हिन्दी मीडिया में एक और बीमारी है। आपको अगर बीमारी कहने से परहेज है, दिक्कत लगती है कहने में तो कहिए कि रिवाज है कि लोग मीडिया में अंदर लाने के पहले और अंदर आ जाने के बाद आप से जरुर पूछेंगे कि आप कहां से हो। अगर जानकारी के स्तर पर पूछ रहे हैं तब तो कोई बात नहीं लेकिन आगे पूछना तब तक जारी रहेगा जब तक कि उनकी जानकारी का फलक आपसे मेल नहीं खाता हो। कुछ न कुछ तो उनके हिसाब से मिलना ही चाहिए। मसलन आपने कहा कि मैं बिहार से हूं तो फिर आगे का सवाल होगा- बिहार में कहां से। आपने कहा रांची से तब वो सीधे अड़ जाएंगे। अजी रांची बिहार में कहां है उ तो झारखंड है। आप दलील दें कि मेरे मैट्रिक की सर्टिफिकेट में तो रांची बिहार ही लिखा है। आज अलग हुआ है न, मानता अपने को बिहारी ही हूं। आपके मानने से दुनिया मानने लग जाएगी क्या। हमलोग के मुंह का निवाला छीन लिए, बिहार का बंटवारा करके आपलोग महाराज और कह रहे हैं कि बिहारी है।
खैर, आगे अपनी अकड़ बरकरार रखते हुए कहेंगे कि- हमरे छोटके चचा भी थे रांची में। अब तो अशोकनगर में कोठी भी बनवा लिए हैं। वो अपने चाचा की कोठी का हवाला रांची के ऐसे इलाके का देंगे जो कि सबसे मंहगे, पॉस इलाके में हो। आप जी जी करते रहेगें और वो आपको इस बात का एहसास कराते रहेंगे कि मीडिया में वो घसीट कर नहीं आए हैं। वाकायदा एक प्लॉनिंग के तहत आए हैं। मेरी तरह बिलटउआ नहीं है कि कहीं कुछ नहीं हुआ तो मुंह उठाकर चले आए मीडिया में। उनके मामू भी लम्बे समय तक प्रभात खबर में लिखते रहे हैं। पूरा पढ़ा-लिखा बैग्ग्राउंड रहा है।
खैर, आगे आपसे कहेंगे कि पूरा नाम बताइए। आप या हम जो कि आमतौर पर बिहार-झारखंड के लोग करते हैं कि नाम के बाद सीधे कुमार लिखते हैं। आप भी अपने नाम के साथ कुमार जोड़कर बताएंगे। तब वो आपके बाबूजी का नाम पूछेंगे, इस उम्मीद से कि बाबूजी के नाम के बाद तो जरुर कुछ ऐसा पुच्छल्ला लगा होगा जिसके कि आगे का सूत्र समझा जा सके। आपने कह दिया सेठ, भदानी या फिर कुछ ऐसा पुच्छल्ला जिससे कि उनका कोई मैच नहीं खाता हो तो सीधे कहेंगे। त हियां क्या करने आ गए। बढिया था, बाबूजी के काम में हाथ बंटाते, गलत जगह फंस गए दोस्त। यहां तुमको कितना मिल जाएगा। बीस हजार, पच्चीस हजार, बहुत हुआ तो तीस हजार। एकदम से प्रणव राय या प्रभु चावला तो बन नहीं जाओगे। चौदह घंटे-पंद्रह घंटे रगडोगे, तब जाकर गिनकर रोटी मिलेगी महीने के अंत में।बाबूजी के बिजनेस में कोई गिनती है, बताऔ। थोड़ी देर के लिए मैं भी याद करता हूं कि कैसे पापा रोज अलमारी में उतने पैसे रखते हैं जितने एक मीडियावाले को महाने भर में देखने को मिलते होंगे। एक मन करता है ठीक ही तो कह रहे हैं कि कौन-सा तीर मार लूंगा मैं। फिर पापा का चेहरा और उनकी बातें याद आ जाती है कि गए हो मुंह में माइक घुसानेवाला पेशा अपनाने तो वहीं रहो, दिल्ली में । घर वापस आने की कोई जरुरत नहीं है। बाप रे...रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सो हिम्मत समेट कर कहता हूं, सर कुछ अलग करना चाहता हूं। मुझे बिजनेस मैन का छ-पांच करना अच्छा नहीं लगता। हमसे किसी को झूठ बोलकर माल बेचा नहीं जाता। वो हुं हुं करेंगे।...मूड में होगें तो कहेंगे॥ लीजिए, तिवारीजी आपका एक और भतीजा, बात विचार से ही राजा हरिशचन्द्र लग रहा है और फिर ठहाके। अच्छा इंटरव्यू लेनेवालों में सब एक तरह के नहीं होगें। कुछ नरम मिजाज के भी होंगे, थोड़ा अपनापा दिखाएंगे। बीच-बीच में कहेंगे॥बच्चा है जरा नरम होकर ही पूछिए सिंहजी। आप तो लहुलूहान करने पर लगे हैं। आपको अच्छा लगेगा।
तब तक तीसरा सवाल-बायोडाटा में लिखे हो कि हिन्दू कॉलेज से एमए हो। हिन्दू कॉलेजवाला तो रामजस कॉलेज वाले को बहुत गरियाता है। एक बार की बात है, सिंहजी। हमरे साथ एगो लड़की थी...शोभा। पढने में तो ठीक थी ही लेकिन बाकी चीज में भी....हाहहाहाहाहा.....उसको एगो हिन्दू का लड़का ऐसा सिखा पढ़ा दिया कि अगले दिन से हमको देखे तो मुंह फेर ले। फिर हमसे ताजा जानकारी लेंगे। अभी कौन है प्रेसीडेंट वहां। हम बताते हैं कोई रावत या अहलावत। वो बिफर जाते हैं। तू तो नहीं ही दिया होगा बिहारी को वोट। तुम्ही जैसे लोगों के कारण दिल्ली में इ हाल हुआ है।
अब हिन्दी से हूं तो थोड़ा मनोरंजन भी तो करनी हैं उनकी। पहले पूछते हैं कौन-सा कवि पसंद है। हमने सीधे कहा-जी मुक्तिबोध, नागार्जुन और रघुवीर सहाय। उन्होंने फिर सवाल किया- काहे। मैंने कहा- जी इसलिए कि उनको पढ़ते हुए लगता है कि वो सिर्फ कवि की हैसियत से नहीं लिख रहे हैं बल्कि समाज को बेहतर करने में खुद भी शामिल हो जाते हैं, जनविरोधी सत्ता से सीधे टकराते हैं और साफ कहते हैं-
अब अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ सब।.....
उनकी रचनाओं में वो सारी बातें शामिल हैं जो एक पत्रकार के ज़ज्बे को बनाए रखता है। सिंहजी कहगें- बहुत खूब। लेकिन तिवारीजी का कहना होगा- वाजपेयीजी की कविताओं में कौन खराबी है। सर, खराबी तो नहीं लेकिन मुझे बस यही पसंद हैं। तिवारीजी का अगला सवाल होगा-लाल उल झंडे के टच में हो क्या।.... और अगले ही मिनट मुझे लगता है कि ये तो सिंहजी से भी ज्यादा.......... हैं। एक दो इसी तरह के कुंडली मिलान सवालों को पूछने के बाद छोड़ दिया जाता हूं।....एक स्वर में सारे लोग कहते हैं-जैसा होगा, बताएंगे, फोन ऑफ मत रखना।
अगले दिन फोन आता है- एक भी चीज ऐसी तुम नहीं बोले जिससे कि तुमको रखने का ग्राउंड बने। न जात ही मिलता है, न फारवर्ड ही हो, न तो ठीक से बिहारी ही हो। डीयू में पढ़े भी हो तो ऐसे कॉलेज से जहां सब हमरा दुश्मन ही था, कोई पनपने नहीं दिया। शोभा से अलगाया सो तो अलगाया ही, ५५ प्रतिशत नं भी नहीं बनने दिया एमए में भी कि पीएचडी और लेक्चररशिप के लिए सोचते। सिंहजी तो बमक गए थे। हम सब संभाल लिए। बोले कि कंडीडेट ठीक-ठाक है। हम पर छोड़ दीजिए। तब जाकर बात बनी है। अब अंदर जाकर कुछ गड़बड़ मत करना, कोई परेशानी हो तो हमको बताना और हां सिहंजी से भी बहुत लुस-फुस करने की जरुरत नहीं है। ससुराल के आदमी मिल गए और घर जाकर मिसेज को बताए कि तुमरे नैहर का एक लड़का मिल गया इंटरव्यू में तो उसने कहा कि कर दीजिए। तब जाके हुआ है।
लीजिए, अब हमको इतना भी अधिकार नहीं है कि मैं अपनी योग्यता पर ताल ठोककर कह सकूं कि-देखो दुनियावालों अपने दम-खम पर पत्रकार बनके दिखा दिया। बाबूजी आपका लड़का माइक और कलम घुसाकर इन दो कौड़ी के नेताओं और दलालों से सच उगलवा लेगा....समझे सरजी। कुछ ऐसे ही अनुभव रहे थे जब एमफिल् की डिग्री के लिए मैंने अपने रिसर्च पेपर जमा किए थे और सोच रहा था कि आगे कि नैय्या पार कैसे लगेगी।....और दो दिन बाद ही देश के सबसे ज्यादा बिकनेवाले( तब, अभी का पता नहीं) अखबार ने मुझे बतौर ग्यारह हजार की नौकरी पर रख लिया था। ये अलग बात है कि सबकुछ हो जाने के बाद कभी चंड़ीगढ़, कभी, दिल्ली, कभी राजस्थान और कभी भोपाल के नाम पर टरकाता रहा और अंत में कहा-जैसा होगा, फोन करेंगे।.....
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post.html?showComment=1207079220000#c8423170238510260320'> 2 अप्रैल 2008 को 1:17 am बजे
aapaka blog niyamit padata hu.aapaki bhasha achchi hai aur pada le jati hai.hindi media ke bare mein aapaki tippni sahi lagati hai. aur ub bhi hoti hai.jindai mei her jagah kuch n kuch problem to hai hi.nayi pidi ko ise sudharane ka prayas karana chahiye.
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post.html?showComment=1207104180000#c5821618433434272906'> 2 अप्रैल 2008 को 8:13 am बजे
ये अनुभव पढना अच्छा लग रहा है ,मीडिया के ग्लैमराइज़ेशन से मोह भंग है यह !
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post.html?showComment=1207107360000#c1523210466114105676'> 2 अप्रैल 2008 को 9:06 am बजे
sujata,aap ise media se mohbhang na kahe,ph.d karne ke baad mai media me hi jaana chaahhta hoo,lekin waise nahi,jaise laut kar aaya hoo.media se mera kabhi mohbhang nahi hua hai.
https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post.html?showComment=1207124040000#c5683831959081668733'> 2 अप्रैल 2008 को 1:44 pm बजे
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https://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post.html?showComment=1207124160000#c5701347893500091374'> 2 अप्रैल 2008 को 1:46 pm बजे
बंधु विनीत, सही कहा!! मुझे नही लगता कि मीडिया में रहे प्राणी का मीडिया से मोहभंग हो सकता है!! हां भले ही इन सब राजनीति के चलते कुछ समय के लिए ऊब पैदा हो सकती है लेकिन लौट कर वहीं जाना होता है!!
ठीक अपने शहर की तरह जहां बार-बार लौट कर आना ही होता है क्योंकि वह अपना शहर है जो अपने होने का एहसास कराता है!