नेशनल फिल्म अवार्ड 2008 के जूरी मेंबर सुधीश पचौरी के बयान से फिल्म और मीडिया जगत में खलबली मच गयी है। सुधीश पचौरी के इस बयान ने लोगों के इस शक को और पक्का किया है कि सालों से सिनेमा के प्रोत्साहन के लिए दिए जानेवाले राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार का दामन साफ नहीं है। फिल्मों के लिए दिए जानेवाले पुरस्कारों को लेकर दुनियाभर की कहानियां और विवाद सुनने को मिलते रहते हैं। अभिनेता आमिर खान इस प्रक्रिया में न शामिल होने की जब भी वजह बताते हैं तो उसमें कहीं न कहीं इसकी विश्वसनीयता को लेकर उठाया गया सवाल शामिल होता है। लेकिन अबकी बार बतौर जूरी मेंबर सुधीश पचौरी ने जाहिर किया है कि उन पर दबाव बनाने के लिए उन्हें फोन किया गया।
सुधीश पचौरी ने पुरस्कारों की घोषणा के दौरान कहा कि- ये बात हम इसलिए कह रहे हैं कि मानक हमारे इंडीपेन्डेंट रहे हैं। इसलिए मेरी सिफारिश सरकार से उतनी नहीं है जितनी कि स्पर्धियों से है कि वे मेहरबानी किया करें कि ऑब्जेक्टिविटी को लेकर सम्मान उनके मन में होना चाहिए। सुधीश पचौरी के इस बयान को लेकर सूचना प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने कहा कि- उन्हें ये स्पष्टीकरण करना चाहि कि ये जो फोना-फोनी हुए हैं,ये मंत्रालय की तरफ से क्या किसी ने किया है तो मुझे तो बता दें। ये तो मेरे कमरे में आकर बता ही सकते हैं।
अंबिका सोनी ये भले ही समझ रही हो कि पचौरी ने इस मामले में किस ओर से दबाव बनाया गया नहीं बताया लेकिन उन्होंने पहले ही साफ कर दिया कि वो अपने इस बयान में सरकार से कहीं ज्यादा उन प्रतिस्पर्धियों से सिफारिश कर रहे हैं जिनके मन में ऑब्जेक्टिविटी को लेकर सम्मान नहीं है। फोन के जरिए दबाव बनाने के काम सरकार और मंत्रालय में शामिल लोगों ने किया या फिर फिल्म इन्डस्ट्री के लोगों ने,संभव है कि आगे चलकर ये मामला साफ हो जाए। लेकिन फिलहाल इतना तो जरुर साबित हो गया है कि पुरस्कारों के पीछे भारी तोड़-जोड़ का खेल चलता रहता है। प्रतिस्पर्धियों की ओर से दबाव बनाए जाने की बात को अगर हम राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से आगे जाकर बाकी के भी पुरस्कारों में जाकर देखें तो इस बात की भी एक संभावना बनती है कि उसके भीतर भी भारी मैनीपुलेशन का काम होता आया है। वैसे भी देखा जाए तो आज सम्मान किसी भी सिनेमा और उससे जुड़े शख्स को सराहने,प्रोत्साहित करने या सम्मानित करने भर का मामला नहीं रह गया है। पुरस्कार मार्केंटिंग का एक बड़ा हिस्सा बन गया है जो कि आनेवाली फिल्मों में अभिनेता,अभिनेत्री, प्रोड्यूसर सहित बाकी के लोगों को लेकर की जानेवाली स्ट्रैटजी को निर्धारित करता है। सिनेमा मार्केटिंग जब अवार्ड ओरिएंटेड होने लग गए हैं तो ऐसे में इसका मार्केट टूल के लिए इस्तेमाल किया जाना अब मामूली बात समझा जाने लगा है।
ऐसे में सम्मान,स्वाभिमान,प्रोत्साहन जैसे भाव बहुत ही पीछे धकेल दिए जाते हैं। समस्या इस बात को लेकर है कि आज सिनेमा के खेल के भीतर जिस तरह से डिस्ट्रीब्यूशन की राजनीति हावी हो रही है,प्रमोशन को लेकर मार-काट मची है ऐसे में पुरस्कार एक जरिया है जिसके सहारे ये सारे ताम-झाम खड़े किए जा सकते हैं। इसे आए दिन कुकुरमुत्ते की तरह उग गए सम्मान देनेवाली संस्थानों और फोरमों के संदर्भ में देखा जा सकता है।
इसलिए यहां सवाल सिर्फ किसी भी अवार्ड को तमाम तरह के आरोपों और गड़बड़ियों से मुक्त करने भर का नहीं है बल्कि इन पुरस्कारों के जरिए जो मार्केटिंग के जाल बिछाए जाते हैं उसे समझने की जरुरत है। नहीं तो सिनेमा के प्रतिस्पर्धी भी जानते हैं कि जितनी राशि उन्हें नेशनल फिल्म अवार्ड की ओर से मिलनी है उससे उनका दस दिन भी गुजारा नहीं होना है।
ये पुरस्कार उन्हें रिकग्नीशन के लिए भी नहीं चाहिए। उन्हें ये पुरस्कार सिर्फ इसलिए चाहिए कि वो इसे प्रतिस्पर्धा की इस दौड़ में हथियार का रुप दे सकें। नहीं तो रंग दे बसंती,तारे जमीं से लेकर लगान तक को लेकर आमिर खान इसमें कूद नहीं पड़ते। आपकी अदालत के दिसंबर एपीसोड में रजत शर्मा ने सवाल भी किया कि आप इस तरह के समारोह औऱ अवार्ड में इसलिए नहीं पड़ना चाहते कि आपको सीधे ऑस्कर चाहिए? इसका जबाब देते हुए आमिर ने कहा कि वो फिल्में ऑडिएंस के लिए बनाते हैं और अगर ऑडिएंस उसे सराहती है तो फिर अपना काम तो हो गया। आमिर खान ने जिस मासूमियत से बात कही है संभव है कि वो बात इतनी मासूम नहीं है। लेकिन इस बात की समझ तो जरुर पैदा करती है कि अवार्ड को लेकर भारी राजनीति होती है। साथ ही इस राजनीति से अलग हटकर भी अपनी पहचान और ऑडिएंस के बीच पकड़ बनायी जा सकती है।..तो क्या आए दिन जो दुनियाभर के चैनलों,एफएम चैनलों,संस्थानों और ब्रांड़ों की ओर से फिल्मों को सराहे जाने के नाम पर अवार्ड की घोषणा की जाती है वो इन्डस्ट्री में पैर जमाने का एक सुविधावादी तरीका है,डिस्ट्रीब्यूशन और मार्केटिंग के लिए हथियार मुहैया कराने जैसा है कि तुम्हें दागने के लिए तोप नहीं मिले तो क्या हुआ,हम तुम्हें हथगोला दिए देते हैं।
सुधीश पचौरी के इस बयान के बहाने हमें सिनेमा के भीतर पुरस्कार के जरिए मार्केटिंग,नेक्सेस,लॉबी और मार-काट की प्रतिस्पर्धा को समझने की जरुरत है। अगर सिनेमा शुद्ध रुप से व्यावसायिक विधान है या फिर उस रुप में बनाने की कोशिशें जारी है तो भी कुछ तो मानक तय करने ही होंगे। पहचान और सराहे जाने के नाम पर दिए जानेवाले पुरस्कारों को लेकर की जानेवाली तिकड़मबाजी तो नहीं ही चलेगी। नहीं तो जहां तक ऑब्जेक्टीविटी के सम्मान का सवाल है तो मुझे नहीं लगता कि करोड़ों(बहुत जल्द ही अरबों) रुपये के इस खेल में शामिल लोगों के लिए ये बात बहुत महत्व की लगती हो।..
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सुधीश पचौरी ने उठाया सवाल
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https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_4052.html?showComment=1264310252026#c1591292446676873254'> 24 जनवरी 2010 को 10:47 am बजे
सुधीश पचौरीजी ने जो बयान दिया वह आज की सहज/सामान्य बात है। चाहे सिनेमा हो, किताब हो, लेखक को इनाम हो या और कोई सम्मान -सबमें जोड़-तोड़ और नेटवर्किंग का दखल रहता ही है। इस दखल के चलते ऐसा नहीं कि जो चयनिंत होता है वह हमेशा खराब कैटेगरी का होता है। अच्छे को भी इनाम देने के लिये मेहनत और जोड़तोड़ होता है। सब कुछ अपने -आप नहीं होता। इनाम से जुड़ी प्रसारण और उससे जुड़े प्रचार से सभी वाकिफ़ हैं। लोग तो सफ़लता के लिये नकारात्मक प्रचार भी जुटाने में गुरेज नहीं करते।
समसामयिक मसलों पर तुम्हारे नियमित लेखन से खुशी होती है।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_4052.html?showComment=1264310736998#c4430480765308883195'> 24 जनवरी 2010 को 10:55 am बजे
very nice article on the politics and fabric of National Film Award....i enjoyed reading your analysis and broad understanding about such an important issue....
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_4052.html?showComment=1264343970899#c8033522497104629126'> 24 जनवरी 2010 को 8:09 pm बजे
कुछ बात ऐसी है जो हम देख कर भी नहीं देखते और सुन कर भी नहीं सुनते..ऐसा लगता है कि हर चीज कि सच्चाई अब स्टिंग ओपरेशन से ही सामने आयेगी. राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार कैसे दिए जाते हैं..इसे जानने के लिए यही समझा जा सकता है कि मुंबई में फिल्म उद्योग से जुड़े मेरे मित्र और सिनेमा के कई जानकार सालों से इसकी पाक सफाई पर संदेह करते रहे हैं.पत्रिकाओं . ,अखबारों में भी काफी कुछ लिखा गया है..कभी जुबान दबा कर कभी सीधे तरीके से.मधुर भंडारकर की फिल्मों को मिले राष्ट्रीय पुरस्कारों को लेकर सब में असंतोष रहा है. कई लोग भंडारकर को खुलेआम एक बड़ा सेटर से ज्यादा नहीं मानते.लेकिन ये बातें तवज्जो लायक नहीं समझी जातीं...मुंबई की फ़िल्मी दुनिया अपनी सेटिंग के बल पर अक्सर गैर हिन्दी भाषा की बढ़िया फिल्मों से बाजी क्यों मार जाती हैं ..इस सच्चाई को पचौरी जी के बयान के सन्दर्भ में समझा जा सकता है.पचौरी जी को उन लोगों के नाम जाहिर करने चाहिए जिन्होंने उनपर दबाव बनाने की कोशिश की थी...दबे जुबान से बात रखने का कोई फायदा नहीं...
https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_4052.html?showComment=1264360546821#c8176479970251236719'> 25 जनवरी 2010 को 12:45 am बजे
आप चयन प्रक्रिया यदि कंप्यूटर से भी करवायेंगे
तो उसकी चाबी भी किसी इंसान के हाथ में ही थमायेंगे
तो इंसान जो कर सकता है
सब कर रहा है
देवता वो हो नहीं सकता
वैसे देवता भी इन विवादों से परे नहीं रहे हैं
फिर इंसान किस खेत की ... मूंगफली या काजू है
अब क्या फर्क पड़ता है
क्योंकि दोनों पर छिलका मिलता है
इंसान तो छीलकर ही खायेगा
छीलन थोड़ी अपने लिये बचायेगा
इसे ऐसे भी समझ सकते हैं
यश की लालसा सभी को होती है
पुरस्कार पाने वाले को भी
देने वाले को भी
लड्डू दोनों हाथों में ही रहने चाहिये
पर जब वे मुंह में भी भर लिए जाते हैं
तो लोग बोलने
और लड्डुओं को तोलने
के काबिल नहीं रह जाते हैं।