछी से घाटकर उसी तथाकथित कालजयी साहित्य में एक करने की कोशिश की या फिर सौन्दर्यशास्त्र और भाषा के स्तर पर नजरअंदाज करने की कोशिश की लेकिन इस संबंध में वाल्मीकिजी ने जो तर्क प्रस्तावित किए, उनका लगातार पाठ जरुरी है.
मुझे तो तब ज्यादा हैरानी हुई जब दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, जूठन, सलाम से लेकर बाकी रचनाएं एक के बाद एक पढ़ता गया और भाषा-अभिव्यक्ति के उस धरातल पर इसे महसूस किया जो हमें अपने आरामदेह हॉस्टल के कमरे से उठाकर उस बस्ती की ओर धकेलती जान पड़ी जिसे पैदल चलकर न जा पाने और दूर से ही हिकारत रखते हुए संवेदना के नकली शब्द गढ़ने की कला सीखने की कवायद में लगे रह जाते हैं. हिन्दी के दिग्गजों को कुछ नहीं तो इस बात के लिए वाल्मीकिजी का शुक्रिया तो अदा करनी ही चाहिए थी कि उन्हें उन सडांध और गंदी बस्तियों में नाक पर रुमाल रखकर जाने की जहमत उठाए बिना उसके भीतर की दुनिया से अवगत करा दिया जिस पर "नक्काशी आलोचना" करके पहले से और नामवर हुआ जा सकता है. वाल्मीकिजी का लिखा आप कुछ भी पढ़ेंगे और फिर दलित साहित्य की भाषा और आत्मकथात्मकता से आगे न बढ़ने के आरोप से गुजरेंगे तो लगेगा कि आलोचना की दुनिया भी राजनीति की उस सुनियोजित एजेंड़े से अलग नहीं है जहां प्रक्रिया को गायब करके मुद्दे को पंक्चर करना विशेष कला योग्यता के अन्तर्गत आता है. यहीं आकर हमारी आलोचना की दुनिया खुला आसमान न होकर टांट की छेद से झांकता चाद नजर आता है.
इधर बतौर अकादमिक से सरकते हुए सोशल मीडिया में विमर्श का हिस्सा बन रहा दलित विमर्श जिसमे अन्वेषण से कहीं ज्यादा विमर्शों की डिब्बाबंदी ज्यादा है, एक अजीब किस्म की कठदलेली है, दलित चिंतक होने की शर्तों ने कुछ चालू फैशन स्टंट इजाद कर लिए हैं, वाल्मीकिजी का लिखा-पढ़ा इनके लिए बड़ी चुनौती मनकर सामने आते हैं. ऐसा इसलिए कि उनके लेखक और कथन की सबसे बड़ी ताकत पाठ-प्रभाव की एक पूरी प्रक्रिया रचती थी जिससे पहली बार गुजरते हुए आप बेहद भावुक,संवेदनशील हो उठते हैं, आंखों में आंसू छलक आते हैं लेकिन अगले ही पल वो आंसू पाठ की वैचारिकी से गर्भ हो भाप बनकर तीखे तर्क और अलग-अलग स्तर की व्यवस्था के प्रति असहमति और प्रतिरोध में बदलते चले जाते हैं. जो लोग वाल्मीकिजी जैसे लेखक के रास्ते को फार्मूलाबद्ध करने की फिराक में मैंदान में उतरें हैं, आप गौर करेंगे कि उनके पाठ से ये प्रक्रिया बनने के बजाय कोई आधी-अधूरी, फ्रैंक्चरड़ एक्सप्रेशन बनकर रह जाती है जो प्रतिरोध के बजाय वेवजह की हिकारत, इनो के बुलबुले पैदा करके रह जाते हैं..
आमतौर पर ऐसे लेखक के जाने के बाद एक मुहावरा सा इस्तेमाल होना शुरु हो जाता है- वो शरीरी रुप से हमसे दूर हुए हैं, वैचारिक रुप से नहीं. ऐसा करके हम उनके काम को अधिक महत्व देने की कोशिश करते हैं लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि का शरीरी रुप से हमारे बीच से चले जाना उतना ही बड़ा नुकसान है क्योंकि ये लेखक अपने जीवन के स्तर के प्रतिरोध के बीच से जीता आया था, और जीता तो हम और प्रेरित होते...अपनी मौत की प्रोमो तो कुछ महीने पहले दे गया था, शायद ये एहसास कराने के लिए कि हिन्दी की दुनिया के पास मर जानेवाले लेखकों पर पत्रकाओं के विशेषांक निकालने के अलावे क्या और किस स्तर की तैयारी होती है..संरक्षण कोष और अशोक वाजपेयी की कोशिशें चर्चा में आयीं थी लेकिन हमने जब किसी के गुजर जाने के लिए दो-चार घंटे के मातम की फिक्स्ड डिपोजिट पहले से ही कर दी होती है तो बार-बार उसे लेकर भावुक होने का क्या तुक बनता है...हम इस क्रूर सच के बीच तब भी दुहराते हैं, वो शख्स हमें बार-बार यही कहता रहा-
"मेरी जरूरतों में एक नदीं भी है… कागज, कलम और आस-पड़ोस।"
मेरे जीवन का ये "चेका-चेकी काल" है. मीडिया के बच्चों की कालजयी परियोजना कार्य और प्रश्नोत्तर चेक कर रहा हूं. कंटेंट की बात बाद में, पहले तो ये कि इनमे से कुछ तो इतने मंहगे कागज पर काम करते हैं कि उन कागजों पर हम और आप किसी के लिए प्रेम पत्र भी न लिखें. उपर से रंग-बिरंगे स्केच पेन से नाम से लेकर विषय ऐसे लिखते और फूल-पत्ती,झंडी-मुंडी लगाकर सजाते हैं कि लगता राजस्थान एम्पोरियम से मटीरियल लाकर चुनरी प्रिंट की ब्लाउज सिलने का अभ्यास कर रहे हों. कंटेंट के उपर पैकेजिंग इतना हावी है कि हम जैसे सिकंस( सिलेबस कंटेंट सप्लायर) भी भकुआ जा रहे हैं. लग रहा है अखबार के लिए काम करेंगे तो क्या पता चाबड़ी बाजार से शादी कार्ड पर संपादकीय लिखेंगे. खैर
इन परियोजना कार्य और लिखे से गुजरते हुए भावों और विचारों की लगातार आवाजाही चलती रहती है. देर रात कभी अपने आप ही मुस्करता हूं. कुछ तो फिल्मी डायलॉग से लगते हैं- उसकी मौत सिर्फ एक व्यक्ति की हत्या नहीं थी, समाज में भरोसे की भी हत्या है..:). कुछ को पढ़कर मन करता हूं- लो बेटाजी, पहले स्निकर की एक बाइट मार लो, तब आगे कालजयी परियोजना कार्य में तल्लीन होना. कुछ के माता-पिता को मन करता है चिठ्ठी लिखूं- आप अपने होनकार को प्लीज,प्लीज किसी और काम में मत लगाइएगा और शादी तो अभी पांच साल बिल्कुल भी मत करने दीजिएगा, ये आपके लिए नहीं देश के लिए बना है. हमे इन बच्चों के लिखे से गुजरते हुए मोह सा होता है- ये मीडिया मंडी में जाएंगे तो मीडिया को लेकर इनकी कोमल भावनाओं का क्या होगा ?
कुछ को पढ़कर बुरी तरह हताश हो जाता हूं..लगता है कि कनपटी को हल्के गुलाबी सेंक दूं लेकिन नहीं, हम पढ़ते-पढाते, कंटेंट सप्लाय करते हुए एक बेहद ही मुलायम रिश्ते से बन जाते हैं..ये बच्चे हमारे लिए देखते ही देखते बहुत कुछ हो जाते हैं लेकिन धक्का तो लगता ही है..एक-एक बिन्दु को बताने-समझाने में हम राकेश( पीपली लाइव का पत्रकार) की तरह सेंटी हो जाते हैं- बस मौका मिले मैम, जान लगा देंगे..लेकिन इस जान लगा देनेवाले अंदाज के बीच जब कॉपियों से गुजरता हूं तो सब जैसे कपूर की तरह उड़ जाता है. लगता है लाइब्रेरी में दुग्गी की शक्ल में पड़ी चंद किताबों( जिन्हें किताब कहने में मुझे अक्सर दिक्कत रही है) और छात्रों के बीच हम जैसे सिकंस कहीं नहीं है. हम इन बच्चों और अपने बीच के जिन रिश्तों को लेकर ताव में रहते हैं, अचानक इस तरह बेदखल कर दिए जाने से उसी बने-बनाए मुहावरे की तरफ लौटने का खतरा महसूस करते हैं- आप कुछ भी कर लो, ये वही लिखेंगे जो दुग्गी में लिखा है, इनकी प्रतिबद्धता इनके प्रति है, आपके प्रति नहीं. एकबारगी ही इन कॉपियों, परियोजना कार्य को देखकर लगता है कि ये जो कर रहे हैं, इससे इन्हे लगाव नहीं है, यकीन नहीं है कि मेरी दुनिया यही है.
हम इन बच्चों के साथ बिताए वक्त को, कैंटीन की चाय का साथ, सेमिनार-वर्कशॉप के साथ के लंबे-लंबे वक्त किसी सिनेमाई फेयरवेल कार्यक्रमों की यादों में उछाल दिए जाने भर की कामना से मौजूद नहीं देखते.हम इन साथ को इनके काम में, इनके लिखे में देखने की हसरत रखते हैं. हम चाहते हैं कि इनकी कॉपियों में जीवन शामिल हो, मीनारों से उखाड़कर चस्पा दिए गए बेजान पत्थर जैसे शब्द भर नहीं..हम काई पोचे को याद करते हैं. देर रात इनकी कॉपियों के शब्द थ्री इडियट्स की ब्लैकबोर्ड पर लिखे शब्दों-संकेतों,अल्फा-बीटा-गामा उड़-उड़कर मेरे सिरहाने घेर लेती है..क्या सच में कुछ भी नहीं बदल सकता..चीजों को नए सिरे से सोचने की कोशिश, टूटकर,मेहनत कर लिखने की जद्दोजहद..हम पता नहीं कहां-कहां भटक जाते हैं सोचते हुए कब सुबह के पांच बज जाते हैं, पता ही नहीं चलता. बेतहाशा मैं कोई एक पंक्ति-कोई एक उम्मीद खोजता हूं, बस नींद आ जाने के लिए..आखिर में मेरे बेहद प्यारे दोस्त की लाइन याद आती है- साल-दो साल-चार साल में कोई तो एक-दो मिलेंगे ऐसे बच्चे जिन्हें देखकर तुम अपने आप सिलेबस कंटेंट सप्लाय यानी पढ़ाने की दुनिया में यकीन कर सकोंगे.. मुझे हल्की-हल्की नींद आने लगती है.
जीत की परिभाषा इतनी छोटी नहीं होतीः संदर्भ, महुआ न्यूज
Posted On 2:00 am by विनीत कुमार | 0 comments
छोटी दीवाली की शाम यानी 2 नवम्बर जब हम महुआ न्यूज( नोएडा फिल्म सिटी) पहुंचे तो देखा महुआ न्यूज का ही एक मीडियाकर्मी जोर-जोर से अपने ही साथी मीडियाकर्मी को मां-बहन की गालियां देता हुआ इधर से उधर आवाजाही कर रहा है. कुछ लोग उसे साइड में ले जाकर समझाने-बुझाने की कोशिश कर रहे थे ताकि तमाशा न खड़ी हो जाए. इधर मेन गेट पर कोई तीन दर्जन के आसपास मीडियाकर्मी खड़े थे जिनमे आठ-दस महिला मीडियाकर्मी भी थीं. जाहिर है मां बहन की गालियां जब ऑफिस के दूसरी तरफ लगी चाय के ठिए पर बैठे-बैठे मुझे सुनाई दे रही थी तो उन्होंने भी सुना ही होगा. वैसे न्यूजरुम से लेकर पार्किंग, कैंटीन में मां-बहन की गालियां सुनते-सुनते कान इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि कुछ भी अजीब नहीं लगता लेकिन खुले में शौच और गालियां पता नहीं क्यों असहज कर ही जाती हैं..खैर,
इधर थर्ड ग्रेड की मेरी चाय खत्म हुई ही थी कि ऑफिस के आगे का मंजर बदलने लगा. एक-एक करके नाम पुकारे जाने लगे और भीतर जो भी मीडियाकर्मी अंदर से बाहर आते, हाथ में लिफाफा होता. देखते-देखते अभी कुछ देर पहले तक जो हाथ हवा में लहरा रहे थे उनमे चैनल की दी हुई चेक और लिफाफे थे..शुरुआत के तीन-चार चेहरे को मैंने करीब से पढ़ने की कोशिश की. उन पर कहीं से भी पिछले महीने की बकाया सैलरी मिलने की खुशी और संतोष का भाव नहीं था कि चलो कम से कम दीवाली तो सही कटेगी. बस ये है कि पिछले तीन दिनों से जो धरना-प्रदर्शन करते आए, उसका पटाक्षेप हो गया. इन तीन-चार चेहरे के बाद एक-एक करके महिला मीडियाकर्मी गईं और वो जब बाहर निकलीं तो मौहाल कुछ अलग सा हो गया. थोड़ा अतिरिक्त रुप स भावुक कर देनेवाला भी.
हम जिस खंभे की ओट से टिककर खड़े थे और इस पूरे नजारे को चुपचाप देख रहे थे, उससे दो फिट की दूरी पर कुछ सीनियर मीडियाकर्मी खड़े थे जिन्हें देखकर ही लग रहा था कि ये चैनल में अपेक्षाकृत बड़ी जिम्मेदारियों के साथ जुड़े रहे हैं. अच्छा सर, चलती हूं, हमलोग टच में रहेंगे और मिलते रहेंगे..हां,हां बिल्कुल बदले में इनका जवाब था..इसी क्रम में फिर 6 नवम्बर बार-बार दुहराया जाने लगा कि हम इस दिन भी तो मिल रहे हैं न. अब तक स्थिति जो बिना किसी से बात किए समझ आयी थी वो ये कि जिन-जिन मीडियाकर्मियों का जितना बकाया है, उनका भुगतान करके इस चैनल से मुक्त कर दिया जा रहा है और ऐसे मीडियाकर्मियों की संख्या सौ से उपर के करीब है. मतलब सौ से भी ज्यादा मीडियाकर्मी एकमुश्त बेरोजगार. इधर सी-ऑफ करनेवालों का अंदाज भी कुछ इस तरह से था कि पता नहीं अब कब मिलना हो..ऐसे मौके पर आंखें पनिया तो जाती ही हैं. आखिर हम भी तो मीडिया की नौकरी छोड़ते वक्त कितनों के हाथ पकड़कर लंबे वक्त तक खड़े रहे थे. पांच महीने पढ़ाकर ही जब हंसराज कॉलेज छोड़ रहा था तो मन भारी हो आया था और स्टूडेंट्स ने उपर से फेयरवेल टाइप से चाय पिलाकर और भावुक कर दिया था..यहां जो लोग जा रहे थे, उनसे मेरा कोई नाता न था और न ही कोई जाननेवाले ही थे..एक बार महुआ न्यूज को लेकर तहलका मे छोटी सी स्टोरी लिखने के अलावे इस चैनल पर कभी कुछ ज्यादा लिखा भी नहीं था..लेकिन इन महिला मीडियाकर्मियों के विदा लेने का अंदाज भीतर कुछ पिघलाता जरुर जा रहा था. लेकिन 6 नवम्बर की ये तारीख अटक सी गई थी.
तभी कोई 25-26 साल का एक मीडियाकर्मी आया और पुष्कर सहित मुझसे इस अंदाज में मिला और एक के बाद एक बिना कुछ पूछे ऐसे बताने लग गया कि जैसे हम एक-दूसरे से न केवल कई बार मिल चुके हैं बल्कि एक-दूसरे की पसंद-नापसंद से अच्छी तरह वाकिफ हैं. हम जिस छह तारीख पर अटके थे, उन्होंने ही बताया कि जिनकी सैलरी 25 से उपर है, उन्हें आज दस हजार कैश दिया गया है और बाकी चेक 6 तारीख को दिए जाएंगे. यानी कि आज भुगतान करने की घोषणा हुई है लेकिन ये सब 6 तारीख को फायनली होगा. साथ खड़े अपने सीनियरों को सुनाकर कहा- सबसे ज्यादा बुरा तो ट्रेनी लोगों के साथ हुआ है, जून से ही पैसा नहीं मिल रहा था इनको और देखिए कि अब रोड़ पर..इनमे से कई तो ऐसे हैं जिनके खानदान में कोई मीडिया से नहीं है कि कुछ ऐरवी-पैरवी कर सके. तभी बीच में गुलाबी शर्ट पहने एक दूसरे मीडियाकर्मी आए और मेरी और पुष्कर की तरफ इशारा करते हुए पूछा- आपलोग मीडिया दरबार से हैं ? जब उन्हे बताया कि मीडिया दरबार से नहीं हैं और कहां से हैं और कौन हैं तो अंग्रेजी में आगे की बातचीत करते हुए दो बातें कही- पहली ये कि हम एक चैनल खोलते हैं और सारे ये बेरोजगार लोगों को इसमे लगा लेंगे और दूसरा कि आपलोगों को इनके बारे में लिखना चाहिए, मुद्दे को आगे बढ़ाना चाहिए. हालात तभी बदलेंगे..मैं जो अब तक चुप था, सिर्फ इतना ही कह पाया- हम लिखने के नाम पर स्क्रैप पैदा कर रहे हैं, इससे भला क्या बदलाव होगा ! उनकी चैनल खोलनेवाली बात मुझ थोड़ी हवाबाजी और थोड़ी रजत शर्मा जैसे मीडियाकर्मी जैसे स्वप्नद्रष्टा जैसी लगी जो सैकड़ों मीडियाकर्मी को रोजगार दे पा रहे हैं. बहरहाल
वो आगे अपनी बात रखते कि इससे पहले जो मीडियाकर्मी ट्रेनी की पीड़ा बयान कर रहा था और जिन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि वो हमदोनों को जानता है, जोर देकर कहा- इस धरना-प्रदर्शन से कुछ हासिल नहीं हुआ है. मैनेजमेंट को कोई मैसेज नहीं गया इससे..इस पर गुलाबी शर्टवाले मीडियाकर्मी लगभग बिफरते हुए कहा- ऐसा कैसे कह सकते हो ? महीनों से जो पैसा नहीं मिल रहा था, वो तो अब मिल रहा है और दूसरा कि मालिक पर ये दवाब तो है ही कि वो चैनल बंद नहीं कर रहा है.
पिछले दो-तीन महीने से जो वेतन नहीं मिले थे, इस चार दिन के धरना-प्रदर्शन से वो पैसे मिल गए और चैनल से दर्जनों मीडियाकर्मी के निकाले जाने के बावजूद चैनल बंद नहीं होगा, इसे एक उपलब्धि के रुप में देखने की उनकी विराट दृष्टि को मैं किसी भी हाल में समझ नहीं पाया. मन में एक ही सवाल उठ रहा था कि क्या यही दो-तीन महीने की बकाया राशि को पाने और दिलवाने के लिए फेसबुक से लेकर व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को 1 नवम्बर दोपहर 12 बजे नोएडा फिल्म सिटी में जुटने का आह्वान किया जा रहा था. कोई भी स्टेटस अपडेट करें, उसमे महुआ न्यूज पर हल्ला बोल के शंखनाद किए जा रहे थे. मैं गलती से रात के दस बजे मोबाईल ऑफ करना भूल गया था और देखा कि लोग रात के साढ़े ग्यारह बजे मैसेज तो मैसेज फोन करके आने की बात कह रहे हैं...मैं कुछ कह पाता इससे पहले ही न रुकनेवाली मेरी खांसी को लेकर चिंता जताते हुए आप ही कहने लगे- आप आराम करें..स्वास्थ्य का ध्यान रखें. हम मन से चाहकर भी शारीरिक रुप से असमर्थ होने की स्थिति में जा नहीं पाए थे.
उस पूरी बातचीत में ये साफतौर पर निकल आया कि किसी को किसी भी तरह की कम्पन्सेशन नहीं दी गई है..सिर्फ और सिर्फ जितने दिन काम किए, उसकी सैलरी..अब बताइए कि ये किस तरह की जीत और किस चरह मैनेजमेंट पर चोट करनेवाली बात हुई. मुझे गुलाबी शर्टवाले मीडियाकर्मी की पूरी बातचीत से लगा कि उन्होंने आखिर में आकर जिनमे कि और भी लोग शामिल होंगे, अपनी जीत की परिभाषा इतनी छोटी कर ली कि जिसकी व्याख्या मैनेजमेंट के पक्ष में खड़े होकर बात करने या हथियार डालकर इत्मिनान हो जाने के रुप में हो सकती है. आप चाहें तो हम जैसे बैचलर को कोस सकते हैं जिन पर घर की लगभग न के बराबर की जिम्मेदारी है..(ये अलग बात है कि अपनी जिंदगी की पूरी की पूरी जिम्मेदारी है ) कि जिन्हें घर चलाना होता है वो अपनी गर्दन झुकाकर ही रहें तो गति बनी रहती है या फिर जिंदगी में आगे बढ़ना है तो ऐसे पचड़े को खत्म करना ही जरुरी है..लेकिन सवाल तो है ही न कि जब आपकी लड़ाई न्यूज पैकेज की तरह ही चमकीली और तुरंता खत्म हो जानेवाली है, आपके लिए प्रतिरोध की परिभाषा, मैनेजमेंट का चरित्र बेहद सीमित और टिक-मार्क सवालों की तरह है जिसे कि आप अपने स्तर पर व्यावहारिक समझ के साथ सुलझा ही लेते हैं तो हम जैसे लोगों का आह्वान करने और पूरे माहौल को पैनिक करने की क्या जरुरत है ? ये बात कौन नहीं जानता कि आप जब एक मीडिया संस्थान में धरने पर बैठे होते हैं, उसी समय आपके कुछ साथी धरने पर बैठते-छिटकते हुए दूसरे संस्थान में जाने की पूरी संभावना तैयार कर चुके होते हैं..ये वहां के लोगों के बीच हो रही पूरी बातचीत से निकल कर भी आ रहा था और नेटवर्क 18 से लेकर आउटलुक के मामले में हमने पहले भी देखा है. अब ऐसी स्थिति में हल्ला-बोल, क्रांति, सत्ता के दलालों जैसे भारी-भरकम शब्दों को यूं ही जाया क्यों करते हैं ?
अभी आपको इन शब्दों के प्रयोग से दो-तीन महीने की बकाया सैलरी मिल जा रही हो और चैनल बंद न होने की शुशखबरी भी आप साझा कर पा रहे हों( ये अलग बात है कि जो यहां काम कर रहा होता है, उसकी क्या गलती होती है कि बेदखल कर दिया जाए और वो भी बिना किसी कम्पन्सेशन के) लेकिन बाहर आपका अच्छा प्रहसन बनता है और मालिक के दांत और नाखून पहले से ज्यादा नुकीले और धारदार होते हैं. संघर्ष की जमीन कितनी दलदली और कमजोर होती चली जाती है, ये अलग से बताने की जरुरत नहीं है..
इधर जो मीडियाकर्मी अब तक इस प्रदर्शन से कुछ भी हासिल न होने की बात को प्रमुखता से पकड़े था, हांक लगने पर बड़े ही मसखरे अंदाज में गेट की तरफ लिफाफा लेने बढ़ता है और हाथ में लिफाफा लेकर नाचते हुए जोर-जोर से अट्टहास की मुद्रा में सर्वनामों के बीच कहता है- हमने तो कहा कि हमे सैलरी नहीं चाहिए, नौकरी चाहिए...और फिर सीनियर की तरफ रुख करके कहता है- सर हम बोल दिए कि हमको नौकरी चाहिए..तभी एक सीनियर ने टोका- तुम्हारी तो बात चल ही रही है न...में जी. हो ही जाएगा..वो अजीब सी शक्ल बनाता है और हमसे और भी कुछ बताने की मुद्रा में आगे बढ़ता है लेकिन शाम गहराती जा रही थी और इतनी देर खड़े होकर हमने पूरी स्थिति को लगभग समझ लिया कि जिस वर्चुअल स्पेस की खबरों और संदेशों को पढ़कर हम वायरल पकड़कर कचोट खाकर पड़े रहे कि ओफ्फ, हमारे मीडियाकर्मी धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं, अधिकारों की मांग के लिए लड़ रहे हैं, हम उनके साथ, उनके पक्ष में, मालिक के खिलाफ आवाज बुलंद करने में साथ नहीं दे रहे हैं.
माफ कीजिएगा, जिंदगी जिंदादिली का नाम है टाइप की शायरी के बीच मेरी ट्रेनिंग नहीं हुई है और न ही हवा-हवाई माहौल में जीवन बीत रहा है..शब्दों और घटनाओं की एक क्रूरतम जमीन पर घसीटकर हम सब आगे बढ़ रहे हैं, ऐसे में इन्होंने जो कुछ भी किया उसकी अपनी अलग-अलग व्याख्या हो सकती है लेकिन जो प्रभाव और भारीपन लेकर मेट्रो की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए समझ पाया, वो ये कि मीडियाकर्मी प्रतिरोध और आंदोलन करते हुए भी हमे एहसास करा जाते हैं कि कहीं कुछ नहीं बदलेगा, जो है जैसा है वैसा ही चलेगा..अगर ये कठोर सच है फिर भी ऐसे विरोध प्रदर्शन के बीच रत्तीभर ही सही इसके ठीक विपरीत के उम्मीद का बचा रहना कितना जरुरी है, शायद वक्त रहते जाना जा सकेगा.
मूलतः प्रकाशित- मीडियाखबर डॉट कॉम
मूलतः प्रकाशित- मीडियाखबर डॉट कॉम
हम सरदार पटेल की मूर्ति के लिए निब बराबर भी लोहा नहीं देंगे
Posted On 9:12 pm by विनीत कुमार | 4 comments
सरदार वल्लभ भाई पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति बनवाने की नरेन्द्र मोदी की घोषणा और शिलान्यास की जितनी व्याख्या और आलोचना हो रही है, उससे कई गुना ताकतवर ढंग से और लगभग एक उबाउ सामग्री की शक्ल में "स्टैच्यू ऑफ यूनिटी" के विज्ञापन उन तमाम चैनलों पर तैर रहे हैं, जो इस तरह की नरेन्द्र मोदी की स्ट्रैटजी की जमकर आलोचना कर रहे हैं. इस आलोचना के कई सिरे खुल रहे हैं जिसे हमारे एंकर रवीश कुमार स्यूडो काल से लूडो काल की सेक्लुरिज्म की संज्ञा देते हैं. हम इन बहसों में विस्तार में न जाएं तो भी एक बात स्पष्ट है कि बात कांग्रेस के पाले में रहकर की जा रही हो या फिर बीजेपी के, दोनों के हिसाब से सरदार वल्लभ भाई पटेल को स्वतंत्रता सेनानी और कद्दावर नेता के रुप में दिखाया-बताया जा रहा है और इस एजेंड़े पर देश की दोनों बड़ी पार्टियां( जनाधार के बजाय रियलिटी शो करने में भी) एक ही बिन्दु पर खड़े नजर आते हैं.
मैं इतिहास का न तो विद्यार्थी हूं और न ही इतिहास में मेरी कोई गति रही लेकिन इतना जरुर है कि इतिहास का जो-जो टुकड़ा मीडिया और संचार को छूता है, कोशिश रहती है कि उन सिरे को भी समझने की कोशिश की जाए. इसी क्रम में जब मैं अपनी पहली किताब मंडी में मीडिया लिख रहा था और आकाशवाणी के रुप में पहले चंद लोगों की कोशिशें और बाद में एक पब्लिक ब्राडकास्टिंग माध्यम के रुप में इससे गुजरने का मौका मिला तभी ऐसी बहुत किताबों और दस्तावेजों से गुजरने का मौका मिला जो लिखी तो गई थी बड़ी ही श्रद्धाभाव से और कहीं न कहीं सरकार को उपकृत करने की भी मंशा से जिसके बार में वक्त गुजरता है के लेखक और कमरे भर से शुरु हुए दूरदर्शन से जुड़े रहे विद्याधर शुक्ल ने इंटरव्यू की शक्ल में हुई फोन पर की बातचीत में कहा कि आपको आकाशवाणी या दूरदर्शन पर ऐसी कई किताबें मिलेंगी जिससे गुजरने के बाद आपको लगेगा कि आकाशवाणी और दूरदर्शन की ऑफिस के एचआर के कागज नत्थी कर दिए हैं. उसका आप क्या कीजिएगा.
इसी कड़ी में मुझे रासबिहारी शर्मा की लिखी एक किताब "आकाशवाणी" मिली. रासबिहारी शर्मा की किताब प्रकाशन विभाग से छपी है. हम पूरी किताब पर बात न भी करें तो इसी सरदार वल्लभ भाई पटेल की बतौर प्रथम सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रवैये की चर्चा करें तो हमें ये समझने में दुविधा नहीं होगी कि आखिर क्यों नरेन्द्र मोदी को सरदार वल्लभ भाई पटेल पसंद हैं. रासबिहार शर्मा ने लिखा है-
देश के स्वतंत्र होने के पूर्व आकाशवाणी पर संगीत कार्यक्रम प्रायः तवायफों और मिरासियों द्वारा प्रस्तुत किए जाते थे. बहुत से लोग नहीं चाहते थे कि इतनी उत्कृष्ट कला ऐसे लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाए जिनका निजी जीवन अच्छा न हो. देश के स्वतंत्र होने के बाद जब सरदार वल्लभभाई पटेल ने सूचना मंत्री का पद संभाला तो उन्होंने निर्देश जारी किया कि जिनके निजी जीवन सार्वजनिक रुप से अफवाहें जुड़ीं हों, उन्हें प्रसारण की अनुमति न दी जाए. इस आदेश पर तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि नाचने-गानेवाली लड़कियां, जिन्हें 'बाईजी' कहा जाता था, रेडियो पर कार्यक्रम देने से रोक दी गई. उनकी जगह नए-नए कलाकार आने लगे.
सरदार पटेल के ऐसा करने के पीछे तत्कालीन समाज का एक नैतिक आग्रह जरुर रहा हो लेकिन इस आग्रह के कारण संगीत की एक बहुत बड़ी लोकप्रिय विधा खो रही थी, इस पर ध्यान नहीं दिया गया. 1952 में जब जॉ. केसकर सूचना प्रधानमंत्री बने तो संगीत कार्यक्रमों की एक निश्चित रुपरेखा तैयार की गई.
जो लोग अस्मितामूलक विमर्श और सब्लार्टन हिस्ट्री में दिलचस्पी रखते हैं, उन्हें ये अलग से बताने की जरुरत नहीं है कि पटेल के इस फैसले का क्या आशय बनता है और ऐसा करके उन्होंने न केवल एक जनवादी कला बल्कि एक उस जनसमुदाय को माध्यम की मुख्यधारा से बेदखल कर दिया जिसका मुरीद जमाना लंबे समय से रहा है बल्कि ये वही समुदाय रहा है जिनके पास घराने के लोग तहजीब सीखने भेजा करते थे.
अब जबकि नेहरु के बरक्स पटेल को खड़ा करने की एक नई कवायद जाहिर है नरेन्द्र मोदी की तरफ से शुरु हुई है और फिजा में ये बातें भी तैरने लगी है जो कि मोदी का ही वर्जन है कि पटेल को वाकायदा प्रधानमंत्री होना चाहिए था..प्रधानमंत्री तो दूर, एक मीडिया के छात्र होने के नाते हम तो ये कहना चाहते हैं कि क्या इस समझ के साथ पटेल को देश का प्रथम सूचना एवं प्रसारण मंत्री होना चाहिए था और उन्होंने ऐसा करके जो किया वो स्थिर होकर सोचें तो सही है ?
नायकों को खड़े करने और स्थापित को ध्वस्त करने की इस आपाधापी के बीच क्या ये सवाल नहीं है कि जब देश की ये राजनीतिक पार्टियां अपने तरीके से विज्ञापनों के लिए इतिहास के चेहरे का इस्तेमाल कर रही हैं, कि आप इन इतिहास के चेहरे को इस नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए कि जिस मंत्रालय से वो जुड़े, उसमें क्या और कैसे-कैसे फैसले लिए ?
माफ कीजिए, आपको जितना मन करे, पटेल के कद को उंचा करें..टीवी पर मिक्स वेज बनना-बनाना जारी रहेगा लेकिन नरेन्द्र मोदी विज्ञापन में जिस किसान-मजदूर से औजार का लोहा देकर योगदान देने की बात कर रहे हैं, मैं एक छात्र की हैसियत से अपनी कलम की निब बराबर भी लौहा नहीं दूंगा..इसलिए नहीं कि मैं इस तरह की मूर्ति, पाखंड और स्वयं नरेन्द्र मोदी से घोर असहमति रखता हूं बल्कि मैं बतौर सू. एवं. प्र. मंत्री पटेल के इस रवैये से घोर असहमति रखता हूं..हम ऐसे मंत्री की दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति कभी नहीं चाहता, उनकी मूर्ति मेरे भीतर ही बहुत पहले खंडित हो चुकी है.
सवाल सिर्फ कांग्रेस को कसंग्रेस यानी गलत लिखने का नहीं है.
Posted On 8:44 pm by विनीत कुमार | 2 comments
इंदौर शहर में राहुल गांधी की रैली में कांग्रेस की जगह कसंग्रेस के लिखे जाने को लेकर न्यूज चैनलों में खूब फुटेज काटे-चिपकाए जा रहे हैं. चैनलों का मुद्दा गाहे-बगाहे फेसबुक वॉल पर आ ही जाते हैं और हम भी इन मुद्दों को खूब शह देते हैं. लेकिन सवाल सिर्फ ये नहीं है कि जितनी देर रैली चली क्या उतनी देर तक देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के गलत लिखे नाम को देश के दर्जनों चैनलों ने विजुअलर्स काटे या फिर सवाल ये भी है कि आखिर ऐसी गलतियां किस कोख से पैदा होती हैं..क्या ये राजनीति में तेजी से भाषागत लापरवाही और पढ़ने-लिखने की दुनिया के प्रति यकीन के खत्म हो जाने का तो नहीं. बैनर-पोस्टर बनवाते वक्त ऐसे ही कुछ अनुभव रहे जिन्हें आप सबसे साझा करना जरुरी लगा-
आप पोस्टर-बैनर-किऑस्क बनवाने कभी घंटाघर, बल्लीमारान या अपने शहर की ऐसी किसी जगह पर गए हैं जहां अलग-अलग राजनीतिक पार्टी के लोग भी होली-दीवाली-लोहड़ी-ईद की मुबारकबाद हेतु पोस्टर-बैनर बनवाने हेतु पाए जाते हैं..जाहिर है कि इस काम के लिए कोई शीर्ष के नेता नहीं होते, पार्टी के वो छुटभैय्ये लोग जिन्हें शुरु से इस बात पर यकीन रहा है कि नेतागिरी झाड़ने के लिए क्लासरुम को जितनी जल्दी हो, तलाक दे दो. नतीजा हिन्दी की क्लास में राजनीति विज्ञान के मास्टर की टीटीएम करते रहे होंगे, राजनीति विज्ञान की क्लास में हिन्दी के मास्टर की चरण वंदना.
अब देखिए, फजीहत कैसे शुरु होती है, आंखोंदेखी हाल बता रहा हूं. नवरात्रा से लेकर छठ पूजा तक रेलसाइज में बधाई देते हुए शहादरा से लेकर बडोदरा तक के अपनी पार्टी के नेताओं की अंडानुमा खांचे में पासपोर्ट साइज फोटो लगाते हुए, नीचे परिचय देते हुए, पार्टी लोगों,छातीकूट नारे डालते हुए, दिनांक, दिन,साल-सवंत शामिल करते हुए, मौजूदा आकाओं से लेकर पूर्वजों तक को याद करते हुए एक बैनर बनवानी है..अब इस छुटभैय्ये नेताओं की परेशानी कई स्तरों पर होती है.
अव्वल तो ये कि अपनी पार्टी के दो-तीन उपर के और दो-तीन घुटने के लोगों को छोड़कर बाकी लोगों की तस्वीर पहचान ही नहीं पाते. ऐसे में वो गूगल इमेज का सहारा लेते हैं. अब गोया टाइप किया अपनी पार्टी के मुसद्दीलाल को तो एक दर्जन मुसद्दीलाल की तस्वीर है..चाबड़ी बाजार में गत्ते बेचनेवाले से लेकर सिनेमाहॉल के मैनेजर तक. किसको लगाए. माने किसकी तस्वीर लगाए. परेशान होकर बार-बार फोन करता है, फोन लगने में देर होती है तो क़ॉमिक रिलीफ के लिए बैन के लं, बैन की लौ, मां की..अब किसको लगाउं.
इधर पार्टी के पूर्वजों को शामिल करने, कब्जाने कहिए तो इतनी आपाधापी मची है कि जिस स्वतंत्रता सेनानी या संस्कृतिवाहक को अमूक पार्टी शामिल करती थी, अब उसके तीन क्लाएंट पैदा हो गए हैं. गोकि ध्यान ये रखना है कि किसकी कैसी पोज अपनी पार्टी के काम की है. एक पूर्वज अगर कभी हंसिया भी उठाया हो और गीता भी तो कौन सी वाली तस्वीर जानी है, पता नहीं है क्योंकि विचारधारा समझने-समझाने वक्त तो ये क्लासऱुम को तलाक देकर बत्ती बनाने चले गए थे.
दूसरी समस्या आती है स्लोगन लगाने की..इसमे भी ऐसा पेंच हुआ है कि पहले प्रतिरोध, अधिकार,क्रांति, राष्ट्र, मानवता कई ऐसे शब्द थे जो किसी पर्टीकुलर पार्टी को लेकर पेटेंट टाइप से हुआ करते थे तो थोड़ी सुविधा थी..अब तो चाइनिज फूड की तरह सबमे सब शब्द मिक्स है..अब बंदे को स्लोगन लगवाने में भारी फजीहत होती है..खैर, बैन, मां के अखंड जाप के बीच ये लग भी गया तो अब बारी आती है नाम सही-सही लिखने और हर शब्द में दो से तीन से ज्यादा गलतियां न रहने देने की..दो-तीन तो समझ और नजर ही नहीं आने हैं.
गाली-गलौच करते हुए आखिर में बैनर स्क्रीन पर कंपोज हो गया, मतलब छुटभैय्ये की तरफ से मामला डन. ऐसा कई बार हुआ है कि छुटभैय्ये ने जोर से कहा है- चलो जी, अब इसकी बीस बैनर प्रिंट निकाल दो और मैं अपने काम की जल्दी और हड़बड़ी के बीच भी उनकी स्क्रीन पर नजर मारता हूं और अमूमन चौड़ी देह-दशावाले इन छुटभैय्ये से धीमी आवाज में कहता हूं- भैय्या, अगर आप बुरा न मानें तो मैं एक बार आप जो बैनर निकलवा रहे हैं, देख लूं. मेरी हिन्दी भी कोई खास और दुरुस्त नहीं लेकिन सरकार का लाखों रुपया इसी भाषा के नाम पर पेट में गया है तो पता नहीं क्यों एक किस्म का नैतिक दवाब और भावनात्मक लगाव तो महसूस करता ही हूं..अक्सर वो मना नहीं करते और अपनी तरफ से जितना बन पड़ता है, मैं वर्तनी ठीक कर देता हूं. वो फटाफट ठीक करते देखते रहते हैं और आखिर तक आते-आते श्रद्धाभाव से भावुक हो जाते हैं. धीरे-धीरे उनके भारी-भरकम देह-दशा के प्रति मेरा भय जाता रहता है. ओजी, आप करते क्या हो, ये पूछकर शुक्रिया अदा करते हैं और एकाध बार तो सौ-दो सौ रुपये या फिर मेरे बैनर के भी पैसे उसी में ही काट लेने की घटना घटी है. मेरे मना करने पर अपनी विजिटिंग कार्ड पकड़ा जाते हैं और फिर अपनी ठसक में कहते हैं- सरजी, चन्द्रावलनगर में कोई यूं छू भी दे आपको तो बताना, बैन की ऐसा टाइट करुंगा कि आप भी याद करोगे..मैं जरुर-जरुर कहकर विदा देता हूं.
दो-चार बार ऐसा भी हुआ है कि मैं एकदम से ऐन वक्त पर तब पहुंचता हूं जब इन छुटभैय्ये नेताओं ने बैनर छपवा लिए होते हैं और खोलकर उसकी साइज और फ्रेम देख रहे होते हैं..मुझसे रहा नहीं जाता और कहता हूं- ये आपने स्वतंत्रता ऐसे क्यों लिखा है, वो मेरी तरफ घूरते हैं..मैं अपना वाक्य दुरुस्त करता हूं- आपने स्वतंत्रता ऐसे क्यों छपवाए..तब उनकी देह भाषा बदल जाती है...बैन चो..ये टाइपिस्टवाले ने रेड पीट दी है..अबे ओए, मादरचो, स्साले बेइज्जती कराता है, ऐसे ही लिखते हैं स्वतंत्रता..
इधर स्क्रीन पर ठीक करवाने और छपे की गलती पकड़ने, दोनों ही स्थिति में दूकानदार मुझे दमभर कोसता है..आपने दोबारा ठीक करवाया, आपका क्या जाता है..आपको पता है, इतनी देर में मैं तीन बैनर का काम कर लेता..या फिर जब छप गया था तो आपको बोलने की क्या जरुरत थी, अब ये नया छापने कह रहा है..आपका क्या जाता है..जब वो झल्लाकर और बेहद ही तीखे अंदाज में मुझे ऐसा कहता है तो मैं बेहद भावुक हो जाता हूं- तुम नए वाले बैनर के पैसे मुझे ले लेना. मुझे हिन्दी में मिले जेआरएफ कन्टीजेंसी के पैसे का ध्यान आता है..कितना- आठ सौ..ये तो एक महीने की भी नहीं है..हम हिन्दी सिर्फ पढ़ने पर ही क्यों, दुरुस्त करवाने पर भी तो कुछ खर्च कर ही सकते हैं.
एक से एक प्रगतिशील, हक और हाशिए के समाज की बात करनेवाले लोग और बेहद बारीकी से अपनी बात रखनेवाले को देखता हूं कि बकरी चराने जैसे पदबंध का इस्तेमाल इस तरह से करते हैं जैसे कि ये दुनिया का सबसे आसान,बेगार और बिना दिमाग का काम है. ता नहीं पढ़ने-लिखनेवाली दुनिया में व्यंग्य में भैंस चराना,बकरी चराना,गाय हांकना, दूध दूहना,चारा काटना जैसी क्रियाओं का प्रयोग करता है तो लगता है कि शारीरिक श्रम को किसी न किसी रुप में कमतर करके देखा और उसका उपहास उड़ाया जा रहा है. दूसरा कि इसका दिमाग से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है..बाकी वर्ग,समाज, पहचान की राजनीति के तहत इसकी अलग व्याख्या हो सकती है.
मेरी पिछली सात पीढ़ी में से न तो किसी ने खेती का काम किया और न ही पशुपालन..मैंने अपने परिवार की वंशावली देखने के साथ-साथ इकलौते चाचा से उन सबों का वर्णन और काम विस्तार से सुना है..सबके सब शुरु से ही जमींदारी और बाद में बिजनेस में ही रहे. लेकिन छुटपन में जब स्कूल की ज्यादा दिनों की छुट्टियां होती और मैं अपने बिहारशरीफ के घर के बड़े से बगीचे में चीटिंयों से, चिड़ियों से, गिलहरियों से बातें करता, अमरुद,पपीते तोड़ता, अपनी बहन और उसकी सहेलियों के साथ खिचड़ी बनाता तो मां इसी व्यंग्य में कहा करती- यही हाल रहा तो बकरी चराओगे बड़े होकर, हल जोतेगे, यही चील-कौआ, खोटा-पिपरी( मां चींटी को खोटा-पिपरी,अखरी-पिपरी कहती) से गप्प-शप्प करके पेट भरेगा. यही सब काम देगा तुमको. बौडाहा कहीं का. जिस तरह से लड़कियों के किसी तरह की गलती करने, चाहे वो बर्तन मांजने में राख या विम पाउडर के लगे रह जाने की हो या फिर चार आदमी के सामने दोनों पैर फैलाकर बैठने की, कहा जाता- यही सब लक्षण लेकर ससुराल जाना, खानदान का नाम रौशन होगा..मेरी मां बचपन से ही ड़राती- कुछ करेगा-धरेगा नहीं, ढंग से पढ़ेगा नहीं तो जो आवेगी, उसको क्या खिलावेगा, भाग नहीं जाएगी, तुमको छोड़कर...ऐसे ही गाछ-बिरिछ के बीच पड़े-पड़े कुक्कुर-बिलाय से बतिआता रहेगा तो पगला समझके भाग जाएगी तुमको छोड़कर..और भी बहुत कुछ. हमारे भीतर वो बचपन से ये भाव भरती रही कि तुम्हें बड़ा होकर सिर्फ अपना नहीं, एक और की जिम्मेवारी उठानी है और फिर बच्चे-कच्चे तो होंगे ही.
लेकिन मां ने बार-बार पढ़ने की हिदायत देने के बीच कभी नहीं कहा कि अगर तुम नहीं पढ़ोगे तो अपने पापा की तरह कि ब्लाउज-पेटीकोट-साड़ी बेचोगे, अपने मामू-नाना की तरह तेल बेचोगे. जिस गाय,भैंस,बकरी चराने का काम मेरी पिछली सात पीढ़ी ने कभी नहीं किया, मां वही करने का उदाहरण देती. मेरे झुमरी तिलैया के मनोज भैया जो कि उम्र में मुझसे कम से कम बारह साल बड़े होंगे, उनकी मां यानी मेरी बुआ भी ऐसे ही कहा करती थी लेकिन बाद में उन्होंने बहुत मेहनत से पढ़ाई की..यूपीएससी ने उनको बड़ा झटका दिया और एनटीपीसी के अधिकारी के इस बेटे ने हारकर और प्रतिरोध में जूते-चप्पल की दूकान खोल ली..जाहिर है, एक सभ्य-प्रतिष्ठित समाज में इससे फूफा की नाक कट गयी और मार ताने.. बीए में जब निराला की रचना बिल्लेसुर बकरिहा पढ़ा तो मनोज भैया की जब-तब याद आने लगी..वही मनोज भैया जिन्हें मेरी दीदी सहित और भी कई लड़कियां कह चुकी थी- आपको मॉडलिंग करनी चाहिए. दीदी ने तो पहली बार जब उन्हें ग्राहकों के आगे जूते निकालते देखा तो फक्क से रो गई- क्या धंधा शुरु कर दिए मनोज भैय्या मां, कोई और काम नहीं मिला था इनको.. फूफा के खानदान का सबसे बड़ा चिराग जूते-चप्पल के धंधे से अब इतने खुश और व्यस्त हैं कि जितनी कमाई बाकी होनहार लौंड़ों ने नहीं की है, उससे कई गुना वो अबतक कर चुके हैं. खैर,
मां जब इस तरह से बकरी चराने के ताने दिया करती तो मन में कौतूहल तो बन ही गया था कि आखिर बकरी चराने में ऐसा है क्या जो मां अक्सर कहा करती है..इतना तो समझ आता था कि मां ऐसा कहकर ये संकेत दिया करती है कि तुम भी मुसलमानों और ग्वालों के बच्चों की तरह हो जाओगे. बिहारशरीफ में मेरा आखिर घर हिन्दू का था. उसके बाद सिर्फ मुसलमानों का और आसपास बकरियों की कोई कमी न थी..और अर्जुनमा के साथ बकरियों की पूरी फौज आती जब वो खोए पहुंचाने मेरे घर आता. लिहाजा, एक दिन मैंने और मेरे दोस्त सुजीत ने राह चलती एक बकरी को पकड़ लिया और अपने बगीचे में ले गए..पहले तो बकरी घबरा गई लेकिन हमदोनों ने उसके आगे दनादन पत्तियां तोड़कर डालने शुरु कर दिए. जानवर में विवेक नहीं होता, ये भी मुहावरे से ही निकलकर आता है लेकिन पता नहीं क्यों मुझे इंसानों से ज्यादा संवेदनशील लगते हैं. जिस बकरी को दिनभर पेटभर चारा नहीं मिलता हो, उसके आगे नाना प्रकार के फूलों,पौधों की पत्तियां किसी खजाने से कम न थे लेकिन उसने उन्हें सूंघा तक नहीं. सुजीत ने उसके गले में रस्सी डाल दी थी और पीतल के एक लोटे के साथ हम उसकी थन पकड़कर बैठ गए. अभी थन को एक बार ही नीचे खींचा था, ये सोचकर कि दूध की धार ठीक वैसी ही निकलेगी जैसा कि पोस्टरों में शिवलिंग के उपर गायों के थन सटा देने भर से निकलने के दिखाए जाते हैं. दूध तो बाद में निकलता, एक ही बार खींचने से मेरे हाथ चढ़ गए और तत्काल बकरी ने खुर से दे मारा. मेरी आंखों में आंसू आ गए और जब तक सुजीत आता कि बकरी ने उसके साथ ये काम दोहराया.. वो तो गुस्से में आकर दनादन बकरी को दिया लेकिन मैं शरीर से ज्यादा मन से आहत हो गया था. मुझे रौदिया, रमभजुआ के उन बाल-बच्चों का ख्याल आ रहा था जो वीडियो गेम न खेलकर रस ले-लेकर दूध निकाल लेते..हमने उनके आगे अपने को बहुत हारा हुआ महसूस किया..हम फेसबुक,ब्लॉग और लेखों में ज्ञान छांटनेवाले लोग ऐसे कई मोर्चे पर हारकर यहां पहुंचे हैं जिसे हमने स्वीकार करने के बजाय उन मोर्चों का सिर्फ उपहास उड़ाया है.
बकरी को हमने छोड़ दिया और सुजीत ने कहा- अपने बस का ये काम नहीं है यार..हम तो पढ़ भी नहीं सकते, सच कहो तो पढ़ना ही नहीं चाहते लेकिन तू ये सब छोड़, लग ज पढ़ने में. सुजीत अब बिहारशरीफ में तीन-चार शोरुम और दूकान का मालिक है जिसमे उनके भैय्या और पापा साथ हैं. मेरा तो वो बचपन का शहर ही हमेशा के लिए छूट गया..
लेकिन मां के ताने और बकरी दूहने की उस घटना जस की तस मेरे जेहन में है..ऐसे में इन दिनों जब लगातार पढ़ने के मुकाबले बकरी चराने का मुहावरा बड़े ही तंज अंदाज में देखा तो वो सब ध्यान आ गया..मैं रौदिया, अर्जुनमा, रमभजुा के उन तमाम बच्चों को याद करता हूं जिसके आगे आधा किलो,एक किलो ज्यादा दूध देने के लिए गिड़गिड़ाते थे और चूंकि उसने मेरी ही और मेरे से कम उम्र में दूध दूहना शुरु कर दिया था तो ग्राहकों से डील करने की शैली अपने पिता से अपना ली थी..जबरदस्त कॉन्फीडेंस में मना कर देता और मैं मां के आगे पिटे हुए बच्चे की शक्ल लेकर चला जाता. वो अमूल,सुधा,मदर डेयरी का जमाना नहीं था कि जितनी मर्जी पैकेट ले लो..ये वो दौर था जब आप अपनी जेब में नोटों की गड्डी भरकर भी मनमर्जी दूध नहीं खरीद सकते थे.
अपने मोहल्ले के उन तमाम रेहाना,अफजल,मुशर्रत,फातिमा और उनके भाईयों-बहनों के चेहरे याद करता हूं जो बकरीद के एक महीने पहले आयी बकरियों को शौकिया चराते थे, हमारे साथ पब्लिक स्कूल में पढ़ा करते.उनके आगे बैठकर राइम्स याद करते..कभी लगा नहीं कि बकरी चराना आसान काम है और बिना दिमाग का काम है..हमने बकरियों के नब्ज को बहुत करीब से देखा है.
अब जब भी इस मुहावरे के साथ बकरियों और उनसे जुड़े लोगों को याद करता हूं तो छुटपन के दिनों से सटकर बिल्लेसुर बकरिहा की याद आती है जिसे मैंने कम से कम बीस बार पढ़े होंगे..हमारा जो प्रोगेसिव तबका बकरी चराने को लेकर इस तरह से सिनिकल है, एक बार इसे पढ़ता और उसे शेयर करता है तो समझ सकेगा कि निराला का बिल्लेसुर बैसवाडे का ब्राह्मण दुनियाभर के काम छोड़कर बकरी चराने का काम करता है तो उससे सामाजिक मान्यताओं के ढांचे कैसे दरकते हैं और पालनेवाले की जिंदगी कैसे बदलती जाती है.
आपका न्यजू एंकर पूरे नवरात्र तक उसी तरह सज-संवरकर माता रानी पर स्पेशल प्रोग्राम लेकर आता रहा, जिस तैयारी से वो किसी मंदिर के आगे मत्था टेकने जाता या जाती. उनमे से कुछ ने तो सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीर पहले या बाद में साझा भी की. एक बार जब इस बहरुपिया पोशाक में सज गए तो फिर भाषा तो भक्तगण और श्रद्धालु की तरह तो अपने आप निकलने लग जाती है...और फिर पैनल में बाबा होंगे कि समाज वैज्ञानिक ये भी अलग से समझना नहीं होता है. इसका सीधा मतलब है कि वो ऐसे कार्यक्रम और इस हुलिए में उसकी प्रस्तुति इसलिए नहीं करते कि आप और हम ऐसा चाहते हैं. उनका खुद का भी यकीन इन सबमे होता है. नहीं तो एक तर्क तो साफ है न कि चैनल उसे ऐसा करने पर ही बने रहने देगा तो रोजी-रोटी पर लात मारकर कैसे प्रगतिशील बनें लेकिन सोशल मीडिया पर अगर ऐसा करने के पीछे कोई मजबूरी नहीं है तो भी कर रहे हैं इसका मतलब है कि वो इन सब पर यकीन करते हुए ऐसा ही करना चाहते हैं. लेकिन
कल को ऐसे ही कार्यक्रमों का पाखंड़ फैलाए जाने, अंधविश्वास और लोगों में वैज्ञानिक सोच को ध्वस्त करके अंधश्रद्धा का प्रसार के आरोप लगाकर विरोध होते हैं तो आप दर्शकों का इस्तेमाल इस रुप में होगा कि जब लोग देखना चाहते हैं तो हम क्या कर सकते हैं ? आप अपने उन तमाम चहेते टीवी एंकर, रिपोर्टरों पर नजर रखिए, उनकी फेसबुक वॉल और ट्विटर पर नजर बनाए रखिए, कल को काम आएगा ये पूछने में कि टीवी स्क्रीन पर तो पाखंड फैलाना आपकी मजबूरी है क्योंकि उसका संबंध चैनल की बैलेंस शीट से है लेकिन सोशल मीडिया पर उसी तरह कंजक पूजते-पुजवाते, धर्म के नाम पर लड़की बच्ची को भावनात्मक रुप से कुंद करने मरे हुए चमगादड़ों के माफिक रक्षा कवच लपेटने और तिलक लगवाने के पहले रुमाल रखने का जो कर्मकांड किया और बाकायदा उसकी तस्वीर चमका रहे हैं, उसके पीछे हम जैसों की इच्छा का क्या संबंध है ? कुछ नहीं तो एक सवाल तो बनता ही है कि क्या हम देश के धुरंधर एंकरों, रिपोर्टरों और मीडियाकर्मियों को इसी तरह बिना-सिर पैर के क्रियाकर्मों और पाखंड़ में फंसा देखना चाहते हैं या फिर उम्मीद करते हैं कि वो जो जैसा है, उससे अलग और बेहतर समाज के बारे में एक विकल्प दे. ये संभव है कि बेहद भारी-भरकम बात और कामना हो गयी लेकिन यही सवाल जब समाज के सिरे से उठाए जाएंगे तो ये पाखंड़ी मीडियाकर्मी आप दर्शकों को अंधविश्वासी, पिछड़ा और गंवार बताकर कॉलर, आंचल तानकर खड़े हो जाएंगे और प्रोग्रेसिव मसीहा बनकर पूरी बहस पर काबिज हो जाएंगे.
पिछले दिनों एक मीडिया सेमिनार में जब लंच के ठीक पहले हस्ताक्षर के लिए कागज घुमाए जा रहे थे और वो कागज जब मुझ तक आया तो मैंने भी नाम, मेल आइडी के साथ हस्ताक्षर कर दिया.. लंच ब्रेक होते ही कुछ लोगों ने मुझे घेर लिया और मजे लेने शुरु कर दिए- क्या विनीतजी, आपका भी नवरात्र चल रहा है, फेसबुक पर तो बड़े क्रांतिकारी बने फिरते हैं ? मैंने कहा, नहीं तो..आगे उनका जवाब था तो व्रतवाली थाली पर साइन कैसे कर दिए ? मैंने स्थिति साफ करते हुए कहा कि मैं तो उसे हाजिरी समझ रहा था और सच पूछिए तो यहां तक मैं सोच भी नहीं पाया कि किसी मीडिया सेमिनार में अलग से व्रत की थाली का इंतजाम होगा औऱ लोगों की धार्मिक भावनाओं का इस तरह का ख्याल रखा जाएगा..
नोएडा फिल्म सिटी चले जाइए, दोपहर से लेकर शाम तक मीडियाकर्मियों की बातों पर गौर कीजिए, विश्वविद्यालय चले जाइए..तथाकथित भविष्य गढ़नेवाले शिक्षकों के बीच थोड़ा वक्त बिताइए..बातचीत का बड़ा हिस्सा नवरात्र, खाने के परहेज और फलां-फलां चीजों की मनाही पर केंद्रित होगी..जैसे अचानक से शहर को किसी संक्रामक रोग ने घेर लिया हो जिसमे एक ही साथ दर्जनभर चीजें न खाने की मनाही हो और उससे दुगुनी दो दर्जन चीजें खाने पर जोर हो. इन दोनों सर्किट में सबसे ज्यादा प्रोग्रेसिव, प्रो ह्यूमन और भविष्य की दशा-दिशा समझने-समझाने के दावे किए जाते हैं लेकिन करीब से देखिए, उनकी पूरी जीवन पद्धति उन्हीं पाखंड़ों, घोर असहिष्णु और भाग्यवादी विधानों में उलझा है जिसके लिए वो कम पढ़े-लिखे, निरक्षर लोगों को कोसते आए हैं.
ऐसे में होता क्या है ? टीवी स्क्रीन पर वो खबरें, स्पेशल प्रोग्राम और हार्ड कोर न्यूज में भी अंध आस्था और पाखंड के रेशे तैरते हैं जिन पर कि मीडियाकर्मियों को यकीन है. मुझे नहीं पता कि ये मीडियाकर्मी पूरे नवरात्र के दौरान क्या न खाना है के साथ-साथ क्या-क्या खबर नहीं चलानी है का भी निषेध करते हों. इधर अकादमिक दुनिया का बड़ा हिस्सा उन्हीं बेसिर-पैर की मान्यताओं के आगे हथियार डालकर उसे आगे बढ़ाता नजर आता है, जिसके जाले साफ करने के लिए साल में उन्हें लाखों रुपये दिए जाते हैं. उन्हें आम लोगों के टैक्स के पैसे कतई इस बात के लिए नहीं दिए जाते कि वो छात्रों के बीच ऐसे पाखंड़ का प्रसार करें, उसके प्रति विश्वास को बढ़ाएं, ये काम तो देश के हजारों खोमचे टाइप के मंदिरों के साथ-साथ अन्डर्वल्ड की कोठियों की तरह बने भव्य मंदिर कर ही रहे हैं. उनका काम इससे अलग है और ये बताना भी कि इसका हमारे जीवन, पर्यावरण, सोचने के तरीके, संसाधनों के दुरुपयोग से किस तरह है.
लेकिन मीडिया और अकादमिक दुनिया दोनों मिलकर इस सिरे से बात न करके उन्हीं जालों को विस्तार देते हैं जो आगे चलकर धर्म और आस्था के नाम पर एक ऐसे समाज को पनपने देने में सहयोग कर रहे हैं जिसके भीतर हम जैसों को तो छोड़िए खुद उनके जीने लायक भी नहीं रह जाएगा..और ये संकट सिर्फ वैचारिकी का नहीं है. िइसका संबंध ठोस रुप से हमारे जीने की बुनियादी जरुरतों और प्राकृतिक साधनों से है. हवा में पटाखे जलाने, रंगों और बिजली का अत्यधिक इस्तेमाल करने से जो जहरीली गैस, हवा और ध्वनि का प्रसार हो रहा है, क्या उसका असर सिर्फ नास्तिकों पर होगा और जो श्रद्धा में आकंठ डूबे हैं, उन्हें प्रदूषण छोड़ देगा ? आज जो ये चैनलों के लोग फेसबुक पर रावण चलने-जलाने की तस्वीरें चमका रहे हैं, उन्हें तो अभी लग रहा है कि लोगों के बीच सिलेब्रेटी होने की ठसक पैदा कर रहे हैं कि वो कितने करीब से चीजों को देख पा रहे हैं लेकिन असल में वो कितने जड़ और दुर्भाग्य से ऐसे पेशे से जुड़े हैं जिस पर सिर्फ पेट भरने की जिम्मेदारी नहीं है, भूखे पेट के पक्ष से भी सोचने का है..लेकिन नहीं, वो उनके भूख के बारे में सोचेंगे, इससे पहले उनके बीच की शुद्ध हवा, पानी और परिवेश छीन ले रहे हैं.
मैं झारखंड़ से हूं. पांच साल रांची के संत जेवियर्स कॉलेज में पढ़ते हुए देर रात झुंड़ में आए उन्हीं आदिवासियों, कलाकारों को उनके घर तक छोड़ने का जब-तब मौका मिलता रहा जिन्हें बेहद पिछड़ा करार देकर दिल्ली में देखता हूं लाखों रुपये सेमिनार पर फूंके जाते हैं. मुझे ऐसे सेमिनारों के कर्णधारों पर बेहद ही अफसोस और कभी-कभी घृणा भी होती है कि ये सच से कितने दूर होकर चीजों को देख रहे हैं. त्योहार, परंपरा और संस्कृति के नाम पर यही आदिवासी अपने जंगल, जमीन और परिवेश को पर्यावरण की दृष्टि से कितने वैज्ञानिक ढंग से सोचते हैं, ये हमारे आपके-बूते की चीज नहीं है.. उनके त्याहारों में ये शामिल ही है कि सामान्य दिनों के मुकाबले प्रकृति और और कैसे जीवन का जरुरी हिस्सा के रुप में देखा-समझा जाए. हमारे अधिकांश त्योहार भी पौराणिक मान्यताओं और विश्वासों की बहस से थोड़ी देर अलगाकर देखें तो पर्यावरण और साफ-सुथरे वातावरण को विस्तार देने का ही थी लेकिन उन सबसे काटकर अब ये सिर्फ और सिर्फ प्रदूषण पैदा करने की फैक्ट्री में तब्दील होता चला गया.
हम मीडिया की कक्षाओं में अक्सर पढ़ाते हैं, अब खबरों की प्रकृति तेजी से बदल रही है. पहले की तरह नहीं है कि कोई खेल की खबर है तो वो आखिर तक खेल की ही रहेगी..उसमे थोड़े ही वक्त में बिजनेस और फिर राजनीति शामिल हो जाएगी और इस तरह वो हाइब्रिड बीट की खबर हो जाएगी. चैनल बाकी खबरों के साथ ऐसा करके दिखाते भी हैं लेकिन इस तरह के त्योहारों और धार्मिक पाखंड़ों में वो एकतरफा ही बने रहते हैं. अघर वो ऐसा न करके खबर की शिफ्टिंग करें, होली-दीवाली पर रंग और पटाखे की खपत के आंकड़े देने के साथ-साथ बाजार-दूकान सजने के पहले दिन से प्रदूषण बढ़ने की खबर, शहर को नरक और कूड़ाघर में तब्दील होने की खबर दें तो यकीन मानिए वो बहुत ही मजबूती से लोगों के बीच ये राय कायम कर सकेंगे कि धर्म के नाम पर हम जो कुछ भी कर रहे हैं दरअसल वो हम अपने लिए ही अर्थी साजने का काम कर रहे हैं..मतलब ये कि मीडिया में जो पर्यावरण कभी गंभीर मुद्दा नहीं रहा, वो ऐसे मौके पर एक अनिवार्य रिपोर्टिंग का हिस्सा बनकर सामने आ सकता है..लेकिन नहीं, हम उम्मीद किससे कर रहे हैं..उन्हीं मीडियाकर्मियों से जो बाबाओं को चैनल पर बुलाते हैं तो टीवी शो के लिए लेकिन लगे हाथ पूजा, सगाई और फ्लैट खरीदने के शुभ दिन भी पूछ लेते हैं और वाशरुम ले जाने के बहाने हाथ भी दिखला लेते हैं..
आप कहते हैं हमारा मीडिया मैनेज्ड है, बिका हुआ है. राज्य टीवी से आए ज्ञानेन्द्र पांडेय ने तो यहां तक कहा कि संपादक दलाल हो गए हैं और वो अपने मालिकों के लिए टिकटों के लिए काम करते हैं..इस बात पर जो आगे चर्चा हुई और हमलोगों ने भी इसे ब्राक मीडिया के सुर्खियों में शामिल क्या तो अगले दिन के सत्र में दस फीसदी ठीक है, कहकर दुरुस्त किया. ये सारी बातें अपनी जगह ठीक है. लेकिन इस दिन के लिए अखबार निकालने के दौरान जो सवाल मेरे मन में बार-बार आता रहा, वो ये कि आप मीडिया को कितना आजाद और तटस्थ रहने देते हैं ? आप क्यों चाहते हैं को वो आपके इशारे, आपकी इच्छा और सुविधा के हिसाब से लिखे-बोले ? मैं तो बार-बार यही सोच रहा था कि ये अखबार तो सिर्फ कार्यशाला में हो रही बातचीत को छाप रहा है और पढ़े-लिखे, डिग्रीधारियों के बीच जा रहा है. इसमे अगर राजनीतिक खबरें आने लगे, स्थानीय मुद्दे उठाए जाने लगे और व्यवस्था की आलोचना होने लगे तब लोग क्या-क्या करेंगे ? ऐसे में आपका ये भ्रम बार-बार टूटेगा, छिजेगा कि पढ़े-लिखे समाज का बड़ा हिस्सा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति को गंभीरता से लेता है या उसे बचाए रखने की कोशिश में शामिल हैं.
अखबार की हार्ड कॉपी हमने किसी को भी फ्री में नहीं दी. सिर्फ दो प्रति विभाग को. बाकी टीम के लोगों के लिए. हम पैनड्राइव में इसकी प्रति लेकर घूमते थे. जिसे चाहिए, तुरंत ट्रांसफर कर लो..लेकिन फ्री की कॉपी न देने का अलग दवाब बना रहा जबकि हम जानते थे कि हमारे प्रशिक्षु पत्रकारों ने अपनी आइसक्रीम और कुलचे के पैसे बचाकर इस अखबार के लिए किया है, अगर फ्री में बांटने लगें तो अखबार लोगों के पैरों के नीचे होंगे..
इधर हमने पूरी तरह अपने मुताबिक छापने की कोशिश की. ये विभाग का अखबार नहीं था और न ही किसी तरह का हमने कॉलेज से सहयोग लिया था इसलिए हम औपचारिक खबरों को न छापने के लिए आजाद थे. हम सारे वक्ताओं को शामिल भी नहीं करते..जिनकी बात लगती कि लोगों के बीच जानी चाहिए, बस उन्हें ही जगह देते. बाद में स्पेस का दवाब बढ़ता गया तो प्रमोद जोशी, हिन्दुस्तान की पूरी बातचीत को एक छोटे से बॉक्स में डालना पड़ गया, कईयों की बात रह गयी.
लेकिन हमने एक ही अंक निकालने के बाद देखा कि दोस्ती-यारी, औपचारिकता और बड़े-छोटे का संबंध जोड़कर ही सही, दवाब बनने शुरु हो गए. एक कॉलेज के शिक्षक ने अगले दिन भी जब अपनी कोई तस्वीर अखबार में नहीं देखी तो बिफरते हुए कहा- ये तो "यलो जर्नलिज्म है". हमलोग सुबह से इतना काम कर रहे हैं और आपने एक भी तस्वीर नहीं छापी. उन्होंने अपनी तस्वीर न छापे जाने के लिए जब यलो जर्नलिज्म यानी पीत पत्रकारिता का इस्तेमाल किया तो मुझे हंसी से कहीं ज्यादा अफसोस हुआ. लगा हम शब्दों को लेकर कितने लापरवाह और बर्बर समझ रखते हैं. कितने बड़े शब्द को इन्होंने कैसे रिड्यूस कर दिया ? इसी तरह हमारी ब्राक मीडिया टीम के प्रशिक्षु पत्रकारों से कुछ-कुछ बोलने और बच्चा-बच्चा बताकर दवाब बनाने की कोशिश करने लगे. लोगों की पूरी ट्रीटमेंट में कहीं से भी उन्हें एक उभरते मीडियाकर्मी होने का एहसास पैदा होने नहीं देना था.
तीन दिन का अखबार निकालना हमारे लिए लोगों को जानने का लिटमस पेपर जैसा रहा. हम बेहतर समझ पाए कि लोग किस तरीके से चीजों को लेते हैं. जो वो बड़े सदर्भों, सरोकार और समाज की दुहाई देते हुए चीजों का समर्थन और विरोध करते हैं, उसके पीछे उनकी कितनी तंग और पर्सनल कन्सर्न काम करते हैं. हम इस अखबार के लिए उनसे कुछ भी मांग नहीं रहे थे, किसी से एक रुपया लिया नहीं, विज्ञापन छापने का सवाल ही नहीं था. बस मीडिया के छात्रों को प्रिंट मीडिया के बीच व्यावहारिक समझ विकसित करनी थी..लेकिन इसी में हमने देखा कि लोग कैसे अपने तरीके से चीजों को मैनेज करने की कोशिश में जुट जाते हैं.
एक दूसरा वाक्या..जब हमने सख्ती से कहा कि हम किसी को भी अखबार फ्री में नहीं देते- आप हमसे इसकी सॉफ्ट कॉपी ले लीजिए तो उनका जवाब था- आप हमसे सौ,दो सौ बल्कि इस पूरे अखबार को निकालने में जितने पैसे खर्च हो रहे हैं, ले लीजिए लेकिन एक कॉपी तो चाहिए ही चाहिए. इससे खुश हुआ जा सकता है और फैलकर चौड़ा भी कि ये है इस अखबार की क्रेज लेकिन गौर करें तो क्या उनकी इस हरकत के पीछे खड़-खड़े खरीदन लेने या पैसे की ठसक दिखाकर कुछ भी, किसी भी तरह चीजों के हासिल करने की मानसकिता सामने नहीं आ जाती ?
टीवी चैनलों में जब भी किसी घटना या मोदी टाइप की रैली की धुंआधार एकतरफा कवरेज होती है, मैं फेसबुक पर लगातार स्टेटस अपडेट करने लग जाता हूं- अगर आप मीडिया को बहुत करीब से जानना-समझना चाहते हैं तो हम जैसे सिलेबस कंटेंट सप्लायर की क्लासरुम के भरोसे मत रहिए, आज लगातार पांच घंटे टीवी देखिए.आपको ज्यादा चीजें समझ आएगी. अखबार निकालने के अनुभव को मैं इसी बात की कड़ी के रुप में जोड़ना चाहूंगा- अगर आप लोगों की नब्ज को समझना चाहते हैं, वो कैसे मीडिया को लेते और अपने एजेंड़े शामिल होते देखना चाहते हैं तो कुछ मत कीजिए, दो-तीन दिन अखबार निकालिए.
मीडिया मंडी है, धंधा है, पैसे का खेल है..अब लगता है फिक्की-केपीएमजी,प्राइस वाटरकूपर्स, ट्राय और सेबी की रिपोर्ट, चैनलों की बैलेंस शीट और कंटेंट को देख-समझकर बता पाना फिर भी आसान है लेकिन मीडिया की आलोचना के लिए जुटाए गए तमाम तरह के औजारों के बीच लोगों को समझने के लिए ये काम बेहद जरुरी है. मुझे लगता है कि मीडिया की जब हम आलोचना कर रहे होते हैं तो एक किस्म से लोगों को क्लीनचिट भी दे दे रहे होते हैं लेकिन नहीं..अगर आप में से कुछ लोग अखबार निकालने का काम करते हैं और आपके जो अनुभव इस दौरान बने उसके दस्तावेज तैयार करते हैं तो एक नई चीज निकलकर आएगी.
ये बहत संभव है कि मेरे ये तर्क आपको फिर से वहीं ले जाए जैसा कि हमारे मीडिया के महंत आए दिन हमे समझाने में लगे होते हैं कि जब लोग देख रहे हैं, पढ़ रहे हैं तो तुम्हें क्या दिक्कत है ? लेकिन नहीं, ये वही तर्क नहीं है. ये तर्क के बजाय वो संकट है जहां आपने लगातार ऐसे मीडिया को फॉलो किया, उसके हिसाब से सोचना शुरु किया और उसके इतने अभ्यस्त हो गए कि अब जब कोई आपको अपने पैसे, समय और मेहनत लगाकर भी कुछ पढ़ने को उपलब्ध करा रहा है तो आप उसे मैनेज करने की कोशिश करते हैं..दरअसल हम जिस परिवेश में जी रहे हैं वहां निरपेक्षता और असहमति दो बेहद ही जरुरी लेकिन खोते जा रहे शब्द और प्रैक्टिस है..हम दर्जनों मीडिया कार्यशाला में शामिल और दीक्षित होने के बीच इसे बचा नहीं पाते हैं तो हम मैनेज्ड मीडिया के किसी न किसी तरह वाहक ही होंगे. लेकिन इन सबके बीच लगातार आ रहे मेल और अखबार की पीडीएफ कॉपी की मांग ये भी साबित करती है कि आप थोड़ा सी भी पैटर्न तोड़ने की कोशिश करें, कुछ अलग लिखने-प्रोड्यूस करने की कोशिश करें, लोगों की उम्मीद, उत्साह और जिज्ञासा खुलकर सामने आने लगती है..संभावना शायद इसी रुप में सक्रिय होती है.
( नोटः- पिछले 7-10 अक्टूबर तक दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी में अदिति महाविद्यालय और हिन्दी विभाग, डीयू के तत्वाधान में चार दिवसीय मीडिया कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस दौरान हमारे कॉलेज भीमराव अंबेडकर कॉलेज, डीयू के मीडिया छात्रों ने ब्राक मीडिया नाम से रोजना एक अखबार निकाला. इसमे सिर्फ और सिर्फ कार्यशाला से जुड़ी बातचीत शामिल होती. अखबार के निकाले जाने के बीच सूत्रधार के रुप में मेरी जो भूमिका रही और जो अनुभव हुए, ये पोस्ट उसी पर आधारित है)
( नोटः- पिछले 7-10 अक्टूबर तक दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट्स फैकल्टी में अदिति महाविद्यालय और हिन्दी विभाग, डीयू के तत्वाधान में चार दिवसीय मीडिया कार्यशाला का आयोजन किया गया. इस दौरान हमारे कॉलेज भीमराव अंबेडकर कॉलेज, डीयू के मीडिया छात्रों ने ब्राक मीडिया नाम से रोजना एक अखबार निकाला. इसमे सिर्फ और सिर्फ कार्यशाला से जुड़ी बातचीत शामिल होती. अखबार के निकाले जाने के बीच सूत्रधार के रुप में मेरी जो भूमिका रही और जो अनुभव हुए, ये पोस्ट उसी पर आधारित है)