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मयूर विहार की बैचलर्स किचन उजड़ जाने के बाद कुछ दिनों तक रोटी के लिए इधर-उधर भटकता रहा. कुछ तो जानकारी का अभाव और कुछ दिल्ली का फूड कल्चर, आप पैसे खर्च करने के बाद भी बिना तामझाम का खाना नहीं खा सकते. हर जगह वही दाल मखनी, शाही/कढ़ाई/मटर/पालक पनीर सब्जी और खिड़की-दरवाजे रंगनेवाली ब्रुश से बटर चुपड़ी हुई नान या तंदूरी रोटी. ऐसा खाना खाने के पहले मुझे एक ही साथ दहशत और अपरोध बोध होता है कि मैं अपने इस शरीर के साथ आखिर कर क्या रहा हूं ? मेरी बेचैनी खाने के नए ठिकाने खोजने के बजाय अपने उस बैचलर्स किचन को जल्दी से जल्दी बसाने की बढ़ जाती है जिसमें दाल में सिर्फ जीरे की छौंक लग जाने भर से या फिर कढ़ाई में नाखून भर तेल डालकर तोरी की सब्जी बनाने से घर भर में हवन कुंड जैसी खुशबू फैल जाया करती थी..लेकिन सबकुछ पहले की तरह इतनी जल्दी हो जाना कहां संभव होता है. बहरहाल

मेरे डीयू कैंपस के पास आ जाने की खबर के साथ कई मेल,पोन और मैसेज आने शुरु हुए. लोगों की बातचीत में दो सवाल बहुत ही प्रमुखता से शामिल थे- भाभी ले आए क्या जो चल दिए मयूर विहार छोड़कर ?  और दूसरा कि अब आपके बैचलर्स किचन का क्या होगा ? इन सवालकर्ताओं को समझाया- नहीं वीरजी, ऐसा कुछ नहीं है. बैचलर्स किचन पहले की तरह ही आबाद होगा बल्कि इसमें कुछ बैचलर्स का सहयोग और वर्चस्व होगा. फिलहाल थोड़ा समय लगेगा..ओह, तो ये बात है. अच्छा तो फिर आप तब तक के लिए विद्यार्थी थाली ट्राय क्यों नहीं करते ? िइधर आने के दूसरे दिन ही दोस्तों ने विद्यार्थी थाली की बात लोककथा की तरह रस ले-लेकर सुनाई थी. खाने की तारीफ के साथ-साथ उस नजारे पर अलग से जोर देकर कि एक से एक कंटाप वहां खाने आती है और ठाठ से खाकर जाती है.आप टीवी सीरियल पर लिखने-पढ़नेवाले आदमी ठहरे तो आपको वहां अफसर बिटिया टाइप की कंटाप भी मिल जाएगी जिसे भर नजर देख लें तो पक्का आकर पोस्ट लिख दीजिएगा..और इसी बीच आपको ललिया,आनंदी,अक्षरा,विधि जैसी दिख जाए तो काहे टाटा स्काई में चार सौ रुपया फूकिएगा, रोज प्राइम टाइम में वहीं चले जाइएगा.

पच्चीस रुपये की थाली मेरे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं थी और न ही कोई अजूबा. दो-चार बार फाइव स्टार होटल के रेस्तरां में ऐवें टाइप से थोड़ा-बहुत टूंगने( हर बार फ्री में ही खाने का मौका मिला था लेकिन मुझसे फाइव स्टार में कभी खाया नहीं गया. खाना सामने आते ही हराम का, बिक जाने, करोड़ों को रोटी नहीं मिलती जैसे विचार आने लगते और मन घिना जाता इसलिए स्टार्टर पर ही बम बोलकर निकल लेता) के बावजूद मुझे 15,20.25,50.100.120 की थाली ज्यादा याद रहती है. जब हम डीयू के कोठारी ह़स्टल में रहा करते थे तो शंकर लाल हॉल के ठीक सामने एक रेडी लगती थी. लगानेवाले गोपालगंज,बिहार के थे. उनके साथ ग्यारह साल का एक भतीजा भी हुआ करता जो कि बाद में पी जी मेन्ज,डीयू के आगे मौसमी का जूस बेचने लगा था. उनके यहां तो मामला कमाल का होता. दस रुपये में तीन पराठे और आलू-टमाटर की रसदार सब्जी. सब्जी चाहे जितनी बार ले लो..लेकिन हम जैसे के लिए ये जितनी भी लेकर पचाने की हैसियत नहीं थी. सब्जी इतनी तीखी होती कि पानी पी-पीकर ही पेट भर जाता और आंखों से आंसू की अविरल धारा बहने लगती. मेरा भूतपूर्व दोस्त राहुल, अब राहुल सिंह,युवा आलोचक जब भी जेएनयू से आता तो खासतौर पर इस रेडी पर जम जाता. तीस रुपये में चिकन और भर प्लेट भात. इतनी मौज दिल्ली में भला कहां मिलती . इस चिकनखौका दोस्त से अक्सर सवाल करता- यार इतना सस्ता देता है, पता नहीं क्या देता होगा, अचरा-कचरा,डर नहीं लगता खाने में ? उसका जवाब होता- अबे नॉनवेज वाले को रिस्क लेनी पड़ती है थोड़ी और जो तू आलू पराठे खाता है दस के तीन, रामराज है क्या जो दस के दिन दे देता है ? तेरी ही ग्वायर हॉल की कैंटीन में पांच के एक और सब्जी अलग से. खैर, हम कई बार मेस का खाना छोड़कर यही खाने आते.

साफ-सुथरा और स्वादिस्ट होने के बावजूद स्टूडेंट यहां खाने नहीं आते. हां कुछ सीनियर्स कमरे में अपनी गर्लफ्रैंड को बिठाकर पैक कराकर जरुर लाते. एक ने यहां तक कहा था- कैसे विनीत खाता है यहां बैठकर ? एक की गलफ्रैंड पैक कराकर खुद पराठे लेकर सीनियर के कमरे पहुंची थी और स्वाद जाना-पहचाना लगा था..वो समझ गई थी कि ये जो पैक कराकर पराठे लाता है, उसका उद्गम स्थल कहां है ? खैर, मैं वामपंथी साहित्य के संपर्क में नया-नया आया था और वो भी दिल्ली आने के कुछ महीने पहले से. रांची में दिनेश्वर प्रसाद ने मेरे भीतर ये बीज डाले थे जो कि मीडिया कोर्स के बदले वापस साहित्य में आने पर ज्यादा बेहतर तरीके से बढ़ रहे थे. राहुल जेएनयू की जिस आवोहवा और शिक्षकों के संपर्क में रहने लगा था, वामपंथी होना उसकी खुद की इच्छा-अनिच्छा से कहीं ज्यादा अनिवार्यता थी..ऐसे में जब हम शंकरलाल के आगे लगी इस रेडी के नीचे जूट के बोरे पर दर्जनों रिक्शेवाले के साथ बैठकर दस की पराठेवाली थाली और वो तीस रुपये की चिकन थाली खाता तो हमें संतोष और गुरुर होता कि चलो कुछ नहीं तो हमारे भीतर वामपंथ ठीक-ठीक काम कर रहा है और दिनेश्वर प्रसाद और मैनेजर पांडे का ये वृक्षारोपण एक दिन बरगद की शक्ल लेगा. हालांकि दिनेश्वर प्रसाद निराश होने के पहले ही हमारे बीच रहे नहीं और पांडेजी को लेकर कोई आइडिया नहीं है. मैं जब भी इस रेडी पर जाता, खातौर से हिन्दू कॉलेज की स्वेटशर्ट या टीशर्ट पहनता. काले या लाल रंग पर सफेद रंग से लिखा हिन्दू कॉलेज दूर से ही दिखता. पोस्टर की शक्ल में मेरी पीठ पर हिन्दू कॉलेज,यूनिवर्सिटी ऑफ दिल्ली को गुजरनेवाले हजारों लोग पढ़ें और प्रेरित हों कि- देखिए, इसको न कहते हैं ट्रू नॉलेज,सच्चा ज्ञान. इतने अच्छे कॉलेज में पढ़कर भी जमीन से जुड़ा है बंदा और उन्हीं मजदूरों, रिक्शेवाले और कबाडियों के बीच बैठकर खा रहा है, जिसके बारे में ज्ञान दे-देकर यूनिवर्सिटी-कॉलेज के लेक्चरर-प्रोफेसर्स एसी गाड़ियों में घूमते-फिरते हैं. लेकिन हमारी इस कोशिश से भी कोई वहां बैठकर खाने नहीं आया और न ही किसी ने रुककर शाबाशी दी- वेलडन,गुडगोइंग. हां हॉस्टल और कॉलेज के कई लोगों ने जरुर कहा- स्साला, इ चुतियापा कर रहा है. कच्चू होगा ऐसा करने से. 

रेट तो इधर-उधर खिसकते रहे लेकिन थाली का चस्का लग चुका था जो कि बाद में पैसे आने पर आन्ध्रा भवन,सागर रत्ना और कनॉट प्लेस की राजधानी में जाकर विकसित हुआ. अब चाइना वॉल भी जाना होता है तो बिना मेनू पढ़े सीधे कॉम्बो थाली आर्डर कर देता हूं. आन्ध्रा भवन में मैं जिस तरीके से थाली-खाना खा रहा था, मेरी दोस्त सुदीप्ति एकटक मुझे देख रही थी और आखिर में पूछा- तुम्हें थाली का खाना बहुत पसंद है न. मैं थोड़ा झेंप गया था. लगा, क्या सोच रही होगी, कोई क्लास ही नहीं है इसका. एकदम भुख्खड की तरह टूट पड़ता है. मैंने कहा हां, बहुत पसंद है. सुदीप्ति को जवाब देते हुए मेरी आंखें छलछला गई. मैं शुरु से कम खाने या दिन-दिनभर कुछ भी न खाने के लिए बदनाम रहा हूं. मेरे घर के लोग और मुझे करीब से जाननेवाले और यहां तक कि मेरे मेंटर भी बात होने पर पहला सवाल करते हैं- खाना-पीना ठीक से खा तो रहे हो न.? फेसबुक पर बैचलर्स किचन सिर्फ इसी नीयत से बनाया कि स्वाति, रुचि और नाते-रिश्तेदार इसकी तस्वीरें देखे और मेरी मां को बताए कि विनीत तो जबरदस्त तरीके से खाना बनाता-खाता है. मेरी मां मेरे बहुत पैसे कमाने से उतना खुश नहीं होगी जितना इससे कि मैं जमकर खा रहा हूं. शायद सबकी मां.

मैं सुदीप्ति या अपने उन तमाम दोस्तों को क्या बताता कि मैं आखिर थाली पर इतनी बुरी तरह क्यों टूट पड़ता हूं ? सिर्फ कम कीमत पर बहुत सारी चीजें मिलने के कारण नहीं बल्कि थाली में जब एक ही साथ बहुत सारी चीजें देखता हूं तो उस भ्रम का शिकार हो जाता हूं कि ये खाना मां की रसोई की है. खाने में एक साथ बहुत सारी चीजें छोटी-छोटी कटोरियों में परोसकर दिए जाने पर मुझे एकदम से मां के बनाए उन खाने की याद आ जाती है जिसके बारे में वो कभी दावा ही नहीं करती कि उसने खासकर मेरे लिए ये सब बनाए हैं.

जब करेले का भुजिया बनायी ही ती मां तो फिर आलू-परवल की सब्जी क्यों बना दी ? अरे वो दू गो करेला रह गया था तो सोचे कि अब एतना आदमी में कहां सबको होगा तो भूज दिए जैसे-तैसे..और खीर बनाने की क्या जरुरत थी जब आम था नहीं. खीर कहां बनाए हैं. बस कल का दूध रह गया था त दू दाना चौर( दो दाना चावल) डालके खदका दिए. और लाल साग बनाई इतनी मेहनत से तो फिर धनिया पत्ती की चटनी भी..अब एतना मंहगा धनिया पत्ती मिलता है, इ( मेरे पापा) उठाके ले आए तो खर्चा तो है नहीं एतना तो सोचे कि मिक्सी में चला देते हैं दू मिनट.. और जब टमाटर की चटनी बनायी ही थी तो बैंगन का भर्ता क्यों ? भरता थोड़े बनाए हैं. गैस का जाली बहुत दिन से जाम था तो सोचे कि आज साफ करना ही है तो एगो बैंगन पकाके ही साफ करेंगे.
इस तरह मां दुनियाभर की चीजें खाने में बनायी करती लेकिन किसी के बारे में नहीं कहती कि उसे खासतौर से तैयारी करके बनाया है या फिर उसके लिए अलग से मेहनत की है..इन चीजों के बनाने के पीछे तर्क होता कि अगर नहीं बनाती तो चीजें बर्बाद हो जाती या फिर उसी टाइम में बना दिया है, अलग से समय नहीं लिया है. इस कतर-ब्योत की रसोई में मां के हाथ का जो खाना होता है, भाभी को तैयार करने में पसीने छूट जाते हैं..अब तो अपने और दूसरों के घरों में किसी चीज के बनने में हो-हल्ला और ठोल पीटने जैसी कवायदें देखता हूं तो लगता है मां खाने में जिस शैली और अंदाज को सहेजती आयी है, उसकी बस एक ही पंचलाइन होनी चाहिए- जब आप चुप रहेंगी, आपके व्यंजन बोलेंगे या फिर हम नहीं, खाने का स्वाद बोलेगा.

मां की इस कतर-ब्योत रसोई का ही चस्का है कि मैं खाने की उन ठिकानों की तलाश करता फिरता हूं जहां बहुत सारी कटोरियों,बर्तन के साथ कई चीजें खाने को मिलती है और वो भी थालीभर आर्डर करने से. विद्यार्थी थाली के प्रति आकर्षण इसी लोभ में बना था.

मुकर्जीनगर का बहुत ही भीड़-भाड़ भरा इलाका. चारों तरफ सिर्फ और सिर्फ सिविल सर्विसेज की कोचिंग देनेवाली दुकानों की होर्डिंग्स और बैनर. जब कभी मैं मुकर्जीनगर की गलियां,सड़कों पर खड़ा होता हूं,चारों तरफ से ये होर्डिंग्स लगता है मेरी गर्दन दबा रहे हों.एम.फिल् तक तो लगा कि बिना इसका हिस्सा बने हम दोबारा यहां आ ही नहीं सकते.एकबारगी ख्याल आता कि कुछ नहीं तो एक बार देकर देखना चाहिए था..लेकिन अब जब जाता हूं तो सिर्फ वो चेहरे याद आते हैं जो कभी हमारे साथ थे और समाज के लिए कुछ कर गुजरने के दावे के साथ इन कोचिंगों की भड़भड़ाती भीड़ से होकर गुजरे और अब "सफल" हैं. खैर ऐसे कोचिंग संस्थानों के बीच एक मामूली सा रेस्तरां जहां बैठकर खाने की कोई व्यवस्था नहीं. दीवारों की तरफ तख्ती ठोंकी हुई जहां लाइन लगाकर थाली लेने के बाद आप राहत से यहां खड़े होकर खा सकते हैं. खाने की सारी चीजें बीस से चालीस रुपये. पहुंचते ही मैंने एकबारगी चारों तरफ देखा..देखे,बोले थे न कि यहां कंटाप लोग भी आती है. वैसे अच्छी लग रही है न ? दोस्त की टिप्पणी थी. मैं खाते हुए लोगों को देख रहा था जिनकी अमूमन चार कैटेगरी थी. एक जो डीयू हॉस्टलों से छूटकर आए थे और वीतरागी भाव से उस थाली में डूबे थे और जिनके भीतर मेस के खाने में और इस थाली के बीच तुलनात्मक अध्ययन चल रहा था. दूसरे हड़बड़ाए हुए से भारी-भरकम बैग टांगे जिन पर कोचिंग सेंटर का नाम श्वेत अक्षरों में लिखा था और उन्होंने अपनी पीठ को भारी फीस देने का बाद भी उस कोचिंग सेंटर की पोस्टर बना डाली थी, जिन्हें जल्दी-जल्दी खाने के बाद एनसीइआरटी और विपिन चन्द्रा की किताबों में डूब जाना था. तीसरे जो कपल में थे और बहुत ही शांत मुद्रा में. जिन्हें देखकर लग रहा था इनदोनों का कहीं पीसीएस में हो गया है या फाइनली कहीं कुछ हो गया है और जिंदगी के बारे में सीरियसली कुछ फैसला लेनेवाले हैं. उनकी ट्यूनिंग ब्ऑयफ्रैंड-गर्लफ्रैंड से कहीं ज्यादा गृहस्थ की लग रही थी. इसी कपल विभाजन में एक छिटकी हुई कैटेगरी उनकी भी थी जिन्होंने पच्चीस रुपये की विद्यार्थी थाली में ही एक चम्मच सीसीडी या बारिस्ता की शूगर फ्री चीनी घोल दी थी. वो एक-दूसरे को कौर-कौर करके खिला रहे थे. पच्चीस रुपये की थाली में ही इतना रोमांस. ओह रवीश ! कहां है आप, "वनरुम सेट का रोमांस" में कुछ पन्ने इस पच्चीस रुपये की थाली और इस दृश्य के भी जोड़िए न. इनमें से कुछ जोड़े इस थाली के बाद सामने लाठी पर टोकरी टिकाए उस शख्स के आगे खड़े हो जा रहे थे जो दस रुपये में तीन समोसेनुमा गजक बेच रहा था जिसके आगे कैडवरी के लाखों के विज्ञापन ध्वस्त हो रहे थे. जहां कुछ मीठा तो हो रहा ता लेकिन अमिताभ बच्चन की अपील पर नहीं, उस बिंदास तरीके से जिसमें लड़की करोड़पति बाप की बेटी नहीं, कम्पटेटिव इग्जाम की तैयारी करनेवाली थी और लड़का आत्मविश्वास का मारा,शो ऑफ का शिकार नहीं, ज्यादा व्यावहारिक लग रहा था. मुकर्जीनगर में सचमुच लो बजट का प्यार और संभावित गृहस्थ की उम्मीदें पलती है. चौथी कैटेगरी हम जैसे खुदरा ग्राहकों की थी जो खाने से ज्यादा अनुभव बटोरने आए थे. जो यहां से घर जाकर सीधी एफबी अपडेट करेंगे. देर-सबेर ग्वायर हॉल की पंडिजी की कैंटीन की तरह ही इस पर कुछ लिखेंगे और बहुत जल्द ही अखबारों की कतरन इसकी दीवारों पर सर्टिफिकेटनुमा अंदाज में टंगे होंगे.

दिलचस्प लगा कि 25 की सिर्फ विद्यार्थी थाली नहीं थी. 35 की साहब थाली भी थी जिनमें कि एक के बजाय दो सब्जी थी और रोटी के साथ चावल भी. मतलब ये कि या तो आप विद्यार्थी की हैसियत से यहां आ सकते हैं या फिर साहब बनने के सपने लेकर. सोचकर हंसी आयी.हम जैसे लोगों के लिए अच्छा है जो कभी साहब बनेगा नहीं और जिंदगी भर विद्यार्थी थाली खा सकेगा. खाना परोसने में कोई तामझाम नहीं था और नहीं बहुत सारी कटोरियां. बस रोटी-सब्जी और दाल. यहां मां की तरह कोई आढ़ा-तिरछा तर्क नहीं था कि वो खराब हो जाता तो ये बना दिया..जो भी था, सब हिसाब-किताब को ध्यान में रखकर. तभी मुझे थोड़ी और सब्जी की जरुरत हुई तो अलग से दो रोटी भी लेनी पड़ी. अपनी इगो मारकर कहना पड़ा- थोड़ी सी सब्जी दे देंगे प्लीज. ऐसी जगहों पर जाकर, नियमों में बंधकर अपनी औकात का और पुरानी अय्याशी का अंदाजा लगता है. ग्वायर में लोग भर-भर कटोरी सब्जी और दालें ऐसे ही जूठे में फेंक दिया करते, खराब स्वाद की वजह से नहीं, उस राजनीति की वजह से जिसमें मेस सेक्रेटरी से खुन्नस निकालनी होती. हमें अपने घर की वो चरमराती हुई संस्कृति याद आने लगी जो बुरी तरह ध्वस्त हो रही है. फ्रीज में रखे सामान और डस्टबिन में डाले गए कचरे का फर्क मिटता जा रहा है. आप कभी भी किसी एक की चीज को दूसरे में डाल दें तो फर्क करना मुश्किल हो जाएगा कि किसकी जगह कहां मुकर्रर होनी चाहिए. कबी मां बासी रोटी को तबे पर सेंककर, सरसों तेल और नमक डालकर हम भाई-बहनों को लाइन से शाम के नाश्ते में पेश कर देती. खाने की कीमत हम ऐसी ही जगहों  पर समझ पाते हैं. कैप्री की जेब में सौ-सौ के कडकड़ाते नोट चुभ रहे थे और कानों में उसकी आवाज इस अंदाज में पड़ रही थी कि मैं अभी-अभी एहसानों तले दब जाउंगा- "सर एक्सट्रा सब्जी का तो प्रोविजन नहीं है लेकिन आपको दे दे रहे हैं.

दो रोटियों के साथ कटोरी में थोड़ी सी सब्जी मेरी थाली में थी और मैंने कानों में दोबारा इयर फोन लगा लिए थे- इक बगल में चांद होगा, इक बगल में रोटियां, इक बगल में नींद होगी, इन बगल में लोरियां..हम चांद पेssssssssssssssssssssssssssssssss.
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दलीलः ये जानते हुए कि किरायेदार का कोई घर नहीं होता, वो माचिस की डिब्बी जैसे कमरे से लेकर कोल्ड स्टोरेज इतनी बड़ी फ्लैट को  जिंदगीभर घर के बजाय मकान बोलने के लिए अभिशप्त है, मैं 221, फेज-01,पॉकेट-5,मयूर विहार, अपने पुराने ठिकाने के लिए मकान की जगह घर शब्द का प्रयोग करना चाहता हूं. वो घर जिसके लिए मेरे दोस्तों ने कमरा, मकान या फिर पापा ने डेरा शब्द का जब भी प्रयोग किया, मेरे भीतर कुछ न कुछ चटकता आया था और मैं चीत्कार उठता- नहीं. ये मकान या डेरा नहीं है. ये मेरा घर है. इस घर की दीवारें, दरवाजें और खिड़कियां भले ही मकान-मालिक के हैं, जमीन डीडीए की है लेकिन इसके भीतर की हरकतें, उठनेवाले सपने और पैदा होनेवाली उम्मीदें मेरी है. घर का एकांत जो समय के साथ अकेलेपन,उदासी,हताशा,बेचैनी और देखते ही देखते अवसाद में तब्दील होता चला गया, वो सबके सब मेरे हैं. घर की सारी खिड़कियां मकान-मालिक के थे लेकिन उससे झांकनेवाली नजरें मेरी थी, अखबार के पन्ने पर मेरे दोस्त मिहिर के लिए जो रोशनदान है, वो मेरे लिए खिड़कियां थी जिससे छन-छनकर आनेवाला शोर मुझे अक्सर इंसानों के बीच रहने का एहसास कराता लेकिन शहर-सभ्यता की दीवारें सामाजिक होने से रोक लेती. जिस घर में आनेवाले दर्जनभर से ज्यादा लोगों ने कहा- लगता नहीं कि इसमें तुम अकेले बैचलर रहते हो, लड़की जैसा सजाकर रखते हो. मेरा इस 221 को मकान के बजाय घर कहने के पीछे न तो कोई अतिरिक्त महत्वकांक्षा है और न ही भविष्य में किसी तरह की कानूनी दावेदारी की योजना. इसे आप एक भावुक किरायेदार का पागलपन कहकर बख्श दें लेकिन प्लीज मेरी इस संज्ञा( घर) को प्रॉपर्टी डीलर की चौखट तक घसीटकर न लें जाएं..हमने वो घर छोड़ दिया लेकिन साथ में जो वहां छोड़ आए हैं वो लंबे समय तक इसे मकान कहने से मेरे अपनों को रोकेगी,टोकेगी और मेरे घर के रुप में याद करेगी.

देर रात घर( 221,मयूर विहार) का सारा सामान ट्रक पर लादकर नए ठिकाने पर पहुंचाने के बाद अगली सुबह मैं आखिरी बार इस घर में आया था. बहुत सारे बल्ब, पर्दे की क्लिप, वाशरुम में लगी साबुन की स्टैंड, बेसिन के नीचे लगी स्टैंड और ऐसी ही छोटी-मोटी चीजें रह गयी थी. एमटीएनएल की इंटरनेट सेवा बंद करवानी थी और एक बार सब तरह से देख लेने के बाद केयर-टेकर को चाबी दे देनी थी. मैंने घर का ताला खोला और सीधे अंदर गया. दोनों कमरे और किचन का मुआयना किया. कुछ भी नहीं छूटा था सिवाय बल्ब और किल्प के. दोनों कमरे में बहुत सारे खाली पैकेट, पुरानी मैगजीन और ऐसी ही फालतू चीजें. किचन में छोटे-छोटे खाली डिब्बे जिसमें मां ने पिछले साल अचार दिए थे. मैं धप्प से जमीन पर बैठ गया. हालांकि स्कीनी जींस पहने होने की वजह से बैठने में तकलीफ हो रही थी. मैं थोड़ी देर तक बिल्कुल शांत बैठना चाह रहा था. ऐसे-जैसे कि हमने जिन क्षणों को इस घर में जिया है और जिनको जीने से अक्सर मना करता रहा, दोनों को समेटकर,अपने भीतर भरकर साथ ले चलूं. अभी दस मिनट भी नहीं हुए होंगे कि लगा कोई मुझसे लगातार पूछ रहा हो- कल तो तुम दोस्तों का जत्था लाए थे मदद के लिए. मैंने उस वक्त कुछ पूछा नहीं , अच्छा नहीं लगा लेकिन ये बताओ, तुमने मुझे छोड़ क्यों दिया, पिछले दो सालों से तुम यहां रह रहे थे, मुझसे घर जैसा प्यार किया, अचानक से क्यों ये जतलाकर चल गए कि तुम सिर्फ और सिर्फ किरायेदार थे ? मैं क्या जवाब देता. मैं गाने की पैरॉडी बनाने लग गया था-

 तू जागीर है किसी और की, तुझे मानता कोई और है, तेरा हमसफर सिर्फ मैं नहीं, तुझे चाहता हजार है.

                          मैं किराये पर लगनेवाले मकानों के नसीब पर सीरियसली सोचने लगा. कितने बदनसीब होते हैं ये मकान जिनके मालिक को सिर्फ और सिर्फ महीने में आनेवाले किराये भर से मतलब होता है. बाकी इसकी क्या दशा हो रही है, कहां क्या टूट-बिखर रहा है, इससे कोई मतलब नहीं होता. इसमें हर दो-तीन साल में आनेवाला किरायेदार बड़े शौक से इसे सजाता-संवारता है, दीवारों के पुराने छेद-गढ्ढे भरता है और अपनी सुविधानुसार फिर से गढ्ढे करता है. पत्नी या गर्लफ्रैंड से पूछ-पूछकर, एशियन पेंटस की वेबसाइट पर घंटों सिर खपाकर रंगों का चयन करता है और दीवारें रंगवाता है और फिर खाली करते वक्त दूसरे की पसंद पर इन दीवारों-खिड़कियों को छोड़ जाता है..बदरंग करके चला जाता है. हर बार खाली किए जाने पर प्रॉपर्टी डीलर इसकी दलाली खाता है. किस्त-दर-किस्त ऐसे मकानों की दलाली होती है लेकिन मकान-मालिक एक बार ताकने तक नहीं आता.आखिर 221 के साथ भी तो ऐसा ही हुआ न.

 मकान-मालिक एक बार मेरे खाली करने के बाद देखने तक न आया..वो निश्चिंत था कि दीवारें, खिड़कियां,दरवाजे थोड़े ही साथ ले जाएगा..ये बची रहे, किराया आता रहेगा. ऐसे मकानों के नसीब पर सोचते-सोचते मैं कब किरायेदारों की तरफ खिसक गया,पता ही नहीं चला..इन मकानों की दीवारें दर्जनों बार ठुकती है, दीवारों के रंग बदलते हैं, उनमें गर्लफ्रैंड और पत्नी की पसंद और इच्छाएं घुलती है और फिर एकदम से सबकुछ अलग हो जाता है..ये तो वो चीजें हैं जिसे हम देख पाते हैं लेकिन दर्जनों ऐसी चीजें जिसे हम सिर्फ महसूस भर कर सकते हैं.

घर का एक-एक हिस्सा किरायेदार की कामनाओं की स्थली बनती है. वो जब तक उस घर में होता है, एक-एक जगह के साथ उसकी यादें जुड़ती है. मसलन मैं शायद ही कभी भूल पाउंगा कि जब कभी अकेलापन महसूस करता था तो कमरे से बाहर निकलता, इस लोभ में कि यथार्थ ने उपर से फिर कुछ गिराया होगा और मैं आवाज दूंगा- अरे यथार्थ, ये तुमने भइया की ड्राइंग बुक फेंक दी..अबकी बार तुम्हें आना होगा, तभी दूंगा. उसकी मम्मा झांकेगी, सॉरी कहेगी, आपको परेशान होना पड़ता है इस शैतान के चक्कर में. अभी किसी को भेजती हूं. उन्हें क्या पता कि ये शैतान यथार्थ ही तो है जो अक्सर एहसास करता है-भइया आप अकेले नहीं हो..मैं कमरे के बाहर की वो खुली जगह कैसे भूल सकता हूं जहां पूर्णिया का मनोज जब दीवान बना रहा था तो मुझे रेणु की कहानी "ठेस" का सिरचन याद आ रहा था. तब मैंने मां को वही बैठकर फोन किया था- मां, सोने में बहुत तकलीफ होती है, जमीन पर. पता नहीं कब चूहे मेरा हाथ-पैर काटकर ले जाए और उधर से मां ने मजे लिए थे- दीवान काहे, थोड़ा और बड़ा पलंग ही बनवा लो..औ सुनो. चूहा-पेचा हाथ-गोड़ नहीं काटेगा, इसका इंतजाम तो कर लिए, लेकिन इ हाथ-गोड़ सलामत रहे, इसके लिए भी कुछ इंतजाम करो..उसके बाद दीदीयों के धड़ाधड़ फोन. विनीत तुम पलंग बनवा रहे हो ? हम जिस समाज और परिवेश से आते हैं, वहां एक बैचलर का पलंग बनवाना स्वाबाविक घटना शायद नहीं थी. तभी तो घर के सारे लोग इतने उत्साहित हो उठे थे इस खबर से..सब याद आएंगे सालों तक.

बैचलर्स किचन, जिसमें कभी दुनियाभर की चीजें बनाने की हमने कच्ची-पक्की कोशिश की थी, वहां अब सिर्फ मां के दिए अचार की खाली बोतलें और विम लिक्विड के डब्बे पड़े थे. इस रसोई में अक्सर दोपहर का खाना बनाते वक्त मैं दीदी और मां को बारी-बारी से फोन करता- आज तुमने दोपहर के खाने में क्या बनाया है ? उसके बाद मैं बताता- दाल,भात,भिंडी की भुजिया, रायता..मां कहती एकदम सुघढ़िन बहुरिया हो गए हो तुम. दीदी कहती- इतना तो हमलोग भी नहीं बनाते. रांची, जमशेदपुर,बोकारो में दीदी लोगों की किचन से मेरा सीधा मुकाबला जारी रहता जिसमें सारी कोशिशें इस बात को लेकर होती कि अगर तुम्हारे भीतर खाना बनाने की इच्छाशक्ति है तो ये मायने नहीं रखता कि तुम बैचलर हो या परिवारवाले? मैं मां को बस एक ही बात का एहसास कराता रहता- हम अकेले में भी उतने ही खुश हैं मां जितने कि भइया लोगों के आगे परोसी गई थाली मिलने पर भी वो अमूमन नहीं होते. किचन में रेडियो सुनते हुए खाना बनाना एक ही साथ अपने बचपन से होते हुए वर्तमान से गुजरने जैसा लगता.

जनसत्ता और तहलका के लिए लिखते वक्त अक्सर मेरे भीतर धुकधुकी बनी रहती. एक तरह की नर्वसनेस और अतिरिक्त सतर्कता. मैं अक्सर कमरा छोड़कर पूरी ग्लास ब्लैकटी या कॉफी लेकर सामने के पार्क में चला जाता. अकेला देख झूले को सहलाता और इधर-उधर देखने के बाद उस पर बैठकर झूलने लगता. बीइए,एनबीए,चैनलों की करतूतों पर दातें पीसता,चाय-कॉफी पीता.अक्षरा, विधि,अफसर बिटिया के चरित्र से नए सीरियलों का मिलान करता. वापस कमरे में आता और धड़ाधड़ टाइप करना शुरु कर देता.

ये 221 दरअसल महज दो कमरे का घर नहीं बल्कि मेरी पूरी एक दुनिया थी जहां कोई भी आता तो मेरी मौजूदगी को महसूस कर सकता था. मेरे साथ कभी चैनल में काम करनेवाली मेरी दोस्त जब पहली बार मेरे घर आयी और दीवार पर "शीला की जवानी" का पतंग टंगा देखा तो ठहाके लगाने लगी- हां, बैठकर यहां तप करो, लेख लिखने में जवानी जियान करो और शीला की जवानी दीवार पर लटकाओ..अरे कभी दीवार से नीचे भी तो किसी को उतरने दो. इस घर को लेकर मैं गुरुर से कह सकता था- यहां मेरी मर्जी के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता था. ये अलग बात है कि इन दिनों चूहों ने पांच सौ के पत्ते तक काट दिए थे. ये सब सोचते-सोचते मेरी आंखें भर आयी थी, घुटन होने लगी थी. तेजी से बाहर निकला. देखा-

चील-कौए की तरह लोग जमा हैं. आपने ये मकान खाली कर दिया, कितना दे रहे थे, कब खाली किया, किससे बात करनी होगी लेने के लिए, प्रॉपर्टी डीलर अलग से पैसा लेगा क्या ? उनमें से कई ऐसे भी थे जिनका अपना घर था और वो चाहते थे कि कोई उल्टा-सीधा किरायेदार पड़ोसी न बन जाए. मुझे डीयू हॉस्टल के कमरे खाली होने और उसके पीछे की जानेवाली राजनीति याद आने लगी..मुझसे लोग नंबर मांग रहे थे. अच्छा केयर टेकर नहीं, मकान-मालिक का नंबर नहीं है, क्या पता कमीशन बच जाए. ऐसे सवाल करनेवाले को यकीन ही नहीं हो रहा था कि एक बार घर लेने के बाद मेरी कभी मकान-मालिक से बात ही नहीं हुई. उसके लिए ये घर उस बेटी की तरह है जिसे एक बार ब्याह देने के बाद चिंता ही नहीं होती कि वो कैसी है, उसके साथ क्या हो रहा है ? समय पर पैसे आ रहे हैं, काफी है.

 उनमे से किसी ने नहीं पूछा- अब आप कहां जा रहे हैं,क्यों जा रहे हैं? घर का किराया और कब खाली कर दिया के सवालों के बीच मुझे उनलोगों पर घिन आ रही थी. लग रहा था- जहां किसी ने भी एकबार भी पूछा कि क्यों खाली कर दिया तो कहूं- आपके कारण..आपलोगों ने कभी एहसास नहीं कराया कि हम मनुष्यों के बीच रहते हैं. आपके ठीक बगल में रहनेवाले टीवी एंकर सुशांत सिन्हा को गुंडे-उचक्के लोहे की रॉड से छाती चूरकर चले जाते हैं और आप देखते रह जाते हैं. लेकिन किसी ने पूछा ही नहीं.

मैं चलने को तैयार था. केयर टेकर बिजली,पानी के मीटर चेक कर रहा था, दरवाजे, खिड़कियां, सेल्फ सबकुछ देख रहा था कि कहीं कुछ तबाही तो नहीं मचायी है और सिक्यूरिटी मनी से कुछ रकम काटने के बहाने टटोल रहा था. कुछ न मिल पाने की स्थिति में आखिर में मनहूस सी अदा के साथ चाबी मांग ली. मैं उसकी नजरों में एक भूतपूर्व किरायेदार था. किराये का मकान देखते और छोड़ते समय हमारी पहचान सिर्फ और सिर्फ किरायेदार की हो जाती है..घर छोड़ते वक्त श्मशान से गुजरने जैसा होता है जहां जाकर हम सिर्फ और सिर्फ इस बात पर सोचने लग जाते हैं कि इतनी जोड़-तोड़ करके जो इंसान दुनियाभर की चीजें जुटाता है, आखिर में सब छोड़ जाता है. किराये के मकान की सजावट को भी तो हम ऐसे ही छोड़ जाते हैं. मिट्टी के लोंदे की तरह ही तो हम एकमात्र पार्थिव शरीर की पहचान लेकर जल जाते हैं, दफन हो जाते हैं. ऐसे में जो पत्रिकाएं,टीवी चैनल और वेबसाइट ब्लॉगर, लेखर,मीडिया समीक्षक..जैसे मेटाफर जोड़कर परिचय कराते हैं,उनके बारे में सोचकर हंसी आने लगी..हम कुछ घंटों के लिए ही सही, सारी पहचान खोकर एकमात्र पहचान जो कि सबसे ज्यादा गहरी होती जा रही थी के साथ खड़े थे- किरायेदार.

 जिस केयरटेकर ने इन दो सालों में दसों बार पूछा था- आपकी किताब कब आ रही है, अरे आपको टीवी पर देखा, अरे आप तहलका में लिखते हैं, उसके आगे घूम-फिरकर एक ही सवाल थे- आपने किसी को  बताया तो नहीं कि कितने में रह रहे थे क्योंकि हम तो आपको पुराने रेट पर दे दिए थे, अब तो रेट वो रहा नहीं न.? चाबी उसके हाथों में सौंपते हुए मन ही मन सोच रहा था-

 बता देना अपने मकान-मालिक को, हमने कुछ नहीं तोड़ा है, कुछ भी चुराकर नहीं ले जा रहे अपने साथ..लेकिन हां, मेरा बहुत कुछ टूटा है, मेरा बहुत कुछ छूटा है..हम उसे चाहकर भी नहीं ले जा सकते, हम अभिशप्त हैं इसे छोड़ने के लिए क्योंकि किरायेदार का कोई घर नहीं होता. घर होने का एहसास भर होता है और हम उस एहसास के बूते ही एक जगह से दूसरी जगह किरायेदार बनकर भी घर शब्द का प्रयोग करते रहेंगे. तुम और तुम्हारा मकान-मालिक कचहरी में हाजिरी लगवाकर भी ऐसा करने से मुझे रोक नहीं सकता. तुम ही क्यों दिल्ली का कोई भी केयरटेकर, प्रॉपर्टी डीलर और मकान-मालिक ऐसा करने से मुझे रोक नहीं सकता. देखना, जहां जा रहा हूं, उस मकान को भी घर कहूंगा, वहां भी अपने सपने बढ़ेंगे,पलेंगे और फिर एक मकान अपने नसीब के गुलजार होने का जश्न मनाएगा.
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मां ने मेरे पैदा होने  के बाद के दर्जनों किस्से सुनाए हैं. जब मैं पैदा हुआ तो घर-परिवार में लोगों की क्या प्रतिक्रिया थी,लोग क्या कह रहे थे, मां की खुद की हालत कैसी थी, पापा का बिजनेस तब कैसा चल रहा था और मेरे पैदा होने के बाद उसमें क्या सुधार या गिरावट हुई..और भी बहुत कुछ..लेकिन उसे बिल्कुल ठीक-ठीक याद नहीं कि मेरा जन्म किस तारीख को हुआ. हां भादो का महीना था औ झंड़ा फहराने के बाद ही हुआ था. उसे जब मेरे पैदा होने की ठीक-ठीक तारीख ही याद नहीं तो फिर मैं उसके फोन का इंतजार किस बूते करता..सो जब पहले कभी नहीं किया तो आज भी नहीं.

मां ने मेरे जन्म को लेकर जो दर्जनों किस्से सुनाए हैं, उनमें से दो बहुत गहरे तक याद है. एक तो ये कि मेरे इकलौते चाचा जो कि पापा से बड़े थे, यकीन ही नहीं हो रहा था कि मैं लड़का हूं. खबर सुनते ही कहा था- ऐसे कैसे हो सकता है ? चाचा जिस गुना-गणित के हिसाब से सोच रहे थे, उसमें ये था कि जितने लड़के( 3) उन्हें हैं, उतने ही लड़के मेरे पापा को कैसे हो सकते हैं ? आखिर वो मेरे पापा से बड़े हैं और इस कारण ज्यादा लड़के होने का गुरुर तो बना रहना ही चाहिए न..चाचा मुझे देखने आए थे और मां से कहा था- लड़का कैसे हो गया..दूसरी कि तब मेरी शक्ल भी लड़की बच्ची जैसी ही थी. देखकर जो भी बाहर निकलता, कहता- एकदम लड़की जैसा दिखता है. ये बात उन तक भी पहुंची थी..खैर, चाचा ने जब मेरी मां से सवाल किया- लड़की है कि लड़का तो मेरी मां की हालत ऐसी नहीं थी कि जवाब देती या कुछ कहती ? धोती के टुकड़े को कमर से हटा दिया और चाचा देखकर चले गए. मेरी मां कहती है- हम कुछे बोले नहीं, सीधे उघार के देखा दिए..मां इसके बाद मजे लेकर कहती- तुम्हारा बिल्कुल चूहे जैसा फुन्नू देखकर लजा गए थे और बाहर चले गए.

दूसरा कि मोहल्ले के लड़के जब भी आपस में एक-दूसरे को ललकारते तो कहा करते- है हिम्मत, मां का दूध पिया है तो छूकर तो दिखाओ, हाथ तोड़के हाथे में दे देंगे. इस मां का दूध को लेकर ललकारने की अदा लौंड़ों ने तब के हिन्दी सिनेमा से सीखी होगी. बात-बात में तब के सिनेमा में मां का दूध और उसके कर्ज का जिक्र होता. मां तो स्त्री ही रह गई लेकिन उसके बेटे के भीतर का मर्द इसी दूध से विकसित होता रहा. मैं भी कई बार जोश में छू देता- लड़के धक्का देते और मैं गिर जाता. सब ठहाके लगाते- देखा, बोले थे न कि ये मां का दूध नहीं पिया है.

मां मुझे रसोई लेकर आती और पैरेक्स और अमूल स्प्रे के ुन दर्जनों डब्बे दिखाती जिसमें कि हल्दी,धनिया पाउडर, मिर्च,साबूदाना..होते. ये डब्बे सिर्फ डब्बे भर नहीं थे बल्कि मेरी परवरिश के इतिहास का एक हिस्सा था जिसे मां ने रसोई में जगह दी थी. जब भी गुस्सा होती, उन डब्बों की तरफ इशारा करती और कहती- यही दिन देखने के लिए दू दर्जन से भी जादे डिब्बा घोर-घोर(घोलकर) पिलाए. तब आनंद डेयरी, सेरेलेक और हिन्दुस्तान लीवर जैसी न जाने कितनी कंपनियों की साख दांव पर लग जाती. इन डब्बों में मां का दर्प छिपा था जो वक्त-वेक्त दूसरों के आगे झलक जाता. कूड़ा-कचरा में फेंककर नहीं पैदा किए हैं इसको कि कोई आकर सोंट( बुरी तरह पीटना) दें, एतना डिब्बा पिलाए हैं. ये डिब्बे आज भी मेरी नजरों के आगे नाचते हैं और इनकी ठीक-ठीक संख्या याद करने की कोशिश करता हूं क्योंकि मेरी पैदाईश के इतिहास के पन्ने जैसे हैं.

मां फीड नहीं करा सकती थी, एक तो तब बहुत कमजोर थी और दूसरा कि ऐसा कराना मेरे स्वास्थ्य के लिए भी सही नहीं था. लिहाजा, शुरु से मैं इन डिब्बों के भरोसा ही पलता रहा, बड़ा होता रहा. मां बताती है कि जब तुम बड़े हो गए और हमें दूध तब होता नहीं था और तुम जिद करते तो तुम्हारे मामा हमसे कहते- दीदी मिर्ची लगा लो, खुद ही रोएगा. लेकिन पिल्लुभर के जान के साथ ऐसा करना हमको अभी अच्छा नहीं लगा..तुम जैसे-तैसे बड़े हो गए.

तुम अपने चाचा को फूटी आंख नहीं सुहाते थे क्योंकि तुम पैदा होकर उनका गुमान तोड़ दिए. जितना लड़का उनको था, उतना ही तुम्हारे पापा को भी हो गया और वो ऐसा पसंद नहीं करते थे. पापा को भी तुम पसंद नहीं आए. कमजोर थे, रोते रहते थे, अक्सर बीमार..बहुत परेशान रहते थे तुमको लेकर. एतना गंजन( तकलीफ) हम बेटी पैदा करके भी नहीं भोगे थे जितना कि तुम्हारे वक्त हुआ था. तुमको देखते तो बिना वजह किचकिचा जाते. तबी हम तुम्हारे बड़ा होने पर भी कोशिश करते कि तुम उनके सामने न पड़ो. मां की ये कोशिश मेरे भीतर अपने आप चली आयी थी. मैंने जब होश संभाला और स्कूल जाना शुरु किया, खेलना-बाहर जाना शुरु किया तो कोशिश यही रहती कि उनके सामने न पडूं.

तुम अपने भाई-बहनों में सबसे छोटे थे बल्कि घर में सबसे छोटे तो जिसको मौका मिलता तुमको धुकिया ( धम्माधम मारना) देता. कई बार देख लेते तो मना करते, कई बार उसके आगे हंसुआ रख देते कि काटे दू टुकरी कर दो, न रहेगा बांस, न बजेगा बंसुरी..तब तुमको छोड़ देता सब, हसुआ थमाने पर पापा भी छोड़ देते थे तुमको. हम तुमको अक्सर रिवन( लाल या गुलाबी रंग के फीते) से बांधकर चोटी कर देते. जिस कपड़ा का दीदी लोगों का फ्राक सिलाता, उसी से बुशर्ट सिलवा देते, कई बार हम खुद ही सी देते. तुम अपना चुपचाप भखुआ जैसा मेरे पास बैठे रहते. सब स्कूल-दूकान चला जाता और तुम उसी तरह भंसा( रसोई) में बोरा( जूट से बना जिसमें चीना, गेहूं आते थे) पर बैठे रहते. बड़ा हुए तो किसी हालत में हमको छोड़कर स्कूल जाना नहीं चाहते थे. अक्सर पेट, माथा का बहाना बनाकर आ जाते. कई बार तुम सच में बीमार हो गए थे तो मास्टर लोग डरा रहता और जैसे ही तुम बोलते, उ पहुंचवा देते..तुम ऐसे ही बारह ततबीर( जैसे-तैसे, जुगाड़) से बड़ा होते गए.

हमको तो कभी लगता ही नहीं था कि तुम घरघुसरा होने के सिवाय तुम कुछ लिख-पढ़ भी सकोगे..लेकिन सब ठाकुरजी, उपरवाला के किरपा है. उनखे यहां देर है, अंधेर नहीं..देखे कि तुम धीरे-धीरे अपने मन से लिखने-पढ़ने लग गए और उसमें तुमरा मन लग गया..जब-तब दूकान में फंसाने का इ( पापा) कोशिश किए लेकिन फिर समझ गए कि कोई फायदा नहीं है..अब भी जब-तब बोलते हैं कि जब दू-बित्ता( अंगूठा और तर्जनी के बीच की दूरी को एक बित्ता कहते थे, ये मापने का पैमाना भी हुआ करता था) के था, तभी से जिद्दी था लेकिन ऐसा बोलते हुए अंदर से खुश हो जाते हैं. अब अखबारवाला तहलका देने में थोड़ा सा भी देरी करता है तो गाड़ी उठाते हैं औ सीधे मानगो जाकर ले आते हैं. एक-एक चीज पढ़ते हैं तुमरा लिखा हुआ.

पिछले एक साल से मां मेरे इस आड़े-तिरछे बचपन और टीनएज को सिनेमा की तरह रोज याद करती है. क्षितिज के आ जाने के बाद उसे जब भी नहलाती है, खिलाती है, उसकी बदमाशियां देखती है तो जब-तब फोन करके कहती है- एकदम छोटा विनीत है ये..एक-एक आदत तुमरा जैसा है. हंसता भी एकदम तुम्हारी तरह एकदम लखैरा जैसा ही..बस इ है कि तुमसे गोर बहुत जादे है और एकदम लड़की जैसा सुंदर है. लड़की जैसा तो तुम भी थे लेकिन इ और ज्यादा है.हम तो एक ही चीज जानते है की खटोला के बच्चा हमेशा खटोला पर नहीं रहेगा,आगे बढेगा। अरे नहीं मां, वो क्षितिज है, उसकी मां थोड़े ही तुम्हारी तरह गंजन सही थी. तुम भी तब खूब संतरे खाती तो मैं भी बहुत गोरा होता..तो तुम खाती रही दाल-भात और लाल साग..तब न काले हो गए..प्रेग्नेंट लेडिस को संतरा खूब खाना चाहिए, बच्चा गोरा होता है..तू दिल्ली जाके एकदम से गुंड़ा,लखैरा हो गया है, इ सब बात कौन बताता है..कौन क्या, टीवी सीरियल जब शुरु होता है तो हम अपना आंख-कान जैसे बंद कर लेते हैं और घर आते हैं तो दीदी लोग इसके अलावे कौन सा गप्प करती हो..तुम अभी भी हमको भकुआ ही समझती हो..अच्छा, तो तुमको इ सब का भी अक्किल-बुद्धि हो गया है..तो खिलाना खूब ला-लाके संतरा-अनरा, तुमको भी छोटा क्षितिज जैसा होगा.

मैं दिल्ली में अक्सर कॉमरेडनुमा क्रांतिकारी साथियों से टकराता हूं. पूंजीवाद और बाजार का विरोध करते हुए उनका चेहरा झंड़े की तरह लाल तो नहीं होता लेकिन हरी नसें गर्दन पर उभर आती हैं..उन नसों का फिर फिर से पर्दे में जाना तभी संभव हो पाता है जब गले के नीचे जॉनी वाकर, सिग्नेचर या कुछ नहीं तो उसी किंगफिशर की चिल्ड बीयर जाए..मुझे रसोई में करीने से सजे फैरेक्स, सेरेलेक के डिब्बे याद आते हैं, नेस्ले का लोगो याद आता है. घोसले में पड़े अंडे और निगरानी करती चिड़ियां..मैं तब इस यूनीलीवर का उसी दम से विरोध नहीं कर पाता, जिस दम से मेरे साथ किंगफिशर का कर पाते हैं. शायद इसलिए कि हिन्दुस्तान लीवर(तब) का दूध खून बनकर मेरी रगों में दौड़ रहा होता है जिसके गर्म होने की एक सीमा है जबकि उनका किंगफिशर नशा बनकर जिसके गर्म होने और खौलने की कोई सीमा नहीं.ो
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देर रात से ही लोग कृष्ण जन्माष्टमी की धुंआधार बधाईयां दे रहे हैं, जिसके आने-होने-मनाने में मेरी कोई भूमिका नहीं है..इसी क्रम में कुछ भाई लोग सड़े-गले चुटकुले भी ठेल दे रहे हैं जिनमें भाव है कि जीवन में लूम्पेन,लंपट,लफुआ,लडबहेर के जो भी तत्व हैं, इनमें शामिल कर दें.

हैरानी होती है कि क्या मीरा के वही कृष्ण रहे होंगे, जो इन चिरकुटों के हो गए हैं या फिर इनलोगों ने हथियाकर उनमें ये सारे भाव या तो समाहित कर दिए हैं या फिर महान आख्यायानों के बीच दबे-पड़े के बीच से खोद निकाला है. कृष्ण( अगर रहे होंगे तो) ऐसे ही थे- फ्लर्ट करनेवाले, परस्त्री गमन करनेवाले, किसी भी हाल में सेक्स करने और टीवी पर आने का मौका नहीं छोड़नेवाले, एक ही साथ कई स्त्रियों को बझाकर रखनेवाले..मुझे नहीं पता.सच में मुझे कुछ भी नहीं पता. मैंने न तो कभी इस कृष्ण की उपासना की, न कभी इसके बहाने रास-रंग की तलाश की. मेरे लिए कृष्ण एक चरित्र है जो अष्टछाप के कवियों से होते हुए धर्मवीर भारती के अंधा-युग तक गमन करता है. जिसे गांधारी की बात लग जाती है और जिसके लिए युयुत्सु के मन में आह है- अंतिम समय में दोनों जर्जर करते हैं, पक्ष चाहे सत्य का हो या असत्य का. 

मेरे लिए कृष्ण किराना दुकान का एक ब्रांड है जो कभी अगरबत्ती पर तो कभी घी और हींग के डिब्बे पर चिपक जाता है. मां की रसोई के दर्जनों डब्बी पर विराजनेवाले कृष्ण आत्ममुग्ध और वर्चस्व पैदा करनेवाला नाम है जिसके कृष्ण होने भर से खाने का स्वाद नहीं,घर का बजट बढ़ जाता है.

 मेरे लिए कृष्ण मेरी सोसाइटी के 17-18 साल की लड़कियों-लड़के के लिए एक बहाना भर है जो पिछले बीस दिनों से मेरे घर के आगे झुंड में जमा हो जाते,हंसी-ठहाके लगाते,कुरकुरे,लेज खाते और कुछ मीटिंग-शिटिंग जैसी करते..हम इस बात से खुश होते कि चलो कुछ तो खुलापन आया है..अच्छा लगता था मर्दाना हंसी के बीच लड़कियों का ठहाके लगाना..डोले-शोले बनाकर चौड़ा होनेवाले लौंड़ों के बीच कॉन्फीडेंट लड़कियों का छिड़कना..इस रहस्यमयी संगम से उस पर्दे का उठ जाना- 
हैलो सर, दिस इज स्मृति, वी ऑर गोइंग टू आर्गेनाइज कृष्णा जन्माष्टमी ऑन टेन्थ ऑफ अग्सट. देयर वुड भी कल्चरल इवेन्टस टिल द वर्थ ऑफ कृष्णा एडं वी विल प्रोवाइट डिनर ऑल्सो...इन पंक्तियों के सुनने के बाद मेरा सवाल करना- हाउ मच आइ हैव हैव टू कन्ट्रीब्यूट ? ऑनली फीफटी सर..और फिर उसी चंचलता के साथ उनका चले जाना..तब लौंडे भुचकुल टाइप से लड़कियों के पीछे खड़े थे और मुझे कृष्ण के ये वंशज डफर और ऐंवे टाइप के लग रहे थे..

बकवास है ये कथा कि गोपियों कृष्ण के आगे-पीछे डोलती थी..औसत शक्ल-सूरत का कृष्ण जरुर पड़ा चेप रहा होगा और पुरुषवादी समाज ने उसे वेवजह सभी कलाओं में निपुण और आराध्य करार दे दिया.
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महुआ न्यूज के मीडियाकर्मियों का धरना-प्रदर्शन खत्म हो गया. खबर है कि प्रबंधन ने उनकी मांगें मान ली है. मीडिया के कुछ साथी हमें भी इस बात की बधाई देते हुए इसे मीडियाकर्मियों के लिए विजय दिवस है बता रहे हैं. बधाई लेने का न तो हमें कोई अधिकार है और न ही ये अवसर पैदा करने में मेरी कोई भूमिका है..लेकिन मीडियाकर्मियों ने प्रबंधन के सामने जो मांगे रखी थी,उस पर गौर करें तो विजयी दिवस करार देने जैसा कुछ भी नहीं है. मीडियाकर्मी ने खून-पसीना एक करके भले ही बकवास कार्यक्रम और खबरें प्रसारित करते हैं लेकिन मेहनत तो लगती ही है. इस बिना पर वो बच्चों की मुस्कराहट के दर्शन से लेकर सोलमेट के साथ कुछ वक्त बिताने तक के सुख से वंचित रह जाते हैं..ऐसे में उन्हें जो भी पैसे दिए जाने चाहिए, उसके महीनों रोके जाने पर विरोध-प्रदर्शन करना उनका हक है. ये तो उनकी न्यूनतम मांगे थी..लेकिन सवाल है कि क्या इतने भर से चैनल के भीतर की सारी गड़बड़ियां खत्म हो जाएगी ?

यकीन मानिए, प्रबंधन ने बकाए वेतन देने और कुछ आगे देने की बात करके दरअसल मामले को थोड़े वक्त के लिए ठंडा करने की कोशिश की है. मीडियाकर्मियों के भीतर जो आग लगी थी, उन पर पानी छिड़कने का काम किया है. ताकि प्रबंधन की ओर से किए गए इस छिड़काव से मीडियाकर्मियों के बीच कुछ हरामजादे पैदा हों और वो प्रबंधन के साथ मिल जाएं..फिर दोनों मिलकर धीरे-धीरे कमजोर नसों को दबाएं और एक-एक करके चैनल के काम से बेदखल करते जाएं.

 चैनलों का इतिहास रहा है कि जब भी प्रबंधन और मीडियाकर्मियों के बीच समझौते हुए हैं, कुछ हरामजादों का जन्म हुआ है. उन्हें इस मुश्किल घड़ी में प्रबंधन की ओर से कुछ ज्यादा ही लाभ और आश्वासन मिलते हैं और अतिरिक्त अधिकार भी कि वो बाकी के खून चूस सकें. ऐसे में बकाया वेतन मिलने की थोड़े वक्त तक तो खुशी मनायी जा सकती है लेकिन इस बिना पर न तो दीवाली मनायी जा सकती है और न ही इस मुगालते में रहा जा सकता है कि मीडियाकर्मियों ने मिलकर प्रबंधन को रास्ते पर ला दिया. मेरे ख्याल से इस पूरे प्रकरण में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है कि प्रबंधन को ये बात समझ आए कि उन्हें आगे से मीडियाकर्मियों से पंगे नहीं लेने चाहिए.

कल अगर मालिक चैनल पर ताला जड़ देता है जिसकी बहुत अधिक संभावना है तो यही तर्क देगा- हमने तो चलाने की बहुत कोशिश की लेकिन आपलोगों ने वेतन का मुद्दा बनाकर पूरे सिस्टम को कमजोर कर दिया. जो थोड़े पैसे थे वो आपलोगों के बकाए भुगतान में निकल गया. असल मसला है कि सारे मीडियाकर्मी अपने-अपने कॉन्ट्रेक्ट पेपर निकालें, उसे दोबारा से पढ़ें और उन पंक्तियों को गांठ बांध लें जिसमें कि दो साल-तीन साल तक के करार हुए हैं और करार टूटने की स्थिति में किन-किन शर्तों का पालन किया जाएगा. इसके साथ ही चैनल ऐसे मौके पर मीडियाकर्मियों के लाखों के पीएफ ढकार जाती है. इस अनशन के खत्म होने के साथ ही व्यापक स्तर पर छंटनी की भूमिका बन गयी है और अब एक-एक करके टार्गेट किया जाएगा और इस काम के लिए पैदा हुए हरामखोरों को काम में लाया जाएगा.

 चैनलों के भीतर के वायरल( निश्चित अवधि भर के लिए) अनशन का यही इतिहास रहा है. आप चाहें तो कह सकते हैं कि मीडियाकर्मियों के पास इतना वक्त और सुविधा नहीं है कि वो लंबे समय तक अनशन ही करते रह जाएं, घर-परिवार और जीवन चलाना होता है, आपकी तरह बकवास करने नहीं होते..लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि ऐसे अनशन से बदलाव के नाम पर रुकी हुई सैलरी भले ही मिल जाए, चैनलों के भीतर का फर्जीवाड़ा और मीडियाकर्मियों की रीढ़ की हड्डी को केंचुएं में तब्दील करने का काम जारी रहेगा.
व्आइस ऑफ इंडिया, सीएनइबी और अब महुआ न्यूज जैसे चैनलों के उगने और कुछेक सालों में ही बंद होने की स्थिति में आने का सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक कि मीडिया महंत धनपशुओं को सब्जबाग दिखाने का काम बंद नहीं कर देते. वो संपादक और सीइओ के नाम पर प्रॉपर्टी डीलर की भूमिका में आने बंद नहीं कर देते और इधर मीडियाकर्मी दो-तीन महीने की रुकी हुई सैलरी की मांग पर अनशन और पूरी हो जाने को ही अपना संपूर्ण अधिकार हासिल कर लेने की भूल करनी बंद नहीं कर देते. उन्हें दो-चार दिन के नहीं बल्कि हर समय प्रबंधन के आगे दवाब बनाए रखना होगा कि आप हमें पत्रकार तो बाद में एक इंसान को देखने-समझने की कोशिश करें..इसके लिए जरुरी है कि बंधुआ और भेड़-बकरी की जिंदगी और हमारे जीवन की स्थिति से मिलान करें और महसूस करें कि हम उनसे किसी भी हद तक अलग नहीं हैं. सारी गड़बड़ियां इसलिए बनी की बनी रह जाती है क्योंकि पूरा मीडिया और मीडियाकर्मी तात्कालिकता में जीता है. उसके व्यापक और लंबे समय तक के प्रभाव से कोई लेना-देना नहीं होता. अनशन के बाद जो भी दो-तीन महीने की बकाया राशि मिलती है वो खुश हो जाता है और इस बात पर दिमाग लगाता है कि कैसे तीसरे महीने तक कहीं शिफ्ट हो जाए. दरअसल ये मीडिया के भीतर की भगोड़ा संस्कृति है जो आनेवाले समय में इस संभावना को लगातार प्रबल करती है कि दागदार,रीयल इस्टेट के माफिया चैनल खोलते रहेंगे,डुबोते रहेंगे, महंत सब्जबाग दिखाते रहेंगे और मीडियाकर्मी  उछल-कूद मचाते हुए एक दिन थककर सेमिनारों में मीडिया की नैतिकता और सामाजिक सरोकार पर व्याख्यान देते रहेंगे.
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