पहलवान-अभिनेता दारा सिंह हमारे बीच नहीं रहे. उनके जाने की खबर के तुरंत बाद से ही फेसबुक की दीवारों पर सदमे की अभिव्यक्ति होने लगी है. इस बीच मशहूर टीवी एंकर बरखा दत्त की ट्विट से भी गुजरा-Dara Singh. Our IronMan, Our SuperMan, Our Hanuman. R.I.P. फेसबुक पर उनकी याद में जो तस्वीरें टांगी जा रही है, उसे देखते हुए लगता है कि हम दारा सिंह को कम, दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण को लेकर ज्यादा नास्टॉल्जिक हो रहे हैं. कुछ लोगों को अयोध्या-बाबरी मस्जिद कांड और उसका शौर्य ज्यादा याद आ रहा है. याद करने की कवायद जिस दिशा में बढ़ती नजर आ रही है कि शाम होते-होते उन्हें "अखिल भारतीय हिन्दू प्रतीक" साबित कर दिया जाएगा. एक बेहतरीन पहलवान, कुश्ती खिलाड़ी और कलाकार की छवि कैसे कांट-छांटकर छोटी की जाती है, इसे समझना हो तो एक तरफ न्यूज चैनल्स और दूसरी तरफ फेसबुक खोले रखिए तो आप बहुत ही आसानी से समझ सकते हैं.
ये सही है कि दारा सिंह ने दुनियाभर की फिल्मों में काम किया हो, अनेक तरह के प्रोजेक्ट में शामिल रहे लेकिन सबसे ज्यादा मशहूर रामानंद सागर के रामायण का हनुमान बनकर हुए. हम जब भी हनुमान का ख्याल करते हैं, दारा सिंह का ही ख्याल करते हैं. आप दारा सिंह से अलग हनुमान की कल्पना नहीं कर सकते. खासकर तब जब आप देशभर में स्थापित हनुमानों की मूर्ति के संदर्भ में बात न करके बस हनुमान को याद कर रहे हों तो..इस समाज के एक तबके ने दारा सिंह को जो अतिरिक्ति सम्मान दिया, उसकी वजह भी यही रही कि रामायण में उन्होंने हनुमान की भूमिका अदा की. लेकिन सवाल है कि क्या हम उन्हें सिर्फ हनुमान के संदर्भ में इसलिए याद कर रहे हैं कि सबसे मजबूती से हमें सिर्फ उनका वही अभिनय याद है या फिर ये वही मौके होते हैं जब हमारे भीतर की तंग सोच सक्रिय होने लग जाती है और हम उसके आगे जाना नहीं चाहते. हर तीन में से दो शख्स रामायण की ही यूट्यूब लिंक और हनुमान की ही तस्वीर टांग रहा है, क्या ये सब अकारण है और अगर हां तो अफसोस कि दारा सिंह ने ऐसे हनुमान का किरदार निभाया जिनके आगे उनके बाकी के सारी काम भुला दिे गए.
मुझे लगता है कि उन्हें याद करने के क्रम में उनके टीवी विज्ञापनों को अलग से याद करना चाहिए. उन विज्ञापनों में छिपे संदेशों की व्याख्या होनी चाहिए. जो दूरदर्शन शीलता-अश्लीलता का बारीक परीक्षण करते हुए भी लिरिल के विज्ञापन को उसी खुलेपन के साथ प्रसारित करता रहा, उन उत्पादों के लिए स्त्री-देह का इस्तेमाल किया, उन सबके बीच दारा सिंह ने विज्ञापनों के लिए काम किया. विको वज्रदंती से लेकर संडे हो या मंडे,रोज खाए अंडे के विज्ञापनों पर गौर करें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि उन्होंने अपने इन सारे विज्ञापनों में अपने शरीर का इस्तेमाल नहीं किया जैसा कि आज बैट घुमानेवाले, रैम्प पर चलनेवाले, कहकर लेनेवाले और जिम जाकर शरीर धंसाने-फुलाने और हांफनेवाले लोग करते हैं. वो विज्ञापनों में एक घरेलू स्त्री या फिर घर के सबसे सम्मानित व्यक्ति के रुप में आते हैं. उनके संवाद प्रस्तुत करने की शैली गृहणियों जैसी हुआ करती थी. दादाजी थे तो उस दादाजी की घर में सुनी जाती थी, उनकी इज्जत होती थी. आज की तरह नहीं कि विज्ञापन के सारे दादाजी सिर्फ अपने पोते-पोतियों की चाइल्ड प्लान खरीदवाने के काम आते हैं या फिर नई पीढ़ी को ज्यादा स्मार्ट बताने के लिए इन्हें खटारा घोषित करने के काम में लगाए जाते हैं.
दरअसल अस्सी-नब्बे और उसके बाद भी दारा सिंह का उपयोग विज्ञापनों में जिस तरह से किया गया, वो उनके शारीरिक क्षमता और पहलवान की छवि से कहीं ज्यादा एक वजनदार घर के सदस्य के रुप में किया गया. आप इस तरह के मूल्यों से असहमत हो सकते हैं लेकिन उन्होंने अपने शारीरिक सौष्ठव का विज्ञापनों के जरिए दोहन होने नहीं दिया. हां, कुछेक विज्ञापन ऐसे जरुर हैं जिसमें ताकत को बहुत ही आक्रमक तरीके से स्टैब्लिश करने की कोशिश की गई है, कहीं-कहीं चमत्कारिक भी लेकिन आज पुरुष का स्वस्थ शरीर जो सिर्फ सेक्स अपील और सेक्सुअल सैटिस्फैक्शन तक जाकर सिमट गया है चाहे वो चड्डी बेचनी हो या फिर चाइल्ड डियो, दारा सिंह के शरीर का इस्तेमाल उस रुप में नहीं हुआ. विज्ञापन के केन्द्र में उनका बलशाली होना ही रहा, सेक्स अपील ऑब्जेक्ट नहीं. आप कह सकते हैं कि दारा सिंह का ये शरीर कभी पुरुष प्रोड्यूसरों के छिछोरेपन का शिकार नहीं हुआ. उसके हाथ का झुनझुना नहीं बना जिसे हर कमजोर उत्पाद के पीछे बजाकर ताकतवर कर दिया जाए. नहीं तो सीमेंट, छड़,बिल्डिंगों के विज्ञापनों के जो अंबार है, उसके बीच ऐसे ही "विज्ञापन पुरखे" की सबसे ज्यादा जरुरत होती है.
विज्ञापनों में दारा सिंह दरअसल देसी शरीर और सेहत का प्रतिनिधित्व करता रहा है जो कि मोबिल डीजल जैसे बड़े-बड़े डिब्बों में आनेवाले हेल्थ ड्रिंक पीकर नहीं बनते हैं और न ही बंद कमरे में पैडल पर हांफते हुए और कान में कनठेपी लगाकर आइ वना फक यू, आइ वना किस्स यू की रिद्म पर हाथ-पैर घुमाते हुए बनती है. वो सच्चे अर्थों में देसी तरीकों और संसाधनों के बीच रहकर देह बनाने की परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे. समय के साथ ये तरीके शायद मर भी जाएं और उसकी मजबूरी भी हो लेकिन उनके विज्ञापनों में, यूट्यूब पर अगर वो अब भी मौजूद हैं तो हमें चाहिए कि रामायण से हटकर उन तमाम लिंकों को भी एक बार क्लिक करके देख लें.
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_12.html?showComment=1342103169693#c4624102930901935069'> 12 जुलाई 2012 को 7:56 pm बजे
दारा सिंह को विनम्र श्रद्धांजलि!
https://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_12.html?showComment=1342253301516#c6087208904537958425'> 14 जुलाई 2012 को 1:38 pm बजे
विनम्र श्रद्धांजलि..