मयूर विहार की बैचलर्स किचन उजड़ जाने के बाद कुछ दिनों तक रोटी के लिए इधर-उधर भटकता रहा. कुछ तो जानकारी का अभाव और कुछ दिल्ली का फूड कल्चर, आप पैसे खर्च करने के बाद भी बिना तामझाम का खाना नहीं खा सकते. हर जगह वही दाल मखनी, शाही/कढ़ाई/मटर/पालक पनीर सब्जी और खिड़की-दरवाजे रंगनेवाली ब्रुश से बटर चुपड़ी हुई नान या तंदूरी रोटी. ऐसा खाना खाने के पहले मुझे एक ही साथ दहशत और अपरोध बोध होता है कि मैं अपने इस शरीर के साथ आखिर कर क्या रहा हूं ? मेरी बेचैनी खाने के नए ठिकाने खोजने के बजाय अपने उस बैचलर्स किचन को जल्दी से जल्दी बसाने की बढ़ जाती है जिसमें दाल में सिर्फ जीरे की छौंक लग जाने भर से या फिर कढ़ाई में नाखून भर तेल डालकर तोरी की सब्जी बनाने से घर भर में हवन कुंड जैसी खुशबू फैल जाया करती थी..लेकिन सबकुछ पहले की तरह इतनी जल्दी हो जाना कहां संभव होता है. बहरहाल
मेरे डीयू कैंपस के पास आ जाने की खबर के साथ कई मेल,पोन और मैसेज आने शुरु हुए. लोगों की बातचीत में दो सवाल बहुत ही प्रमुखता से शामिल थे- भाभी ले आए क्या जो चल दिए मयूर विहार छोड़कर ? और दूसरा कि अब आपके बैचलर्स किचन का क्या होगा ? इन सवालकर्ताओं को समझाया- नहीं वीरजी, ऐसा कुछ नहीं है. बैचलर्स किचन पहले की तरह ही आबाद होगा बल्कि इसमें कुछ बैचलर्स का सहयोग और वर्चस्व होगा. फिलहाल थोड़ा समय लगेगा..ओह, तो ये बात है. अच्छा तो फिर आप तब तक के लिए विद्यार्थी थाली ट्राय क्यों नहीं करते ? िइधर आने के दूसरे दिन ही दोस्तों ने विद्यार्थी थाली की बात लोककथा की तरह रस ले-लेकर सुनाई थी. खाने की तारीफ के साथ-साथ उस नजारे पर अलग से जोर देकर कि एक से एक कंटाप वहां खाने आती है और ठाठ से खाकर जाती है.आप टीवी सीरियल पर लिखने-पढ़नेवाले आदमी ठहरे तो आपको वहां अफसर बिटिया टाइप की कंटाप भी मिल जाएगी जिसे भर नजर देख लें तो पक्का आकर पोस्ट लिख दीजिएगा..और इसी बीच आपको ललिया,आनंदी,अक्षरा,विधि जैसी दिख जाए तो काहे टाटा स्काई में चार सौ रुपया फूकिएगा, रोज प्राइम टाइम में वहीं चले जाइएगा.
पच्चीस रुपये की थाली मेरे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं थी और न ही कोई अजूबा. दो-चार बार फाइव स्टार होटल के रेस्तरां में ऐवें टाइप से थोड़ा-बहुत टूंगने( हर बार फ्री में ही खाने का मौका मिला था लेकिन मुझसे फाइव स्टार में कभी खाया नहीं गया. खाना सामने आते ही हराम का, बिक जाने, करोड़ों को रोटी नहीं मिलती जैसे विचार आने लगते और मन घिना जाता इसलिए स्टार्टर पर ही बम बोलकर निकल लेता) के बावजूद मुझे 15,20.25,50.100.120 की थाली ज्यादा याद रहती है. जब हम डीयू के कोठारी ह़स्टल में रहा करते थे तो शंकर लाल हॉल के ठीक सामने एक रेडी लगती थी. लगानेवाले गोपालगंज,बिहार के थे. उनके साथ ग्यारह साल का एक भतीजा भी हुआ करता जो कि बाद में पी जी मेन्ज,डीयू के आगे मौसमी का जूस बेचने लगा था. उनके यहां तो मामला कमाल का होता. दस रुपये में तीन पराठे और आलू-टमाटर की रसदार सब्जी. सब्जी चाहे जितनी बार ले लो..लेकिन हम जैसे के लिए ये जितनी भी लेकर पचाने की हैसियत नहीं थी. सब्जी इतनी तीखी होती कि पानी पी-पीकर ही पेट भर जाता और आंखों से आंसू की अविरल धारा बहने लगती. मेरा भूतपूर्व दोस्त राहुल, अब राहुल सिंह,युवा आलोचक जब भी जेएनयू से आता तो खासतौर पर इस रेडी पर जम जाता. तीस रुपये में चिकन और भर प्लेट भात. इतनी मौज दिल्ली में भला कहां मिलती . इस चिकनखौका दोस्त से अक्सर सवाल करता- यार इतना सस्ता देता है, पता नहीं क्या देता होगा, अचरा-कचरा,डर नहीं लगता खाने में ? उसका जवाब होता- अबे नॉनवेज वाले को रिस्क लेनी पड़ती है थोड़ी और जो तू आलू पराठे खाता है दस के तीन, रामराज है क्या जो दस के दिन दे देता है ? तेरी ही ग्वायर हॉल की कैंटीन में पांच के एक और सब्जी अलग से. खैर, हम कई बार मेस का खाना छोड़कर यही खाने आते.
साफ-सुथरा और स्वादिस्ट होने के बावजूद स्टूडेंट यहां खाने नहीं आते. हां कुछ सीनियर्स कमरे में अपनी गर्लफ्रैंड को बिठाकर पैक कराकर जरुर लाते. एक ने यहां तक कहा था- कैसे विनीत खाता है यहां बैठकर ? एक की गलफ्रैंड पैक कराकर खुद पराठे लेकर सीनियर के कमरे पहुंची थी और स्वाद जाना-पहचाना लगा था..वो समझ गई थी कि ये जो पैक कराकर पराठे लाता है, उसका उद्गम स्थल कहां है ? खैर, मैं वामपंथी साहित्य के संपर्क में नया-नया आया था और वो भी दिल्ली आने के कुछ महीने पहले से. रांची में दिनेश्वर प्रसाद ने मेरे भीतर ये बीज डाले थे जो कि मीडिया कोर्स के बदले वापस साहित्य में आने पर ज्यादा बेहतर तरीके से बढ़ रहे थे. राहुल जेएनयू की जिस आवोहवा और शिक्षकों के संपर्क में रहने लगा था, वामपंथी होना उसकी खुद की इच्छा-अनिच्छा से कहीं ज्यादा अनिवार्यता थी..ऐसे में जब हम शंकरलाल के आगे लगी इस रेडी के नीचे जूट के बोरे पर दर्जनों रिक्शेवाले के साथ बैठकर दस की पराठेवाली थाली और वो तीस रुपये की चिकन थाली खाता तो हमें संतोष और गुरुर होता कि चलो कुछ नहीं तो हमारे भीतर वामपंथ ठीक-ठीक काम कर रहा है और दिनेश्वर प्रसाद और मैनेजर पांडे का ये वृक्षारोपण एक दिन बरगद की शक्ल लेगा. हालांकि दिनेश्वर प्रसाद निराश होने के पहले ही हमारे बीच रहे नहीं और पांडेजी को लेकर कोई आइडिया नहीं है. मैं जब भी इस रेडी पर जाता, खातौर से हिन्दू कॉलेज की स्वेटशर्ट या टीशर्ट पहनता. काले या लाल रंग पर सफेद रंग से लिखा हिन्दू कॉलेज दूर से ही दिखता. पोस्टर की शक्ल में मेरी पीठ पर हिन्दू कॉलेज,यूनिवर्सिटी ऑफ दिल्ली को गुजरनेवाले हजारों लोग पढ़ें और प्रेरित हों कि- देखिए, इसको न कहते हैं ट्रू नॉलेज,सच्चा ज्ञान. इतने अच्छे कॉलेज में पढ़कर भी जमीन से जुड़ा है बंदा और उन्हीं मजदूरों, रिक्शेवाले और कबाडियों के बीच बैठकर खा रहा है, जिसके बारे में ज्ञान दे-देकर यूनिवर्सिटी-कॉलेज के लेक्चरर-प्रोफेसर्स एसी गाड़ियों में घूमते-फिरते हैं. लेकिन हमारी इस कोशिश से भी कोई वहां बैठकर खाने नहीं आया और न ही किसी ने रुककर शाबाशी दी- वेलडन,गुडगोइंग. हां हॉस्टल और कॉलेज के कई लोगों ने जरुर कहा- स्साला, इ चुतियापा कर रहा है. कच्चू होगा ऐसा करने से.
रेट तो इधर-उधर खिसकते रहे लेकिन थाली का चस्का लग चुका था जो कि बाद में पैसे आने पर आन्ध्रा भवन,सागर रत्ना और कनॉट प्लेस की राजधानी में जाकर विकसित हुआ. अब चाइना वॉल भी जाना होता है तो बिना मेनू पढ़े सीधे कॉम्बो थाली आर्डर कर देता हूं. आन्ध्रा भवन में मैं जिस तरीके से थाली-खाना खा रहा था, मेरी दोस्त सुदीप्ति एकटक मुझे देख रही थी और आखिर में पूछा- तुम्हें थाली का खाना बहुत पसंद है न. मैं थोड़ा झेंप गया था. लगा, क्या सोच रही होगी, कोई क्लास ही नहीं है इसका. एकदम भुख्खड की तरह टूट पड़ता है. मैंने कहा हां, बहुत पसंद है. सुदीप्ति को जवाब देते हुए मेरी आंखें छलछला गई. मैं शुरु से कम खाने या दिन-दिनभर कुछ भी न खाने के लिए बदनाम रहा हूं. मेरे घर के लोग और मुझे करीब से जाननेवाले और यहां तक कि मेरे मेंटर भी बात होने पर पहला सवाल करते हैं- खाना-पीना ठीक से खा तो रहे हो न.? फेसबुक पर बैचलर्स किचन सिर्फ इसी नीयत से बनाया कि स्वाति, रुचि और नाते-रिश्तेदार इसकी तस्वीरें देखे और मेरी मां को बताए कि विनीत तो जबरदस्त तरीके से खाना बनाता-खाता है. मेरी मां मेरे बहुत पैसे कमाने से उतना खुश नहीं होगी जितना इससे कि मैं जमकर खा रहा हूं. शायद सबकी मां.
मैं सुदीप्ति या अपने उन तमाम दोस्तों को क्या बताता कि मैं आखिर थाली पर इतनी बुरी तरह क्यों टूट पड़ता हूं ? सिर्फ कम कीमत पर बहुत सारी चीजें मिलने के कारण नहीं बल्कि थाली में जब एक ही साथ बहुत सारी चीजें देखता हूं तो उस भ्रम का शिकार हो जाता हूं कि ये खाना मां की रसोई की है. खाने में एक साथ बहुत सारी चीजें छोटी-छोटी कटोरियों में परोसकर दिए जाने पर मुझे एकदम से मां के बनाए उन खाने की याद आ जाती है जिसके बारे में वो कभी दावा ही नहीं करती कि उसने खासकर मेरे लिए ये सब बनाए हैं.
जब करेले का भुजिया बनायी ही ती मां तो फिर आलू-परवल की सब्जी क्यों बना दी ? अरे वो दू गो करेला रह गया था तो सोचे कि अब एतना आदमी में कहां सबको होगा तो भूज दिए जैसे-तैसे..और खीर बनाने की क्या जरुरत थी जब आम था नहीं. खीर कहां बनाए हैं. बस कल का दूध रह गया था त दू दाना चौर( दो दाना चावल) डालके खदका दिए. और लाल साग बनाई इतनी मेहनत से तो फिर धनिया पत्ती की चटनी भी..अब एतना मंहगा धनिया पत्ती मिलता है, इ( मेरे पापा) उठाके ले आए तो खर्चा तो है नहीं एतना तो सोचे कि मिक्सी में चला देते हैं दू मिनट.. और जब टमाटर की चटनी बनायी ही थी तो बैंगन का भर्ता क्यों ? भरता थोड़े बनाए हैं. गैस का जाली बहुत दिन से जाम था तो सोचे कि आज साफ करना ही है तो एगो बैंगन पकाके ही साफ करेंगे.
इस तरह मां दुनियाभर की चीजें खाने में बनायी करती लेकिन किसी के बारे में नहीं कहती कि उसे खासतौर से तैयारी करके बनाया है या फिर उसके लिए अलग से मेहनत की है..इन चीजों के बनाने के पीछे तर्क होता कि अगर नहीं बनाती तो चीजें बर्बाद हो जाती या फिर उसी टाइम में बना दिया है, अलग से समय नहीं लिया है. इस कतर-ब्योत की रसोई में मां के हाथ का जो खाना होता है, भाभी को तैयार करने में पसीने छूट जाते हैं..अब तो अपने और दूसरों के घरों में किसी चीज के बनने में हो-हल्ला और ठोल पीटने जैसी कवायदें देखता हूं तो लगता है मां खाने में जिस शैली और अंदाज को सहेजती आयी है, उसकी बस एक ही पंचलाइन होनी चाहिए- जब आप चुप रहेंगी, आपके व्यंजन बोलेंगे या फिर हम नहीं, खाने का स्वाद बोलेगा.
मां की इस कतर-ब्योत रसोई का ही चस्का है कि मैं खाने की उन ठिकानों की तलाश करता फिरता हूं जहां बहुत सारी कटोरियों,बर्तन के साथ कई चीजें खाने को मिलती है और वो भी थालीभर आर्डर करने से. विद्यार्थी थाली के प्रति आकर्षण इसी लोभ में बना था.
मुकर्जीनगर का बहुत ही भीड़-भाड़ भरा इलाका. चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ सिविल सर्विसेज की कोचिंग देनेवाली दुकानों की होर्डिंग्स और बैनर. जब कभी मैं मुकर्जीनगर की गलियां,सड़कों पर खड़ा होता हूं,चारों तरफ से ये होर्डिंग्स लगता है मेरी गर्दन दबा रहे हों.एम.फिल् तक तो लगा कि बिना इसका हिस्सा बने हम दोबारा यहां आ ही नहीं सकते.एकबारगी ख्याल आता कि कुछ नहीं तो एक बार देकर देखना चाहिए था..लेकिन अब जब जाता हूं तो सिर्फ वो चेहरे याद आते हैं जो कभी हमारे साथ थे और समाज के लिए कुछ कर गुजरने के दावे के साथ इन कोचिंगों की भड़भड़ाती भीड़ से होकर गुजरे और अब "सफल" हैं. खैर ऐसे कोचिंग संस्थानों के बीच एक मामूली सा रेस्तरां जहां बैठकर खाने की कोई व्यवस्था नहीं. दीवारों की तरफ तख्ती ठोंकी हुई जहां लाइन लगाकर थाली लेने के बाद आप राहत से यहां खड़े होकर खा सकते हैं. खाने की सारी चीजें बीस से चालीस रुपये. पहुंचते ही मैंने एकबारगी चारों तरफ देखा..देखे,बोले थे न कि यहां कंटाप लोग भी आती है. वैसे अच्छी लग रही है न ? दोस्त की टिप्पणी थी. मैं खाते हुए लोगों को देख रहा था जिनकी अमूमन चार कैटेगरी थी. एक जो डीयू हॉस्टलों से छूटकर आए थे और वीतरागी भाव से उस थाली में डूबे थे और जिनके भीतर मेस के खाने में और इस थाली के बीच तुलनात्मक अध्ययन चल रहा था. दूसरे हड़बड़ाए हुए से भारी-भरकम बैग टांगे जिन पर कोचिंग सेंटर का नाम श्वेत अक्षरों में लिखा था और उन्होंने अपनी पीठ को भारी फीस देने का बाद भी उस कोचिंग सेंटर की पोस्टर बना डाली थी, जिन्हें जल्दी-जल्दी खाने के बाद एनसीइआरटी और विपिन चन्द्रा की किताबों में डूब जाना था. तीसरे जो कपल में थे और बहुत ही शांत मुद्रा में. जिन्हें देखकर लग रहा था इनदोनों का कहीं पीसीएस में हो गया है या फाइनली कहीं कुछ हो गया है और जिंदगी के बारे में सीरियसली कुछ फैसला लेनेवाले हैं. उनकी ट्यूनिंग ब्ऑयफ्रैंड-गर्लफ्रैंड से कहीं ज्यादा गृहस्थ की लग रही थी. इसी कपल विभाजन में एक छिटकी हुई कैटेगरी उनकी भी थी जिन्होंने पच्चीस रुपये की विद्यार्थी थाली में ही एक चम्मच सीसीडी या बारिस्ता की शूगर फ्री चीनी घोल दी थी. वो एक-दूसरे को कौर-कौर करके खिला रहे थे. पच्चीस रुपये की थाली में ही इतना रोमांस. ओह रवीश ! कहां है आप, "वनरुम सेट का रोमांस" में कुछ पन्ने इस पच्चीस रुपये की थाली और इस दृश्य के भी जोड़िए न. इनमें से कुछ जोड़े इस थाली के बाद सामने लाठी पर टोकरी टिकाए उस शख्स के आगे खड़े हो जा रहे थे जो दस रुपये में तीन समोसेनुमा गजक बेच रहा था जिसके आगे कैडवरी के लाखों के विज्ञापन ध्वस्त हो रहे थे. जहां कुछ मीठा तो हो रहा ता लेकिन अमिताभ बच्चन की अपील पर नहीं, उस बिंदास तरीके से जिसमें लड़की करोड़पति बाप की बेटी नहीं, कम्पटेटिव इग्जाम की तैयारी करनेवाली थी और लड़का आत्मविश्वास का मारा,शो ऑफ का शिकार नहीं, ज्यादा व्यावहारिक लग रहा था. मुकर्जीनगर में सचमुच लो बजट का प्यार और संभावित गृहस्थ की उम्मीदें पलती है. चौथी कैटेगरी हम जैसे खुदरा ग्राहकों की थी जो खाने से ज्यादा अनुभव बटोरने आए थे. जो यहां से घर जाकर सीधी एफबी अपडेट करेंगे. देर-सबेर ग्वायर हॉल की पंडिजी की कैंटीन की तरह ही इस पर कुछ लिखेंगे और बहुत जल्द ही अखबारों की कतरन इसकी दीवारों पर सर्टिफिकेटनुमा अंदाज में टंगे होंगे.
दिलचस्प लगा कि 25 की सिर्फ विद्यार्थी थाली नहीं थी. 35 की साहब थाली भी थी जिनमें कि एक के बजाय दो सब्जी थी और रोटी के साथ चावल भी. मतलब ये कि या तो आप विद्यार्थी की हैसियत से यहां आ सकते हैं या फिर साहब बनने के सपने लेकर. सोचकर हंसी आयी.हम जैसे लोगों के लिए अच्छा है जो कभी साहब बनेगा नहीं और जिंदगी भर विद्यार्थी थाली खा सकेगा. खाना परोसने में कोई तामझाम नहीं था और नहीं बहुत सारी कटोरियां. बस रोटी-सब्जी और दाल. यहां मां की तरह कोई आढ़ा-तिरछा तर्क नहीं था कि वो खराब हो जाता तो ये बना दिया..जो भी था, सब हिसाब-किताब को ध्यान में रखकर. तभी मुझे थोड़ी और सब्जी की जरुरत हुई तो अलग से दो रोटी भी लेनी पड़ी. अपनी इगो मारकर कहना पड़ा- थोड़ी सी सब्जी दे देंगे प्लीज. ऐसी जगहों पर जाकर, नियमों में बंधकर अपनी औकात का और पुरानी अय्याशी का अंदाजा लगता है. ग्वायर में लोग भर-भर कटोरी सब्जी और दालें ऐसे ही जूठे में फेंक दिया करते, खराब स्वाद की वजह से नहीं, उस राजनीति की वजह से जिसमें मेस सेक्रेटरी से खुन्नस निकालनी होती. हमें अपने घर की वो चरमराती हुई संस्कृति याद आने लगी जो बुरी तरह ध्वस्त हो रही है. फ्रीज में रखे सामान और डस्टबिन में डाले गए कचरे का फर्क मिटता जा रहा है. आप कभी भी किसी एक की चीज को दूसरे में डाल दें तो फर्क करना मुश्किल हो जाएगा कि किसकी जगह कहां मुकर्रर होनी चाहिए. कबी मां बासी रोटी को तबे पर सेंककर, सरसों तेल और नमक डालकर हम भाई-बहनों को लाइन से शाम के नाश्ते में पेश कर देती. खाने की कीमत हम ऐसी ही जगहों पर समझ पाते हैं. कैप्री की जेब में सौ-सौ के कडकड़ाते नोट चुभ रहे थे और कानों में उसकी आवाज इस अंदाज में पड़ रही थी कि मैं अभी-अभी एहसानों तले दब जाउंगा- "सर एक्सट्रा सब्जी का तो प्रोविजन नहीं है लेकिन आपको दे दे रहे हैं.
दो रोटियों के साथ कटोरी में थोड़ी सी सब्जी मेरी थाली में थी और मैंने कानों में दोबारा इयर फोन लगा लिए थे- इक बगल में चांद होगा, इक बगल में रोटियां, इक बगल में नींद होगी, इन बगल में लोरियां..हम चांद पेssssssssssssssssssssssssssssssss.