हमें पूरा भरोसा है कि इंटरनेट पर हिंदी लेखन और ब्लॉगिंग को लेकर मृणाल पांडे की जो समझ है, उसमें हम जैसे लोगों के लिखने से रत्तीभर भी बदलाव नहीं आएगा। इसकी वजह भी साफ है। एक तो ये कि वो जिस आयवरी टावर पर चढ़कर अपनी बात रख रही हैं, उसकी पहुंच शायद हमलोगों तक नहीं है। दूसरी बात कि लिख-पढ़कर किसी की भी समझ को फिर भी दुरुस्त किया जा सकता है या फिर खुद भी दुरुस्त हुआ जा सकता है। लेकिन जहां पूरा का पूरा मामला नीयत पर आकर ठहर जाए वहां आप इस बात की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं कर सकते कि कुछ बदलने की गुंजाइश है। मृणाल पांडे इंटरनेट और ब्लॉग पर लिखी जा रही बातों, कंटेंट और मटीरियल को कितना पढ़ती है, ये मैं नहीं जानता। मुझे नहीं पता कि न्यू मीडिया पर बात करते हुए वो जब भी कुछ लिखती हैं, तो कैंपस में चेले-चुर्गों की तरह सुनी-सुनायी बातों के आधार पर बात करनेवाले मास्टरों की तरह ही राय बना लेती हैं या खुद भी उससे गुजरती हैं। लेकिन इतना तो तय है कि अगर वो पढ़ती भी हैं तो चुपचाप वहां से होकर गुजर जाती हैं। वो इस बात की जरूरत कभी भी महसूस नहीं करतीं कि अगर लिखी गयी बातों या पोस्ट को लेकर असहमति है तो सीधे कमेंट के जरिये अपनी बात रखें। यानी मृणाल पांडे वर्चुअल स्पेस में लगातार लिखनेवाले लोगों से संवाद बनाने के बजाय उनके प्रति व्यक्तिगत राय बनाना ज्यादा पसंद करती है। उसके बाद अखबारों के संपादकीय या फिर कॉलम में उसे उंड़ेल देना ज्यादा जरूरी और फायदेमंद मानती हैं।
ऐसा लगातार किये जाने से कंटेंट से कहीं ज्यादा दो माध्यमों के बीच पसंद-नापसंद का मामला बन जाता है और ऐसे में वो जो कुछ भी लिखती हैं, उसमें विश्लेषण के बजाय न्यू मीडिया को लेकर नापसंद के स्वर साफ तौर पर झलकते हैं। ये उनके हिंदुस्तान में रहते हुए संपादकीय में लिखे गये लेख में भी रहा और अब जनसत्ता के कॉलम में लिखे गये लेख में भी बरकरार है।
यानी न्यू मीडिया पर मृणाल पांडे ने अब तक जो कुछ भी लिखा है, उसे विश्लेषण समझने के बजाय उऩकी नीयत और नापसंद का मामला मानना बेहतर है। ये सब जानते हुए भी हम लिख रहे हैं और आगे भी लिखते रहेंगे क्योंकि हम नहीं चाहते कि किसी की नीयत और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का एक बहुत बड़ी संभावना के बीच घालमेल हो जाए। आगे जाकर वो जबरिया अवधारणा कहलाने की मांग करने लग जाए। मृणाल पांडे ये कोशिश आगे भी करती रहें, इससे बचने के लिए मोहल्ला लाइव पर ही एकलव्य (अगर वो कुंठासुर नहीं हैं तो इलाहाबाद राष्ट्रीय संगोष्ठी से उधार में मिला शब्द) नाम के एक साथी ने कमेंट किया है कि मृणाल जी जिस दिन इस नये माध्यम पर आएंगीं, उसी दिन उन्हें समझ में आ पाएगा कि मैनेज की गयी प्रतिष्ठा और मिले-मिलाये ज्ञान से आगे भी बहुत कुछ होता है। यहां एक-एक करके बड़े-बड़े क़ाग़ज़ी शेरों की असलियत निकल कर आ रही है। क्योंकि यहां भोपाल के निकट किसी गांव से लेकर बीच दिल्ली और सुदूर कनाडा के लोग एक साथ एक ही वक्त पर बिना किसी हस्तक्षेप के हिस्सा लेते हैं। संपादन के नाम पर सेंसर यहां नाम-मात्र के लिए होता है। यह किसी अख़बारी किले का सुरक्षित कालम नहीं है कि आप तो जो मर्ज़ी कह दें और प्रतिक्रियाओं में अपने ‘कद’ के मुताबिक काटा-पीटी कर लें।
एकलव्य मृणाल पांडे को ये सुझाव उस थीअरि (थ्योरी) के तहत दे रहे हैं, जिसमें लड़की को अबूझ और अल्हड़ बताकर, उसके अल्हड़पन को दूर करने के लिए शादी जैसी जिम्मेदारी में बांधने की बात की जाती है। गांव-कस्बे के आवारा लड़कों को भी बाप के पैसे उड़ाने पर इसी थीअरि के तहत फैक्ट्री, खेत या दुकानों में जोत दिया जाता है। साहित्य में इसे अनुभूत सत्य का ज्ञान कराना कहा जाता है, जिसे कि मुहावरे के तौर पर जे गुड़ गंजन सहे, वही मिसरी कहाय के तौर पर समझा जा सकता है। एकलव्य ये उम्मीद कर रहे हैं कि अगर मृणाल पांडे ने वर्चुअल स्पेस में लिखना शुरू कर दिया तो आये दिन अपनी नीयत और नापसंद के बूते अखबारों के कागज खोटा नहीं किया करेंगी। जो भी लिखेंगी वो न्यू मीडिया के विश्लेषण का हिस्सा होगा। एकलव्य के इस सुझाव में एक हद तक सच्चाई तो है लेकिन एक खतरनाक स्थिति भी है। ये स्थिति है कि दिल्ली से बाहर बैठा मास्टर दिल्ली के स्टूडेंट से टाइप करा-करा कर किताबों के हिस्से ब्लॉग पर डलवा रहा है। हसरत बस इतनी भर की है कि वर्चुअल स्पेस में वो चर्चा में बने रहें और उन्हें आउटडेटड न समझा जाए। अब ऐसी स्थिति में कोई क्या महसूस कर सकता है कि इंटरनेट और ब्लॉग लेखन में क्या किया जाए और कैसे ये एक संभावनाओं से लैस माध्यम है। इससे तो किसी की मेहनत ही हलाल होती रहेगी। इसलिए एकलव्य का सुझाव ईमानदार सच होते हुए भी खतरनाक स्थिति की तरफ मुड़ता है। ब्लॉग के विस्तार के लिए कोई ऐसी कोशिशें न ही करे तो बेहतर होगा।
बहरहाल, इस चक्कर में पड़ने के बजाय हम सिर्फ इस बात पर विमर्श करें कि मृणाल पांडे के ऐसा करने के पीछे कौन सी रणनीति काम कर रही है? कहीं ये पसंद-नापसंद और नीयति से आगे का मामला तो नहीं?
न्यू मीडिया और ब्लॉगिंग पर लिखे उनके लेखों में अब तक दो बातें तो साफ तौर पर दिखाई देती हैं – एक तो ये कि उनके लिखने का पहला ध्येय होता है कि वो वर्चुअल स्पेस में लिखनेवाले लोगों को गाय-गोरु की तरह हांकने का काम करें। पूरा लेख हुर्र, हुर्र और धत्-धत् की शैली में होता है। इस लेख के जरिये वो कई बार पर्सनल खुन्नस भी निकालने में नहीं चूकती हैं जिसे कि हमने हिंदुस्तान के संपादकीय में लिखे लेख को पढ़ते हुए समझा है। एक-दो वेबसाइटों के बहाने कैसे उन्होंने पूरे हिंदी वेबमीडिया को परिभाषित करने का काम किया, ये हम सबसे छिपा नहीं है। इसलिए ये लेख पाठकों के प्रति ईमानदारी बरतते हुए किसी भी तरह की नॉलेज शेयरिंग के बजाय अखाड़ों के पैंतरे बतलाने के लिए लिखे गये। बदले की उस भावना के तहत लिखे गये कि तुम्हारे पास कांव-कांव करने के लिए ब्लॉग या वेबसाइट का छज्जा है, तो मेरे पास दहाड़ने के लिए संपादकीय और कॉलम के डेढ़ से दो कठ्ठे की जमीन में फैली अटारी है। यकीन न हो तो जनसत्ता के लेख की भाषा में ही देख लीजिए, ब्लॉग-जगत के चंद नियतिहीन कोनों में हिंदी के कुछ मीडियाकर्मी न्यूयॉर्क की सड़कों पर पखावज बजा कर कीर्तन करने वाले हरे-कृष्ण अनुयायियों की तरह कुछेक सुरीले-बेसुरे नारे जरूर उठा रहे हैं; पर उनके सुरों में दम नहीं। हो भी कैसे? जिन अखबारों को वे इन पाप-कर्मों का दोषी बता रहे हैं, वहां नौकरियां खुलते ही वे सब हो हो कर उमड़ कर हर तरह की घिनौनी चिरौरी और सिफारिशी प्राणायाम साधने में तत्पर हो जाते हैं।
अब ऐसे में वो ब्लॉगर और वेबसाइट के लोगों पर इस बात का आरोप लगाती हैं कि सब अपनी-अपनी भड़ास निकाल रहे हैं और जजमेंट देती हैं कि इन सुरों में दम नहीं है तो सवाल तो किया ही जाना चाहिए कि आप कॉलम का इस्तेमाल इनसे अलग किस रूप में कर रही हैं?
दूसरी बड़ी बात है कि मृणाल पांडे न्यू मीडिया के तौर पर विस्तार पानेवाली साइटों और ब्लॉग की संभावना को साफ तौर पर खारिज कर रही हैं। वो इसे अखबार के विशाल पाठक वर्ग के बीच जो कि इंटरनेट के पाठकों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है, लाना ही नहीं चाहतीं। अभी तो इसका कायदे से विस्तार भी नहीं हुआ है और ये पारिभाषित करने और अंतिम रूप में देखा-समझा गया मान ले रही हैं। ऐसा ही काम कभी मैथ्यू आर्नाल्ड ने the best has been said लिखकर किया था, जिसका शिकार एक खास तरह का एलीट क्लास भारत में भी मौजूद है। ये अलग बात है कि अवधारणा और व्यवहार के स्तर पर ये बुरी तरह पिट चुका है। मृणाल पांडे क्या, आज एक औसत दर्जे के पढ़े-लिखे इंसान को पता है कि ब्लॉग के जरिये जो कुछ भी लिखा-पढ़ा जा रहा है, वो सूचना और सरोकार के स्तर पर कितनी जरूरी कार्यवाही है। मैं गिनती गिनाने की शैली में बात नहीं करना चाहता। लेकिन एक माध्यम के तौर पर मृणाल पांडे को इसमें कहीं कोई संभावना नहीं दिखती है? उन्हें सिर्फ चंद लोगों का कांव-कांव ही दिखता है। अगर ऐसा ही है तो क्या ये सिर्फ इंटरनेट पर लिखी जा रही हिंदी सामग्री का खोटापन है या फिर ये एक तरह से मृणाल पांडे के व्यक्तिगत रुझान और मुद्दों के प्रति दिलचस्पी को भी रेखांकित करता है।
दुनियाभर के लोग न्यू मीडिया के विस्तार के लिए सॉफ्टवेयर पर काम कर रहे हैं। हजारों की संख्या में सॉफ्टवेयर इंजीनियर से लेकर टेक्नोसेवी लेआउट और बाकी तमाम चीजों को लेकर काम कर रहे हैं। जिंदगी भर एक लेख नहीं लिखनेवाला बंदा भी दम मारकर दो दिन-तीन दिन में एक पोस्ट लिख ले रहा है। सैकड़ों स्त्रियां पति-बच्चों की रेलमपेल जिंदगी के बीच से समय चुराकर लिख-पढ़ रही हैं, मृणाल पांडे को ये सब कुछ भी नहीं दिख रहा? आप कहेंगे हद है। हद उनके जानने, समझने और दिखाई देने में नहीं है। हद इस बात को लेकर है कि सब कुछ जानते हुए भी वो इसे पाठकों तक नहीं ला रहीं। वो इन सब बातों से अवगत कराने के बजाय तुक्कम-फजीहतों को सामने ला रही हैं, अपने स्तर से रीक्रिएट कर रही हैं ताकि आम पाठकों का इससे जुड़ने के पहले ही मोह भंग हो जाए। नहीं तो जनसत्ता के जिस लेख में जो बातें वो कर रही हैं उसमें चंद लोगों की करतूतों के अलावा भी सैकड़ों ऐसे मुद्दे हैं जो कि उनकी अब तक की सरोकारी पत्रकारिता के मिजाज से मेल खाते हैं। लेकिन उन पर नीयत हावी है और विश्लेषण का इरादा कोसों दूर पीछे छूट गया है।
वैसे ब्लॉगिंग की तमाम उपलब्धियों के बीच एक बड़ी उपलब्धि है कि उसने मेनस्ट्रीम मीडिया को अपने भीतर झांकने के लिए दबाव बनाना शुरू किया है, जिसे कि वो कभी नहीं लिखतीं। ये ताकत मृणाल पांडे सहित देश के दूसरे किसी भी पत्रकार की ताकत से कहीं ज्यादा है, जो तिकड़मों से झल्ला कर सेफ जोन में आने पर लिखने के बजाय पहले से ही विश्लेषण के तौर पर लिखता-समझता है। आज संख्या कम है, जिसके लिए वो नये नये मेटाफर इस्तेमाल कर ले रही हैं लेकिन कल यकीन मानिए ये संख्या गिनती के बाहर होगी। हम कामना करते हैं कि ऐसे वक्त में उनकी नजर का दायरा बढ़े और उनकी लेखनी से चंद शब्द जल्द ही गायब हो जाए।
मूलतः प्रकाशितः मोहल्लालाइव
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https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264573785136#c1267071065826714686'> 27 जनवरी 2010 को 11:59 am बजे
धृतराष्ट्र केवल एक नाम नहीं एक अवस्था का चित्रण है .असल में इस माध्यम के विस्तार पर सबकी पैनी निगाह है . अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में इसका प्रभाव देखा जा चुका है .
इस माध्यम पर नियंत्रण या हावी होने के प्रयास भी प्रारम्भ हैं .लेकिन ये एक ऐसी आँधी है जिसे रोक पाना संभव नहीं .
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264574588651#c8124022295224463098'> 27 जनवरी 2010 को 12:13 pm बजे
आपके आलेख ने और मृणाल पांडे के दोनों आलेखों से इतना तो ज्ञात हो ही गया कि उन्होंने यह सब सुनी सुनाई बातों पे लिखा है...उन्हें इसकी कोई first hand जानकारी नहीं है और यह जानने के लिए वे कोई समय भी नहीं देना चाहतीं.क्यूंकि जब उनकी बात सुन कर ही लोग ब्लॉग्गिंग को सिरे से ही खारिज कर दे रहें हैं तो वे सच जानने का प्रयास क्यूँ करें?...यह कहीं प्रिंट मीडिया के मन में छुपा डर तो नहीं बोल रहा?...ब्लॉग्गिंग को अभी वहाँ तक पहुँचने में बहुत समय लगेगा...पर भावी पीढ़ी इसका जम कर उपयोग करने वाली है,इसमें कोई शंका नहीं.
मृणाल जी,का कहना है,प्रिंट मीडिया कि तरह वे रातोरात पत्रकारों की फौज नहीं खड़ी कर सकते..और सूचनाओं के लिए प्रिंट मीडिया पर ही निर्भर रहना पड़ेगा.पर यहाँ तो हर ब्लॉगर ही एक पत्रकार की भूमिका निभा सकता है...जिसके आस-पास कोई घटना घटती है,वे उनका आँखों देखा हाल बयाँ कर सकते हैं...दूर से किसी पत्रकार के पहुँचने की आवश्यकता ही क्या है?
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264576904976#c6794829595189126205'> 27 जनवरी 2010 को 12:51 pm बजे
शानदार लेख.
जनसत्ता में मृणाल जी का लेख पढ़ा. पढ़कर लगा जैसे वे कॉलम नहीं लिख रहीं बल्कि साहित्य-सृजन कर रही हैं. जब एक मुद्दे पर अखबार जैसे माध्यम पर लिखा जाता है तो लेख में 'बिम्ब' फिट करने जैसा चिरकुट काम नहीं करना चाहिए. केवल यह दिखाने के लिए कि; "देखो, मेरी लेखनी कितनी सशक्त है", लोग ऐसा करते हैं. अखबार के पाठक से मुखातिब हो रहे हैं किसी लाइब्रेरी के झोला लटकाऊ पाठक से नहीं.
यह बात कब सीखेंगे हिंदी में कॉलम लिखने वाले लोग?
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264597376409#c960221983137118817'> 27 जनवरी 2010 को 6:32 pm बजे
TV pe abhisek bachhan ke IDEA wale vizyapan se kaagaj bachaaney ka idea MOBILE se itni jaldi nahi hoga jitni tezi se blog lekhan se hoga. kam se kam mrinal ji ko ye sambhavna nazar aani chahiye:)
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264605705608#c2480384251465778303'> 27 जनवरी 2010 को 8:51 pm बजे
This is nothing but a genaration gap only. It is a fact that old generation people find difficult to connect with new idea, technology etc...In the language of science, it is called inertia, i.e, reluctance to change of state (here mind set?).
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264620916643#c8017907788343560882'> 28 जनवरी 2010 को 1:05 am बजे
इसे कह्ते हैं खरी-खरी।बधाई आपको बेबाक लेखनी की।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264622084995#c4112370749357418292'> 28 जनवरी 2010 को 1:24 am बजे
इसे कहते है सत्ते पर सत्ता । बहुत खूब लिखा है आपने।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264653244544#c8853782761247435433'> 28 जनवरी 2010 को 10:04 am बजे
मृणाल पाण्डे जी लिखती हैं कि एकतरफा कार्यवाही का क्या करें? यही प्रश्न तो आजतक आम व्यक्ति इन पत्रकारों से पूछता रहा है कि तुम जो चाहो वो छाप दो, बेचारा आम आदमी की कोई सुनता नहीं। ये सारे ही पत्रकार किसी के लिए कुछ भी लिखने को खुला छोड़ दिये गए हैं। अब ब्लाग पर लोग सच्चाई लिख रहे हैं तब इन्हें डर लग रहा है। अच्छी पोस्ट, बधाई।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264659172952#c5593628586405653299'> 28 जनवरी 2010 को 11:42 am बजे
पहले तो विचारणीय ये है कि उनके लिखे से किसका साहस डिगा है, या किसी ने उनकी हुर्र-हुर्र धत् धत् से अपना ब्लॉग डिलीट किया है। इन्हें आलोचना का अधिकार है। हमें नहीं। यही हैं हिंदी के झंडाबरदार, हम नहीं। इन पर आरोप लगे तो तिलमिला उठीं। इन्हीं के संस्थान में काम करने वा जब इनसे आजिज़ आए तो उन्होंने ही तमाम आरोपों की चिटें इनके माथे चेप दीं। हमारा क्या गुनाह है विनीत। हम तो लिख रहे हैं ऊपर से इनके ना समझ आने वाले श्रमजीवी एक्सप्रेस से लंबे वाक्य विन्यास भी झेल रहे हैं। इन्हें कहने दो हमें इनकी आलोचना या शाबासी फर्क नहीं पड़ता है। सिक्का खोटा हो जाए तो किस काम का। न्यूसेंस वेल्यू क्रिएट कर रही हैं, या फिर कहा जाए कि अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ी जा रही है।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_27.html?showComment=1264690999123#c2313646459007706579'> 28 जनवरी 2010 को 8:33 pm बजे
mai to sir ji kuch bol nahi sakta vaise midal ji ko mene sirf 2-4 baar pada hai
by di way
badhai ho sir ji