नौ जुलाई को गुवाहाटी की बीस साल की छात्रा के साथ हुई छेड़छाड़ और हमले के मामले में मीडिया को बराबर का अपराधी माना जा रहा है। सूचना अधिकार कार्यकर्ता और अण्णा समूह के सदस्य अखिल गोगोई ने गुवाहाटी के समाचार चैनल न्यूज लाइव के संवाददाता गौरव ज्योति नेओग पर आरोप लगाया कि उसने लोगों को उकसाया और फिर उसकी वीडियो रिकार्डिंग की। गोगोई ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस और फिर वीडियो स्क्रीनिंग के जरिए इसे सार्वजनिक किया, जिसमें इस घटना में शामिल बीस से ज्यादा लोगों के बीच गौरव ज्योति को पहचाना जा सकता है। फिलहाल दबाव बनने की स्थिति में 19 जुलाई को जमानत याचिका खारिज होने के एक दिन बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया।
समाचार चैनलों के हितों की रक्षा करने वाली संस्था बीइए (ब्रॉडकास्टर एडीटर्स एसोसिएशन) ने 17 जुलाई को प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए बताया कि गुवाहाटी मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय (वरिष्ठ टीवी एंकर दिबांग, बीइए के सचिव एनके सिंह और आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष) जांच समिति गठित की गई है। यह समिति वहां जाकर पता लगाएगी कि इस पूरे मामले में क्या वाकई किसी मीडियाकर्मी की भूमिका शामिल है। जरूरत पड़ने पर वह निर्देश भी जारी करेगी कि ऐसे मामलों में पत्रकारिता-धर्म का किस तरह से निर्वाह किया जाना चाहिए?
बीइए की इस पहल पर गौर करें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि गौरव ज्योति, गोगोई और न्यूज लाइव चैनल का जो मसला पूरी तरह कानूनी दायरे में आ चुका है, उसके बीच वह अपनी प्रासंगिकता स्थापित करने की कोशिश में है। आमतौर पर मीडिया की आदतन और इरादतन गड़बडि़यों को नजरअंदाज करने वाली संस्था बीइए अगर ऐसे कानूनी मामले के बीच अलग से जांच समिति गठित करने और रिपोर्ट जारी करने की बात करती है तो इसके आशय को गंभीरता से समझने की जरूरत है। इसके साथ ही ऐसे कानूनी मामले में बीइए अब तक क्या करती आई है, इस पर गौर करें तो स्थिति और साफ हो जाती है।
13 अगस्त, 2010 को दिन के करीब डेढ़ बजे उनतीस वर्षीय कल्पेश मिस्त्री ने गुजरात के मेहसाणा जिला के उंझा पुलिस स्टेशन परिसर में आत्मदाह कर लिया। उसी शाम करीब सवा चार बजे उसकी मौत हो गई। घटना के दो दिन बाद पंद्रह अगस्त को उंझा पुलिस स्टेशन में दो मीडियाकर्मियों कमलेश रावल (रिपोर्टर, टीवी 9, मेहसाणा) और मयूर रावल (स्ट्रिंगर, गुजरात न्यूज) के खिलाफ कल्पेश मिस्त्री को आत्मदाह के लिए उकसाने के मामले में एफआईआर दर्ज की गई। इस घटना को लेकर भी बीइए ने सात सदस्यीय जांच समिति गठित की थी, जिसमें टाइम्स नाउ के अभिषेक कपूर और आईबीएन 7 के जनक दवे अपने व्यक्तिगत कारणों से इस पूरी प्रक्रिया से दूर रहे। समिति ने इस घटना से जुड़े लोगों से बात करने, घटनास्थल का जायजा लेने और कल्पेश मिस्त्री के परिवार वालों से मिलने में कुल एक दिन का समय लगाया और अगले दो दिन बाद रिपोर्ट तैयार कर दी। 25 से 27 अगस्त के बीच यह सारा काम हो गया और दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में आधे-अधूरे मीडियाकर्मियों की मौजूदगी में रिपोर्ट जारी कर दी गई। कल्पेश मिस्त्री और मयूर रावल का जो मामला पूरी तरह कानूनी दायरे में था, उसे बीइए की समिति ने मीडिया की नैतिकता और पत्रकारों का दायित्व जैसे मुद्दों में तब्दील करने की कोशिश की। उसने जो तथ्य दिए उससे कहीं से भी इन दोनों मीडियाकर्मियों को कानूनी प्रावधान के तहत सजा देने की जरूरत नहीं रह जाती है।
इस घटना के अलावा बीइए गठित होने के बाद से पिछले साल तक, सवा दो सालों में, किए गए उसके कुल नौ फैसलों पर गौर करें तो एक भी ऐसा नहीं है जिसकी बिना पर बीइए यह दावा कर सकती है कि उसने मीडिया के भीतर की गंदगी और गड़बडि़यों को दूर करने का काम किया है। उसका एक ही उद्देश्य है- इस बात की पूरी कोशिश कि पत्रकारों और टीवी चैनलों से जुड़े मामले किसी भी रूप में कानूनी प्रावधान के अंतर्गत न आएं और अगर आ जाते हैं तो उन पर आनन-फानन में रिपोर्ट जारी कर या फिर मामूली सजा देकर पूरे मामले को मीडिया की नैतिकता की बहस में घसीट लाओ। इस कोशिश में इंडिया टीवी पर किया गया फैसला भी शामिल है।
बीइए की ओर से अब तक की सबसे सख्त सजा इंडिया टीवी पर लगाया गया एक लाख रुपए का जुर्माना है। 26/11 के मुंबई हमले के दौरान इंडिया टीवी ने पाकिस्तानी मूल की फरहाना अली से इंटरव्यू प्रसारित किया। यह इंटरव्यू रायटर न्यूज एजेंसी से कॉपीराइट का उल्लंघन करते हुए लिया गया था, जिसमें उसे सीआईए की आतंकवादी घटनाओं की विशेषज्ञ के बजाय पाकिस्तान का जासूस बताया गया। फरहाना अली की शिकायत के बाद बीइए ने जब एक लाख रुपए का जुर्माना किया तो रजत शर्मा, (सीइओ और एडीटर इन चीफ, इंडिया टीवी) ने बीइए के कामकाज के प्रति अविश्वास जताते हुए अपनी सदस्यता वापस ले ली। बाद में बीइए के मान- मनौव्वल पर उन्होंने कुछ शर्तें रखते हुए स्थायी सदस्यता ली।
इस पूरे घटनाक्रम में इंडिया टीवी ने साबित कर दिया कि बीइए की हैसियत क्या है! कोई मीडिया संस्थान बीइए के फैसले को नहीं मानता या फिर उसकी सदस्यता नहीं लेता तो उसके पास ऐसा कोई प्रावधान या अधिकार नहीं है कि वह इसके लिए बाध्य करे। इससे ठीक विपरीत जब वह किसी एक मीडिया संस्थान के खिलाफ फैसले करता है तो उसकी कमजोर स्थिति खुल कर सामने आ जाती है। ऐसे दर्जनों चैनल हैं, जिन्हें बीइए की गतिविधियों और फैसले से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि उल्टे उसके द्वारा जारी निर्देशों का जब-तब खुलेआम धज्जियां उड़ाने से भी नहीं चूकते। लेकिन बीइए है कि ऐसे मामलों में अपनी प्रासंगिकता साबित करने की भरपूर कोशिश करता है। शायद यही कारण है कि जो मीडिया संस्थान और चैनल उसके सदस्य नहीं होते, उनके मामलों में भी हस्तक्षेप करता है। जो मीडिया संस्थान कानूनी मामलों में फंसा रहता है, वह इस उम्मीद से उसकी कार्यवाही को स्वीकार कर लेता है कि उसके पहले के फैसले और रिपोर्टों से समझ आ रहा होता है कि संगठन कानूनी मसले को नैतिकता के सवाल में तब्दील करने की पूरी कोशिश करेगी।
सपाट शब्दों में कहें तो ऐसा करके बीइए दरअसल, अपने को कानून और न्यायिक जांच प्रक्रिया से अपने को ऊपर स्थापित करना चाहता है, जबकि खुद मीडिया संस्थानों के बीच न तो उसकी मजबूत पकड़ है, न ही साख है और न ही कोई विशेष अधिकार। अगर ऐसा होता तो वह मीडिया की उन गड़बडि़यों को सबसे पहले दुरुस्त करने का काम करता। इससे लोगों में यह संदेश जा रहा है कि मीडिया में जो जितना गलत तरीके से काम करता है, वह उतना ही आगे जाता है। जो जितना नैतिकता और पत्रकारीय दायित्व की धज्जियां उड़ाता है, उतना ही तरक्की पाता है।
अगर ऐसा नहीं होता तो 2007 में लाइव इंडिया के जिस रिपोर्टर प्रकाश सिंह ने उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम दिया, वह मामूली सजा के बाद रसूखदार व्यवसायी और सांसद का मीडिया सलाहकार नहीं बन जाता। उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन की फुटेज से अगर गुवाहाटी वाली घटना की फुटेज का मिलान करें तो दोनों में एक ही तरह से स्त्री के कपड़े फाड़ने की कोशिश हो रही है। एक में स्कूली छात्राओं की इज्जत बचाने के नाम पर और दूसरे में एक स्कूली छात्रा के साथ सरेआम यौन उत्पीड़न के लिए। तब दिल्ली के तुर्कमान गेट की भीड़ को नियंत्रित नहीं किया जाता तो दंगे की प्रबल संभावना थी। लेकिन चैनल के जिस सीइओ और प्रधान संपादक सुधीर चौधरी ने इस पूरे मामले से पल्ला झाड़ते हुए मीडिया में बयान दिया कि उसके रिपोर्टर ने उसे अंधेरे में रखा वही बाद में उस चैनल के रियल इस्टेट के हाथों बिक जाने के बाद तरक्की पाकर जी न्यूज का संपादक और बिजनेस हेड नहीं बन पाता। इतना ही नहीं, यही संपादक सालों से बीइए का खजांची भी है। दिलचस्प है कि यह सब उसी महीने हुआ जब चैनलों पर गुवाहाटी मामले के बहाने मीडिया की नैतिकता पर बहस हो रही है।
मामला बहुत साफ है कि जो संस्था मीडिया के धतकर्मों पर परदा डालने और कानूनी मामले को नैतिकता के दायरे में लाने पर अक्सर आमादा रही है, उससे गुवाहाटी जैसे मामलों में निष्पक्षता की कितनी उम्मीद की जा सकती है? खुद ऐसे संगठन कब तक मीडिया की साफ़- सुथरी छवि का भ्रम बनाए रख सकते हैं?
मामला बहुत साफ है कि जो संस्था मीडिया के धतकर्मों पर परदा डालने और कानूनी मामले को नैतिकता के दायरे में लाने पर अक्सर आमादा रही है, उससे गुवाहाटी जैसे मामलों में निष्पक्षता की कितनी उम्मीद की जा सकती है? खुद ऐसे संगठन कब तक मीडिया की साफ़- सुथरी छवि का भ्रम बनाए रख सकते हैं?
( मूलतया जनसत्ता 22 जुलाई 2012 में प्रकाशित. )
फांट परिवर्तन और तस्वीर- मीडियाखबर.कॉम
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_22.html?showComment=1342947692901#c7755000679367980677'> 22 जुलाई 2012 को 2:31 pm बजे
सही सवाल उठाये हैं विनीत तुमने। लेकिन इनका जबाब कौन देगा? मीडिया के खलीफ़ा इसको इधर-उधर कर देंगे।
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_22.html?showComment=1342957906600#c4175947539280289885'> 22 जुलाई 2012 को 5:21 pm बजे
प्रश्न अपने उत्तर चाहते हैं..
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_22.html?showComment=1343226685237#c613408796630850822'> 25 जुलाई 2012 को 8:01 pm बजे
a very well written post vineet ji .....
also, visit : .visit : http://swapniljewels.blogspot.in/2012/07/blog-post_14.html