मेरी नानी बहुत गंभीर पाठक है. मैंने उन्हें बचपन से ही एक ही मुद्रा में घंटों बैठकर पढ़ते देखा है. हां, ये जरुर है कि उन्होंने हमलोगों की तरह कभी मार्शल मैक्लूहान की मीडिया थीअरि नहीं पढ़ी, आधे-अधूरे अधकचरे तरीके से देरिदा और फूको को पढ़कर गर्दन की नसें नहीं फुलाती रही, मार्क्सवाद के नाम पर चुटका साहित्य नहीं पढ़ा. उन्होंने जीवनभर, पिछले बीस-बाईस सालों से तो मैं ही देख रहा हूं, विशुद्ध पॉपुलर साहित्य पढ़ती रही जिस पर आज अकादमिक दुनिया का एक धड़ा पल्प लिटरेटचर, पटरी साहित्य के नाम से शोध करने में नया-नया रमा है. उन दर्जनों पत्रिकाओं की सालों से नियमित पाठक रही है जिसमें काम करनेवाले हमारे मीडिया साथियों को दोएम दर्जे का समझा जाता है, जिन पर बौद्धिक समाज नाक-भौं सिकोड़ता है और अगर आप उनके सामने कह दें कि मैं ये सारी पत्रिकाएं पढ़ता हूं तो नजरों से खाल उतारने की मुद्रा में आ जाएं. लेकिन मजाल है कि नानी से नंदन, बालहंस, चंपक, गृहशोभा, निरोगधाम,वनिता,चंदामाम, सरिता,सहेली और सुमन सौरभ का कोई अंक छूट जाए. इन पत्रिकाओं में छपनेवाले स्वेटर की पैटर्न को मेरी नानी जितनी सहजता से उतारती, मामी, भाभी को इसमें माथापच्ची करने में घंटों लग जाते हैं.
मैंने नानी को इन पत्रिकाओं और इसके आसपास के साहित्य को जितनी गंभीरता और तन्मयता से पढ़ते देखा है, उतनी सीआरएल( आर्टस फैकल्टी डीयू की लाईब्रेरी) और रतन टाटा लाइब्रेरी( डीइ स्कूल,डीयू) में भी साहित्य और समाजशास्त्र को पढ़ते हुए बहुत ही कम बार किसी को देख पाता हूं. अंजलि (मेरी ममेरी बहन) और मिलन (मेरा ममेरा भाई) नानी के सप्लायर थे. अब तो अंजलि अपनी गृहस्थी में व्यस्त है और मिलन गृहस्थ बसाने की जमीन तैयार करने में लगा है. खैर, अंजलि "चेतना कला केन्द्र" से सहेली, वनिता और गृहशोभा जैसी पत्रिकाएं लाती और मिलन "जागृति सांस्कृतिक केन्द्र" से चंदामामा,नंदन,चंपक, बालहंस... ये दोनों मंच मेरे नानीघर( शेखपुरा जो कि कभी मुंगेर का हिस्सा हुआ करता था) उन युवा साथियों ने खड़े किए थे जो बड़ी मुश्किल से ग्रेजुएशन करने के बाद किसी तरह की नौकरी या काम के लिए कोशिश में लगे रहते. उधर जो लड़कियां ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर लेती और एक तरह का खालीपन होता, उसे काटने के लिए चेतना जैसे मंच खड़े किए थे. अफसोस कि बाद में इस मंच का इस्तेमाल ससुराल में बक्सा भर-भरकर एम्बॉडरी, क्रूस,बुनाई और पेंटिंग की हुई चादरें, पूजा की थाली का झकना(ढंकने के लिए) बनाने-सीखने के लिए किया. ये दोनों मंच जो कि शेखपुरा जैसी जगह के लिए युवाओं के अकेले सामूहिक ठिकाने थे, पता नहीं अब भी काम कर ही रहा है, देशभर की पत्रिकाओं का बड़ा भंडार बना. मिलन और अंजलि यहां से पत्रिकाएं लाते और किसी दूसरे काम में फंस जाते लेकिन नानी नियम से नाश्ता के बाद इसे पढ़ती.
मेरा नानीघर बिल्कुल शेखपुरा के मेनबाजार में है. उपर घर और नीचे अलग-अलग चीजों की दुकानें और शोरुम. सड़क से गाड़ियां गुजरती रहती है. स्नेहा खानवलकर कभी वहां जाती है तो पक्का टैं टैं जैसी कोई धुन या साउंड ट्रिपन का मसाला ढूंढ लेगी. नानी घर के एकदम अगले हिस्से में इन पत्रिकाओं के साथ जाकर बैठ जाती. इसे छतरी कहा करते थे. हम बच्चे जब गर्मियों की छुट्टी में जाते तो वहीं बैठकर "हम्मर बस, हम्मर टरक"( मेरी बस, मेरी ट्रक ) खेला करते. मतलब कि जिसे जो गाड़ी पहले दिख जाए, जोर से बोले- हमर बस, हमर ट्रक. हरेक गाड़ी पर एक प्वाइंट मिलते. मैं छुटपन से ही भाषिक तौर पर थोड़ा बदमाश था. गाड़ियों के बजाय कहता- हम्मर आदमी, हम्मर लेडिज. इस पर प्वाइंट नहीं मिलते लेकिन ठहाकों से छतरी किसी किट्टी पार्टी जैसा गुलजार हो जाता. नानी ने मेरे पापा की तरह कभी नहीं कहा कि बहुत भच्च-भच्च करते हो तुमलोग, हम लिखा-पढ़ी कर रहे हैं. वो पढ़ती रहती और बीच-बीच में भजन गुनगुनाती जिसका कि सुमन सौरभ या गृहशोभा की सामग्री से कोई संबंध न होता.
उस दौरान हमलोगों में इन पत्रिकाओं में छपने का भी भूत सवार हुआ था. हम इन्हीं पत्रिकाओं में छपकर प्रेमचंद, फनीश्वरनाथ रेणु और महादेवी वर्मा होना चाहते थे. मैंने ईमानदारी से कोई कोशिश तो नहीं की लेकिन मिलन की पेंटिंग बालहंस में छपने लगी थी और नानीघर के पड़ोस के कुछ बच्चों की भी. चूंकि नानी सबसे पहले पत्रिका देखती तो उत्साह में कहती- इ ओही अंशुआ के कहानी छपले ह, जे गजोधर के छोटकी बेटिया है.( ये उसी अंशु की कहानी छपी है जो गजोधर की बेटी है ). मिलन या अंजलि कहती- हां मां. दोनों मेरी नानी को दादी न कहकर मां कहा करते. इसी में किसी ने कह दिया कि हां पहिले देखे हैं तो नानी का उत्साह थोड़ा मर जाता. दोपहर का खाना खाने के बाद और ठाकुरबाड़ी जाने के पहले भी नानी इन पत्रिकाओं और घर में मौजूद किताबें पढ़ती.
रसोई में मैंने अक्सर देखा कि नानी अखबारों और रद्दी से बने जो ढोंगे आते जिसमें नाना या पिंटू मामू बर्फी, मुरब्बा या सेब-बुनिया लाते, नानी उसे डिब्बे में डालने के पहले ढ़ोंगे में लिखे को पढ़ती. ये काम मैंने कैलाश भइया की मां को भी करते देखा और अपनी रजनी दीदी को भी. मुझे लगता है कि अगर मेहनत की जाए तो इस देश में हजारों ऐसी महिलाएं मिल जाएंगी जो रसोई में आनेवाले ढ़ोंगे को पढ़ा करती थी. वो "ढोंगा या लिफाफा रीडर" हैं और इस पर अलग से काम करने की जरुरत है. अब जिस तेजी से रसोईघर में इसके बजाय पन्नी या पॉलीथिन पहुंच रहा है, आप सोचिए कि ये कैसे पढ़ने से वंचित रह जाती होंगी. नहीं तो जब तक दाल खदक रही है, एक ढोंगा पढ़ लिया. जो कटा हिस्सा अधूरा रह गया, उसे कल्पना से पूरी कर ली. भात का अध्धन( गर्म पानी) चढ़ा दिया और हल्दी के ढोंगे पढ़ लिए. नानी भी ऐसा ही करती.
मैं दिल्ली में बैठे बड़े-बड़े लेखकों/साहित्यकारों/ आलोचकों की जीवनचर्या के बारे में पढ़ता हूं, उनके लिखने-पढ़ने की आदतों के बारे में सुनता हूं, उन पर बनी फिल्में देखता हूं तो अक्सर ख्याल आता है- अगर मेरी नानी ये सब पढ़ते हुए यूजीसी नेट की परीक्षा पास कर लेती तो किसी कॉलेज में पॉपुलर लिटरेचर की एक्सपर्ट होती. दिल्ली के इंडिया हैबिटेट और मंडी हाउस के सभागारों में खुदरा-खुदरा पढ़कर जो महानुभाव पॉपुलर जर्नलिज्म औऱ लिटरेचर के नाम पर देह को ऐचाताना करते हैं( show-off), उनके आगे मेरी नानी सालों से पढ़ी जानेवाली सामग्री पर बात करती, मास कल्चर और लिटरेचर पर व्याख्यान देती तो पानी भरते. यकीन मानिए, इतनी गंभीरता से हम नहीं पढ़ते और खासकर वो सब जिसे पढ़ने के बाद न तो हमें किसी पत्रिका के लिए कॉलम लिखना होता है, जिसे पढ़कर हम सेमिनारों में हवा काटनी होती है और जिसे पढ़कर प्राइम टाइम में जाकर टीवी पर चमकाना होता है. हममें से अधिकांश मौके-बेमौके के पाठक हैं. परीक्षा आने पर कोल्हू की तरह पन्द्रह-बीस दिन पढ़ते हैं. ऑफिसों में बाबू और कार्पोरेट में "एग्जिक्यूटिव" बनने के लिए जिस कट्टरता से पढ़ते हैं कि आंख के साथ-साथ देह की सारी हड्डियों को भी पढ़ने में लगा दें, बाद में उतनी ही लापरवाही से सब छूट जाता है. नानी और उनकी जैसी हजारों पाठक सिर्फ इसलिए पढ़ती रही क्योंकि उन्हें पढ़ना अच्छा लगता है..संभव है कि इसलिए वो हमसे कहीं ज्यादा पढ़ने को इन्ज्वाय करती होगी. स्कूल-कॉलेज कब का छूट गया, कईयों ने तो मुंह तक नहीं देखा लेकिन पढ़ना जारी रहा. बड़े-बड़े सिद्धांत औऱ दर्शन न सही, क्या सिर्फ पढ़ना अपने आप में कम सुखद है. पढ़ना क्यों सिर्फ पढ़ने के लिए. ये कुछ इसी तरह से है जैसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने "हिन्दी साहित्यः उद्भव और विकास" में भक्तिकाल का विश्लेषण करते हुए लिखा है- लीला,लीला के लिए. ये जस्ट फॉर फन से कितनी आगे की चीज है.
मेरी नानी इन दिनों मेरी लिखी किताब "मंडी में मीडिया" पढ़ रही है. कितना पढ़ा है और आगे पढ़ेगी, नहीं पता लेकिन पढ़ते हुए तस्वीरें मेरे पास है. मेरा मन करता है कुछ दिनों के लिए नानी को अपने पास बुलाउं. उनके आगे रेणु, निराला, अमृतलाल नागर, नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध,अज्ञेय, उदय प्रकाश, मैक्लूहान, अडोर्नो,ग्राम्शी, वर्जिनिया की किताबें रख दूं. समय-समय पर नींबू-पानी, शर्बत, जूस, लस्सी सर्व करता रहूं और एकांत में छोड़ दूं. नानी आप सिर्फ पढ़िए. संयोग से मेरा घर बिल्कुल शांत है, कोई बस-कोई ट्रक खेलनेवाला नहीं है, कोई कितना आदमी का चावल बनेगा मांजी पूछ-पूछकर तंग करनेवाली बहुएं नहीं, कोई ससुराल से आई बेटी नहीं जिसकी विदाई की टेंशन में नानी के पढ़ने का क्रम टूट जाए. कोई बिगडैल पोता नहीं जो वैसे तो इधर-उधर खेलता रहता है लेकिन जब मूतना होता है तो नानी की झकझक साड़ी से बेहतर कोई जगह नहीं मिलती. यकीन मानिए, मैं ऐसा करके नानी को नहीं, उस एक गंभीर पाठक के साथ कुछ वक्त बिताना चाहता हूं जिसके लिए पढ़ना स्वांतः सुखाय है, कोई लोभ-लाभ नहीं.
नानी की तस्वीर मेल करने के लिए रुचि( रुचि प्रबोधिनी) का बहुत-बहुत शुक्रिया.
नानी की तस्वीर मेल करने के लिए रुचि( रुचि प्रबोधिनी) का बहुत-बहुत शुक्रिया.
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_08.html?showComment=1341734379124#c8593448306307296182'> 8 जुलाई 2012 को 1:29 pm बजे
बहुत प्यारा लेख है। ऐसे लेख बहुत कम लिखे जाते हैं। बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर!
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_08.html?showComment=1341756143363#c7767590790052435576'> 8 जुलाई 2012 को 7:32 pm बजे
हमारी अम्मा को सफाई करते समय जो भी अखबार मिल जाता है, पढ़ जाती हैं..
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_08.html?showComment=1341756924068#c8690174503840348253'> 8 जुलाई 2012 को 7:45 pm बजे
बहुत प्यारा आलेख
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_08.html?showComment=1341760918787#c5840233033349350516'> 8 जुलाई 2012 को 8:51 pm बजे
So Sweet..
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_08.html?showComment=1341914511032#c7960602857066320358'> 10 जुलाई 2012 को 3:31 pm बजे
dil ko chhu lene wala lekh h ye,,,,,,,dats really great......& nani z so sweet
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_08.html?showComment=1342267654505#c2895287439117605393'> 14 जुलाई 2012 को 5:37 pm बजे
apka jawa nahi hai bhayya..past padhte hue emotional ho gaya aur ma( dadi) se jo attachment hai usase laga ki kyo mai unhe chodkar ek private company me naukari baja raha hu...kash Ma bhi ye post padh pati...