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मीडियाखबर डॉट कॉम द्वारा आयोजित एस.पी.सिंह स्मृति समारोह में शिरकत करने के बाद हम मारवाह स्टूडियो,नोएडा से बाहर निकलकर ऑटो के इंतजार में खड़े थे. 16x12 इंच की करीब डेढ किलो की एस.पी.सिंह की तस्वीर लेकर इंतजार करते हमें बीस मिनट से ज्यादा हो गए थे. मेरा मन कर रहा था कि एस.पी.सिंह की तस्वीर आगे चलकर चौक पर लगा दूं और पेड़ों की टहनियां तोड़कर चारों तरफ से घेर दूं. पास पड़े इंटों के टुकड़े उठाकर काली सड़क पर लिखूं- एस.पी.सिंह चौक. मुझे नहीं पता कि ऐसा किए जाने पर किस धारा के अन्तर्गत मुझे सजा दी जाती और किस तरह के कानूनी पचड़ों में धंसना पड़ता. लेकिन

 यकीन मानिए, नोएडा फिल्म सिटी में सचमुच मुझे एक ऐसे चौक या स्मरण स्थल बनते हुए देखने का मन है जहां देशभर के न्यूज चैनलों के मीडियाकर्मी पूजा, माला चढ़ाने या मत्था टेकने नहीं बल्कि छाती कूटने जा सकें. वो ऑफिस से निकलने के बाद यहां आकर स्यापा कर सकें कि हाय आज मैंने राखी सावंत,पूनम पांडे के चक्कर में दांतेवाड़ा में मलेरिया के फैलने की खबर नहीं चलायी. ओह, हमने नीतिश सरकार की दुदुंभी बजाने के फेर में बिहार में बढ़ते भ्रष्टाचार की स्टोरी दबा दी. सॉरी एस पी हमने आपके बताए बेसिक जर्नलिज्म की शर्त को ताक पर रखकर प्राइम टाइम की बहस को लॉफ्टर चैलेंज में तब्दील कर दिया.

सवाल है कि एस.पी.सिंह स्मृति समारोह में जुटे चैनल दिग्गज इससे अलग क्या कर रहे थे ? शैलेश,कमर वहीद नकवी, पुण्य प्रसून वाजपेयी, राहुल देव,अल्का सक्सेना से लेकर दीपक चौरसिया और आशुतोष जैसे बॉस पत्रकार इससे अलग कर भी क्या रहे थे ? सवाल है कि न्यूज चैनलों की हालत पर स्यापा करने और छाती कूटने का अधिकार और मौका सिर्फ उन्हीं बॉस मीडियाकर्मियों तक सीमित क्यों रहे जो न्यूजरुम में पूरी तरह इसके खेवैया रहे और मीडिया सेमिनार के मंचों पर आकर पीड़ित और असहाय हो जाया करते हैं..तथाकथित लोकतंत्र का माहौल कायम रखनेवाले लोगों के साथ-साथ आम मीडियाकर्मियों के बीच छाती कूटने का लोकतांत्रिकरण क्यों न हो ? आखिर इन गिने-चुने सिद्धस्थ लोगों के अलावे बाकी मीडियाकर्मियों को भी गिल्ट के लिए मौके और अवसर क्यों न दिए जाएं जिससे कि वो हम टीवी दर्शक और सेमिनार श्रोताओं के बीच अपने पाप को उघाड़कर रख सकें, ईमानदारी से सब बयान करने के बाद कह सकें- हम मालिकों के हाथों मजबूर हैं. नोएडा फिल्म सिटी में एक चैनल की ऑफिस भले ही कम हो जाए लेकिन छाती कूटने के लिए एक "कॉन्फेशन सेंटर" का होना ज्यादा जरुरी है.

मैं जब मंचासीन इन दिग्गज वक्ताओं को सुन रहा था तो हैरानी हो रही थी कि ये तो देश के नेताओं से भी ज्यादा शातिर हैं जो कह रहे हैं कि टीवी के रिमोट का मालिक ऑडिएंस है, ऑडिएंस इज द किंग. ये बात शैलेशजी ने भी कही, नकवी साहब ने बात की शुरुआत ही इसी से की और राहुल देव ने. क्या हमें इतनी भी बेसिक समझ नहीं है कि जब आप ऑडिएंस को टीवी और रिमोट का मालिक बता रहे हो तो इसका मतलब है कि टीवी पर जो भी अचरा-कचरा चल रहा है, उसके लिए वो जिम्मेदार है ? सवाल है कि अपने बेहूदेपन और मालिक की बैलेंस शीट मजबूत करने की शर्त पर उन लाखों ऑडिएंस को कैसे जिम्मेदार ठहरा सकते हो जो भारी मशक्कत के बाद इसलिए टीवी खरीदती है, देखती है जिससे कि वो देश-दुनिया से जुड़ सके. कुछ जानकारी बढ़ा सके. राहुल देव ने जिस चालाकी से कहा कि टेलीविजन विमर्श का माध्यम नहीं है क्या उतनी ही ईमानदारी से ये स्वीकार कर सकते हैं कि फिर भी हमने ऐसा बनाने की कोशिश की और विफल रहे ? आप अपनी विफलता और मालिक की बदइच्छाओं की पूर्ति का ठिकरा उन लाखों पर कैसे फोड़ सकते हैं जिनके भीतर अभी भी जिद्दी यकीन है कि आप जैसे पढ़े-लिखे लोग कुछ तो उनके पक्ष में बात करेंगे, उनके भले के लिए कुछ दिखाएंगे. कमर वहीद नकवी, शैलेश और राहुल देव और आशुतोष जैसे अनुभवी टीवी पत्रकार जब ऑडिएंस को ही मालिक मानते हैं और दूसरी तरफ अपने असली मालिक जो कि इन्हें लाखों की तनख्वाह देते आए हैं के हाथों मजबूर होने की बात करते हैं तो समझ नहीं आता कि वो कितना बड़ा झूठ बोल रहे हैं ?

सवाल बहुत साफ है कि जब आप अपने देय मालिक के हाथों मजबूर हैं तो फिर ऑडिएंस को मालिक करार देकर किस साजिश को चुपचाप पचा जा रहे हैं. इस बात को समझना बहुत मु्श्किल नहीं है कि टीवी कोई सरकार चलानेवाली संस्था नहीं है जिसके लिए शामिल मीडियाकर्मियों को नेताओं की तरह झूठ बोलने की जरुरत पड़े. ये खालिस धंधा है और ये मानते हुए उनकी जबावदेही सिर्फ इस बात की होनी चाहिए कि एक ऑडिएंस अगर उपभोक्ता की शक्ल में तीन से चार सौ रुपये खर्च कर रहा है तो खबर की शक्ल में उन्हें सही माल दिए जाएं. अलग से सरोकार का मसीहा साबित करने की जरुरत नहीं है.

अच्छा ऑडिएंस को मालिक और टीवी कंटेंट के लिए जिम्मेदार मान लेने के पीछे का तर्क सिर्फ और सिर्फ टीआरपी है. शैलेशजी का कहना था कि टीआरपी को हम किसी भी तरह से नकार नहीं सकते. नकवी साहब ने भी यही बात दोहरायी. ऑडिएंस को मालिक या फिर टीवी का गुलाम माननेवाले लोग इस टीआरपी को इस रुप में प्रस्तावित करते हैं मानो ये कोई पवित्र गाय है और सारे विवाद इसे छोड़कर किए जाने चाहिए. लेकिन असल सवाल है कि टीआरपी के बिना पर आप जो ऑडिएंस को ही कंटेंट के लिए जिम्मेदार ठहराने का कुचक्र रचते हैं क्या कभी इस पर बात करने की जहमत उठायी कि ये टीआरपी के जो बक्से लगे होते हैं, उनका वर्ग चरित्र क्या होता है ? वो किस तबके की ऑडिएंस होती है, उनकी क्या हैसियत,जीवन-शैली और अभिरुचि होती है ? इसके लिए कुछ नहीं तो आशुतोष,नकवीजी या राहुल देव एक बार लोगों से सेमिनार में मौजूद करीब सवा सौ लोगों से हाथ उठाने कहते कि आपलोगों में से कितने लोग हैं जिनके घर में टीआरपी के बक्से लगे हैं तो अंदाजा लग जाता ?  मामला सिर्फ इतना भर नहीं है कि इन दिग्गजों ने टीवी कंटेंट में किस स्तर तक सुधार की कोशिशें की ? असल सवाल है कि पूरी टीवी इन्डस्ट्री केबल ऑपरेटर, टीआरपी महंत और डिस्ट्रीब्यूशन में जाकर फंस गया जिसके आगे पत्रकारिता एक संस्था तेजी से ध्वस्त होती चली गई, उसे बचाने की इनलोगों की ओर से कितनी कोशिशें की ? खासकर एस पी सिंह स्कूल से निकले दिग्गज जिन्होंने सिर्फ टीवी पत्रकार की हैसियत से नहीं बल्कि चैनल हेड से लेकर उन पदों पर काम किया जहां से कि फैसले लेने की ताकत पैदा होती है ? इन सवालों पर कब बात होगी और कौन करेगा ?

पढ़े-लिखे और मध्यवर्ग के लोगों के बीच अगर बक्से नहीं लगे हैं जिनमें से अधिकांश आर्थिक रुप से सम्पन्न भी हो सकते हैं, अगर उनके यहां बक्से नहीं लगे हैं तो फिर आप ये कैसे सोच सकते हैं कि गांव औऱ कस्बे में उन घरों में बक्से लगे होंगे, जहां कि बहुत कम पढी-लिखी ऑडिएंस जो आंख चीरकर ज्ञान,सूचना और मनोरंजन के लिए टीवी पर निर्भर है. ऐसे में सबसे पहले इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए कि बक्से के जरिए जो टीआरपी की शक्ल में अपनी पसंद-नापसंद जाहिर करते हैं और जिनके घरों में बक्से नहीं है और सूचना और मनोरंजन चाहते हैं, उनके बीच के फर्क को समझने का क्या तरीका हो सकता है ? आप सोचिए न कि बक्साविहीन ऑडिएंस जिसकी संख्या करोड़ों में है और बक्से से लैश ऑडिएंस जिसकी संख्या कुछ हजार के भीतर ही होगी, उनके पसंद-नापसंद को पूरी 45-46 करोड़ की ऑडिएंस की पसंद बताना कितनी घिनौनी साजिश है?..और इस मोर्चे पर सारे दिग्गज पूरी तरह विफल और मालिक के आगे मजबूर हैं. ये आमलोगों की जरुरत को नजरअंदाज करके, उनकी आवाज को कुचलकर इस देश को चंद कार्पोरेट घरानों की इच्छाओं का खिलौना बना देने से कहां अलग है ? ये सच है कि इन तमाम दिग्गज मीडियाकर्मियों ने सफाई से ये बात स्वीकार करते हैं कि वे सुधार के मोर्चे पर विफल रहे हैं लेकिन क्या इतना भर कह देने से उन्हें बरी किया जा सकता है? सवाल तो तब भी है कि एस पी भी तो मालिक की ही चाकरी करते थे लेकिन आखिर उनके भीतर वो कौन सी क्षमता थी जिसने कि उन्हें कभी भी मालिकों के हाथों मजबूर नहीं होने दिया और आपकी कौन सी लाचारी है जहां आपकी सारी विफलता एक ईमानदार दिखते हुए शातिर जुमले में जाकर सिमट जाता है ?
आगे भी जारी...  
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2 Response to 'ताकि एस पी सिंह के आगे बाकी पत्रकार भी छाती कूट सकें'
  1. अनूप शुक्ल
    https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_29.html?showComment=1340962983349#c8646142104153264036'> 29 जून 2012 को 3:13 pm बजे

    ये विकट सवाल हैं जिनके जबाब कभी नहीं दिये जायेंगे।

    वो छाती कूटने वाला चौराहे बन सके जल्दी इसके लिये मंगलकामनायें।

     

  2. प्रवीण पाण्डेय
    https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_29.html?showComment=1341073600566#c5349075973573057191'> 30 जून 2012 को 9:56 pm बजे

    टीआरपी के एहसान तले दबा है कंटेंट..

     

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