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पसीने से तरबतर और पूरी तरह भीग चुकी टी को धोने के लिए जब टब में डालने ही जा रहा था कि बिल्कुल गर्दन के नीचे लिखे निर्देश पर नजर गयी और हैरानी तब हुई, जब एक ही साथ दो परस्पर विरोधी बातें लिखी थी-
एक तो ये कि आप तन्त्रा की ज्यादा से ज्यादा टीज खरीदें जिससे कि जरूरतमंद कलाकार को मदद मिल सके.( buy more tees. help hungry artists.) और दूसरा
धोबी को देने में सतर्कता बरतें( beware of dhobi)

लोगों के दरवाजे के आगे विवेयर ऑफ के साथ जिन शब्दों के प्रयोग किए जाते हैं, उसी अंदाज में अगर यहां भी अनुवाद कर दिया जाए तो आप "धोबी से सावधान" कर दे सकते हैं और जिसका सीधा मतलब है कि आप इस टी को धोबी के हाथ में न पड़ने दें.

जैसे ही मेरी नजर इन पंक्तियों पर गई, ख्याल आया क्या ऐसा नहीं है कि एक तरफ ज्यादा से ज्यादा खरीदने की गुहार लगाकर ये कंपनी जहां कलाकारों को ज्यादा से ज्यादा काम देने की बात कर रही है वही धोबी के प्रति सावधान रहने की बात करके एक तरह से उनकी पेट पर लात मारने का काम भी. आगे जातिसूचक शब्द का इस तरह प्रयोग करके, उनके प्रति संदेह पैदा करके कि वो कपड़े खराब कर देते हैं, सीधा-साधा अपमान और भेदभाव तो है ही. आप भी सोचिए तो पहला ही सवाल दिमाग में आएगा- क्या इस पंक्ति को अलग से लिखने की जरूरत है ?

हमारा समाज कोई पेरिस से उठकर नहीं आया है कि जिस एक वाक्य का प्रयोग पीढ़ी दर पीढ़ी करती आयी है, वो एक अकेली इस टी के मामले में भूल जाए. हममे से कितने घरों में जब धोने के लिए कपड़े दिए जाते हैं तो उसके पहले तीन से चार बार एक ही बात को कि देखो भइया, सावधानी से धोना, रंगीन कपड़े हैं, रंग उतर सकते हैं, अलग से धोना नहीं बोले जाते. भइया बड़ी मेहनत से खरीदी है, महंगी शर्ट है, ध्यान से धोना, किसी के साथ मिक्स मत करना. लेकिन इस अकेले वाक्य के प्रयोग से मामला इतना तो जरूर बन जाता है कि कोई चाहे तो इस तंत्रा कंपनी पर मान हानि और जाति विशेष पर शक जाहिर करके कानूनी मामला दर्ज करा सकता है. रही बात "धोबी" शब्द के प्रयोग की और सावधानी से कपड़े धोने की तो इस संबंध में मुझे दो वाक्या याद आता है.

हमारे डीयू कैंपस में श्रीराम हैं. साल 2002 से जब से मैं दिल्ली में रह रहा हूं जिसका एक हिस्सा हॉस्टल में भी बिताया, श्रीराम रोज नियम से हमारे हॉस्टल में गंदे कपड़े लेने और धुले कपड़े लौटाने आते. ज्यादातर लोग उन्हें उनके नाम से ही पुकारते. वैसे वो खुद कॉरीडोर में जोर से आवाज लगाते और आज भी आप डीयू के किसी भी व्ऑयज हॉस्टल जाएं तो उनकी आवाज सुनाई देगी- वाशर, वाशरमैन..लेकिन कुछ जो नए लड़के आते वो न तो उन्हें नाम से बुलाते और न ही वॉशरमैन. एक दो बार मैंने देखा कि श्रीराम को जैसे ही किसी ने धोबी कहा- वो ऐसे आगे बढ़ गए जैसा कि कुछ सना ही न हो. हमलोगों का अब भी श्रीराम से इतना अपनापा है कि घर-परिवार, मां-नौकरी सबकुछ के बारे में पूछते हैं. जो लड़के जिस अंदाज में धोबी बोलते उससे साफ अंदाजा लग जाता कि इनके सामंती नाखून डीयू में आकर झड़े नहीं हैं. आप जितनी मर्जी चाहे अंग्रेजी को कोसिए लेकिन श्रीराम का खुद के लिए वॉशरमैन प्रयोग मुझे कहीं ज्यादा सुखद लगता है. दूसरा

मेरे घर में जब भी राकेश की माई जिसे ज्यादातर लोग गोंगा के माय बुलाते,आती, कभी ऐसा नहीं होता कि कोई न कोई कपड़े को लेकर शिकायत नहीं करता लेकिन जब तक हमारा घर बिहारशरीफ में रहा, किसी दूसरे से कपड़े नहीं धुलवाए गए..अब भी मां चार-पांच साल में जाती है तो भौजी-भौजी बोलकर पकड़कर रोने लग जाती है. मैंने उनके साथ के भी कपड़े धोने का काम करनेवाली महिलाओं को बात करते सुना है- देख, भौजी इ साड़ी हमरा बहुत पसंद आ गेलो ह. एक बार पहिन के वापस करवौ.( देखो भौजी, ये साड़ी मुझे बहुत पसंद आ गयी है और इसे हम एक बार पहनकर ही वापस करेंगे.) और मैंने देखा भी कि मां, चाची के सामने ही वो उनकी ही साड़ी पहनक घूम रही है. जो कपड़े देर से घुलकर आए तो इसका मतलब है कि उसे कोई न कोई उनके परिवार का सदस्य पहना रहा है. मेरी बात पर यकीन न हो तो आप हिन्दी सिनेमा और नाटक के उन दृश्यों को याद करें जहां हमउम्र नौजवान की नौकरी नहीं होती है, न ढंग के कपड़े होते हैं और इंटरव्यू के लिए उन्हें मोहल्ले के वॉशरमैन चकाचक कपड़े और शुभकामनाएं देते हैं. ये किनके कपड़े होते हैं ?

कपड़े धोने और धुलवाने का हमारे यहां इतना समरस माहौल रहा है कि कपड़े खराब कर देने के बावजूद न तो किसी ने उनसे कपड़े धुलवाने बंद करवाए और न ही धोनेवाले ने पैसे काट लेने तक कि स्थिति में बुरा माना. लेकिन इस तरह अंग्रेजी में धोबी से सावधान लिखकर ग्राहक को सचेत करने का सीधा मतलब है कि कंपनी को इस संस्कृति का अंदाजा नहीं है और पूर्वाग्रह की शिकार पहले से उनके प्रति शक पैदा कर रही है. जो सामाजिक रूप से न केवल गलत है बल्कि कानूनी प्रावधान के तहत अपराध की श्रेणी में आते हैं. जब इसे बाकी बातें अंग्रेजी में लिखनी आती है तो "dhobi" लिखने का क्या अर्थ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इससे वो वॉशरमैन को अलग रखना चाहती है ?

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स्मृति इरानी की अंग्रेजी जितनी अच्छी है और जितना धैर्य है( आठ साल तक देश की आदर्श बहू बने रहना आसान काम नहीं है) डिग्री जुटाने और पढ़ी-लिखी साबित करने की चुटकुलेबाजी में फंसने के बजाय एक बार अंतोनियो ग्राम्शी की "प्रीजन नोटबुक्स" जरूर पढ़नी चाहिए.पूरी नोटबुक तो तीन हजार पन्ने से भी थोड़ी ज्यादा है लेकिन रोज सुबह उठकर दो-दो पन्ने करके भी पढ़ती है तो अपने कार्यकाल तक बहुत ही आराम से पूरा पढ़ लेंगी. पूरी न भी पढ़ पाती हों तो सिर्फ "इन्टलेक्चुअल एंड एडुकेशन" अध्याय ही अच्छी तरह पढ़ लें. यकीन मानिए ये जो हर महीने-दो-महीने में कोई न कोई डिग्री दिखानी पड़ जाती है, जिससे कि न तो उनकी प्रतिष्ठा में इजाफा होता है और न ही लोगों का यकीन बढ़ता है बल्कि उल्टें ट्विटर पर ट्रेंड होकर रह जाता है, सोशल मीडिया पर संता-बंता रहकर जाता है, उससे मुक्ति मिल जाएगी. 
ग्राम्शी ने इन्टलेक्चुअल की विस्तार से चर्चा की है और जिस तरह से अकादमिक डिग्री हासिल करके बुद्धिजीवी होने का दंभ लोगों के बीच पनपता है, उस पर गहरा चोट किया है. वहीं दूसरी तरफ जो जीवन की सहजता, संघर्ष और अनुभव के बीच से ज्ञान हासिल किया है उसे ऑर्गेनिक इन्टलेक्चुअल के रुप में परिभाषित करते हुए समाज में ऐसे लोगों की जरूरत को अलग से रेखांकित किया है. जो पैटर्न इन्टलेक्चुअल नहीं हैं.जो सचमुच रचनात्मकता, आलोचकीय पक्ष और तार्किकता को गहराई से समझ पाते हैं.
ऐसा नहीं है कि ग्राम्शी ने ऑर्गेनिक इन्टलेक्चुअल को जिस रूप में परिभाषित किया है, उन तर्कों को स्मृति इरानी को आनन-फानन में भी ऐसा ही घोषित कर दिया जाए लेकिन इतना जरूर है कि अगर इत्मिनान से इस अध्याय को पढ़ जाती हैं तो अपने तर्क को और बेहतर ढंग से लोगों के बीच रख पाएंगी और जो डिग्री को ही ज्ञानवान होने के अंतिम सत्य के रूप में निर्धारित करते हैं, उनकी इस समझ को सीमित साबित कर सकती हैं..और वैसे भी ये बात ग्राम्शी में कही जरूर है लेकिन "मसि-कागद छुओ नाहिं" की घोषणा के साथ ज्ञानी तो अपने यहां हुए ही हैं. स्मृति इरानी को अगर ग्राम्शी से दिक्कत है( हो सकता है क्योंकि एक तो विदेशी हैं और दूसरा कि हार्डकोर कम्युनिस्ट) तो कायदे से बैठकर कबीर की रमैणी, साखी और सबद ही पढ़ लें..तर्क के नए आधार मिलेंगे.. ये डिग्री की चुटकुलेबाजी में फंसने से तो अच्छा ही है न..
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रेडियो पर लेख लिखते हुए

Posted On 10:31 am by विनीत कुमार | 2 comments


लेख अगर शोधपरक न हो और किसी भारी-भरकर पत्रिका में न छपनी हो तो रेडियो पर लिखते वक्त हम थोड़ा तो भावुक हो ही जाते हैं. रिसर्च ऑर्टिकल लिखते वक्त जहां हम कठोरतापूर्वक एक-एक तथ्य,तारीख,फैसले और सरकारी रवैये को ध्यान में रखते हैं, दुनियाभर के संदर्भों को शामिल करते हैं, वहीं किसी अखबार के पाठकों के लिए लेख लिखते वक्त दुनिया से सिमटकर अपने बचपन की, कॉलेज की दुनिया में चले जाते हैं. मसलन

अखबार के लिए रेडियो पर लेख लिखते वक्त पापा का लीड रोल में आना जरूरी हो जाता है. बिना दर्जी,लुहार,बढ़ई, पंक्चर बनानेवाले भइया, साइकिल की टायर बदलनेवाले नरेशवा को याद किए हम लेख लिख ही नहीं सकते. छाती से रेडियो चिपकाई एक ही साथ कितनी दीदी, बुआ, भाभी याद आने लगती है. रेडियो की ये नास्टॉल्जिक दुनिया है जहां आप मुझसे तटस्थता की उम्मीद नहीं कर सकते और सच कहूं तो तथ्यात्मक होने की भी नहीं. मेरे दिए तथ्य गलत हो सकते हैं क्योंकि उस वक्त मैं तारीख नहीं उन धागों का मिलान कर रहा होता हूं जो बिल्कुल ठीक आज से अठारह-बीस साल पहले दिखे थे. हम तब आंकड़ेबाजी में फंसने के बजाय उन दृश्यों में खो जाते हैं जहां रेडियो सिनेमा की रील बनकर घूमने लग जाता है.

ऐसे लेख लिखते वक्त मेरी मां की वो रसोई शामिल होती है जो उसके लिए औरत जात के मरने-खपने की जगह और मेरे लिए तीनमूर्ति की एयरकंडीशन लाइब्रेरी से भी ज्यादा एकांत की जगह. तब हम जिस आत्मविश्वास से सिकंस की हैसियत से मीडिया के छात्रों से कह रहे होते हैं- रेडियो सिर्फ माध्यम नहीं, एक सांस्कृतिक पाठ है, वो आत्मविश्वास टूट रहा होता है जब टार्च की बैटरी निकालकर रेडियो सुन लेने और बेल्ट से पापा की मार का ध्यान आता है. इस रेडियो में बिहारशरीफ से लेकर दिल्ली वाया रांची की एक ऐसी चौहद्दी बनती दिखाई देती है जिसमे हम रेडियो श्रोता नहीं, हाफिज मास्टर हो जाते हैं जिसके तार टूटने का मतलब होता है- गान्ही महतमा की आजादी की उस तार का टूट जाना जिससे अब रघुपति राघव राजाराम की धुन नहीं निकलेगी.

लिखकर भॆज तो दिया है, गर छप गया तो आपसे साझा करुंगा जल्द ही
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मेरे पास क्रिस बार्कर की एक किताब है- कल्चरल स्टडीजः थीअरि एंड प्रैक्टिस. मूलतः ये रीडर है जो सांस्कृतिक विमर्शों को समझने के लिए बेहद जरूरी किताब है. वैसे भी क्रिस बार्कर मीडिया और कल्चरल स्टडीज की दुनिया में वो नाम है जिनकी किताब एक बार हाथ में आ जाए तो आपको एक-एक पंक्ति चाट जाने का मन करेगा. खैर
बार्कर की इस किताब की जो कवर है वो राजकुमार हीरानी की आनेवाली फिल्म पीके की पोस्टर से कहीं ज्यादा अश्लील है. ऐसा इसलिए कि इस पोस्टर में आमिर खान जहां अपनी लिंग के आगे टेपरीकॉर्डर लटकाए हैं वहीं इस कवर पेज में लिंग के आगे महज एक सीडी चिपका दी गई है. यानी टेपरीकॉर्डर में जितना गोल हिस्सा जो कि संतोष और पैनसॉनिक का मॉडल है और स्पीकर का हिस्सा हुआ करता था, बस उतना ही. सीडी चिपकाने के बावजूद प्यूबिक हेयर साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं जबकि आमिर खान की लिंग के आसपास का हिस्सा पूरी तरह ढंका है.

इस किताब पर मेरी पहली नजर डीयू की आर्ट्स फैकल्टी की लाइब्रेरी सीआरएल में सोशियलॉजी सेक्शन में रखी होने पर पड़ी थी. मैंने क्रिस बार्कर की इससे पहले "टेलीविजनः ग्लोबलाइजेशन और कल्चरल स्टडीज" पढ़ ली थी और रेमंड विलियम्स, जॉन स्टोरे की तरह ही ये नाम मेरे जेहन में इस तरह से बैठ गया था कि इनका लिखा कुछ भी हो तो जरूर पढ़ता. मैंने किताब इश्यू करायी. काउंटर पर लाइब्रेरियन ने उलट-पलटकर देखा और फिर इश्यू कर दिया. किताब पढ़ने के बाद अपने मेंटर से इस पर चर्चा की. बाद में मंहगी होने के बावजूद इसे खरीद ली. कुछ दिन बाद देखा तो विभाग के कुछ लोगों के हाथ में इसकी फोटोकॉपी दिख गयी. लेकिन तब किसी ने इस किताब की कवर पेज को लेकर ठीक इसी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और न ही कवर पेज की ललक के कारण इसकी फोटोकॉपी करायी थी.

सवाल है कि क्या क्रिस बार्कर की इस अतिगंभीर किताब के लिए कोई दूसरा कवर नहीं मिला था और गर कोई दूसरी कवर लगाते तो इसकी बिक्री पर फर्क पड़ जाता ? शायद नहीं..लेकिन इस कवर पर गौर करें तो सूचना संजालों के बीच फंसे ये उस इंसान की छवि को स्थापित करता है जिसके जीवन का बड़ा हिस्सा इन माध्यमों और उनसे निर्मित छवियों के बीच निर्धारित होता है. गौर करें तो बिना किताब पढ़े काफी कुछ समझा जा सकता है. लेकिन आमिर खान की इस तस्वीर को जिस आधार पर अश्लील कहकर आलोचना की जा रही है, उसके मुकाबले इस किताब की प्रतियां जला देनी चाहिए थी लेकिन मुझे यकीन है कि अब भी इस किताब की प्रति डीयू सहित देश की बाकी लाइब्रेरी में भी होगी.

आखिर मामला क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा समाज पुरुष देह को इस रूप में देखने का अभ्यस्त नहीं रहा और स्त्री देह की नग्नता ही सौन्दर्य के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है तो अब ये नजारा कुछ ज्यादा ही अश्लील जान पड़ रहा है..या फिर किताबों की दुनिया इतनी बंद है कि उनलोगों की इस पर नजर नहीं गई जिन्हें ऐसे पोस्टर से आपत्ति है. मतलब अज्ञानतावश उन्होंने लाइब्रेरी में आग लगाने का सुनहरा अवसर खो दिया. इन सबके बीच आमिर खान के समानांतर एक तस्वीर वर्चुअल स्पेस पर साझा की जा रही है और बताया जा रहा है कि ये उसी की नकल है. लेकिन किताब की कवर पेज पर गौर करें तो पीके की पोस्टर न केवल इसके ज्यादा करीब है बल्कि कन्सेप्चुअली भी इसके अर्थ को ध्वनित करता है.

ये बात अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि अब इस पोस्टर को जहां सिनेमा की पीआर एजेंसी पब्लिसिटी स्टंट के रूप में इस्तेमाल करेगी जबकि मेनस्ट्रीम मीडिया में भारतीय संस्कृति को लेकर एक बार फिर से उफान आएगा..और इन सबके बीच तथाकथित इससे कहीं ज्यादा अश्लील कवर लाइब्रेरी की सेल्फ से चलकर हमारे-आपके हाथों तक पहुंचती रहेगी.
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