इस बाजारवादी दौर में भी जबकि अधिकांश मीडिया हाउस कॉरपोरेट से गलबइयां किए घूम रहे हैं, लालाओं से समझौते कर हम पर रौब झाड़ रहे हैं, ऐसे में ये माद्दा सिर्फ जनसत्ता में ही हो सकता है कि अपनी फ्रंट पेज पर आइपीएल की धमाकेदार शुरुआत की तस्वीरें न छापकर नाटक की तस्वीर छापे।
कल के लगभग सारे अखबारों में आइपीएल से जुड़ी खबरें थी। फ्रंट पेज पर मैच के पहले डेढ़ घंटे तक चली कल्चरल इवेंट से जुड़ी तस्वीरें थी। तस्वीरों के मामले में हिन्दी अखबार भी एक दिन के लिए अंग्रेजी अखबारों से होड़ लेने लगे थे। ऐसे में जनसत्ता ने इन सबसे अलग-थलग दिल्ली के पुराने किले में हुए नाटक की तस्वीर छापी। इस तस्वीर को अब तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और उसके कलाकार काटकर अपनी फाइलों में दबा लिए होंगें। एक- दो कलाकार जिनकी तस्वीर अभी तक कम ही छपी होगी, लोगों को दिखाते फिर रहे होंगे कि देखो, अखबार में मेरी तस्वीर छपी है और वो भी जनसत्ता में। नाटक, साहित्य और कला से जुड़े लोगों के लिए जनसत्ता में तस्वीर छपना बड़ी बात है। क्योंकि हिन्दी में ये अकेला अखबार है जो कि मौज में आकर कुछ भी नहीं छापता। इसकी हर खबर और तस्वीर के छापने के पीछे एक ठोस संपादकीय दृष्टिकोण और तर्क हुआ करते हैं।...इधर नाटक के डायरेक्टर ने जनसत्ता की इस तस्वीर को स्कैन करवाकर बेबसाइट या फिर और कहीं भेज दिया होगा। लेकिन अभी तक मुझे जानकारी नहीं है कि इस तस्वीर के उपर जैसी मेरी नजर गई है, शायद इन लोगों को भी गई होगी।
तस्वीर के नीचे अखबार ने लिखा है-
दिल्ली के पुराने किले में शुक्रवार को राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा मंचित नाटक- 1957एक सफरनामा- का एक दृश्य
देखिए यहां नाटक का नाम ही गलत है। 1857की जगह 1957छापा गया है। पहले तो इसे मैं प्रूफ की गलती मानकर नजरअंदाज कर गया लेकिन इस पर बात तो होनी ही चाहिए कि ये खबर आम खबर नहीं थी, हमारे-आपके लिए हो भी जाए तो जनसत्ता के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि जब पूरी मीडिया आंखों पर आइपीएल को बिठाए घूम रही थी जिसके बारे में पाठक भी देखना और पढ़ना चाह रहे थे इसने रीडरशिप पर ध्यान न देकर अपने संस्कार पर ध्यान दिया है जिसे कि वो पिछले पच्चीस साल से सहेजता चला आ रहा है। ऐसा करने से पाठक भले ही दूर होता जाए लेकिन अगर संस्कार और आइडियोलॉजी बची रह जाती है तो इस बात की उम्मीद तो रहेगी कि जब अपनी ऑइडियलॉजी के लोग होंगे तो हार्ड कोर रीडरशिप होगी। संख्या कम हो लेकिन रीडरशिप हार्डकोर हो तो ज्यादा दिक्कत नहीं है। जनसत्ता को वैसे भी फ्लोटेड रीडर्स की जरुरत नहीं है कि जब कहीं कोई पत्रकारिता की इंट्रेंस देनी हो या फिर ज्युडिश्यरी में जाने के लिए हिन्दी सुधारनी हो तो कुछ दिन जनसत्ता पढ़ लिए और बाद में ऑफर के चक्कर में दूसरे अखबार के हो लिए। ऐसे पाठक जनसत्ता से दूर रहें तो ही अच्छा है। बाकी के अखबार इस पॉलिसी पर हंस सकते हैं। कल की ही तस्वीर को देखकर कह सकते हैं- हंसुआ के ब्याह में खुरपी के गीत। दुनिया मांग रही है क्रिकेट लेकिन ये दे रहे हैं नाटक। दुनिया आइपीएल की बीट पर नाचना चाह रही है लेकिन ये है कि नाटक का आस्वादन कराने पर तुले हुए हैं।
पाठक होने की हैसियत से जनसत्ता के इस नजरिए के हम कायल हैं कि कोई तो बाजार की मार के आगे घुटने नहीं टेक रहा। अखबार की दिली इच्छा है कि मशीन कल्चर और पैशटिच कल्चर के आगे नाटक भी जिंदा रहे। वाकई ये साहसिक कारवाई है लेकिन ऐसा करने में जनसत्ता खुद भी सचेत नहीं रह पाती।
1857की जगह 1957छापने को प्रूफ की गलती मानने से पहले हमें इस स्तर पर तो सोचना ही होगा कि ये लाइन कितनी आंखों से होकर गुजरी होगी। क्या किसी को इस बात का खटका नहीं लगा कि 1957मे ऐसी कौन सी बात हो गई कि एनएसडी ने सफरनामा बना डाला। आप नाटक का शीर्षक ही गलत छाप रहे हैं औऱ वो भी पहले पेज पर। नियमित पाठक जो कि हिलनेवाली नहीं है वो फिर भी इसे प्रूफ की गलती मानकर पचा जाएगी जैसा कि मैंने कल करने की कोशिश की। लेकिन जरा सोचिए अकबार की ये कतरन कितने लोगों के हाथ में जाएगी। अब तक तो एनएसडी से फोन आ जानी चाहिए थी कि- अजी आपने तो नाटक का नाम ही गलत छापा है, आपका क्या भरोसा। लीजिए एक और संस्था ने आपके संपादकीय कौशल का मजाक उड़ा दिया और एक पाठक तो लिख ही रहा है इस पर।
अगले दिन यानि की आज इसी नाटक को लेकर पूरी रिपोर्ट है। यानि अखबार के लिए अभी भी ये नाटक जरुरी खबर है।....क्यों जरुरी है इसका संकेत पूरी रिपोर्ट में है क्योंकि अंबिका सोनी तक आने की बात थी, ८० लाख रुपये वाला है ये प्रोजेक्ट ( नाटक नहीं, अखबार की भाषा में प्रोजेक्ट) और लड़खड़ा गया है। पैसे की बर्बादी हुई है और इस पर जनसत्ता को तो लिखना ही चाहिए। लेकिन यहां भी विरोधाभास है। कल अखबार को ये खबर इतनी जरुरी लगी कि इसने फ्रंट पर इसकी तस्वीर छापी। लेकिन आज कैसे कह दे कि ये जरुरी नहीं था इसलिए आज इसे और जरुरी बताकर इसे दूसरे एंगिल से इसकी चीरफाड़ करना ज्यादा जरुरी समझा। ये अगर सिलसिला-सा बन जाए और बात एनएसडी की कार्यशैली पर आ जाए और देखते ही देखते एनएसडी की सभ्यता समीक्षा होने लग जाए। बताया जाने लगे कि कैसे यहां अब वो बात नहीं रह गयी है और नाटक ने नाम पर यहां टेलीविजन सीरियल्स और फिल्मों की रेप्लिका तैयार किए जाते हैं।...चैनलों में खूब बाइटें आने लगे और जनसत्ता के समझदार पत्रकार टॉक शो में बैठे। होने को तो इस खबर को लेकर कुछ भी हो सकता है। आइपीएल में कोई अखबार मैच फिक्सिंग को लेकर स्टिंग चलाए इससे पहले एनएसडी वाला मामला जनसत्ता की झोली में जा गिरेगी। जो कि लागत और मेहनत दोनों के हिसाब आइपीएल के मुकाबले आसान काम है। अब आप ही देखिए न, एक ही रिपोर्ट में कितना कुछ ढूंढ निकाला अखबार ने। इब्राहिम अल्काजी की बेटी द्वारा ही उनके मान्यताओं और विश्वासों की धज्जियां उड़ाने से लेकर निर्देश देने और अस्सी लाख रुपये निष्फल होने तक की पीडा जिसकी ओपनिंग बड़े ही दार्शनिक तरीके से होती है-
बात शीर्षक से ही शुरु करें-
१८५७- एक सफरनामा- इतिहास दोहराने की असफल कोशिश
शीर्षक से आपको अंदाजा लग जाएगा कि जनसत्ता ने कल जिस खबर को प्रमुखता से लिया, दरअसल उसमें दम नहीं है। नाटक में कोई जान नहीं है। रिपोर्ट बताती है कि रंगमंच के जो भी आयाम होते हैं, प्रायः सब पर असफल रहा है ये नाटक।
आगे कि दार्शनिक पंक्तियां-
इतिहास को दोहराने की भावुक जिद अक्सर कई मुश्किलें पैदा करती है। अपनी स्थापना के स्वर्ण जयंती वर्ष में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली के ऐतिहासिक पुराना किला में नाटकों के मंचन की उस परंपरा को दुहरा रहा है जिसे करीब ३४ वर्श पूर्व इब्राहिम अलकाजी ने शुरु किया था।.....इतिहास दुहराया नहीं जाता, रचा जाता है।
लीजिए अब जनसत्ता भी नई चीजों की डिमांड करने लगी है जो कि खुद परंपरा और लम्बे अनुभव के लोगों की कायल रही है। नए पाठकों और लेखकों के लिए खुश होने की बात है कि जनसत्ता अपनी टेस्ट बदलने जा रही है। इस रिपोर्ट को पढ़कर तो कुछ ऐसा ही लगता है।
आगे पढ़िए- .....नाटक में जो ड्रेस डिजाइन किया है उसमें दो रोटी के लिए तड़पते किसान-मजदूर लांड्री से ताजा धुले कपड़े पहने हुए हैं जिन पर पसीने और धूल का एक भी धब्बा नहीं है।
रिपोर्ट में जो असहमति है कुछ ऐसी ही असहमति हुई थी दूरदर्शन पर गुलजार का गोदान देखकर। कहीं से नहीं लग रहा था कि ये होरी के बैल हैं। लगता था कि सुविधा के लिए बैल यूपी से न लाकर हरियाणा से लाए गए हों।....और रुपा, सोना की ऐसी ड्रेस की कॉन्वेंट जाती लड़कियां भी पहनने के लिए मचल पड़े।
नाटकों में ये सब अटपटापन कोई नई बात नहीं है जिसे कि जनसत्ता अपनी रिपोर्ट में एक नाटक के तहत बांधकर छाप रहा है। मैले-कुचैले कपड़े और घिसे-पिटे चेहरे नाटकों से गायब हैं। लेकिन जहां निगेटिव इमेज बनानी हो और त्रुटियों की फेहरिस्त लम्बी करनी हो वहां ये सब लिखना जनसत्ता को जरुरी लगा।
इन्हीं त्रुटियों को गिनाने में -
....स्वयं इब्राहिम अलकाजी इस परंपरा के खिलाफ थे कि नाटकों के प्रदर्शन के समय किसी अफसर या राजनेता को मंच पर बुलाया जाए। अब उन्हीं की बेटी अमाल अल्लाना राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अध्यक्ष के रुप में अपने पिता अलकाजी की परंपरा को बदल रही है।
जनसत्ता के इस शुद्धतावादी रवैये से हमें बड़ी पुलक होती है कि चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन ये अखबार बिना किसी समझौते के काम करेगी, सबकुछ शुद्ध देगी और परम्परा जो कि बड़ी मशक्कत के बाद हमें मिली है उसे सहेज कर रखेगी।
लेकिन सब कुछ जनसत्ता की सोच के हिसाब से शुद्ध रह जाए तब न। ...और मैं अपने इस मन का क्या करुं जो ये मान रही है कि कल की १९५७ वाली गलती को सिर्फ प्रूफ रीडिंग की गलती न मानो, ये तो वर्तनी में ही शुद्ध नहीं रह सका....आगे तो।....नाटक पर एनएसडी पर लगाई जानेवाली झाड़ कहीं कल की गलती का कॉन्फेशन तो नहीं है, तो कहो कलाकारों तुम भी कि- एक लाइन सही से छाप सकते नहीं और बात करते हैं शुद्धता की। जोश में तस्वीर के नीचे लिखा न देखकर कुछ नहीं बोले तो इसका मतलब क्या है कि आज रिपोर्ट में अपना पांडित्य हम पर झाडोगे, पहले बेसिक तो दुरुस्त कर लो।
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_20.html?showComment=1208671860000#c1844057888214574154'> 20 अप्रैल 2008 को 11:41 am बजे
जनसत्ता से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी.
जनसत्ता अखबार का मैं भी कायल हूं पर जनसत्ता जानबूझकर खुद को खत्म करने में जुटा है.
बाजारवादी ताकतों के सामने न झुकने के नाम पर उसने तकनीक से दूरी बढ़ा ली है और ये जो हार्डकोर रीडरशिप है इसके बाद जनसत्ता कैसे जिंदा रह सकेगा ?
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_20.html?showComment=1208672400000#c5216868610381716621'> 20 अप्रैल 2008 को 11:50 am बजे
बहुत बढ़िया बंधु!!
सहमत!
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_20.html?showComment=1208679480000#c6146425134998463598'> 20 अप्रैल 2008 को 1:48 pm बजे
विनीत भाई दु:ख इस बात का है कि ग़लती होने के बाद आजकल अख़बार उस पर खेदप्रकाश भी नहीं करते.ये खेद आजकल ज़ाहिर सूचनाओं की कम्पोज़िंग में हुए ग़लतियों के लिये ही किया जा रहा है क्योंकि मालूम है कि ऐसा नहीं किया तो इश्तेहार का भुगतान एजेंन्सी या ग्राहक नहीं करने वाला है. कई शब्द हैं जो इनदिनों अख़बारों में ग़लत इस्तेमाल हो रहे हैं जिन्हें तारीफ़ ए क़ाबिल (क़ाबिले-तारीफ़)ही समझा जा रहा है...सच कहूँ काम करने का क्ल्चर,तमीज़ और संजीदगी ही ख़त्म हो चली है.
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_20.html?showComment=1208698140000#c5743692502675989730'> 20 अप्रैल 2008 को 6:59 pm बजे
जनसत्ता ने जब मुंबई से अपनी दुकान समेटी थी तभी समझ में आ गया था कि ये समूह हिंदी अखबारों को गंभीरता से नहीं ले रहा है । जनसत्ता एक संस्कृति एक संस्कार का नाम था । प्रभाष जी के लेखों से लेकर सुधीश जी विश्लेषण तक और जनसत्ता के रविवारीय संस्करण में मुंबई में आने वाली सबरंग पत्रिका तक सबने हमारी जिंदगी में अपनी जगह बनाई । पर जनसत्ता अब धर्मयुग के रासते पर चल पड़ा है । सारिका, धर्मयुग और पराग की तरह हम जनसत्ता को भी अतीत के खुशनुमा अखबार की तरह याद करेंगे । दुखद है ये हाल ।
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_20.html?showComment=1208763840000#c3820623143456285317'> 21 अप्रैल 2008 को 1:14 pm बजे
Thanvi ji ke raaj me yahi dekhane ko milga mere dost...ab unhe naye logon ke liye jagah khali kar deni chahiye
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_20.html?showComment=1219053120000#c6602552355033123156'> 18 अगस्त 2008 को 3:22 pm बजे
विनीत जी,
गलती तो कहीं और किसी से भी हो सकती है. जनसत्ता में एक फोटो कैप्शन में १८५७ की जगह १९५७ लिखे जाने पर आपने लंबा लेख लिखा है. यह गलत है. ठीक उसी तरह जैसे आपने अपनी आपबीती में लिखा है कि फिलहाल मनोरंजन प्रधानों चैनलों की भाषिक संस्कृति पर डीयू से पी.एच.डी कर रहा हूं. यहां मनोरंजन प्रधानों...भी तो गलत है. यह प्रधान होना चाहिए. मैंने तो अपनी बात को समझाने के लिए महज एक मिसाल दी है.
धन्यवाद