पिछले दिनों 27 जून को मीडियाखबर डॉट कॉम द्वारा आयोजित कार्यक्रम "एस पी सिंह स्मृति समारोह" का कार्ड देखकर पुण्य प्रसून वाजपेयी बुरी तरह आहत हुए. आहत होने की मुख्य वजह थी कि जिस गेस्ट लिस्ट में रामबहादुर राय जैसे वरिष्ठ पत्रकारों के नाम शामिल थे, उसी लिस्ट में कार्पोरेट से भी जुड़े लोगों के नाम शामिल किए गए थे. पुण्य प्रसून ने मंच पर आते ही अपनी इस नाराजगी को जाहिर करते हुए कहा- "आज एस पी होते तो ऐसा कार्ड नहीं छपवाते." उसके बाद अब उन्होंने अपने ब्लॉग पर एस पी की पत्रकारिता क्यों पीछे छूट गई एस पी को याद करते हुए शीर्षक पोस्ट के जरिए जाहिर की और इसमें कोई शक नहीं कि कुछ बहुत ही बुनियादी सवाल खड़े किए.
ये अलग बात है कि इसके पहले राहुल देव, आशुतोष और शैलेश जो कि एस पी सिंह से लंबे समय तक जुड़े रहे कह चुके थे कि एस.पी. बहुत ही व्यावहारिक पत्रकार थे और जानते थे कि बाजार के बीच रहकर कैसे काम किया जा सकता है. आशुतोष ने तो एस पी सिंह की इस व्यावहारिकता को स्थापित करने के लिए उन वामपंथी रुझान के पत्रकारों का उपहास तक उड़ाया जो वामपंथ का लबादा ओढ़कर रोटी की तरह मीडिया में भी आमजन और हाशिए के समाज की हिस्सेदारी की बात करते हैं. जिनके आगे बाजार भूत नजर आता है. खैर, एक तरह अगर एस पी व्यावहारिक पत्रकार थे और बाजार को साधना जानते थे और दूसरी तरफ पुण्य प्रसून के हिसाब से ऐसा कार्ड नहीं छपवाते वाली बात एस पी की प्रतिबद्ध पत्रकार की छवि स्थापित करते हुए भी एक गंभीर सवाल की तरह पूरे मसले को ले जाता है. सवाल है कि अगर एस पी सिंह एक तरफ बाजार को भी साध लेते थे और दूसरी तरफ अपनी यानि पत्रकारिता की प्राथमिकता को भी ज्यों का त्यों बरकरार रखते थे तो आखिर वो तरीका क्या था ?
अगर हम गंभीरता से सोचें तो किसी भी मीडिया सेमिनार की पूरी बहस इसी मसले पर आकर ठहर जाती है कि आखिर वो ऐसा कौन सा तरीका हो जिससे कि बाजार के बीच रहकर व्यावहारिक कौशल भी मजबूत होता रहे और इधर पत्रकारिता, सरोकार और सामाजिक प्रतिबद्धता भी बरकरार रहे. मुझे लगता है कि जिस दिन ये फार्मूला चैनलों के हाथों लग गया, उसी दिन मीडिया सेमिनारों में बहस के लिए और मीडिया पर आरोप लगाने के लिए कुछ खास बचेगा नहीं.
लेकिन स्थिति इससे अलग है. बाजार के बीच व्यावहारिक होने की जो तस्वीर हमारे सामने उभरकर आ रही है उसका एक पक्ष तो बहुत ही मजबूत दिख रहा है कि जहां मीडिया संस्थान को घाटा होता दिखाई दे रहा हो तुरंत कार्पोरेट के हाथों अपनी हिस्सेदारी बेच दो या फिर सरकार से सॉफ्ट लोन ले लो. नेटवर्क 18 में रिलांयस इन्डस्ट्रीज का करीब 1700 करोड़ रुपये का निवेश,लीविंग मीडिया जो कि आजतक जैसे चैनल कां सचालन करता है के 27 फीसद शेयर को आदित्य बिड़ला ग्रुप के हाथों बेचा जाना, एनडीटीवी ग्रुप का ओसवाल के हाथों शेयर बेचना और फिर सरकार से सॉफ्ट लोन लेना कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो मीडिया संस्थानों की व्यावहारिक और व्यावसायिक कुशलता को रेखांकित करती है. लेकिन इसका दूसरा पक्ष जिसे कि पुण्य प्रसून ने एस. पी. सिंह की 20 मिनट की बुलेटिन में विज्ञापनों की संख्या बढ़ने के बजाय लगातार उसकी कीमत में बढ़ोतरी के जरिए हमें समझाने की कोशिश की है, वो बिल्कुल अलग है. पुण्य प्रसून ने सही ही कहा है कि एस पी ने विज्ञापन की संख्या बढ़ाने के बजाय 10 सेकंड के विज्ञापन की कीमत 90 हजार तक कर दी. ऐसा किए जाने से उनकी और पत्रकारिता की प्रतिबद्धता बनी रही. अगर आप फिक्की-केपीएमजी की मीडिया और मनोरंजन उद्योग की रिपोर्ट पर गौर करें तो अंग्रेजी-हिन्दी चैनलों के विज्ञापन दर में जो जमीन-आसमान का फर्क है, वो आपको इसी फार्मूले के आसपास की चीज दिखाई देगी लेकिन क्या हिन्दी चैनलों के मुकाबले अंग्रेजी चैनल ज्यादा सरोकारी है,ये बात दावे के साथ कही जा सकती है ? मुझे इसमें न केवल शक है बल्कि घोर असहमति है. ऐसे में पुण्य प्रसून का ये उदाहरण बेहतर तरीका दिखते हुए भी आज के संदर्भ में न केवल अव्यावहारिक दिखता है बल्कि वे खुद जानते हैं कि वस्तुस्थिति क्या है ?
जिस आजतक में एस पी सिंह ने ये काम किया, बाकी चैनलों को तो छोड़ दीजिए, स्वयं आजतक इस फार्मूले पर कायम रह सका ? उसने इस रणनीति पर काम किया क्या कि चाहे कुछ भी हो जाए, विज्ञापन दर कम नहीं करनी है. ऐसा क्यों नहीं हो सका, इसक जवाब हम आजतक के बजाए इंडिया टीवी की केस स्टडी बनाकर बेहतर समझ सकते हैं. हां, इस पूरे प्रसंग में हम एस पी के जमाने में आजतक को शिकस्त देनेवाले कितने कार्यक्रम थे और बाजार के स्तर पर उन्हें कैसी टक्कर मिल रही थी, इसे शामिल किया जाना जरुरी है. कैसेट संस्कृति के दौरान तो लगभग वही स्थिति रही जो स्थिति आज हम न्यूज चैनलों के बीच देख रहे हैं. तब अपनी कैसेट बेचने के लिए कोई कपिल देव की छपी टीशर्ट मुफ्त देता था तो कोई खरीदने के बजाय किराये पर कैसेट ले जाने की सुविधा शुरु कर दी थी लेकिन बतौर एक कार्यक्रम "आजतक" को कितनी चुनौती मिल रही थी, इस पर बात होने से शायद हम कुछ ज्यादा जान-समझ सकें. बहरहाल
14 अगस्त 2010 को अंग्रेजी पत्रिका ओपन ने इंडिया टीवी को लेकर एक स्टोरी छापी- the world according to india tv. इस स्टोरी में राहुल भाटिया ने इंडिया टीवी के शुरु होने से लेकर मौजूदा स्थिति तक को लेकर अपनी बात तो रखी ही है साथ ही चैनल के सर्वेसर्वा रजत शर्मा का भी वर्जन शामिल किया. रजत शर्मा का कहना था कि शुरुआत में हमने इस चैनल को तरुण तेजपाल की खोजी पत्रकारिता, मेनका गांधी की पशुओं के प्रति गहरी संवेदना और आदिवासी से जुड़े गंभीर मसले को लेकर शुरु किया और हम इसी तरह की जरुरी स्टोरी प्रसारित करते रहे. लोगों के बीच इस बेहतर छवि थी लेकिन हमारे पास विज्ञापन नहीं थे. मार्केटिंग के लोग कहते कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे कि विज्ञापनदाताओं का लाभ हो सके. रजत शर्मा ने न्यूज वैल्यू और चैनल इमेज के दम पर बाकी चैनलों के मुकाबले अधिक विज्ञापन दर की कोशिश जरुर की थी लेकिन वो मॉडल पूरी तरह फ्लॉप हो गया. आगे उन्होंने इंडिया टीवी और खुद के बने रहने का जो तर्क दिया वो मेरे हिसाब से अश्लील होते हुए भी व्यावहारिक था. उनका कहना था कि जब हम खुद ही नहीं रहेंगे तो पत्रकारिता करके क्या कर लेंगे ? मेरी तरह शायद प्रसूनजी भी यही कहेंगे कि तो फिर आपको किस शख्स ने अवतार लेकर पत्रकारिता करते रहने के लिए कहा है ? किसने कहा कि जब आप आदिवासी से जुड़ी खबरों के दम पर चैनल नहीं चला सकते तो यूट्यूब से "शैतान की आंखे" उठाकर दिखाएं और विज्ञापन का सस्ता रास्ता अपनाएं. लेकिन नहीं. इंडिया टीवी की सफलता और नंबर वन होकर आजतक को लगातार ठोकने-पीटने की कलाबाजी के बीच न तो आजतक के भीतर एस पी सिंह का आदर्श बचा रह सका, न ही रजत शर्मा के तर्क को अश्लील करार देने का कोई मतलब रह गया और न ही अब पुण्य प्रसून की रेखांकित आदर्श स्थिति की किसी को परवाह है.
प्रसूनजी, आफ यकीन कीजिएगा, आपकी तरह ही मैं मीडिया के भीतर इस आदर्श स्थिति और बाजार के घिनौनेपन के बीच मीडिया का कमल कैसे खिला रहे, खूब सोचा-समझा. बहुत तनाव में रहा और जिस किसी से भी इस संर्दभ में बात की, मार्क्सवादी यूटोपिया जैसे शाब्दिक प्रयोग से मजाक का हिस्सा बना. मैं बिना किसी निष्कर्ष तक पहुंचे ये नहीं कह सकता कि ऐसा कोई तरीका है नहीं. लेकिन इतना जरुर देख पा रहा हूं कि आप और हम जिस साख की बात कर रहे हैं, मीडिया ने समझ लिया है कि उसे बेहतर स्टोरी, सरोकार से जुड़े कार्यक्रम दिखाकर हासिल करने के बजाय मार्केटिंग और पीआर के लोगों के जरिए ज्यादा आसानी से अर्जित किए जा सकते हैं. ये सचमुच खतरनाक स्थिति है कि जिस मीडिया की बुनियाद ही साख पर टिकी है, वह भी बाजार में खड़ें लंपटों के जरिए ही हासिल किया जा सकता है. अभी मीडिया इसे इन्ज्वॉय कर रहा है लेकिन जिस तरह डिस्ट्रीब्यूशन के मामले में केबल ऑपरेटर के गुंड़ों के हाथों विवश हुआ है, आनेवाले समय में पीआर एजेंसियों के हाथों होगा. गौर से देखें तो टुकड़ों-टुकड़ों में मीडिया अपने को बाजार के हाथों गिरवी रखता जा रहा है. ठीक उसी तरह जैसे हम चैनलों की हिस्सेदारी को टुकड़ों-टुकड़ों में रिलांयस, आदित्य बिड़ला, टाटा म्युचुअल फंड के हाथों बिकते देख रहे हैं. ये संभव है और इसके अपने खतरें भी हैं कि जब भी हम मीडिया के भीतर घुसे बाजार,मुनाफा और इनके बीच होनेवाले धत्तकर्म को छेड़ने की कोशिश करते हैं, एक समय बाद हम खुद ही उसके पक्ष में खड़े होते नजर आते हैं. इस पोस्ट का प्रभाव भी शायद ऐसा ही हो बावजूद इसके मुझे लगता है आदर्श स्थिति की कामना के बीच हमें ऐसी जहमत उठानी चाहिए.
अब थोड़ा पर्सनल हो रहा हूं, इस भरोसे के साथ कि इसे किसी भी दूसरे संदर्भ के साथ जोड़कर नहीं देखा जाएगा. आपने न्यूजलॉड्री में मधु त्रेहन को दिए इंटरव्यू में कहा कि मैंने आजतक छोड़कर सहारा इसलिए नहीं ज्वायन किया कि मुझे पैसे ज्यादा मिल रहे थे. आप पता कर लीजिए, मुझे वहां मुझे आजतक से ज्यादा एक पैसा भी ज्यादा नहीं मिला. मैं वहां सिर्फ इसलिए गया था कि काम करना चाहता था. आखिर जिस चैनल पर भूत-प्रेत चल रहे हों, वहां हम दिन-दिनभर चाय पीकर कैसे काट सकते थे ? सही बात है. मैंने आपको स्क्रीन पर, फील्ड में और यहां तक कि ऑफिस में गंभीरता से अपना काम पूरी प्रतिबद्धता के साथ करते देखा है. मैं आपकी इस बात पर बिना किसी अतिरिक्त श्रद्धा के भरोसा करता हूं कि आपने काम करने के लिए आजतक के बजाय सहारा का चुनाव किया. लेकिन असल सवाल है कि आपके इस फैसले से व्यक्तिगत तौर पर आपको मिली संतुष्टि के अलावे न्यूज चैनल की भीतरी संरचना पर क्या फर्क पड़ा ?
आपसे मसीहा होने की उम्मीद किए बिना सिर्फ इतना भर जानना चाहता हूं कि अगर देश के नंबर वन चैनल को आप जैसे सजग और दुर्लभ भारतीय टेलीविजन पत्रकार वैसा करने से रोक नहीं सकते थे, अपने लिए स्पेस बरकरार नहीं रख सकते थे तो फिर सहारा में ये जमीन शुरुआती दौर में तैयार किए जाने के बावजूद लंबे समय तक बनी रह सकती थी. मैंने आपके समय के सहारा को लगातार देखा है. सिंगूर और नंदीग्राम की घटना की कवरेज के लिए उस "समय" चैनल को अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए. देशभर में तब जहां भी गया, संसद से बड़ी आपकी तस्वीर भी देखी लेकिन एक उदाहरण के अलावे वो पत्रकारिता मेनस्ट्रीम न्यूज चैनल की रगो में खून बनकर कहां दौड़ सका ? हम उम्मीद भी नहीं करते कि ऐसा हो सकता है. ऐसा इसलिए कि हम आपकी नियत के प्रति शक न करते हुए भी इतना जरुर जानते हैं कि न्यूज चैनलों का जो चरित्र है उसमें किसी पत्रकार की व्यक्तिगत ईमानदारी और प्रतिबद्धता घंटे-आध घंटे के लिए चैनल को फिर भी अलग कर सकती है लेकिन वो चौबीस घंटे के चाल-चलन को नहीं बदल सकती. एस पी सिंह की बीस मिनट की बुलेटिन ही क्यों, मुझे तो घंटे भर का आपका शो "बड़ी खबर" और रवीश कुमार का "प्राइम टाइम" उतना ही प्रभावी,बेबाक और साफ-सुथरा लगता है. तो क्या हम इस बिना पर एनडीटीवी इंडिया और जी न्यूज के प्रति एकतरफा राय कायम कर सकते हैं ?
दूसरी बात. आप जब कार्यक्रम में आए, आपके सामने ही आशुतोष और एकाध वक्ता बाजार का नगाड़ा पीट रहे थे. आशुतोष के साथ दिक्कत है कि वो राजदीप सरदेसाई की तर्ज पर अपने को मालिकों के हाथों मजबूर बताते और ईमानदार जाहिर करते हुए भी( जो कि निश्चिंत रुप से हो सकते हैं) आखिर में उसी मालिक का चारण करने लग जाते हैं जो उन्हें गंध मचाने के लिए मजबूर करता है. ये तीसरा मौका था जब उन्होंने भारतीय टेलीविजन के आधुनिक होने और भाषायी तरलता के लिए अरुण पुरी की जमकर तारीफ की. आशुतोष को इतना तो समझना ही चाहिए कि जब मालिक शब्द का प्रयोग किया जाता है तो उसका मतलब सिर्फ अरुण पुरी या राघव बहल नहीं होता बल्कि एक व्यापक स्तर पर उस चरित्र की बात होती है जिसके लिए मुनाफा अंतिम सत्य है...और इसके बीच पत्रकार सेल्फ रेगुलेशन,बीइए और एनबीए के जरिए मीडिया के दुरुस्त होने की बात करते नजर आते हैं तो समझना मुश्किल नहीं है कि वे किसकी खाल बचा रहे हैं. सच बात तो ये है कि मीडिया के भीतर जिस किस्म का धंधा और उसकी संरचना बन रही है, ऐसे में चैनल और अखबार के संपादकों की रत्तीभर की औकात नहीं रह जाती कि वो इस मामले में दखल दे. मुझे नहीं लगता कि पांच सौ करोड़ के कर्ज में डूबे नेटवर्क 18 में रिलांयस इन्डस्ट्रीज का खून चढ़ाने के पहले आइबीएन7 के संपादक आशुतोष से राय ली गई होगी. खैर, आपने अपने पूरे वक्तव्य में उनलोगों की बातचीत का सीधे तौर पर कोई विरोध नहीं किया. कायदे से आपको बाजार की दुदुंभी बजानेवाले इन महान संपादकों के प्रति अपनी असहमति जाहिर करनी चाहिए थी. लेकिन आपने पूरी बातचीत एस पी सिंह के मीडिया और उसके राष्ट्रीय होने की समझ तक केंद्रित रखा. निस्संदेह, वो सब भी बहुत जरुरी था और हमें इसे हर हाल में जानना चाहिए. कार्ड पर नाम और मौजूदा वक्ताओं के विचार से आपको झल्लाहट हुई थी. आपने कार्ड की बात की, वक्ताओं की नहीं की. अचानक से उठकर चल दिए.
दरवाजे से बाहर जाने के क्रम में कार्यक्रम के संयोजक ने आपसे पूछा- सर, आप जा रहे हैं? आपने जवाब में कहा- तो क्या यहां बैठकर लफ्फेबाजी करें ? उसी से काम चल जाएगा. जाहिर है, उससे काम नहीं चलेगा. लेकिन मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि अगर मंच पर बैठे लोग लफ्फाजी ही कर रहे थे तो ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि आपने कार्ड का तो विरोध किया लेकिन इस पर चुप्पी मार गए ? मुझे ये बात थोड़ी अटपटी इसलिए लगी और आपके व्यवहार से सिर्फ इसलिए आहत हुआ कि आपके जिस तेवर का मुरीद रहा हूं और पिछले साल आपने जिस तरह से उदयन शर्मा के कार्यक्रम में भाषिक चारण कर रहे पत्रकारों की धज्जी उड़ायी, एस पी सिंह के इस कार्यक्रम में आपने तेवर के बजाय रुखापन दिखा. आपने सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी को अपनी बात सुने बिना वहां से न जाने के लिए मजबूर कर दिया था और उनके रुकने पर उनके सामने मंत्रालय की नाकामी का तार-तार कर दिया. ये सब देखकर आयोजक ने जिस भावना में आकर आपको आमंत्रित किया और आपके इस जवाब से उसकी आंखों में आंसू छलछला गए,इन सबकी गिरफ्त में पड़े बिना मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि सोशल मीडिया में सक्रिय लोगों की कीबोर्ड अभी इतनी भोथरी नहीं हुई है कि अभी ये कार्यक्रम अगर गहरी भावुकता और ईमानदार कोशिश के साथ शुरु हुआ है, कल को चमकीले चेहरे का रैंप शो और महज धंधा बनने लग जाएगा तो दबने से मना कर देगी. हमने जब आपको पिछले 15 सालों से सुना-पढ़ा है तो अब हम पर आपको इतनी उम्मीद तो करनी हो होगी.
आपने इस कार्यक्रम से जुड़ी रिपोर्टिंग की चर्चा के क्रम में लिखा कि सोशल मीडिया पर वो सारी बातें क्यों नहीं आयी जो समारोह में श्रोताओं की ओर से सवाल की शक्ल में आईं थी ? मुझे लगा कि इन रिपोर्टों के बीच मेरी पोस्ट ताकि एस.पी.सिंह के आगे बाकी पत्रकार भी छाती कूट सकें पढ़ी होगी. लेकिन आपकी पोस्ट की तासीर से ऐसा लगा नहीं. ऐसी बहुत सारी चीजें हम कई बार पढ़ नहीं पाते और राय कायम कर लेते हैं. इसी सोशल मीडिया पर सालों से मेनस्ट्रीम मीडिया के चमकीले चेहरे और मंडी को लेकर काफी कुछ लिखा जा रहा है.दूसरा कि आपके तमाम गंभीर सवालों के बीच मैं ऐसा महसूस कर रहा हूं कि आपने फोटो न खिंचवाने,आयोजक को झिड़क देने का जो काम किया, वो आपका एरोगेंस है जिसे कि आप वैचारिक असहमति के नाम पर ढंकना चाह रहे हैं. ये बहुत स्वाभाविक है और उतना ही स्वाभाविक कि स्क्रीन पर मौजूद मीडियाकर्मियों के काम और भाषा के हिसाब से दर्शक राय कायम कर लेते हैं. उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. .लेकिन मैं आपकी इस राय से निराश नहीं हूं. उम्मीद करता हूं कि आगे आप इस पर गौर करेंगे.
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post.html?showComment=1341282161359#c5604420107737684405'> 3 जुलाई 2012 को 7:52 am बजे
अच्छा लिखा है। बधाई!
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post.html?showComment=1341312679960#c7807906036080178083'> 3 जुलाई 2012 को 4:21 pm बजे
पुण्य प्रसून बाजेपयी जी बताएँगे की वहां लफ्फाजी कौन कर रहा था?
पुण्य प्रसून बाजेपयी बड़े पत्रकार हैं लेकिन उनमें बड़प्पन नहीं
पुण्य प्रसून बाजेपयी बड़े पत्रकार हैं लेकिन उनमें बड़प्पन नाम की कोई चीज नहीं. कुछ गुरूर भी है. शायद यह गुरुर सहारा प्रणाम करने से आया होगा ! 27 जून को उनका असली व्यक्तित्व सामने आया. एस.पी सिंह स्मृति समारोह में वक्ता के तौर पर उन्हें बेहद सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया गया था. उन्होंने निमंत्रण स्वीकार किया और आने का वायदा किया. एस.एम.एस और फोन करके उन्हें कार्यक्रम के बारे में याद भी दिलाते रहे.
लेकिन 27 जून के कार्यक्रम में वे बहुत देर से पहुंचें. ख़ैर ऐसा कई बार हो जाता है. लेकिन जब तक वे नहीं आए उस दौरान उन्हें कार्यक्रम के बारे में लगातार अपडेट किया जाता रहा कि अब कितने वक्ता बचे हैं आदि – आदि. कार्यक्रम खत्म होने के कुछ ही देर पहले वे पहुंचे. उन्हें सम्मान से मंच पर बैठाया गया. फिर उन्होंने अपना भाषण दिया. आमंत्रण कार्ड और कार्यक्रम को लेकर जो भी समस्या उन्हें थी उसपर अपनी बात रखी. कुछ वाजिब बातें भी कहीं. फिर सवाल - जवाब का सत्र शुरू हुआ. यहाँ तक सब ठीक था. लेकिन थोड़ी देर बाद अचानक न जाने क्या हुआ कि पुण्य प्रसून जी बिना किसी को बोले ऐसे उठकर चल पड़े जैसे और किसी का वहां कोई अस्तित्व ही नहीं है. मॉडरेटर वर्तिका नंदा तक को कुछ नहीं कहा. चुकी पुण्य प्रसून जी वक्ता थे , उन्हें सम्मान देना मेरा काम था. इसी वजह से उन्हें इस तरह उठते जाते देखकर पूछा कि क्या आप जा रहे हैं? फिर जो हुआ , उससे मैं स्तब्ध रह गया. उन्होंने बड़ी रुखाई से (यदि वे इस कद के पत्रकार नहीं होते तो मैं ‘रुखाई’ की जगह ‘बदतमीजी’ शब्द का इस्तेमाल करता) से जवाब दिया - "हां , तो क्या यहाँ बैठकर लफ्फाजी करें. काम - धंधा नहीं करना है."
फिर वे चले गए और मैं कुछ पल वही स्तब्ध खड़ा रहा. पुण्य प्रसून नाम के एक महान पत्रकार का आईना टूट चुका था. आगे जाकर उन्होंने पत्रकारिता के उन छात्रों को भी झिडक दिया जो उनके साथ तस्वीर खिंचवाना चाहते थे. उनके व्यक्तित्व का अनदेखा रूप सबके सामने था. यह छवि उनकी स्क्रीन छवि से बिलकुल अलग थी.
पुण्य प्रसून जी जिनका मैं जबरदस्त प्रशंसक रहा हूँ उनसे बड़ी शिद्दत से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि यदि आपको स्वर्गीय एस.पी.सिंह की याद में रखी गयी संगोष्ठी लफ्फाजी लग रही थी तो ये बात आपने मंच से क्यों नहीं कही? आप बोलने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र थे. शैलेश जी, राहुल देव, अल्का सक्सेना, आशुतोष और दीपक चौरसिया को क्यों नहीं कहा कि यहाँ लफ्फाजी हो रही है और आप लोग लफ्फाजी में शामिल हैं. यहाँ पुण्य प्रसून बाजेपयी नाम के खांटी पत्रकार की जुबान पर किस कॉरपोरेट ने ताला लगा दिया था? आपने उन छात्रों के सवालों का जवाब क्यों नहीं दिया जिनका सवाल किसी खास वक्ता से नहीं बल्कि सामूहिक रूप से तमाम वक्ताओं से था. वहां तो आप चुप्पी साध गए और न जाने किस बात की सारी खीज मुझ जैसे अदने पत्रकार और तुच्छ इंसान पर निकाली.
माननीय पुण्य प्रसून बाजेपयी जी स्वर्गीय एस.पी.सिंह को हम जैसे लोगों ने नहीं देखा है. लेकिन जितना समझ पाया हूँ कि यदि आपकी जगह एस.पी होते तो मंच से चाहे वे कुछ भी कहते, कार्यक्रम की धज्जियाँ उड़ाते, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर अपने से इतने कनिष्ठ पत्रकार के साथ ऐसा दुर्व्यवहार नहीं करते, जैसा आपने मेरे साथ किया.
दरअसल पुण्य प्रसून जी ने उस मंच का तिरस्कार करने की कोशिश की जहाँ एस.पी के बहाने टेलीविजन विमर्श चल रहा था. उस मंच पर कोई कॉरपोरेट, कोई बिल्डर या पत्रकारिता से इतर एक भी शख्स नहीं था और न ही बातचीत में किसी बाहरी का कोई हस्तक्षेप था. यदि पुण्य प्रसून जी कमर वहीद नकवी, राहुल देव, शैलेश जी, अल्का सक्सेना, दीपक चौरसिया और आशुतोष को पत्रकार समझते हैं तो उस हिसाब से उस मंच पर सारे पत्रकार ही आसीन थे. गैर पत्रकार कोई नहीं था. तो सवाल उठता है कि वहां लफ्फाजी कौन कर रहा था? क्या पुण्य प्रसून बाजेपयी जी बताएँगे की वहां लफ्फाजी कौन कर रहा था?
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post.html?showComment=1355065265207#c7859670817302166768'> 9 दिसंबर 2012 को 8:31 pm बजे
sp sahab ke aaderse bhi sankat me hai kya