tag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post4546241671434970327..comments2023-10-26T18:12:59.863+05:30Comments on साइड मिरर: गलत स्पैलिंग के आगे जनसत्ता फुस्सविनीत कुमारhttp://www.blogger.com/profile/09398848720758429099noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post-66025523550331231562008-08-18T15:22:00.000+05:302008-08-18T15:22:00.000+05:30विनीत जी,गलती तो कहीं और किसी से भी हो सकती है. जन...विनीत जी,<BR/>गलती तो कहीं और किसी से भी हो सकती है. जनसत्ता में एक फोटो कैप्शन में १८५७ की जगह १९५७ लिखे जाने पर आपने लंबा लेख लिखा है. यह गलत है. ठीक उसी तरह जैसे आपने अपनी आपबीती में लिखा है कि फिलहाल मनोरंजन प्रधानों चैनलों की भाषिक संस्कृति पर डीयू से पी.एच.डी कर रहा हूं. यहां मनोरंजन प्रधानों...भी तो गलत है. यह प्रधान होना चाहिए. मैंने तो अपनी बात को समझाने के लिए महज एक मिसाल दी है.<BR/>धन्यवादप्रभाकर मणि तिवारीhttps://www.blogger.com/profile/08797290149323046123noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post-38206231434562853172008-04-21T13:14:00.000+05:302008-04-21T13:14:00.000+05:30Thanvi ji ke raaj me yahi dekhane ko milga mere do...Thanvi ji ke raaj me yahi dekhane ko milga mere dost...ab unhe naye logon ke liye jagah khali kar deni chahiyeAshish Maharishihttps://www.blogger.com/profile/04428886830356538829noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post-57436925026759897302008-04-20T18:59:00.000+05:302008-04-20T18:59:00.000+05:30जनसत्ता ने जब मुंबई से अपनी दुकान समेटी थी तभी सम...जनसत्ता ने जब मुंबई से अपनी दुकान समेटी थी तभी समझ में आ गया था कि ये समूह हिंदी अखबारों को गंभीरता से नहीं ले रहा है । जनसत्ता एक संस्कृति एक संस्कार का नाम था । प्रभाष जी के लेखों से लेकर सुधीश जी विश्लेषण तक और जनसत्ता के रविवारीय संस्करण में मुंबई में आने वाली सबरंग पत्रिका तक सबने हमारी जिंदगी में अपनी जगह बनाई । पर जनसत्ता अब धर्मयुग के रासते पर चल पड़ा है । सारिका, धर्मयुग और पराग की तरह हम जनसत्ता को भी अतीत के खुशनुमा अखबार की तरह याद करेंगे । दुखद है ये हाल ।Yunus Khanhttps://www.blogger.com/profile/12193351231431541587noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post-61464251349984635982008-04-20T13:48:00.000+05:302008-04-20T13:48:00.000+05:30विनीत भाई दु:ख इस बात का है कि ग़लती होने के बाद आज...विनीत भाई दु:ख इस बात का है कि ग़लती होने के बाद आजकल अख़बार उस पर खेदप्रकाश भी नहीं करते.ये खेद आजकल ज़ाहिर सूचनाओं की कम्पोज़िंग में हुए ग़लतियों के लिये ही किया जा रहा है क्योंकि मालूम है कि ऐसा नहीं किया तो इश्तेहार का भुगतान एजेंन्सी या ग्राहक नहीं करने वाला है. कई शब्द हैं जो इनदिनों अख़बारों में ग़लत इस्तेमाल हो रहे हैं जिन्हें तारीफ़ ए क़ाबिल (क़ाबिले-तारीफ़)ही समझा जा रहा है...सच कहूँ काम करने का क्ल्चर,तमीज़ और संजीदगी ही ख़त्म हो चली है.sanjay patelhttps://www.blogger.com/profile/08020352083312851052noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post-52168686103817166212008-04-20T11:50:00.000+05:302008-04-20T11:50:00.000+05:30बहुत बढ़िया बंधु!!सहमत!बहुत बढ़िया बंधु!!<BR/>सहमत!Sanjeet Tripathihttps://www.blogger.com/profile/18362995980060168287noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post-18440578882145741542008-04-20T11:41:00.000+05:302008-04-20T11:41:00.000+05:30जनसत्ता से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी.जनसत्ता अखबार ...जनसत्ता से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी.<BR/><BR/>जनसत्ता अखबार का मैं भी कायल हूं पर जनसत्ता जानबूझकर खुद को खत्म करने में जुटा है.<BR/><BR/>बाजारवादी ताकतों के सामने न झुकने के नाम पर उसने तकनीक से दूरी बढ़ा ली है और ये जो हार्डकोर रीडरशिप है इसके बाद जनसत्ता कैसे जिंदा रह सकेगा ?bhuvnesh sharmahttps://www.blogger.com/profile/01870958874140680020noreply@blogger.com