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मोहल्लाlive पर हमने लिखा-क्‍या IBN 7 के एंकर संदीप चौधरी में भाषाई शऊर नहीं है? देर रात इस पोस्ट को लिखने के पीछे का मकसद इतना भर था कि हम संदीप चौधरी की वेशउर भाषा से बुरी तरह आहत हुए। हम अपने पसंदीदा एंकरों की खत्म होती जा रही भाषा को लेकर चिंतित हुए। आक्रामक दिखने के लिए भाषाई स्तर वो दिनोंदिन इतने उथले होते जा रहे हैं कि उनके लिए किसी के प्रति सम्मान का भाव नहीं। पहले तो खुशामद करके एक्सपर्ट और गेस्ट को स्टूडियो में बुलाते हैं फिर उनकी उतारने में लग जाते हैं। अपने को गॉडफादर समझने लग जाते हैं। संदीप चौधरी ने बहुत शांत मिजाज में बात करनेवाले मशहूर लेखक और 3 इडियट्स की क्रेडिट को लेकर विवादों में आए चेतन भगत को कहा कि आप हल्ला कर रहे हैं। हम इस बात पर सोचने को मजबूर हो गए कि क्या देश के सबसे पॉपुलर लेखक के लिए ये भाषाई प्रयोग जायज है? लेकिन जैसा कि अब तक अन्तर्जाल की दुनिया में होता आया है कि आप किसी भी मुद्दे पर बात करें,कोई न कोई बंदा ऐसा अवतरित हो ही जाता है जो हसुआ के बियाह में खुरपी के गीत गाने लग जाता है। पोल खोल नाम से एक अनामी अपनी बात रखते इसके पहले ही घोषित कर दिया कि मुझे टेलीविजन का टी तक नहीं आता और पूरी बहस को टीआरपी तक टांगकर ले गए। हम चाहते हैं कि एंकरों की भाषा पर शुरु की बहस को आप पढ़े और उसे फिर से ट्रैक पर लाकर आगे बढ़ाएं-

IBN7 के एंकर संदीप चौधरी के आक्रामक अंदाज़ का मैं कायल हूं। उनके इस अंदाज़ का असर मुझ पर कुछ इस कदर है कि अगर पहले से लेटकर टीवी देख रहा होता हूं तो उनके आते ही उठ कर सीधे बैठ जाता हूं। एक-एक वाक्य और उस हिसाब से चेहरे और नसों के खिंचाव को समझने औऱ महसूस करने की कोशिश करता हूं। लेकिन सच की आवाज़ हमेशा ऊंची होती है या फिर सच बोलने के लिए ज़रूरी है कि ऊंची आवाज़ में ही बात की जाए, इस फार्मूले पर भरोसा रखनेवाले संदीप चौधरी हमें कई बार व्‍यथित भी कर जाते हैं। कई बार महसूस होता है कि इस अंदाज़ को बरक़रार रखने में भाषाई स्तर पर वो बेहद खोखले और हल्के हो जाते हैं।

भारतीय टेलीविज़न में व्यक्ति आधारित समीक्षा या आलोचना की परंपरा विकसित नहीं हुई है। साहित्य या दूसरी विधाओं में एक कवि, कथाकार या आलोचक के ऊपर दर्जनों थीसिस लिखी जाती रही हैं। इसी अनुपात में उन पर शोध-पत्र और किताबें भी लिखी जाती रही हैं लेकिन भारतीय टेलीविज़न समीक्षा चंद मुहावरों, जार्गन और जुमले के बीच ही विश्लेषित कर दिये जाते हैं। आज संदीप चौधरी पर लिखकर टेलीविज़न के भीतर मैं व्यक्ति आधारित समीक्षा की न तो कोई शुरुआत करने जा रहा हूं और न ही साहित्यिक परंपराओं की कलम रोपने की कोशिश कर रहा हूं। मैं तो ऑडिएंस की उस समझ को सामने रख रहा हूं जो टेलीविज़न से हमेशा चैनल के नाम पर जुड़ने के बजाय उस पर आनेवाले लोगों के स्तर पर जुड़ता है। मसलन अगर IBN7 पर आशुतोष, संदीप चौधरी और ऋचा आना बंद कर दें तो मैं ख़बर देखने के लिए तो इस चैनल पर नहीं ही आऊंगा। उसी तरह प्राइम टाइम पर विनोद दुआ, अभिज्ञान और रवीश जैसे लोग आना छोड़ दें, तो एनडीटीवी इंडिया देखकर शाम ख़राब करने का कोई मतलब नहीं है। कहना सिर्फ इतना चाहता हूं कि आज न्‍यूज़ चैनलों की जो स्थिति है, उसमें लोग चैनलों के ब्रैंड से ज़्यादा व्यक्तिगत तौर पर आनेवाले एंकरों के हिसाब से जुड़ते हैं। ये बात पुण्य प्रसून जैसे एंकर के साथ आजमा कर देख लीजिए। पूरी ऑडिएंस का एक बड़ा हिस्सा है, जो कि इनके हिसाब से चैनल देखता है। ये जिस भी चैनल में जाएंगे, वो उन्हें देखेगी। वो पुण्य प्रसून को पहले देखती है, चैनल को बाद में।

बहरहाल, जिस संदीप चौधरी के अंदाज़ के हम कायल होते रहे हैं, वही संदीप चौधरी ने अपने भाषाई प्रयोग के स्तर पर हमें परेशान किया। हमें इस बात को अफ़सोस रहेगा कि एक अच्छा एंकर आक्रामक दिखने के लिए लगातार अपनी भाषा खोता जा रहा है। चेतन भगत और 3 इडियट्स को लेकर क्या कुछ चल रहा है, ये दुनिया जान रही है। दो जनवरी की रात मुद्दा कार्यक्रम के अंतर्गत संदीप चौधरी ने इसी मुद्दे पर बहस चलायी। उस बहस में क्या था और कौन लोग शामिल थे, इसकी तफसील में जाने से बेहतर है कि हम जो बात करना चाहते हैं, वही करें। आगे लिखने से पहले साफ कर दूं कि व्यक्तिगत तौर पर मुझे चेतन भगत की राइटिंग पसंद नहीं है। आज के हवाले से कहूं तो एक हद तक उनका अंदाज़ भी नहीं। लेकिन मेरे ऐसा कहने से चेतन भगत की हैसियत तय नहीं होती। मेरी क्या, शायद संदीप चौधरी के कहने से भी तय नहीं होती। ये अलग बात है कि मेरे कहने और संदीप चौधरी के कहने के असर में आसमान ज़मीन का फर्क है। लेकिन संदीप चौधरी के साथ देश के किसी भी मीडियाकर्मी को इस बात का एहसास होना चाहिए कि चेतन भगत का एक बड़ा पाठक वर्ग है। टेलीविज़न एंकरों को तो अपनी हार्डकोर ऑडिएंस पता करने में वक्त लग जाए लेकिन एक लेखक को मोटे तौर पर उसकी रीडरशिप की जानकारी होती है। इस हिसाब से बात करें तो चेतन भगत के पीछे रीडर्स का एक ज़बर्दस्त बैकअप है। इस हिसाब से चेतन भगत की हैसियत किसी भी मीडियाकर्मी से कम नहीं है।


चेतन भगत क्या लिख रहे हैं, उससे हमारी कितनी सहमति-असहमति है, इस बहस में न जाकर इतना मानने में क्या परेशानी है कि वो इस देश के एक सेलेब्रेटी लेखक हैं। एक ऐसे लेखक हैं, जो दुनिया के आगे साबित कर चुके हैं कि लिख कर आप कहां तक जा सकते हैं? देश का बच्चा-बच्चा (लिखने-पढ़नेवाला) उन्‍हें जानता है। आप सिर्फ कंटेट पर टिककर न बात करके ओवरऑल बात करें, तो वो एक सम्मानित और लोगों के चहेते लेखक हैं। पॉपुलरिटी के मामले में वो किसी भी पेशे के सिलेब्रेटी को टक्कर देने की हैसियत रखते हैं। पिछले साल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में अमिताभ बच्चन से मिलने के बाद जिसके लिए सबसे ज़्यादा होड़ मची थी, वो यही चेतन भगत थे। इसलिए उनकी राइटिंग से मानें या न मानें, पॉपुलरिटी से तो उन्‍हें बड़ा लेखक मान ही सकते हैं।

अब देखिए, मुद्दा में ज़ोर-शोर से बहस चल रही है। चेतन भगत नॉर्मल अंदाज़ में अपनी बात रख रहे हैं। इसी बीच संदीप चौधरी ने दूसरी ही तान छेड़ दी। हैलो फिल्म जब आयी थी तब भी आपको क्रेडिट नहीं दिया गया था, तब तो आप चुप थे लेकिन अब आप हल्ला कर रहे हैं। क्या 3 इडियट्स फिल्म अगर इतनी पॉपुलर नहीं होती तब भी आप ऐसा ही करते। मुझे याद आ रहा कि संदीप ने शायद ये भी कहा, पक्का नहीं कह सकता लेकिन भाव यही थे कि तब भी आप इसी वाल्यूम में बात करते। इसी के जवाब में चेतन ने कहा कि मैं कौन-सा छत पर जाकर चिल्ला रहा हूं। एक लेखक को अपनी बात रखने का हक़ है। लेकिन संदीप उन्‍हें सुनते ही नहीं, चिल्लाते हैं, अपनी ही रौ में बहे चले जाते हैं। सवाल ये है कि संदीप चौधरी या फिर देश का कोई भी मीडियाकर्मी जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करता है, क्या उसमें लेखक को अपनी बात रखने की आज़ादी शामिल नहीं है। फिर वो चिल्लाना कैसे हो गया? संदीप चौधरी का ये भाषाई प्रयोग जायज़ है? इस पर बात होनी चाहिए।

चेतन भगत ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया कि उसके लिए इस तरह की भाषा इस्तेमाल की जाए? तब फिर आपके ऊपर हमले होते हैं और दिन भर स्टोरी चलती है – लोकतंत्र पर हमला तो वो चिल्लाने से किस रूप में अलग है? बेबाकी और आक्रामक अंदाज़ का मतलब ये तो बिल्कुल भी नहीं कि आपके सामने जो पड़ जाए, उसकी उतार कर रख दें। यही काम उन्होंने आगे भी किया।

चेतन भगत के ये बार-बार कहे जाने पर कि राजू (राजकुमार हीरानी, प्रोड्यूसर : 3 इडियट्स) सिर्फ इतना कह दें कि वो तीसरे नंबर पर यानी अभिजीत जोशी और स्वयं राजकुमार हीरानी के बाद मेरा नाम डाल देंगे, तो सारा झंझट ही ख़त्म हो जाएगा। संदीप चौधरी ने प्रोड्यूसर से पता करके बताया कि वो उठ कर चले गये हैं। कुछ ही देर बाद राजकुमार हीरानी का फोनो चलता है, जिसमें वो बताते हैं कि मेरी पत्नी टीवी पर ये सब देख कर शॉक्ड है। मैं घर पर टीवी देख रहा हूं और मैं भी शॉक्ड हूं कि मैं तो लाइव था ही नहीं, फिर आपने कैसे कह दिया कि मैं उठ कर चला गया? संदीप चौधरी बस इतना भर कहते हैं कि हम कोई ग़लती करते हैं तो इज़हार कर लेते हैं। अब देखिए, जब वो चेतन भगत से बात करते हैं, तो लगता है कि वो पूरी तरह से हीरानी के फेवर में बात कर रहे हैं क्योंकि चेतन के प्रति बहुत ही बेरुखी भाषा अपनाते हैं। लेकिन हीरानी की बात आने पर उठकर चले गये, फिर उनके प्रति भी यही रवैया। हीरानी अपनी पूरी बात करते, इसके पहले संदीप चौधरी शो समेट-समाट कर चल देते हैं। इसी क्रम में हीरानी बता जाते हैं कि चैनल ने उनके साथ क्या किया? मतलब ये कि अगर कोई कॉन्शस न रहे तो लाइन, दो लाइन के प्रयोग से किसी की भी बत्ती लगाने में चैनल को दो मिनट का भी समय नहीं लगता। सवाल ये कि क्या तटस्थ होने या ऑडिएंस को दिखलाने के लिए भाषाई स्तर पर अपने को ख़त्म कर लेना ज़रूरी है? ऐसा लोगों को वाजिब सम्मान देते हुए नहीं किया जा सकता क्या? ये ज़रूरी है कि एंकर हर शो में ये साबित करे कि वो एंकर है और उससे बात करनेवाले जो भी लोग हैं, उनसे नीचे की कतार में खड़े हैं। देखा-देखी में पूरी की पूरी पीढ़ी तटस्थ होने का मतलब भाषाई स्तर पर लोगों की उतार देना समझा करेगी। लोगों को सम्मान देने और भाषाई स्तर पर सभ्य होने का हुनर क्यों खत्म कर रहे हैं हमारे एंकर, जरा सोचिए।
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3 Response to 'टीवी एंकर की वेशउर भाषा पर विमर्श जारी है..'
  1. Dr. Zakir Ali Rajnish
    https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_04.html?showComment=1262609193344#c8246971798670306873'> 4 जनवरी 2010 को 6:16 pm बजे

    जारी रहना चाहिए।
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  2. डॉ महेश सिन्हा
    https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_04.html?showComment=1262620126594#c5530892788320160897'> 4 जनवरी 2010 को 9:18 pm बजे

    शऊर नाम का शब्द है ही नहीं इनके शब्दकोश में

     

  3. अर्कजेश
    https://taanabaana.blogspot.com/2010/01/blog-post_04.html?showComment=1262631587717#c6986459018342879416'> 5 जनवरी 2010 को 12:29 am बजे

    बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने । जैसे लगता है कि चीखेंगे नहीं तो एंकर का खिताब छिन जाएगा । या इस‍की वजह यह है कि बोली जाने वाली हर एक लाइन को मसाला या सनसनीखेज बनाना दिखाना चाहते हैं ।

    क्‍या इन्‍हें मौके हिसाब से शालीनता का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए । या खुद को स्‍थापित रखने के लिए, क्‍योंकि दर्शक यही पसंद करते हैं , यह सब करना उनकी मजबूरी है ।

     

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