तुम दिल्ली में बैठकर मेरे बारे में कोढ़ा-कपार( मां फालतू चीजों को कोढ़ा-कपार कहती है) लिखते रहते हो लेकिन आओगे तभी जब हम मरेंगे।..फोन पर उसके ऐसा कहने पर मेरे पास अब कुछ कहने लायक नहीं रह गया था। चैनल की नौकरी बजाते समय घर नहीं जा पाने की अपने पास एक ठोस वजह होती कि बॉस छुट्टी देने से मन कर रहा है। नौकरी छोड़ने के बाद रिसर्च के काम में जुटने पर आजादी का जो पहला एहसास होता है वो ये कि हम अपने मन के मालिक हो जाते हैं। कोई बॉस-बुश नहीं होता। अब जिस बंदे को बिटिया की रेलवे टिकट कटवाने से लेकर चांदनी चौक से लंहगे में गोटा लगवाने के लिए कहने वाला सुपरवाइजर मिल जाए तब उसका क्या कहा जाए। वो तो नौकरी बजाने से भी बदतर स्थिति में है। मैंने जब अपने सुपरवाइजर से कहा- घर जाना चाहता हूं सर,कुछ दिनों के लिए तो खुश होकर बोले- अरे,जरुर जाओ। शुभकामनाएं दी और तब हमने बाय-बाय सर कहते हुए पैकिंग करने के इरादे से झूमते हुए हॉस्टल लौट आया। कहीं कोई लोचा नहीं लगाया मेरे घर जाने की बात पर।
पिछली बार जब मैं घर गया था तब मैं चैनल की नौकरी बजाता था। मेरे घर पहुंचने पर मां ने कहा-जाओ,जाके गैसवाला को हड़काकर आओ। हमेशा मेरे नाम से सिलेंडर उठाता है बीच रास्ते में ब्लैकमेल कर देता है। मां का मानना था कि मीडिया में है बोलने से वो सुधर जाएगा। वैसे भी अपने यहां मीडिया में काम करनेवाले लोगों का इससे ज्यादा बेहतर इस्तेमाल कुछ हो भी नहीं सकता है। मां के साथ दो दिन दूध लाने चला गया तो अब फोन पर बताती है कि दूधवाला अभी तक निठुर( प्योर,बिना पानी मिलाए) दूध दे रहा है। हम जैसे मीडिया से जुड़े लोगों के लिए एक मुहावरा ही फिक्स हो गया है- ज्यादा झोल-झाल करोगे तो भइयाजी टीविए में देखा देंगे सब कारनामा। नानीघर जाता हूं तो हिन्दुस्तान का संवाददाता जिसको-तिसको हड़काए फिरता है- जहां उल्टा-सीधा सामान दिए तो कल्हीं के अखबार में छापेंगे,तुमरे बारे में। वो लाल बोलकर दिए जानेवाले तरबूज के गुलाबी निकल जाने पर किसी सब्जीवाले को हड़का रहा होता है। मुझे लगता है पुलिस के बाद पत्रकार ही है जो अपने इलाके में इस ठसक के साथ( दबंगई कहें) जीता है। बहरहाल,इस बार नौकरी छोड़कर एक स्टूडेंट की हैसयत से घर जा रहा हूं।
रांची मेरा अपना घर नहीं है लेकिन जिस उम्र में हमें एहसास होता है कि हम चीजों और लोगों से जुड़ने लगे हैं,वो दौर हमने इस शहर में खपाया है। शहर की एक-एक सड़कें पत्रकारिता के नाम पर, एक-एक गलियां ट्यूशन पढ़ाने और किराए पर घर खोजने के नाम पर जानता हूं। रांची छोड़ने बाद जमाना हो गया वहां गए। अबकी बार टाटानगर की टिकट मिलने में परेशानी रही तो सोचा रांची ही चला जाए। 28 की शाम रांची पहुंच जाउंगा। 29 तक वहीं रहने का इरादा है। फिर 30 मई को टाटानगर। 2 जून तक टाटानगर में फिर 3 जून को अपनी छोटी दीदी के यहां बोकारो। 5 जून को नानीघर शेखपुरा जो कि कुछ साल पहले मुंगेर का ही हिस्सा रहा। 7 तारीख को मेरे एक दोस्त की शादी है बेगुसराय,वहीं जाने की इच्छा है। 8 को टाटानगर लौटकर 9 जून को दिल्ली के लिए प्रस्थान। 10 जून को दिल्ली।
आते ही कमरे की तलाश,हॉस्टल मे रहते-रहते अब मन उब गया है। रोज रात के खाने के लिए किसी न किसी के फोन का इंतजार करता हूं और किसी के फोन न आने पर चंद्रा दीदी को फोन करता हूं, इधर कुछ सामान खरीदने आया था दीदी,किलकारी से मिलने आ जाउं। अब ये बताने की जरुरत ही नहीं होती कि खाना भी खाउंगा। अब बाहर की दुनिया के साथ जीना चाहता हूं।
... इसलिए हे दिल्ली के ब्लॉगर्स अब तो मनमोहनजी की स्थायी सरकार भी बन गयी है,मौसम भी ठीक-ठीक सा ही है। आप संभालिए तब तक दिल्ली..मैं चला अपने घर,मैं चला रांची।
इस दौरान मेरी इच्छा है कि मैं ब्लॉगर दोस्तों से मिलूं,उनसे टेलीविजन पर,मीडिया के बदलते चेहरे पर बात करूं। अलग-अलग जगहों पर किसी न किसी का मोबाइल मेरे हाथ होगा। मैं नंबर लिख दे रहा हूं,आप मिस्ड कॉल देंगे तो मैं कॉल बैक कर लूंगा।
रांची- 9931696011
टाटानगर-06576454670,9204494661
बेगुसराय- 9868074669
ये सारे लोकल नबंर होंगे और इसमें अगर गलती से कॉल रिसीव हो गए तो 50 पैसे से लेकर एक रुपये कटेंगे।
जोहार...
मूलतः दस्तक टाइम्स,15 मई अंक में लखनउ से प्रकाशित।
किसी खबर के निर्माण से लेकर प्रकाशन,प्रसारण तक में जितनी लागत लगती है,उसके मद्देनजर हम बिनी विज्ञापन औऱ बाजार के सहयोग के पाठक,दर्शक तक पहुंचने की उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए विज्ञापन के स्तर पर मीडिया की आलोचना करना पूर्णतया व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं होगा। गंभीर चिंता इस बात को लेकर है कि अगर मीडिया के भीतर विज्ञापन के अलावा भी खबरों को छापने,दिखाने के स्तर पर पैसों के लेनदेन हो रहे हैं तो क्या इसका हिसाब-किताब है। इन पैसों को आप किस श्रेणी में रखेंगे। दुनिया भर के काले धन का उपयोग मीडिया संस्थान चलाकर व्हाइट मनी बनाने के लिए किया जा रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मीडिया हाउसों के भीतर तेजी से काला धन बढ़ रहा है। वह धन जिसे कि न तो मीडिया के विस्तार में और न ही जागरुकता बढ़ाने के काम में लाया जाना है। राजनीति और बिजनेस के भीतर जो काला धन है उसकी नॉनप्रोडक्टिविटी पर तो हम लंबे समय से बात करते आये हैं लेकिन मीडिया के भीतर बढ़ने वाले काले धन का क्या होगा,इसकी धरपकड़ कौन करेग,ये कई सारे सवाल एक साथ उठते हैं।
उस समय हमलोग अपने-अपने स्तर पर मीडिया औऱ चुनाव के बीच के अंतर्संबंधों को समझने में लगे हुए थे। 24 अप्रैल की दोपहर आनंद प्रधान सर से इस मसले में पर चैट करते हुए बातचीत हुई कि आखिर मीडिया पैसे लेकर जिस तरह से खबरों को छाप औऱ दिखा रहा है,उससे जो पैसे मिल रहे हैं, उसका क्या हिसाब-किताब है, क्या इसे हम काला धन कह सकते हैं? आनंद प्रधान से साफ कहा कि आप ये जो सारी बातें हमसे कह रहे हैं आप ऐसा कीजिए कि आप इसे एक हजार शब्दों में लिखकर शाम तक मुझे भेज दीजिए। एकबारगी तो मुझे ऐसा लगा कि भरी दुपहरी में जबकि सोने का मन कर रहा हो,कहां फंस गया। लेकिन लिखना तो था ही सो चार बजे तक मामला फिट हो गया और ठीक एक हजार से चार शब्द ज्यादा लिखकर मेल कर दिया।
आमतौर पर अपने रेगुलर पढ़नेवाले लोगों के बीच लंबे-लंबे लेख लिखने के लिए बदनाम हूं। जो मेरे दोस्त हैं वो मुझे लगातार छोटा लिखने की नसीहतें देते हैं और जो खुलेआम रुप से अपने को दोस्त साबित नहीं करते वो इसी आधार पर आलोचना भी करते हैं। यहां मैं पहली बार मांग और आपूर्ति पर खरा उतरा, क्योंकि मामला गुरु का रहा। लेख छपकर आ गया और फोन पर ही आनंद प्रधान सर ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा कि उनलोगों ने अपनी तरह से कांट-छांट कर दी है। लेख देखकर तो अफसोस मुझे भी हुआ। लेख के ढांचे को देखकर ऐसा लगा कि दिल्ली से भेजे गए इस लेख के हाथ-पैर,बाल,आंख,नाक,कान लखनउ तक पहुंचते-पहुंचते लोगों ने रास्ते में कतर दिए हों। नया-नया लिखनेवालों में होने पर भी मेरे लेखों के साथ ऐसा न के बराबर हुआ है। खैर, मैं लेख की मूल प्रति भी साथ में लगा रहा हूं ताकि आप मीडिया और उसके भीतर पनपनेवाले काले धन के पूरे संदर्भ को ज्यादा बेहतर तरीके से देख सकें।
लेख की मूल प्रति-
अखबार के पहले पन्ने पर अक्सर कोई खबर न देखकर किसी बड़ी कम्पनी या संस्थान का विज्ञापन देखकर मुंह से एक ही शब्द निकलता है- विज्ञापनों के आगे पत्रकारिता ने घुटने टेक दिए हैं। पाठक खबर पढ़ने के लिए अखबार खरीदता है लेकिन पहले पन्ने पर ही खबर नदारद होती है। अखबार के मालिक को इस बात का अंदाजा है भी या नहीं कि उसका पाठक सुबह-सुबह झल्ला जाता है लेकिन विज्ञापन आसानी से साबित कर देता है कि हम अखबार से भी बड़े हैं,अखबार की खबरें हमारे आगे कुछ भी नहीं है,हममें वह ताकत है कि देश के किसी भी बड़े अखबार का नक्शा बदल दें। यही हाल समाचार चैनलों के कार्यक्रमों को लेकर है. आप देश और दुनिया की हलचल जानने के लिए टीवी के आगे बैठे हैं लेकिन आलम ये है कि टेलीविजन स्क्रीन का आधा से ज्यादा हिस्सा विज्ञापनों से भरा है। स्क्रीन को देखकर ऐसा लगेगा कि किसी महानगर के मेला-पूजा पंडाल की तरह टेलीविजन के लोग स्क्रीन के एक-एक इंच को विज्ञापन के लिए इस्तेमाल करने के लिए परेशान हैं। बात यहीं तक खत्म नहीं होती, किसी भी कार्यक्रम के पहले आपको कंपनियों का नाम लेना होता है। कार्यक्रम के नाम की शुरुआत ही कंपनी के नाम के साथ शुरु होती है- बजाज एलयांस वोट इंडिया वोट, हीरो होंडा हमलोग या फिर आइडिया हेडलाइंस। कोई चैनल देश का पीएम खोजने निकला है तो देश की जनता से ज्यादा हीरो होंडा और बनियान के फुटेज प्रसारित होते हैं। अब तो चैनलों ने प्रजेन्टस औऱ प्रस्तुत करता है जैसे योजक शब्द भी लगाने छोड़ दिए हैं, सीधे विज्ञापन कंपनी और कार्यक्रम का एक-दूसरे से मिलाकर नाम होता है। मीडिया,बाजार औऱ विज्ञापन के आपसी गठजोड़ औऱ एक-दूसरे की अनिवार्यता को समझने के लिए पाठकों औऱ दर्शकों के सामने मौजूदा स्थिति में यह मजबूत उदाहरण है। सच पूछिए तो अब ये मुहावरा से ज्यादा कुछ भी नहीं है कि विज्ञापन के आगे मीडिया लाचार है। इस लिहाज से मीडिया की आलोचना करने में कुछ नयापन भी नहीं है.
लेकिन इधर चुनावी महौल और आइपीएल सीजन में कुछ नए तरह की बहस मीडिया के भीतर चलनी शुरु हो गयी है। कल रात हिन्दी के एक समाचार चैनल पर पैनल डिशकशन के लिए आए राजनीतिक पुरुष ने कहा कि-आप सिर्फ नेताओं पर आरोप लगाने पर क्यों तुले हुए हैं,अखबार का एक-एक कॉलम बिका हुआ है, सब पैसों के हाथ बिक गए हैं। प्रश्न पूछनेवाले पत्रकार ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की और कहा कि आपके पास ऐसा कहने का कोई आधार नहीं है। अगर ऐसा है तो आप प्रेस कांफ्रेस कराइए लेकिन यहां आकर आप इस तरह की बातें नहीं कर सकते। साथ में बैठे राष्ट्रीय दैनिक के संपादक महोदय ने पक्ष लेते हुए कहा- आपलोगों ने खुद पैसे दे-देकर लोगों को भ्रष्ट किया है औऱ आप जबरदस्ती हम पर आरोप लगा रहे हैं. खैर, उस परिचर्चा में इस बात को बहुत अधिक तूल नहीं दी गयी कि मीडिया और पैसे के बीच का आपसी रिश्ता क्या है लेकिन राजनीतिक पुरुष का संकेत विज्ञापन के आधार पर मीडिया के बिकने की ओर नहीं था। उनका साफ मानना था कि बिकने का यह मामला, खबरों औऱ कॉलम तक को लेकर भी है। इस बाबत रांची से प्रकाशित प्रभात खबर अखबार के संपादक हरिवंश ने अपने एक लेख के जरिए करीब डेढ़ महीने पहले ही खुलासा कर चुके हैं कि राजनीतिक पार्टियों की ओर से खबर,इंटरव्यू,फीचर और कवरेज को लेकर रेट तय कर दिए गए हैं। इस बात की खबर आने पर इस बात की भी चर्चा होनी शुरु हो गयी कि अंग्रेजी के कुछेक बड़े अखबार अपने यहां इंटरव्यू छापने की मोटी रकम लेते हैं।
इन सब बातों की चर्चा मैंने ब्लॉग के जरिए शुरु ही की थी कि एक पत्रकार ने कमेंट के जरिए यह साफ किया किया कि आइपीएल की कवरेज को लेकर मुंबई के कुछ चैनलों ने पैसे लिए हैं और जिस भी टीम से पैसे लिए हैं,उनके पक्ष में खबरें दिखा रहे हैं।
यहां सवाल इस बात का नहीं है कि मीडिया जिसने अपने उपर सामाजिक जागरुकता और सच को सामने लाने की जिम्मेवारी ली है,वह स्वयं ही पूंजी के खेल में बुरी तरह फंस गया है। खबर निर्माण से लेकर प्रसारण तक में जितनी लागत लगती है, हम बिना विज्ञापन और बाजार के सहयोग के बड़े स्तर पर मीडिया के पहुंच की उम्मीद नहीं कर सकते,इसलिए विज्ञापन के स्तर पर मीडिया की आलोचना करना पूर्णतया व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं होगा। गंभीर चिंता इस बात को लेकर है कि अगर मीडिया के भीतर विज्ञापन के अलावे वाकई खबरों को छापने,दिखाने के स्तर पर पैसों के लेनदेन हो रहे हैं तो क्या इसका कोई हिसाब-किताब है। इन पैसे को आप किस श्रेणी में रखेंगे। दुनियाभर के काले धन का उपयोग मीडिया संस्थान चलाकर व्हाइट मनी बनाने के लिए किया जा रहा है,अब कहीं ऐसा तो नहीं है कि मीडिया हाउस के भीतर तेजी से काला-धन बढ़ रहा है। वह धन जिसका कि न तो मीडिया के विस्तार में और न ही जागरुकता बढ़ाने के काम में लाया जाना है। राजनीति और बिजनेस के भीतर जो काला धन है, उसकी नॉनप्रोडक्टिविटी पर तो हम लंबे समय से बात करते आए हैं लेकिन मीडिया के भीतर बढ़नेवाले काले धन का क्या होगा,यह हमारी वित्तीय व्यवस्था को कैसे खोखला कर देगा और फिर इसकी धर-पकड़ कौन करेगा, ये कई सारे सवाल एक साथ उठते हैं.
दूसरी बात कि देश के दूरदराज इलाके में बैठे पाठक और दर्शक, अखबार और टेलीविजन की जिन सामग्री से गुजरकर अपनी राय बना रहे हैं,उनकी विश्वसनीयता का आधार क्या होगा। उन्हें इस बात का अंदाजा कहां है कि वह जिस इंटरव्यू,फीचर या रिपोर्ट को खबर के स्तर पर पढ़ रहा है,वह पैसे के दम पर छापा और प्रसारित किया गया है। कंपनियां या फिर राजनीतिक पार्टियां मार्केटिंग स्ट्रैटजी के तहत लाख विज्ञापन कर लें लेकिन एक स्तर पर आकर उसके प्रभाव के सीमित हो जाने की चिंता को वे समझते हैं. शायद इसलिए उन्होंने एडविटोरियल औऱ लिटरेचर के रुप में अपना विज्ञापन करवाना शुरु किया। सरस सलिल से लेकर दैनिकपत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित इस विज्ञापन को लोग शुरुआती दौर में खबर की तरह पढ़ते रहे,एक हद तक छले भी जाते रहे लेकिन यह जानने पर कि वह वाकई कोई खबर नहीं,विज्ञापन है,छिटकते चले गए। अब पाठकों के लिए यह जानना मुश्किल होता जाएगा कि वे खबर नहीं पेडस्टोरी (paid story)पढ़ रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति में रेडियो औऱ टीवी की तरह खबरें भी”बिग खबरें ” नहीं हो जाएगी जिस पर कि देश के गिने-चुने लोगों का कब्जा होगा। अब तक कि स्थिति यही रही कि माध्यम औऱ संचार के तमाम संसाधन पूंजीपतियों के हाथ होते चले गए लेकिन एक हद तक खबरें अभी भी आम लोगों के बीच रही। लेकिन जो स्थिति तेजी से बन रही है उसमें खबरें भी बिकती चली जाएगी। माध्यमों पर बाजार और विज्ञापन का कब्जा होने पर ही हम मीडिया के जरिए बड़े स्तर पर सामाजिक सरोकर की बात नहीं सोच सकते,अब जबकि खबरें ही बिकने लगें तो फिर सामाजिक जागरुकता औऱ लोकतंत्र की अभिव्यक्ति आदि की बातें कैसे सोच सकते हैं। यह पूरी तरह एक छलना है जिसे कि अब तक हमारी आंख खोलते रहनेवाला मीडिया के हाथों होने की आशंका जाहिर की जा रही है, अब इससे बचने का विकल्प क्या हो, सोचना जरुरी है।
खबर के नाम पर देश की न्यूज एजेंसी आइएनएस ने आम लोगों के साथ कितना बड़ा घपला किया है इसकी जानकारी दीवान की मेलिंग लिस्ट के जरिए अभी थोड़ी देर पहले ही मिली। प्रधानमंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने अंग्रेजी में शपथ ली जिसे कि हम सबों ने टेलीविजन पर देखा लेकिन एजेंसी ने इसे पहले हिन्दी में और फिर अंग्रेजी में शपथ लिया जाना बताया। इस मामले पर ब्रजेश कुमार झा ने दीवान पर लिखा- सभी ने सुना-देखा की डा. सिंह ने शपथ के लिए जिस भाषा का उपयोग किया वह अंग्रेजी थी। हिन्दी-अंग्रेजी का मामला न बने इसलिए शायद तान छेड़ा गया कि शपथ लेते समय डा. सिंह ने हिन्दी भाषा का भी प्रयोग किया। अब जिस आम जनता के वास्ते खबर लिखी गई है वही फैसला करे यह खबरनविशी है य़ा फिर शुरू हो गई मख्खनबाजी।
एजेंसी की तरफ से जारी की गयी लाइन है- "डा. मनमोहन सिंह ने लगातार दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में शुक्रवार को शपथ लेकर एक बार फिर देश की बागडोर अपने हाथों में थाम ली है। राष्ट्रपति प्रतिभा देवीसिंह पाटिल ने उन्हें पद व गोपनीयता की शपथ दिलाई। उन्होंने पहले हिन्दी और फिर अंग्रेजी में शपथ ली।”
कांग्रेस के देश की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरकर सामने आने पर एनडीटीवी इंडिया की ओर से बड़े ही इत्मीनान अंदाज में घोषणा की गयी कि अब देश के पत्रकारों को बहुत सारे नेताओं के पीछे भागने से छुट्टी मिल जाएगी। निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर या फिर क्षेत्रीय पार्टियों की ओर से जीतकर आनेवाले एमपी सरकार बनाने के मामले में जितनी ड्रामेबाजी किया करते हैं,वो सब खत्म हो जाएगा। एनडीटीवी की बात एक हद तक सही है। अब तक होता यही रहा है कि चुनाव होने से लेकर सरकार बनने की प्रक्रिया तक इतनी छोटी-छोटी पार्टियां औऱ निर्दलीय उम्मीदवार हो जाते कि उनके पीछे भागते रहने से चैनलों के पसीने छूट जाते। साधन और समय के मामले में मीडिया के लोग पस्त हो जाते। इन्हें इग्नोर भी नहीं किया जा सकता क्योंकि सरकार बनाने में इनकी भूमिका सबसे बड़ी पार्टियों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती। ये टोमैटो-ऑनियन टाइप के एमपी होते जो अपनी शर्तों के साथ किसी भी पार्टी में खपने को तैयार होते। बहरहाल
एनडीटीवी इंडिया ने ये नहीं बताया कि रात-दिन ऐसे नेताओं के पीछे भागनेवाले मीडियाकर्मी अब नहीं भागने की जरुरत की स्थिति में क्या करेंगे। क्या अब या तो बहुमत हासिल करनेवाली कांग्रेस के नगाड़े बजाएंगे,उनके चमचे हो जाएंगे या फिर आइएनएस के पत्रकारों की तरह गलती पर पर्दा डालने का काम करेंगे।
चुनावी परिणाम के बाद समाचार चैनलों सहित मीडिया के दूसरे माध्यमों को लगातार देख-सुन रहा हूं। मुझे इस बात पर हैरानी हो रही है कि राजनीतिक स्तर पर विपक्ष की झार-झार हो जाने की स्थिति में मीडिया भी शामिल होता चला जा रहा है। चुनाव के पहले जिस कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों में कदम दर कदम ऐब नजर आते रहे अब उनके पक्ष में तुरही बजाने में जुटा है। ये सिर्फ खबरों को लेकर नहीं उसकी प्रस्तुति को लेकर भी साफ झलक जाता है। लगभग सारे चैनलों का एक ही सुपर या स्लग है- सिंह इज किंग। क्या साबित करना चाहते हैं आप ? हार औऱ जीत,पक्ष औऱ विपक्ष राजनीतिक पार्टियों के लिए है मीडिया के लिए तो विपक्ष की भूमिका तब तक स्थायी तौर पर है जब तक कि राजनीति में आम आदमी की आवाज नहीं सुनी जाती चाहे सरकार किसी की भी हो। आइएनएस जैसी न्यूज एजेंसी को कांग्रेसी उत्सव और रफ्फूगिरी करने की क्या जरुरत है। चुनाव के पहले तो पैसे ले-लेकर खबरें छापी-दिखायी ही गयी,अब तो कम से कम आम आदमी को बख्श तो या फिर पांच साल तक के लिए दाम लेकर बैठ गए हो?
विस्फोट.कॉम के मामले में संजय तिवारी के इकरारनामा की शुरुआती पंक्तियों को पढ़कर मेरी तरह कोई भी पाठक भावुक हो जाएगा। उसका भी मन करेगा कि वो उनके पक्ष में संवेदना जाहिर करे,सहानुभूति के कुछ ऐसे शब्द सामने रखे जिससे उन्हें लगे कि वो संजयजी के साथ है। ये शब्द गहरे तौर पर साबित करे कि फिलहाल विस्फोट.कॉम के काम को रोक देने के फैसले से न सिर्फ संजयजी का नुकसान हुआ है बल्कि एक पाठक की हैसियत से उनका भी भारी नुकसान हुआ है,पूरी पत्रकारिता को एक गहरा झटका लगा है। इसलिए नीचे मिली टिप्पणियों में आप ऐसे शब्दों के प्रयोग को देख रहे हैं तो इसमें कहीं कोई अचरच ही बात नहीं है। वैसे भी हिन्दी समाज इस स्तर पर अभी तक संवेदनशील बना हुआ है कि जब कोई इंसान यहां आकर अपना कलेजा निकालकर सामने रख दे तो सामनेवाले की आंखों के कोर अपने आप भींग जाते हैं। ऐसी स्थिति में दोस्त-दुश्मन से उपर उठकर भावना के स्तर पर एक हो जाना बुहत ही कॉमन बात है। यह बहुत ही स्वाभाविक स्थिति है। संजयजी के प्रति लोगों के संवेदना के स्वर इसी भावना के स्तर पर एक हो जाने का नतीजा है।
लेकिन इस संवेदना के शब्द से भला उनका क्या होना है। स्वयं संजय तिवारी के शब्दों में बात करें तो- विस्फोट के कारण बहुत सारे ऐसे लोगों से मिलना हुआ जो मानते हैं कि यह अच्छा और निष्पक्ष प्रयोग है और किसी भी कीमत पर यह बंद नहीं होना चाहिए. उनकी इच्छा और सद्भावना भी सिर आखों पर. लेकिन केवल सद्भावना से अच्छे काम चल जाते तो आज देश समाज की हालत ऐसी नहीं होती.
यह सहानुभूति बटोरने के लिए नहीं बल्कि अपने समर्पित पाठकों के सामने अपनी वास्तविक स्थिित बयान कर रहा हूं. मैं थक चुका हूं. इसलिए इस काम को फिलहाल अस्थाई तौर पर रोक रहा हूं.। जाहिर है खुद संजय तिवारी भी ये नहीं पसंद करते कि कोई खालिस संवेदना जाहिर करे। ये उन्हें मानसिक स्तर पर लगातार काम करने के लिए उर्जा तो दे सकता है लेकिन साधन के स्तर पर इससे कोई इजाफा नहीं होनेवाला है।......अच्छे कामों को चलने के लिए भी धन की जरूरत होती है. साधन की जरूरत होती है. आज विस्फोट जितना काम कर रहा है यह हमारे पास मौजूद साधन का अधिकतम उपयोग है. लेकिन अब मैं भी छीज गया हूं. कुछ बचा नहीं है. महीने दर महीने का संघर्ष अब रोज-ब-रोज के संघर्ष में बदल गया है. हालांकि चतुर खिलाड़ी की तरह इतना खोलकर हमें बात नहीं करनी चाहिए लेकिन आप हकीकत को कब तक छिपा सकते हैं? किसी न किसी दिन सच्चाई को स्वीकार करना ही होता है. और हमारी सच्चाई यह है कि अब हम इस काम को स्तरीय और सम्मानजनक तरीके से चलाये रखने में असमर्थ हैं.
लेकिन इंटरनेट और डॉट कॉम के जरिए पत्रकारिता में एक बड़ी संभावना देख रहे लोगों के लिए संजय तिवारी का ये इकरारनामा भावुक होने से ज्यादा चिंता पैदा करनेवाला है। पूरी पोस्ट को पढ़ने के बाद गश खाकर गिर जानेवाला है। जुम्मा-जुम्मा अभी दो-तीन साल ही हुए है जब हिन्दी डॉट कॉम चलानेवाले लोग मैंदान में उतरे हैं और अगर इंटरनेट हिन्दी पत्रकारिता की बात करें तो ये दुधमंहा बच्चा ही है। ऐसे में अभी ये पांव पसारने की गुंजाइश पैदा कर ही पाता कि ये खबर मिल रही है कि विस्फोट.कॉम जैसी चर्चित साइट को फिलहाल के लिए रोका जा रहा है लोगों के बीच क्या संदेश पैदा करता है,इस बात पर विचार किया जाना जरुरी है। इस सवाल पर विचार करने के क्रम में जाहिर है कि न तो संजय तिवारी की समझ को और न ही भड़ास4मीडिया के यशवंत सिंह के समर्थन को कि-आज के दौर में 100 फीसदी इमानदारी से जीना बहुत मुश्किल है, वो भी दिल्ली में खासकर को एक मानक स्थिति मानकर सोचा जा सकता है। इन लोगों के अनुभव,तर्क और नजरिए पर जरुर विचार किए जाने चाहिए लेकिन बार-बार ईमानदारी का झंड़ा लहराने से पहले इस बात पर जरुर समझ विकसित करनी होगी कि क्या अगर कोई डॉट कॉम,साइट या पत्रकारिता का कोई भी रुप व्यावसायिक और प्रसार के स्तर पर सफल होता है तो उस पर बेइमान हो जाने का लेबल चस्पा देने चाहिए। क्या ऐसा करना जायज होगा? सफल होने का उदाहरण पेश करनेवाले यशवंत भी मेरी इस बात के पक्ष में होगें। हिन्दी की ये वही मानसिकता है जहां पर आकर हम हर सफल पुरुष को बेइमान,दो नंबर का आदमी और हर स्त्री को किसी न किसी के साथ समझौता करनेवाली मान लेते हैं। संभव है कि एक हद तक इसमें सच्चाई भी हो लेकिन इसे पर्याय या मानक के तौर पर स्थापित तो नहीं ही किया जा सकता है कि हर सफलता का मतलब है बेइमान हो जाना, झूठा और मक्कार हो जाना। इसका तो यही मतलब होगा कि जो असफल है वो सबसे बड़ा इमानदार है और जब तक उसने जो भी कुछ किया, सौ फीसदी ईमानदारी के स्तर पर किया। क्या पत्रकारिता करते हुए या फिर जीवन जीते हुए इस तरह की फिलटरेशन हो पाता और ऐसा होना संभव भी है?
चुनाव शुरु होने के पहले विस्फोट.कॉम की तरफ से ये घोषणा की गयी कि उन्हें इसकी कवरेज के लिए पत्रकारों की जरुरत है। खबर लाने,खोजने,लिखने और विश्लेषण करने के स्तर पर इस काम के लिए उन्हें मानदेय दिए जाएंगे। कुछ उत्सुक और जरुरतमंद लोगों ने एप्रोच भी किया। विस्फोट.कॉम ने इस बीच विज्ञापन जुटाने की भी कोशिशें की। जाहिर है ये सब कुछ व्यावसायिक शर्तों के आधार पर ही होता रहा। बाद में पैसे के अभाव में मानदेय देने की बात टाल दी गयी। विज्ञापन को लेकर भी विस्फोट.कॉम को कोई खास सफलता नहीं मिल पायी,ये तो इकरारनामा से ही साफ हो जाता है। आज विस्फोट व्यावसायिक तौर पर असफल हो गया लेकिन संजयजी इस असफलता को सिर्फ अच्छा काम के बंद हो जाने का मलाल के रुप में जाहिर कर रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि हिन्दी पत्रकारिता में ऐसा करते हुए व्यवसाय और पत्रकारिता को एक-दूसरे से घालमेल करते हुए ऐसी स्थिति पैदा कर दी जाती है कि अंत आते-आते एक महान कार्य के अंत होने की घोषणा करने में सुविधा हो। क्या ये सही तरीका है कि कोई इंसान भगवान की मूर्तियों की दूकान खोले और जब मूर्तियां नहीं बिके तो हर सामने गुजरनेवाले बंदे से इस बात की उम्मीद करे कि वो भगवान के दर्शन के नाम पर कुछ चढ़ावा चढ़ाता चला जाए ? विस्फोट पत्रकारिता के स्तर पर एक बेहतर काम करता आया है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता लेकिन इसकी व्यावसायिक असफलता को अच्छी पत्रकारिता के असफल हो जाने का करार देना ज्यादती होगी। हम ये मानकर क्यों नहीं चल पाते कि हम पत्रकारिता के नाम पर जो भी कुछ कर रहे हैं वो बाजार की बाकी गतिविधियों की तरह ही एक हिस्सा भर है और हमें उसे व्यावसायिक शर्तों के आधार पर ही चलाए रखना होगा। ये बातें सभी क्षेत्रों में समान रुप से लागू होती हैं। साधना,संस्कार और दूसरे धार्मिक, आध्यात्मिक कंटेट को लेकर चलनेवाले चैनल भी बाजर की शर्तों को फॉलो करते हैं न कि आध्यात्म और प्रवचन के शब्दों को। पत्रकारिता करते हुए ये साफ करना देना होगा कि ये न्यूज प्रोडक्शन और डिस्ट्रीव्यूशन से जुड़ा व्यवसाय है। एक पत्रकार के तौर पर महान होने और बदलाव की आवाज बुलंद करनेवाले मसीहा के रुप में अपने को प्रोजेक्ट करने का मोह हर हाल में छोड़ना ही होगा।
सच्चाई ये है कि बेबसाइट की संभावना और पत्रकारिता के लंबे अनुभव को साथ लेकर जिस उत्साह से कुछ नया और बेहतर करने की उम्मीद से हमारे पत्रकार मैंदान में उतरते हैं,बाजार,विज्ञापन,मार्केटिंग और रीडर रिस्पांस को लेकर उतना होमवर्क नहीं करते। यही वजह है कि अच्छा काम करते हुए भी मार खा जाते हैं। अचनाक से या तो कर्मचारियों की छंटनी या फिर उस काम को बंद करने की ही नौबत आ जाती है। हम इस उम्मीद में क्यों रहें कि किसी को सपना आएगा कि फलां पत्रकार बहुत बेहतर काम कर रहा है तो चलो उसकी मदद की जाए. ऐसा सोचनेवाले लोग तो अपने हिसाब से कमेंट और सामग्री के स्तर पर सहयोग तो करते ही हैं लेकिन जिनके पास साधन है उन्हें ये सपने न के बराबर आते हैं। उन्हें सपने आते भी हैं तो कुछ इस तरह से कि अगर हमने फलां डॉट कॉम की मदद की तो उसकी सीधा लाभ हमें क्या मिलनेवाला है? पत्रकारिता करते हुए हमें ऐसे लोगों को साधने की जरुरत है।
आज संजय तिवारी ने विस्फोट.कॉम का काम कुछ दिनों के लिए रोक देने की बात की. ये उनका व्यक्तिगत फैसला है। लेकिन फर्ज कीजिए कि उनके इस काम से दस-बारह नौजवान पत्रकार जुड़े होते तो उनके भरोसे का क्या होता? वो अभी कहां जाते, उनके पास तो कोई खास अनुभव भी नहीं होता कि यहां छूटते ही कहीं और लग जाते। एक बेहतर पत्रकार होने के नाते हममें से किसी की भी जिम्मेवारी सिर्फ खबर जुटाने, बेहतर लिखने और बोलने भर तक नहीं है। हमारी जिम्मेवारी इस बात की भी है कि इस प्रोफेशन में आनेवाले उन तमाम लोगों के बीच ये भरोसा कायम रखने की भी है कि पत्रकारिता से अच्छा कोई दूसरा प्रोफेशन नहीं है और तुम्हें इसे औऱ आगे ले जाने के लिए जी-जान से जुटे रहना होगा। अब इस लिहाज से आप वेब पत्रकारिता की संभावना पर बात करते हुए सिर्फ भावुक होना चाहेंगे या फिर इसे पत्रकारिता की असफलता मानने के बजाय मार्केटिंग के स्तर पर दुरुस्त होना चाहेगें।...
पिछले साल मदर्स डे पर मैंने लिखा- मां की बातें और मां की बातों का अंत नहीं है। लेकिन इतना तो जरुर है कि अगर मां को सिर्फ भावुक न होकर, तर्क पर, किताबी ज्ञान और डिग्रियों की गर्मी को साथ रखकर भी याद करुं तो भी मां से लगाव में रत्तीभर भी कमी नहीं आएगी। मेरी बात रखने के लिए वो हां में हां मिला भी दे तो भी चीजों को देखने और समझने का उसका अपना नजरिया है, न जाने कितने मुहावरे हैं, जिसे विश्लेषित करने के लिए मुझे न जाने कितने वाद पढ़ने पड़ जाएं और कितनी किताबों के रेफरेंस देने पड़ जाएं।(
अतरा में पतरा नहीं खोलेगा मेरा बेटा।) इस साल मैं चाहता हूं कि उन शब्दों औऱ मुहावरों को याद करुं जो कि दिल्ली में रहते हुए अक्सर याद आते हैं,मौके-बेमौके उन्हें इस्तेमाल करने का मन करता है लेकिन शहरीपन के दबाब में जीने के कारण फिर रुक जाता हूं।
मां द्वारा प्रयोग किए गए शब्द/पद , मूल अर्थ और मेरी टिप्पणी
1. जौरे-साथे रहनाः किसी के साथ अफेयर होना-मां प्रेम,प्यार,लव या अफेयर जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करती, ऐसा करते हुए उसे संकोच महसूस करती।
2. लेडिज गंजीः ब्रा-शर्म के मारे वो ब्रा नहीं बोल पाती।
3. दूध में दू दाना चौर डालनाः खीर बनाना- आमतौर पर घर में जब खीर बहुत तैयारी से नहीं बनायी जाती तो मां खीर की इज्जत रखते हुए इसे खीर नहीं कहती।
4. अनपढ़वा आदमी को बूढ़बक बनानाः अनपढ़ इंसान को बेबकूफ समझना-इस शब्द का प्रयोग वो अपने लिए करती
5. कोढ़ा-कपार उठाकर ले आनाः फालतू चीजें खरीद लाना-आमतौर वो खिलौने,सीटी,बाजा जिससे नाश्ते के बाद उससे सोने में खलल पड़ती हो
6. जया भादुड़ीः नाटी लड़कियां-उन लड़कियों के लिए जो नाटी होती हुई भी इधर-उधर इतराती फिरती
7. कुलबोरनीः कुलच्छनी,बदचलन- इस शब्द का वो अर्थ संकुचन कर देती है क्योंकि कोई लैंप का सीसा फोड़ दे, तेल की शीशी गिरा दे तो भी कुलबोरनी है
8. सिहकी पदलकै आदी गुड़ बंटलकैः डींग मारनेवाली औरतें- जो औरतें छोटी-छोटी बातों को भी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताती।
9. खपतानः बदमाश- छोटे बच्चे जो निगरानी न करने की स्थिति में काम बिगाड़ देते हैं।
10. भीतरघुन्ना/ भीतरघुन्नी/गुम्माहुड़ारः अपनी बात मन में रखनेवाले लोग- जो लड़का या लड़की उपर से कुछ और भीतर ही भीतर कुछ और सोचते रहते।
11. करेजा दू टुकरी या छलनी कर देनाः मन को चोट पहुंचाना- पापा द्वारा कहे गए वो शब्द जिसे लेकर वो घंटो सोचा करती और कहती इ आदमी करेजा चुकरी करनेवाली बोत बोलकर गए।
12. नेमान होना या करनाः किसी चीज को पहली बार खाना या चखना- ये मूलतः खाने-पीनेवाली चीजों के लिए इस्तेमाल करती और खासतौर से जो मौसमी फल या मिठाइयां होती
13. गेंदरा के सुत्तल गेंदरा नहीं रहनाः चालाक हो जाना- घर के पुराने कपड़ों से बच्चों के सोने के लिए बिस्तर बनाए जाते। मां किसी के बचपन को याद करते हुए जबकि वो नंग-धडंग पड़ा होता,कहती अब वो चालाक हो गया है।
14. अचरा का हवा लग जानाः पत्नी की के इशारे पर चलना- जब किसी लड़के की नई-नई शादी होती है और वो घर से झाड़कर पत्नी के साथ सिनेमा या शॉपिंग के लिए जाता है या फिर पत्नी के पक्ष में बात करने लग जाता है,ऐसे समय में मां इसका प्रयोग करती।
15. मर्द नहीं मौगा या मौगमेहरा होनाः औरतों की बातों में रुचि लेना- मां इसे बहुत बड़ा अवगुण मानती है,मेरे एक फूफा का उदाहरण देकर हुए कहती है- वो मर्द नहीं मौगा हैं।
16. पेट काटनाः बचत करना- अपने उन बुरे दिनों को याद करने के क्रम में जब उसने बचत करके मुझे पब्लिक स्कूल में पढ़ाया
17. निमला पइयो हाड़-गोड़ चिबईयोः कमजोर को सब सताता है- खासकर मेरे लिए इसका प्रयोग करती जब घर के सारे लोग मुझे छोटा और कमजोर जानकर परेशान करते
18. दीदा में पानी नहीं रहनाः शर्म नहीं आना- उस पीढ़ी के लिए जो मां-बा के बहुत करने पर भी सब भूल जाते हैं
19. अरझो-परझो मारनाः अप्रत्यक्ष तौर पर कहना- जब बात किसी और से कही जा रही हो और किसी और के लिए कहना हो
20. कैफट्टा,भुजगल्लाः जिसकी काया या शरीर फट जाए- एक तरह की गाली जो हमलोगों को मारनेवाले लोगों के लिए इस्तेमाल करती लेकिन घर के लोगों के लिए नहीं, मोहल्ले के उन लोगों के लिए जिनसे अपनी दुश्मनी होती
अब ये कहना कि मां याद आती है बकवास बात होगी। ऐसा कौन सा दिन होता है जब मां याद नहीं आती या फिर ऐसा कौन सा दिन होता है जिस दिन बात नहीं होती। लेकिन इस विशेष मौके पर मैं उसे याद करने से ज्यादा उसके शब्दों को, उसकी अभिव्यक्ति को याद करता हूं जो मुझे अक्सर एहसास कराती है कि हमसे दूर होने पर तुम पूरे एक शब्दकोश से महरुम रहते हो।
उसने फोन पर जैसे ही बताया कि-सर,बधाई हो आपकी क्लासमेट श्वेता सिंघल का यूपीएससी में 17 वां रैंक आया है,मैं एकदम से आज से पांच साल पीछे जाकर सोचने लग गया। सुबह-सुबह उठकर कुछ गंभीर काम करने के मूड में था। इस खबर के सुनने के बाद से पूरा मन ही बदल गया। मैंने फोन पर ही इस खबर के साथ कुछ ज्ञान-व्यान की बातें चेंपी और अपने दोस्त से कहा- देखो,यार सफल लोगों के कुछ अलग से सींग नहीं उगे होते,वो भी हमारे-तुम्हारे बीच के ही लोग होते हैं। बस जरुरत होती है,अपने-आप को समझने की। मैंने उसे यूपीएससी पीटी परीक्षा की शुभकामनाएं देते हुए लगे रहने की बात कहकर फोन रख दिया।
मेरे पास क्लास के हिसाब से अलग-अलग छोटे-छोटे बक्से हैं। लैपटॉप,टाटा स्काई औऱ गारमेंट्स के खाली बक्से। इन बक्सों में अलग-अलग क्लास औऱ कोर्स के नोट्स के साथ-साथ उस दौरान की जुड़ी यादें हैं। मसलन मीडिया के बक्से में लड़कियों के लिखे कमेंट,नोट्स,साथ की तस्वीरें,मेरी लिखी स्क्रिप्ट और स्टोरी की सीडी औऱ टेप्स। एमए के बक्से में एमए प्रीवियस की नोट्स के साथ तस्वीरें,ग्रिटिंग कार्ड्स औऱ फ्रैंडशिप बैंड्स। मैं करीब चालीस तस्वीरों से गुजर गया। इस बक्से में श्वेता की कोई तस्वीर नहीं मिली। एमए फाइनल के बक्से में एक तस्वीर मिली,फेयरवेल की तस्वीर। विभाग ने सौ रुपये लिए गए थे इस आयोजन के लिए औऱ दोस्तों के बहुत समझाने-बुझाने के बाद मैं ये रकम देने के लिए राजी हुआ था। इन तस्वीरों को देखते हुए दर्जनों लड़की दोस्त की तस्वीरें और उनके भाव याद हो आए। इनमें से बहुत कम के नंबर अब मेंरे पास है। बड़ी मुश्किल से हच के पुराने सिम कार्ड में चार नंबर मिले हैं,सबों को फोन करुंगा।
श्वेता सिंघल की इस बेहतरीन सफलता की खबर सुनने के बाद कई बातें एक साथ दिमाग में घूमने लगी। ऐसा लगा जैसे कि पहले से ही स्टैंडबाय पर कई सारे वीडियो टेप दिमाग में पड़े हैं और अब सब एक्शन मोड में हैं। हम सब लोगों(करीब एक दर्जन लोग)को टीचर और सीनियर की तरफ से कई बार कम्प्लीमेंट मिल चुके थे कि ये बच्चे बहुत आगे तक जाएंगे,कुछ अलग करेंगे। हममें से अधिकांश लोग इसे अपनी पूरी ताकत से साबित करने में जुटे थे। हिन्दी साहित्य पढ़ते हुए नौकरी की संभावना बहुत सीमित होती है। इसलिए हमलोगों के दिमाग में बस एक ही बात होती,किसी तरह से यूजीसी जेआरएफ निकालो,उसके बाद जो भी कुछ करना हो करेंगे। वैसे भी हम जिस सर्किल में जीते आए,वहां जेआरएफ नहीं निकलने पर एक खास तरह की मानसिक पीड़ा झेलनी पड़ती। हममें से सारे लोग दो से तीन एटेम्पट देने के बाद बुरी तरह फ्रशट्रेट हो चुके थे। किसी का कुछ भी नहीं हो रहा था। चूंकि हम सारे लोग एक ही तरह के काम में लगे थे इसलिए कुछ अलग या खास होने का सवाल ही नहीं था। हम सीनियर औऱ टीचर से नजर मिलाने से बचने लगे थे। हमारा मन रखने के लिए वे यूजीसी और सिस्टम में खोट बता देते लेकिन ये भी था कि जिन सीनियर का जेआरएफ था उनको खास तबज्जो देते। डेढ़ साल के भीतर तक हम दर्जन भर लोग सामान्य साबित कर दिए गए। हममें कोई खास बात नहीं थी,अब हम जीवन में कुछ भी नया औऱ बेहतर नहीं कर सकेंगे। हमारी सारी काबिलियत यूजीसी जेआरएफ पर आकर टिक गयी थी।
आप जिस सब्जेक्ट से एमए करते हैं उसमें अगर आप यूजीसी क्लियर नहीं कर पाते हैं तो भीतर से एक ग्लानि बोध पैदा होता है। नहीं भी होता तो पैदा कराने की कोशिशें जारी रहती है। वाबजूद इसके इस यूजीसी से हमलोगों का धीरे-धीरे मोह भंग होने लग गया था। मैंने सोच लिया कि अब एकेडमिक में कुछ नहीं हो सकता। यूजीसी की अंतिम बार परीक्षा देकर मीडिया कोर्स करने में जुट गया। बाद में इस फील्ड में पूरी तरह रम गया। एक-दोस्त सीआरएल की बैठक में रुचि लेने लग गए। कुछ लड़कियों ने हारकर शादी कर ली। उनकी भाषा में कहें तो समय रहते उन्होंने अपनी पढ़ाई को इन्कैश किया। कुछ के भीतर जेआरएफ का मोह पहले की तरह बरकरार था.
हमलोगों के पहले तक डीयू के हिन्दी विभाग से एम.फिल् के बाद पीएचडी करना कोई मुश्किल बात नहीं थी। लगे रहो...(टीचर के साथ) हो जाएगा लेकिन अब मामला कठिन होता गया। इसलिए जिन लोगों का पीएचड़ी में हो गया,उनकी जेआरएफ की पीड़ा कम हुई और वो इसे ही जीवन की उपलब्धि मानकर एक हद तक खुश हो लिए,संभावना उनकी मरी नहीं थी। बाकी वो लोग जिनका न तो यूजीसी ही निकल पाया और न ही पीएचडी में हो पाया,उनके लिए अब कोई संभावना नहीं रह गयी थी। दोहरी हताशा को न झेल पाने की स्थिति में कुछ औऱ लड़कियों ने शादी कर ली। अगर विश्वविद्यालय के नजरिए से न देखें तो उनमें बड़ी संभावना थी। वो हिन्दी ऑफिसर हो सकती थी,मीडिया में अच्छा कर सकती थी,अनुवाद में बेहतर कर सकती थी लेकिन वो इन सबके लिए तैयार नहीं थी। उन लोगों ने शादी कर ली।
यह जानकर कि उसे एक लड़का हुआ औऱ पैदा होते ही मर गया, मैंने उसकी मां को सांत्वना दिया औऱ कहा- क्यों झोंक दिया अभी से ही उसे गृहस्थी के पचड़े में। किसी के बारे में सुनता हूं कि वो अपने पति के न रहने पर डेयरी की दुकान में बैठती है,छुट्टे पैसे गिनती है। कुछ ने शादी तो कर ली लेकिन क्लासमेट की सफलता पर अफसोस करती है- गलती कर दिए विनीत,थोड़ा और रुक जाते तो कुछ न कुछ हो जाता।
ये वो लड़कियां हैं जो एक बड़ी संभावना से जुड़ी थी। हिन्दू,हंसराज औऱ रामजस जैसे कॉलेजों से ग्रेजुएशन औऱ एमए किया। ये देश की उन लड़कियों से अलग थीं जिसने कभी कॉलेज का मुंह तक नहीं देखा। कभी-कभार कुछ लड़कियां अपने बाबूजी के साथ होता औऱ हमसे पूछती भी कि यही है हिन्दू कॉलेज,हंसराज तो मैं जबाब में कहता- अभी तो यहां एडमीशन नहीं होता। वो जबाब देती-बहुत नाम सुना है,बस देखने आए हैं। लेकिन इन लड़कियों ने अपनी एक बड़ी संभावना को अपने हाथों खत्म कर दिया। बार-बार इस बात का हवाला देते हुए कि-हम लड़कियों को परिवार के हिसाब से सोचना पड़ता है। वो दिल्ली में रहकर,परिवारवालों के साथ रहकर भी भरोसा नहीं दिला सकी कि मैं कुछ कर सकती हूं। सफलता और असफलता के बीच के फासले को उसने बहुत फर्क के साथ देखा। वो हड़बड़ा गयी। पढ़ाई के हिसाब से अपने को मानसिक रुप से तैयार नहीं कर पायी।
इधर लगातार लगे रहनेवाले लोगों के बारे में बातें होती है तो सबों की कहानी अलग-अलग है। कुछेक लेकचरर बन गए हैं,कुछ बनने की प्रक्रिया में हैं। कुछ मीडिया में बेहतर कर रहे हैं। सबकी कहानी अलग-अलग। इसी अलग-अलग कहानी में श्वेता सिंघल की सफलता की कहानी। तीन साल से कोई खबर नहीं सुनी उसके बारे में। एक दिन अचानक पता चला कि उसने पीटी निकाल लिया है। उसके बाद की कोई खबर नहीं। फिर सीधे आज कि- उसका 17 वां रैंक है। बतानेवाले दोस्त ने कहा-एक बार आप कन्फर्म कर लें। यूपीएससी की साइट पर साफ लिखा है- 17.श्वेता सिंघल।
लड़कियों की ये समझ कि वो सिर्फ अच्छा पति पाने के लिए नहीं पढ़ रही,शादी करने के बाद उसके साथ विदेश भाग जाने के लिए नहीं पढ़ रही,दूध नापकर पति का हाथ बटाने के लिए नहीं पढ़ रही बल्कि ये साबित करने के लिए हम भी तुम पुरुषों की तरह काबिल हैं,हम भी बदल सकते हैं अपनी तकदीर,हम भी उबर सकते हैं अपनी असफलता और फ्रशट्रेशन से,उसे भीड़ से अलग करती है।..जाहिर तौर पर शादी करके दूध की बोतलें भरनेवाली लड़कियों की तरह नहीं,श्वेता सिंघल की तरह। आप उस मौके को याद कीजिए जब आपके साथ पढ़नेवाली लड़की सीधे नेशनल चैनल पर आती है,छ साल बाद मिलने पर टी-सीरिज से जारी अपना एलबम पकड़ाती है,मेल करके पेरिस से बिजनेस ट्रिप की तस्वीरें भेजती है,जिस मैगजीन को पढ़कर हम सब बड़े हुए उसकी कवर पेज पर सफल उम्मीदवार के तौर पर उसकी तस्वीरें छपती है। आप भावुक हुए बिना नहीं रह सकते। कुछ-कुछ मेरी तरह। फिलहाल,श्वेता सिंघल को एक क्लासमेट की तरफ से ढ़ेर सारी शुभकामनाएं औऱ बधाइयां।.....
एनडीटीवी इंडिया पर बरखा दत्त और विनोद दुआ से अपनी सफलता की बात करते हुए शुभ्रा सक्सेना( सिविल सेवा परीक्षा 08 की टॉपर)बार-बार भगवान की कृपा रही और आगे देखिए किस्मत कहां ले जाती है जैसी भाषा का प्रयोग करती रही। अपनी सफलता की क्रेडिट वो भगवान को देती रही और अपनी जिंदगी में किस्मत को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बताती रही। बरखा दत्त को देश के सबसे कठिन और ताकतवर परीक्षा( सवा तीन लाथ में मात्र 791 चयनि) में सफल होनेवाली एक स्त्री/लड़की के मुंह से इस तरह की भाषा सुनना अच्छा नहीं लगा। बरखा ने टिप्पणी करते हुए लगभग समझाने के अंदाज में कहा- आप लड़कियां क्रेडिट क्यों नहीं लेना चाहती। औरतें किसी भी काम की क्रेडिट लेने में शर्माती है जबकि इस मेल डॉमिनेंट सोसायटी में पुरुष कभी भी क्रेडिट लेने से नहीं शर्माता। बातचीत खत्म होती इसके पहले शुभ्रा ने एक बार फिर इसी भाषा को दोहराया और कहा कि अगर किस्मात ने मौका दिया तो आगे भी काम करते रहेंगे। इस पर विनोद दुआ कि टिप्पणी रही कि- अभी भी भगवान, किस्मत जैसे शब्दों को प्रयोग कर रही है,ये अलग बात है कि इस सफलता में इनकी अपनी मेहनत रही है।
शुभ्रा की यह भाषा एक पूरी मानसिकता को हमारे सामने लाकर रखती है। तकलीफ के क्षणों में सबकुछ भगवान भरोसे छोड़ने और उल्लास के मौके पर सबकुछ भगवान के आगे अर्पित कर देने,उसे ही क्रेडिट देने का रिवाज हिन्दुस्तान में न जाने कितने सालों से चला आ रहा है। भगवान के आगे अपनी एफर्ट को तुच्छा मानने की मानसिकता इतनी मजबूत है कि शायद इसलिए खेत के पहले बैंगन और धान के पहले दाने पर हड्डी तोड़कर उपजाने वाले किसान का हक न होकर ठाकुरजी का हक बताया जाता रहा।(रेणु की कहानियों में ऐसे प्रसंग बार-बार आते हैं।) विज्ञान और तकनीक के दम पर देश में उत्पादन के तरीके से लेकर जीवनशैली में परिवर्तन आया लेकिन भगवान को क्रेडिट देने का रिवाज लगभग ज्यों का त्यों बना हुआ है। देश औऱ दुनिया को जागरुक करने के इरादे से खोला जानेवाला न्यूज चैनल भी शुभ मुहूर्त और भगवान की तरफ से अनुमति न मिलने की स्थिति में ढ़ाई घंटे देर से शुरु होता है। सारी बातों के लिए भगवान को आगे कर देने(पहले तो यही साफ नहीं है कि भगवान बोलकर भी कोई चीज होती है) से एक ऐसी छवि स्थापित करने की कोशिश होती है कि अब जो भी काम होगा वो गलत नहीं होगा और अगर गलत हो भी गया तो इसमें भी कहीं न कहीं शुभ और कल्याण का मर्म छिपा रहा होगा। अभी तक शुभ्रा इस सोच से अलग नहीं है। व्यक्तिगत स्तर पर इस तरह की सोच रखना उसका अपना फैसला और समझ हो सकती है लेकिन सिविल सेवा में आने के बाद अगर ये व्यक्तिगत सोच,उसके निर्णयों पर हावी होने लग जाए तो क्या किया जाएगा?
हिन्दी की दुनिया में इससे अलग एक दूसरी स्थिति है। यहां दुनियाभर को मानवतावाद औऱ सामाजिक चेतना का पाठ पढ़ानेवाले तुलसी ने लिखा- हम चाकर रघुवीर के। मौजूदा सामाजिक विसंगतियों से सीधे टकरानेवाले कबीर ने लिखा- कबीरा कुता राम का,मुतिया मेरा नाम। इसके पहले के रचनाकारों ने तो कभी रचनाकार के तौर पर अपना नाम भी नहीं लिखा। इसे आप अनप्रोफेशनल एप्रोच कह सकते हैं लेकिन तब साहित्य औऱ रचना को इस लिहाज से सोचा-समझा नहीं जाता रहा। अब देखिए,इसी तुलसी औऱ कबीर पर चुटका टाइप की आलोचना पुस्तक लिखकर स्वनामधन्य लोग हाफ-डीप करते नजर आते हैं। क्रेडिट लेने की छटपटाहट इतनी अधिक है कि बिना लिखे ही कुछ बड़े रचनाकारों के लेखों को बटोरकर संपादक होना चाहते हैं। सेमिनार की रिपोर्टों में शामिल होने के वाबजूद भी अपना नाम न होने पर संपादक को कोसते हैं,संवाददाताओं को जाहिल करार देते हैं। अलग-अलग क्षेत्र में क्रेडिट को लेकर जबरदस्त मार-काट मची रहती है.
जाहिर शुभ्रा सक्सेना जैसी शख्सियत हिन्दी साहित्य की दुनिया में नहीं है जहां तर्क को धकेलते हुए रचनाशीलता के नाम पर हर बात को पचा लिए जाएं। वो ब्यूरोक्रेसी में शामिल होने जा रही हैं जहां कि हर फैसले के पीछे एक तर्क होता है। यह तर्क पूरी तरह मनुष्य केंद्रित है। ऐसे में हम जैसे लोग बरखा दत्त की तरह कोई नसीहत दिेए बगैर भी यह तो जरुर चाहेंगे कि शुभ्रा की सोच व्यूरोक्रेसी के तर्क से बार-बार टकराए। दोनों एकमएक न हो जाए। उसे इस बात का एहसास हो कि हमारी तमाम गतिविधियों में मनुष्य शामिल है, हम खुद की प्रेरणा से काम कर रहे हैं। न्यूज चैनलों द्वारा स्त्रियों की स्थिति में सुधार औऱ आत्मविश्वास से लवरेज होने की बात की जा रही है,उसका सही अर्थ तर्क से टकराकर ही खुल पाएगा।
हमारे और रवीश कुमार के बीच आज अगर कोई बूढ़ा-बुजुर्ग आ जाए तो एक बार तो जरुर कहेगा-ये लौंडे तो पहले से ही खत्तम हैं,तुम इन्हें और क्यों बर्बाद कर रहे हो,रवीश? फेसबुक पर रवीश कुमार से जो भी जुड़े हैं,उन्हें पता है कि वो वहां क्या खेल करते हैं। पांच-छः घंटे पर कोई छोटा-सा संदेश चस्पा जाते हैं। इस संदेश की लिपि अंग्रेजी में होती है जबकि बातें खाटी हिन्दी या कभी-कभी उर्दू टच लिए। शायद इसलिए कि ज्यादातक संदेश मोबाइल से भेजी होती है। उसके बाद इस पर कमेंट करनेवाले लोगों के बीच आपाधापी मच जाती है। इसकी बोहनी(शुरुआत)ज्यादातर गिरीन्द्र से होती है। उसके बाद चंडीदत्त शुक्ल,इरशाद अली, सुशील कुमार छौक्कर,साजिद खान और भी दुनियाभर के लोग। पहले मैं फेसबुक को रोजाना नहीं देखता था लेकिन जिस तरह से लोगों ने इसे गर्माना शुरु कर दिया है कि दिनभर में एक-दो बार देखे बिना चैन नहीं पड़ता। रवीश अक्सर दो लाइन लिखकर ब्राइकेट में सस्ता शेर या चीप शायरी लगाकर कंटेट को क्लियर कर देते हैं। बाकी बातों पर तो नहीं लेकिन सस्ता शेर पर मैं कमेंट करने से अपने को रोक नहीं पाता। यहां मैं अक्सर स्त्रीलिंग भाषा का प्रयोग करते हुए कमेंट करता हूं,कुछ-कुछ हिन्दी के आदि कवियों की नकल करते हुए। क्योंकि रवीश सस्ता शेर के नाम पर जो कुछ भी लिखते हैं, उसे पढ़ते हुए पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि लड़कियों को इसका जबाब देना चाहिए। मैं उनके वीहॉफ पर जबाब देता हूं। जिस दिन से लड़कियां जबाब देना शुरु कर देगी, मैं स्त्रीलिंग-भाषा का प्रयोग बंद कर दूंगा। कोट-पैंट पहनकर एकरिंग करनेवाले रवीश की ऐसी तस्वीर हमने सिर्फ इसलिए लगायी है कि हम जैसे टटपुंजिए पाठक उन्हें पढ़ते हुए सकपका न जाए। फिलहाल सस्ता शेर और जबाबी कारवाई से गुजरते हुए मजे लें-
1. is shehar me hur baat achhi hoti hai, sachhi mulaaqaaten bhi jhoothi lagteen hain,khat parhne ke baad vo hanstee rahtee hai,jhoothe alfaazo ko sachha samajhtee hai(cheap shayri)
जबाब- पढ़ती हूं अल्फ़ाजों को और हंसती हूं तुम्हारी कोशिशों पर
कि झूठ लिखकर भी तुम सच के एहसास को जिंदा रखना चाहते हो..
2.is shehar me hur baat achhi hoti hai,vo nahee aateen to mulaqaat kisi aur se ho jaatee hai. (Cheap shayari)
जबाब- शहर में आकर तुम मर्द कितने सतर्क हो जाते हो
मोहब्बत में भी बेकअप रखते हो
3.Qatal bhi hum hue aur qaatil bhi kehlaaye,muqadma chalne se pehle, faislaa ho gaya
जबाब- कि जिसने कातिल किया है जिसको और
जो कातिल हुआ है जिससे
वो जमाने को न बताए कभी कि
कातिल होने और करने की सजा क्या होती है।.
4.Is july me sanam, hum baadal ban jaayegaa, barsenge august bhar,phir ghum ho jaayenge.
जबाब- तुमने बहुत देर कर दी मेरे हमदम
हम तो मार्च से ही पसीना बनकर
रिक्शेवालों की पीठ पर बहते रहे
वो हीरामन बन गया
और हम गमछा थमाने लगे
5.Humne dil kisi ka na torha mohabbat me, hur toote dilwaalo ka thikana hai meraa dil
जबाब- hasrat thi ki kabhi mohabbat me na tute kisi ka dil
tute to jud jaayae fir,kabhi kabaadkhana na bane mera dil
6.दुनिया की सारी बेवफाओं से आबाद है मेरी शायरी। रोते हुए आशिकों ने सींचा है मेरी नज़्मों का बागीचा।। cheap shaayri is back
जबाब- दर्द के खाद पड़ते रहे इन नज़्म की जड़ों में
बिना जमाने की खौफ़ के,बेख़ौफ बढ़ता रहा बगीचा
7.Cheap shayari- sitaaro ki tarah jhilmilaane ki zarurat nahee, mere chaand ko itraane ki zarurat nahee, door se hi achhi lagtee ho tum, ghar aane ki zarurat nahee
जबाब- तो फिर तुम भी खिड़की पर ही नजर बनाए रखना
दरवाजे पर की दस्तक सुनने की कोई जरुरत नहीं
8. Ek sms se hee baat ban gayee,baarish se pehle vo aa gayee,mulaqaat ka vaqt kum milaa,jo bhi milaa, kaafi lagaa
जबाब- जिंदगी भर तक मथ्था टेका,मिला नहीं मुझे ईश
बस एक एसएमएस जो किया,डेट पर मिले रवीश