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कल तक आपने पढ़ा कि हिन्दी के लोग साहित्य और मीडिया को एक मान लेते हैं और मीडिया के उपर साहित्य के प्रतिमान फिट करने लग जाते हैं। साहित्य के लोगों को बाजार और पूंजीवाद से शुरु से ही विरोध रहा है और आज मीडिया भी इसकी ही उपज है इसलिए वो मीडिया का भी सीधे-सीधे विरोध करने लग जाते हैं। अब आगे-
हिन्दी के लोग जब भी मीडिया पर बात करते हैं तो उनके दिमाग में कुछ गिने-चुने शब्द, विचार या अवधारणा होते हैं। वो शब्द और विचार जो किसी भी कवि को जनपक्षधर बताने के काम आ सकते हैं और अवधारणा जिसके बूते ये सिद्ध किया जा सके कि मीडिया लेट कैपिटलिज्म की उपज है। ये हमें पैसिव ऑडिएंस बनाता है। इसमें प्रस्तुत विचार औऱ जीवन शैली दरअसल कुछ ही लोगों के विचार और जीवन शैली होते हैं और बाकी की जनता इसे फॉलो करती है। ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो ये कल्चरल हेजमनी यानि सांस्कृतिक वर्चस्व है। साहित्य को मार्क्सवादी नजरिए से पढ़नेवाले लोगों के लिए इस अवधारणा के तहत मीडिया का विश्लेषण करने के लिए खूब सामग्री मौजूद है। अब कुछ हद तक हिन्दी में भी और अंग्रेजी में तो है ही।... और आप मीडिया पर हुए तमाम रिसर्च को उठाकर देख लीजिए लोग इसकी बाकी चीजों पर बात न करके मीडिया को लेट कैपिटलिज्म या आवारा पूंजी का सुपुत्र मानकर इसकी निंदा करने लग जाते हैं। इनके हिसाब से मीडिया में कोई भी ऐसा एलीमेंट नहीं है जिससे की समाज को बेहतर किया जा सके। वो अब भी मीडिया में बिल्बर श्रैम के मॉडल की तलाश करते-फिरते हैं जिसे कि नेहरु युग में मीडिया और संचार मॉडल के तौर पर अपनाया गया था। जिसके अनुसार इस बात को बार-बार स्थापित करने की कोशिश की गई कि मीडिया को हर हाल में सामाजिक विकास के लिए कार्य करना चाहिए। लेकिन आज के हिन्दी रिसर्चर अब भी इस बात को ज्यों के त्यों पकड़कर बैठे हैं। वो इस बात को समझ ही नहीं पाते या समझना ही नहीं चाहते कि ये तब कि स्थितियां है जब मीडिया का संचालन पूरी तरह सरकार के हाथों में रही। उस सरकार को जिसके लिए मीडिया को बनाए रखने के लिए किसी तरह की कंपटीशन से नहीं गुजरना पड़ा। वो मीडिया का काम उसी तरह करती है जैसे एक वेलफेयर स्टेट में नाली, पानी सड़क और इसी तरह दूसरे जनहित के कार्य। जिसके लिए सरकारी खजाने से रुपये निकाले जाते हैं और टैक्स के जरिए जिसे उगाहाया जाता है।
आज जो मीडिया हमारे सामने है उस पर न जाने कितने दबाव हैं। समय, बाजार, पूंजी, प्रतिस्पर्धा, दूसरे से बेहतर और जल्दी करने के दबाव तो हम जैसे लोगों को साफ दिखाई देता है इसके अलावे मैंनेजमेंट के स्तर पर सैंकड़ों दबाव होंगे जिसे कि नजदीकी से समझना हमारे लिए आमतौर पर आसान नहीं होगा। तो भी उपरी तौर पर भी हम जितना दबाव समझ पा रहे होते हैं, हिन्दी के लोग रिसर्च करते समय इन सारी बातों को पूरी तरह नजरअंदाज कर जाते हैं। एक आम आदमी या अनपढ़ आदमी बिना कुछ ज्यादा सोचे-समझे मीडिया को गरिआये तो बात समझ में आती है। हांलांकि उन्हें भी मीडिया लिटरेट करना हमारा ही काम है, उन्हें बताना हमारी जिम्मेवारी है कि ऑडिएंस के स्तर पर सक्रिय होकर हम मीडिया को कितना कुछ बदल सकते हैं। लेकिन अगर एमए करने के बाद कोई एमफल् और पीएचडी के स्तर पर इसी मानसिकता और मीडिया के प्रति इसी समझदारी को लेकर मैंदान में उतरता है तब उसके रिसर्च करने और न करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है। ये अलग बात है कि उन्हें तो भी एमफिल् या पीएचडी की डिग्री अवार्ड कर दी जाएगी। क्योंकि देशभर में सैंकडों ऐसे विषयों पर पीएचडी अवार्ड की जाती है जिसके बारे में अगर रिसर्चर से पूछा जाए कि इसे करने के बाद आपने कौन सी नई स्थापनाएं दी या फिर आपकी पीएचडी का एप्लीकेशन क्या है तो कुछ भी नहीं बता पाएंगे। उसकी तो बात ही छोड़ दीजिए। सच्चाई ये है कि मीडिया को प्रोडक्शन, कन्जम्पशन,रीप्रोडक्शन,पॉलिटिकल इकोनॉमी और कल्चरल डिस्कोर्स के तहत देखने और विश्लेषित करने की समझ पूरे हिन्दी समाज में विकसित नहीं हुई है।
मीडिया पर रिसर्च करनेवाला हिन्दी समाज लेटस्ट या नया काम या नए तरीके से काम करने के नाम पर उनलोगों का विरोध करता दिखाई देता है जो आकाशवाणी की परिकल्पना महाभारत काल से मानते आ रहे हैं और नारद को भारत का पहला व्यवस्थित रिपोर्टर मानते हैं। बहुत हुआ तो जो लोग अखबार की पत्रकारिता और उनकी शर्तों को टेलीविजन और बाकी मीडिया के साथ घालमेल कर देते हैं उससे अलगाने का काम करते हैं लेकिन वो भी इस बात की चर्चा कभी नहीं करते कि जो मीडिया हमारे सामने पनप रहा है उसका स्पेस से और आए दिन बनते-घिरते सामाजिक अवधारणाओं से क्या संबंध है। सीधे-सीधे शब्दों में कहें तो मीडिया जिस आर्टिकुलेशन या पैश्टिच कल्चर को तेजी से अपना रहा और आगे बढ़ रहा है, उसकी खोज-खबर हिन्दी समाज का रिसर्चर नहीं लेता।
इसकी एक वजह तो ये भी है उसके उपर से हिन्दी साहित्य की मान्यताओं का दबाव हटता नहीं, उसके दिमाग से ये बात जाती ही नहीं कि साहित्य में जिन विद्वानों के विचार सबसे ज्यादा हिट रहे उन्हें मीडिया में काम करते हुए कैसे छोड़ दें या फिर उनको ओवरटेक करके कैसे आगे बढ़ जाएं। जबकि सच्चाई ये है कि हिन्दी के, साहित्य के बड़े-बड़े बाबाओं के विचार के मुताबिक अगर रिसर्च किए जाते हैं तो मीडिया का नरक होते देर नहीं लगेगी और अगर किसी ने इन विचारों को ओवरटेक किया तो इन बाबाओं के विचार पिटते देर नहीं लगेंगे। तरीके से अगर इनका विश्लेषण किया जाए तो बात समझ में आ जाएगी कि विद्वानों ने विद्वता के नाम पर कितना कच्चा-कच्चा और अधकचरा हमारे सामने रख दिया है।
इस संबंध में बात करते हुए मेरी पहली पोस्ट पर मिहिर ने टिप्पणी की है, उसे यहां रखना जरुरी है-
miHir pandya ने कहा…
असल में एक फांक है या बन गई है मीडिया और उसके ऊपर होने वाली रिसर्च में. जो मीडिया में कार्यरत हैं वे शायद उसपर आलोचनात्मक नज़रिये के साथ काम नहीं कर सकते और अध्यनरत विद्यार्थी अब भी मीडिया के 'फर्स्ट हैण्ड' अनुभव से बाहर हैं. और ऐसे में आपका दोहरा अनुभव काम आता है।
मिहिर की बात में दम है लेकिन इसे पूरी तरह एज इट जी नहीं माना जा सकता . मिहिर के हिसाब से मीडिया में काम करनेवाले लोग उतने आलोचनात्मक तरीके से नहीं लिख सकते। ऐसा नहीं है। आप पुण्य प्रसून की राइटिंग को उठाकर देख लीजिए। मीडिया के भीतर की पॉलिटिक्स को छोड़ दे तो आपको पढ़कर लगेगा कि इस आदमी ने किताब ब्रेकिंग न्यूज में जो बात कही है उससे आपको अंदाजा लग जाएगा कि मीडिया में काम करते हुए भी कितने बेबाकी तरीके से लिखा-कहा जा सकता है। रवीश कुमार के लेखों को देखिए कितना सधे हुए तरीके से लिखते है और जिस मानवीय संवेदना की बात हिन्दी समाज उठाता है वो सारे एलीमेंट वहां मौजूद है। हां, लेकिन ये हमारी-आपकी तरह रिसर्च नहीं कर सकते। क्योंकि देश की यूनिवर्सिटी ने ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की है कि कोई पत्रकार साल-दो साल की छुट्टी लेकर कोई रिसर्च करे और यूनिवर्सिटी इस काम के लिए फेलोशिप दे। हिन्दी मीडिया का भी कलेजा इतना बड़ा नहीं है कि वो अपने चैनल के पत्रकारों को रिसर्च करने के लिए प्रोमोट करे।
लेकिन मिहिर ने हिन्दी में मीडिया पर रिसर्च करनेवालों के संबंध में जिस 'फर्स्ट हैण्ड' की बात की है उसका तो प्रावधान है ही। थोड़ी सी कोशिश करके कोई भी रिसर्चर मीडिया के किसी भी चैनल में इन्टर्नशिप तो कर ही सकता है। महीने-दो महीने में इतना तो समझ ही जाएगा कि चैनलों में काम कैसे होते है, मीडिया कल्चर है क्या और स्पेस का क्या महत्व है। एमफिल् के दौरान इसके लिए पर्याप्त समय होता है लेकिन कोई पहल तो करे। तब यकीन मानिए, इन्टर्नशिप कर लेने के बाद कोई भी हिन्दी रिसर्चर इतने बचकाने ढंग से दुराग्रही होकर मीडिया पर रिसर्च नहीं करेगा और उसके काम की नोटिस मीडियाकर्मी भी लेंगे जो कि मीडिया रिसर्च का जरुरी उद्देश्य है।
आगे पढ़िए- मानसिकता बदलने में ही रह जाते हैं हिन्दी के लोग
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1 Response to 'लिटरेचर के औजार भोथरे हैं, मीडिया को समझने के लिए'
  1. इष्ट देव सांकृत्यायन
    https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_09.html?showComment=1207732440000#c4343692904278872455'> 9 अप्रैल 2008 को 2:44 pm बजे

    थोड़ा सुधार कर लीजिए विनीत जी. बाजार और पूंजीवाद से विरोध पूरे साहित्य जगत का नहीं, साहित्य जगत के सिर्फ़ एक तबके का रहा है. वह भी गोलबंदी और हठधर्मिता का मामला ज्यादा है. निजी व्यवहारों में देखें तो वे स्वयम अत्यन्त बाजारवादी है. दूसरी बात ये है कि मीडिया में सोचने-समझने वाला जो तबका है वह वही है जिसका किसी न किसी रूप में साहित्य से संबंद है या रहा है. जो साहित्य के बगैर मीडिया में आए लोगों को न तो समाज की कोई चिंता है और मूल्यों-मान्यताओं की. अकादमिक जगत में मीडिया पर जो काम हो रहे हैं उनमें ज्यादातर हकीकत से बहुत दूर हैं. वजह वही जो मिहिर बता रहे हैं. आपने मुद्दा बहुत बढ़िया उठाया है. लेकिन वास्तव साहित्य-मीडिया और पूंजी इन तीनों के अंतर्संबंधों पर गंभीरतापूर्वक और ईमानदारी से काम किए जाने की जरूरत है.

     

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