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जनता समझेगी...घंटा

Posted On 5:03 pm by विनीत कुमार |

दिवाली में घर जाने की पूरी कोशिश करता हूं। इस दिन हमारे यहां नफा, नुकसान और सम्पत्ति का हिसाब-किताब लगाया जाता है। मां कहती कि तुम नहीं रहते हो तो पन्द्रह लाख का साफ नुकसान समझ में आता है। वो तब कहती जब मैं बताता कि जब पढाई खत्म हो जाएगी तो टीवी में फोटो आनेवाली नौकरी लगेगी। फोटो आने पर इतना तो मिलेगा ही। लेकिन अब फोटो नहीं आएगा तो भी दस लाख तो रखा हुआ है। दीदी लोग भले ही पराया धन है लेकिन हम तो घर की ही सम्पत्ति हैं न। मेरे घर में सब कुछ बर्दाश्त किया जा सकता है लेकिन नुकसान कभी नहीं, भारी नुकसान होने पर तो हमने रिश्तेदारों में से एक-दो हार्टफेल होते भी देखा है। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण हंसता-खेलता परिवार उजड़ जाए। सो यही सब विचार करके सोचा कि घर चले ही जाने में भलाई है।
सरकारी वजीफा बहुत दौड़ने पर मिला था सो सोचा कि एक बार एसी में बैठकर जाया जाए, हम भी देखे कैसा लगता है। बहुत बाबओं, साहित्यसेवियों और पत्रकारों को छोड़ते समय ट्रेन खुलने के पहले तक एसी में बैठा था लेकिन चलती ट्रेन में एसी का अनुभव नहीं रहा है। अच्छा ,बार-बार मन में कोहराम तो मच ही रहा था कि बहुत पैसा लग जाएगा टिकट में लेकिन फिर सोचा कि जाने दो एक ही बार न, कहने को तो नहीं रहेगा कि पच्चीस साल के हो गए लेकिन अभी तक एसी में सफर नहीं किए हैं। फिर सोचा स्लीपर में बहुत कांय-कांय होता है, एसी में ढ़ंग से कुछ लिख-पढ़ भी लेंगे और एसी अनुभव पर कहीं कुछ लिख दिया और छप-छुप गया तो फिर पैसा वसूल। यही सब सोचकर आती-जाती दोनों तरफ का एसी थ्री का टिकट ले लिया ।
लेकिन भैय्या जब अपनी नसीब ही घोड़े की लीद से लिख दी गई हो तो फिर एसी क्या ट्रेन में बैठने के लिए जगह मिल पाना भी मुश्किल है। टिकट कटाकर, एटीएम से करीब तीन हजार रुपये निकालकर कि दो साल बाद घर जा रहा हूं, खाली हाथ जाना ठीक नहीं रहेगा। मां भी अक्सर कहा करती है कि भले आकर पैसा ले लेना लेकिन परदेस कोई खाली हाथ नहीं लौटता, कुछ लेकर आना। सो घरजाने की वैसे ही तैयारी में था जैसे गुड़गांव की फैक्ट्री में काम कर रहा बिहारी मजदूर करता है। सोचा शाम को घर के लिए कुछ-कुछ खरीद लूंगा और यही सब विचार करते आंख लग गई। उठा और जब हाथ-मुंह धोकर वापस आया तो देखा कि बटुआ अपनी जगह पर नहीं है। अपनी जगह क्या, कहीं भी नहीं है। खूब खोजा, नहीं मिला। अंत में वार्डन आए, बाकी लोग आए, उपदेशों का एक लम्बा दौर चला कि तुम्हें हमेशा सचेत रहना चाहिए। पैसा ऐसे नहीं रखना चाहिए, तुम्हें किसी पर शक है वगैरह-वगैरह। अंत में यह कहकर मामले को रफा दफा किया गया कि चलो जो हुआ सो हुआ, आगे से ध्यान रखना। लेकिन जब मैंने पैसे के साथ दो बैंकों के एटीएम खोने की बात बताई, और यूनिवर्सिटी आईकार्ड के बारे में सोचा तो अपने क्लर्क का चेहरा घूम गया । जब मैं उससे कहूंगा कि दोबारा कार्ड बना दें, खो गया है तो सीधे बोलेगा..एफआईआर की फोटो कॉपी कहां है। ऐसे देखेगा कि मैं किसी का रेप करके आ रहा हूं और कार्ड उसी हलचल में कहीं गिर गया। बैंको से तो निपट लूंगा लेकिन यूनिवर्सिटी में पांच साल बिताने के बाद भी अपने क्लर्क से पार पाना मुश्किल है।
यही सब विचार कर रात में ही दौड़ा एफआईआर कराने। दो घंटे की मशक्कत के बाद एफआईआर की कॉपी मिली जिसमें साफ लिखा था कि बटुआ कहीं गुम हो गया । चोरी शब्द का प्रयोग कहीं नहीं था। मुझे पूरे एफआईआर में सिर्फ यही एक लाइन समझ में आयी। बाकी लग रहा था कि शिवप्रसाद सितारेहिंद के जमाने की हिन्दी जिसे पता नहीं लिखनेवाला वो पुलिस अधिकारी भी समझता भी है या नहीं या सालों से लिखने की आदत हो गयी है इसलिए लिखता आ रहा है। पेपर थमाते समय उस बंदे ने कहा भी कि आप बिल्कुल परेशान न हों, पढ़ने-लिखने वाले हैं आराम से पढिए-लिखिए, आपका पर्स तो नहीं ही मिल पाएगा। भूल जाइए, मान के चलिए कि किसी को दान कर दिया।....मन ही मन थोड़ा ज्यादा पावर की गाली निकालते हुए बुदबुदाया। हां बे स्साले। यही मनवाने के लिए तो सरकार तुझे पैसे दे रही है। खैर...
दोस्तों ने दौड़-भागकर अपनी और मेरी दोनों की औकात के मुताबिक स्लीपर टिकट का इंतजाम करवा दिया है, कल के लिए। मैं जानता हूं दिवाली के एक दिन बाद जब घर पहुंचूगा तो मां साफ कह देगी कि इससे बढ़िया मत ही आते, अब क्या बचा है, सब तो हो हवा गया। लेकिन ये भी जानता हूं कि ब्लॉग से दुगुना जब जोड़-जाड़कर बताउंगा कि अपना चार-पाच हजार का नुकसान करके भी तुम्हारा नुकसान नहीं होने देने के लिए आया हूं तो बोलेगी, जाने दो जिसके नसीब में था ले गया, अच्छा है एतना ही होके रह गया, कुछ हो-हा जाता तो। और जहां तक सवाल पैसे की है तो मन में मंसूबा बंधा है कि एफआईआर की हिन्दी के बहाने पूरे कानून व्यवस्था और सरकार द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली हिन्दी पर एक विस्तार से एक लेख लिखूंगा कि जब हम पढ़े -लिखे लोग साहब आपकी हिन्दी नहीं समझ पाते तो देश की अनपढ़ जनता क्या समझेगी...घंटा...और इसके भी कुछ पैसे तो मिल ही जाएंगे।....बाकी तो वक्त के साथ बड़ा से बड़ा जख्म भर जाता है...साली ये बटुआ क्या चीज है।
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7 Response to 'जनता समझेगी...घंटा'
  1. परमजीत सिहँ बाली
    https://taanabaana.blogspot.com/2007/11/blog-post.html?showComment=1194544800000#c1259614104971531568'> 8 नवंबर 2007 को 11:30 pm बजे

    बहुत बुरा हुआ।...लेकिन होनी के आगे किसका जोर चलता है।

     

  2. Sanjeet Tripathi
    https://taanabaana.blogspot.com/2007/11/blog-post.html?showComment=1194545400000#c3071163208285446616'> 8 नवंबर 2007 को 11:40 pm बजे

    अरे!! ये तो बड़ी गड़बड़ हो गई भाई!!

    खैर, चलिए आप घर जा रहे हैं यह सुखद है!!

    दीपावली की शुभकामनाएं!!

     

  3. राजीव जैन
    https://taanabaana.blogspot.com/2007/11/blog-post.html?showComment=1194561060000#c6532690282442756289'> 9 नवंबर 2007 को 4:01 am बजे

    आपके दुख में दुखी आपका दोस्‍त
    राजीव

     

  4. Rakesh Kumar Singh
    https://taanabaana.blogspot.com/2007/11/blog-post.html?showComment=1194593400000#c4187423016625926081'> 9 नवंबर 2007 को 1:00 pm बजे

    विनीत बाबु आपका बटुआ खोया और हमें एक और आयटम मिल गया पढ़ने के लिए. खोने का दुख तो है पर पाने का सुख भी तो हुआ. और आप कुछेक नोट और कार्ड गंवाकर 15 लाख का फ़ायदा कराने जा रहे हैं अपने घरवालों का, ये तो बड़ी अच्छी बात है.

    मज़ा आया. पुलिसिया हिन्दी पर विश्वविद्यालय में कोई शोध-वोध हुआ है क्या, या फिर आप इस मामले में भी बाज़ी मारने के फिराक में हैं ?:)

     

  5. सौरभ द्विवेदी
    https://taanabaana.blogspot.com/2007/11/blog-post.html?showComment=1194883620000#c752441003155786798'> 12 नवंबर 2007 को 9:37 pm बजे

    batuaa main janmat ka paisa thak ya dost .....kaise hain ek pratikriya bheji thi jabab hi nahi aaya badka busy ho gaye hain kya..kabhi aan atu meri gali..

     

  6. Manjit Thakur
    https://taanabaana.blogspot.com/2007/11/blog-post.html?showComment=1195274040000#c7478130645460877788'> 17 नवंबर 2007 को 10:04 am बजे

    बटुआ खोया, खराब हिंदी झेलनी पड़ी... क्या हुआ। देश के वे सारे नागरिक जो पुलिसवाले नहीं हैं, नेता या उनके रिश्तेदार या चमचे नहीं हैं पर्स खो जाने पर उसे दान दिया हुआ मान लेते हैं। लेकिन आपका जो नुकसान हुआ , हो ही हगया, हमारा फायदा ये हुआ कि बेहतरीन लेख पढ़ने को मिला। आपके इस पोस्ट के लिए एक ही शब्द ज़ेह्न में आ रहा है- शानदार...। बस।
    मंजीत

     

  7. विनीत कुमार
    https://taanabaana.blogspot.com/2007/11/blog-post.html?showComment=1195541520000#c8091460733301811994'> 20 नवंबर 2007 को 12:22 pm बजे

    साथी कुछ दिनों के लिए घर चला गया था सो जबाब नहीं दे पाया और जहां तक बात रही विजी होने की तो तुमलोगों के लिए भी समय न निकाल पाऊं तो फिर जिंदगी ही बोकार है, लात मार दूंगा उसी दिन काम को।

     

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