यूजीसी( नेट) की परीक्षा को लेकर हमलोगों के समय भी दुनियाभर की दंतकथाएं जो कि धीरे-धीरे लोककथाओं के रुप में स्थापित होने लगी थी जैसा कि कल कुछ साथियों ने फेसबुक पर साझा किया. तब भी इश्क और बलतोड़ की तरह इसके कभी भी हो जाने की बात की जाती थी और न होने पर दोनों के बाबासीर बन जाने की.
प्रचलित लोककथाओं में एक ये था कि जेएनयू के एक सीनियर वस्तुनिष्ठ सवाल देकर वापस हॉस्टल आ गए, मूड ही नहीं हुआ मेन पेपर लिखने का.( पहले सामान्य ज्ञान और अपने विषय के वस्तुनिष्ठ पर्चे होने के बाद डेढ़ घंटे की ब्रेक के बाद मुख्य पर्चा होता था जिसमे करीब 3800 शब्द लिखने होते थे, इसके पहले तो और भी ज्यादा). हॉस्टल पहुंचने पर उनके सीनियरों ने गरिआया और हुरकुच्चा मारकर सेंटर भेजा. पेपर देकर आए और रिजल्ट आया तो भैयाजी का न सिर्फ नेट बल्कि जेआरएफ हो गया था. भैयाजी ने कहानी गढ़ी कि जब वो अपने विभाग के सबसे अधिक शोधरत,कार्यरत और पहाड़ पर जाकर रस्साकशी करनेवाले प्रोफेसर से अपनी खुशी साझा की तो कहा- जेआरएफ से क्या होता है, नेट निकालिए.
इधर डीयू के एक सीनियर को पहला पेपर देते ही जबरदस्त पेट झाड़ दिया. मार इलेक्ट्रॉल पाउडर पाउच का पाउच घोंटे जा रहे थे. लगा प्राण-पखेरु ही उड़ जाएंगे. भैय्याजी ने तय कर लिया था कि जाओ स्साला जब जान जा ही रहा है तो बिना जेआरएफ निकाले कैसे मर जाएं. तब रंग दे बसंती रिलीज नहीं हुई थी और कोई ये कहकर मरनेवाला नहीं था- यार,डीजे मैं कुंवारा नहीं मरना चाहता यार. बस क्या था, मेन पेपर में भैय्याजी ने पेट को नीचे बेंच की दराज पर छोड़कर रखा और छूटकर लिख दिया आदिकाल से लेकर उत्तर-आधुनिकता पर धांसकर.
इन लोककथाओं में एक प्रचलित कथा ये भी रही कि एक भैय्याजी पूरी तरह डिस्टर्ब थे. लड़की यानी हमारी सीनियर और गर उनसे शादी हो जाती तो आधिकारिक रुप से भाभी होती ने भैय्याजी को पिछले चार साल से एक्सटेंशन पर रखा था..प्यार की एक्सटेंशन. पहले कहा- टॉप करो तब तो घर में कुछ कह सकूंगी. भैय्याजी टॉप कर गए. फिर कहां, बीए क्या एमएम तक पढ़ लो.भैयाजी वो भी कर लिए..लड़की ने कहा- इन डिग्रियों का अचार बनाओगे, हजार-पांच सौ का ठिकाना नहीं..बात लड़की के बाप तक पहुंचती और भैयाजी से जीवकोपार्जन से जुड़े सवाल पूछे जाते कि इसके पहले ही बाप की सारी वृत्तियां लड़की में आप ही समाहित हो गई थी. भैय्याजी को जेआरएफ निकालने का अल्टीमेटम मिला था..थोड़े दिन तो सुस्त रहे लेकिन लड़की की देखा-देखी शुरु हो गई तो हरकत में आए. तब रांझणा नहीं आयी थी कि कोई कहता- स्साला प्यार नहीं हुआ, यूपीएससी हो गया, दस साल से हो ही नहीं रहा.तब ये चालू था- स्साली लड़की नहीं हुई, होमलोन हो गया, पास ही नहीं हो रहा. खैर
इश्क के फ्रैक्चर होने का दवाब और देवदास बनकर जीवन काटने के भय में भैय्याजी ने ऐसा भक्तिकाल पर लिखा कि सीद्धे जेआरएफ.
इन दंतकथाओं का हमारे तत्कालीन जेएनयू साथियों और हिन्दू कॉलेज के दोस्तों के बीच जबरदस्त असर था. असर तो इतना अधिक कि कुछ लोग निकलने के पहले ही कथा बुन ली थी कि कैसे निकला, इसकी कहानी कैसे प्रस्तावित करनी है. तो इधर निकला नहीं कि उधर दंतकथा प्रचलित. ये भैय्याजी यानी सीनियरों की मूल कथा का ही विस्तार होता, इसे साहित्य में क्षेपक कहते हैं और अगर आप अन्तर्वासना डॉट कॉम के पाठक हैं या रहें हैं तो सारी कहानी का तामझाम यही कि उसे देखकर मेरा तंबू जैसा तन गया और फिर आगे शारीरिक संबंध पर आकर कहानी खत्म. तब नेट,जेआरएफ आज की तरह आलू-प्याज के भाव से होते नहीं थे और हमें बाकायदा पता होता था कि डीयू,जेएनयू,एमयू,बीएचयू..में अपने विषय में किस-किसका हुआ है.( हालांकि इस आलू-प्याज के भाव जेआरएफ न होने का सबसे बड़ा नुकसान ओल्डएज अफेयर की संभावना के काफी हद तक खत्म होने के रुप में हुआ और जिन भैय्याजी को न्यूकमर अंकल टाइप समझती रही, उनकी दूकान पटापट बंद होनी शुरु हो गई.सब आप ही निकाल ले रही हैं.:) ).ऐसे में इनकी दंतकथाएं न केवल रस लेकर सुनी जाती थी बल्कि लोककथा में कन्वर्ट करने की प्रक्रिया दूसरे साथी शुरु कर देते. मसलन मेरे एक साथी ने रातभर रोकर तकि गीले किए थे और सुबह जब कुदरुम के फूल जैसी आंखें लेकर परीक्षा देने गए थे. रोने की वजह, घर में गाय तो थी नहीं कि मरी थी..वही वजह...उसने हां बोलकर धोखा दिया. इन दंतकथाओं में एक तो सुपर हिलेरियस.
हम जैसे कुछ भुचकुल टाइप के लोगों ने यूजीसी बहुत रुलाया. लोग बताते तो थे कि तुम पढ़ने में बहुत अच्छे हो,समझदार हो पर पता नहीं यूजीसी के वक्त या उसके लायक समझदारी कहां चली जाती थी. जामिया मिलिया का वही कॉमर्स ब्लॉक..तीन बार दिए और रोए.खैर, ये कहानी आगे..तो मामला ये था कि तोप टाइप के लोग जमाने से इज्जत बचाने के लिए सेंटर ही बदल देते थे. कभी रांची, कभी बनारस, कभी पटना..तो ऐसे ही हमारे एक हिन्दू के साथी ने किया और लोगों के बीच गुलाफा उड़ाया कि मैंने तो इस बार पेपर दिया ही नहीं. अब यूपीएससी में लगना है.
रिजल्ट आया तो भायजी का जेआरएफ हो गया और अब दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में बतौर प्रवक्ता अध्यापनरत है.
अच्छा, इन दंतकथाओं का हमारे कुछ साथियों पर ऐसा असर था कि बेमौके के चेखव हो गए थे..प्राप्तांक प्रतिभा का मूल्यांकन नहीं करता जैसी लाइनें उछालने लगे थे. कॉमरेड तो इस यूजीसी को सिरे से ही नकारते थे और हम जैसे लोगों को गदहे की तरह तैयारी करते और जीवन-मरण का प्रश्न बनाते देख साक्षात पूंजीवाद और बुर्जुआ का प्रतीक मानते.ये अलग बात है कि उनका ये भरोसा आखिर तक कायम रहा और कुछ बिना इसे निकाले ही प्रवक्ता बनकर चरपहिया के स्वामी हैं..लेकिन लोककथाओं से प्रभावित लोगों ने इसे हल्के में लिया और वैसे ही स्टीरियो बने रहे जैसा कि मूलकथा कहती है. परीक्षा के पहले की शाम कमलानगर में डिनर, एमबीजीएफ( मे बी गर्लफ्रैंड इन फ्यूचर) को बूथ की लैंडलाइन से लंबी-लंबी छोड़ना आदि-आदि..सुबह सेंटर पर सूर,कबीर,तुलसी छोड़कर पहाड़ पर लालटेन पढ़ना..कुछ को तो इस स्टीरियो का पाला ऐसा पड़ा कि अभी तक..
तीन बार की घनघोर असफलता के बाद मन तो उचटने लग गया था लेकिन दो काम अपने से कभी नहीं हो पाया. एक तो लोककथाओं में पड़ने का और दूसरा एमबीजीएफ को फोन करने का. शुरु में रचना मैम को फोन करके खूब रोया-गाया, कुछ सीनियर्स को झेलाया लेकिन फिर शांत भाव से जैसे पाली हुई कुतिया को दफन करके लौटा हूं और फिर से पढ़ना शुरु. देखिए पढ़ा तो सच में बहुत था..ये अलग बात है कि ऐसे लोगों का मार्गदर्शन मिला कि दो नंबर के सवाल के लिए पूरी धीरेन्द्र वर्मा की भाषा विज्ञान पर किताब पढ़वा दी थी. हर बार रणनीति बनाता और नोट्स, घिसता..लेकिन नहीं तो नहीं. जूनियर्स मजे लेने लगे थे- सर आपके बारे में बहुत सुना है, आपको बहुत अच्छी समझ है फिर आगे- क्या कारण है सर कि यूजीसी नहीं निकलता.( इसे हम कैंपस की भाषा में गांड़ ले लेना कहते) कुछ नए बच्चे आकर पूछते- कैसे तैयारी करें- मैं कहता, मुझे ये नहीं पता कैसे पास होते हैं, ये जरुर पता है कैसे पास नहीं होते हैं.
जेएनयू के साथियों का जिनसे मेरी अंतरंगता थी, एक-एक करके निकलता चला गया. हिन्दू के लोगों का साथ छूटता गया और ले-देकर मैं अकेला बचा था. कुछ जूनियर ही दोस्त होने लगे थे. तब जेएनयू जाना बहुत अवसाद से भरा होता. गंगा ढाबा पर दस-पचास का खाते हमलोग और मैं पैसे देने आगे बढ़ता कि जेआरएफिया टोक देते- रहने दो न, तुम्हारा कौन सा जेआरएफ है. इस दौरान मैंने "ओमप्रकाश वाल्मीकि का जूठन जिया है."
खैर, मीडिया कोर्स पूरा होनेवाला था और मैं आजतक( टीवी टुडे नेटवर्क) में इन्टर्नशिप करने लग गया था लेकिन इसके पहले एक काम किया था. मैं और नीरज( नीरज तब मेरा सबसे प्यारा और हमराज हुआ करता था, उसे और मुझे हमदोनों को एक-दूसरे की चंडी के रंग याद होते थे) ने मिलकर नोट्स बनाए- "अंतिम प्रयास" हिन्दी की करीब पच्चीस किताबें छांटी और सबके मुख्य बिन्दु नोट करना शुरु किया..ये काम कर ही रहे थे कि नीरज का भी जेआरएफ हो गया. अब अचानक से ये काम रुक गया और बच गया अकेले मैं. वो यूजीसी की परीक्षा के लिए ही रुका था. रिजल्ट आते ही लिए-दिए भागा घर. एक और बड़ा झटका. खाली हॉस्टल में हम जैसे कुछ लोग- और वही यूजीसी की तैयारी. खैर,जैसे-तैसे हमने ये नोट्स पूरे कर लिए लेकिन परीक्षा नहीं दे सका.
इन्टर्नशिप के दौरान इस अंतिम प्रयास को साथ रखता और पलटता रहता. ये आखिरी बार दे रहा था और इस नियत से कि अब नहीं हुआ तो अकादमिक दुनिया से हमेशा के लिए विदा. इस पोथे के साथ लंबे सवाल के लिए अलग से रात में नोट्स बनाता. परीक्षा आयी. लगा अब इससे बेहतर नहीं लिख सकता हूं कभी..सो अगली बार के लिए फार्म भी नहीं भरा.सबने गालियां भी दी लेकिन 485 रुपये तब बहुत मायने रखते थे. जनमत न्यूज में ट्रेनी था और यूजीसी की साइट देख रहा था तभी न्यू फ्लैश पर नजर गयी. जेआरएफ की लिस्ट में रौल नंबर अपना ही लग रहा था..छुट्टी, घर आया और एडमिट कार्ड देखा..यस..मेरा जेआरएफ हो गया था. पटेलनगर के उस घर में कोई नहीं था जिससे साझा करता. लिहाजा छत पर जाकर जोर से चिल्लाया- सबसे पहले मां को फोन किया- मां मेरा जेआरएफ हो गया है, सरकार मुझे पढ़ने के लिए पांच साल पैसे देगी और हां पापा को बताना कि मैं नालायक नहीं हूं, साहित्य पढ़कर कुछ गलत नहीं किया..अब मैं बहुत बड़ा आदमी और अपनी शर्तों पर जीकर दिखाउंगा..अल्ल-बल्ल जो इमोशन में आया बक दिया. अपने दोस्त प्रवीण को फोन किया और सीपी में निजाम काठी कवाब में रोल खाए..आज की शाम कौन हाथ जलाता.
रिजल्ट आने पर जेएनयू के साथियों को एसएमएस किया- हो गया मेरा जेआरएफ. उधर से फोन किया- पता है, रिजल्ट तो चार दिन पहले आ गया था लेकिन फोन करके पूछा नहीं.लगा हर बार का तो तुम्हारा यही हाल रहता है, क्या पूछें ?
मेरी अकादमिक दुनिया छूटते-छूटते बच गयी..मीडिया से लौट आया. इस दौरान मेरे साथ के लोगों ने काफी तरक्की कर ली. गाड़ी, फ्लैट,शादी,बच्चे सब..लेकिन उनकी जिंदगी में बैचलर्स टी नहीं है और इधर मेरी जिंदंगी में वो सब है जिसकी कल्पना डॉ. फादर कामिल बुल्के की लाइब्रेरी में पढ़ते हुए मैं अक्सर करता था- मुझे पढ़ना है, मुझे लिखना है, मुझे लेखक टाइप का जीवन जीना है.
डिस्क्लेमरः लोककथाओं के पीछे की असल कहानी ये थी कि जिनको लेकर कथाएं प्रचलित थी, मैंने उन्हें चुपके-चुपके बहुत मेहनत करते, बच्चों की तरह नोट्स बनाते और तैयारी करते देखे थे. वो बस बाहर हवाबाजी करते थे. अब का तो मुझे नहीं पता लेकिन तब मुझे बहुत ही कम, एकाध ही ऐसे मिले जो मेहनती नहीं थे, पढ़ते नहीं थे और ऐंवे टाइप से यूजीसी हो गया, कम से कम जेआरएफ तो नहीं ही.
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post.html?showComment=1372681873658#c7711816542125138739'> 1 जुलाई 2013 को 6:01 pm बजे
मैंने भी मात्र दो बार एक्जाम दिया ओर दोनों में जे आर एफ मिला. हिंदी में. जे एन यू से ही. ओर मेरे जो मित्र मेरे नोट्स को जो पहले हेय दृष्टीकोण से देखते थे बाद में वेद मंत्र की तरह कंठस्थ करने लगे.
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post.html?showComment=1372688565422#c4726564173447350844'> 1 जुलाई 2013 को 7:52 pm बजे
http://visualart79.blogspot.in
राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) विजुअल आर्ट की तैयारी के लिये अवश्य देखे और समर्थक भी बने
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https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post.html?showComment=1372688573937#c5893131383775275194'> 1 जुलाई 2013 को 7:52 pm बजे
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https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post.html?showComment=1372728004695#c3271855731447964988'> 2 जुलाई 2013 को 6:50 am बजे
बहुत रोचक लेख। कई और दंतकथायें याद आ गयीं।
जब मां को बताया तब उनकी प्रतिक्रिया थी?
तुम्हारी मन की सब कामनायें पूरी हों, शुभकामनायें।
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post.html?showComment=1372793464431#c6498232893426592721'> 3 जुलाई 2013 को 1:01 am बजे
mast likha hai aap ne
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post.html?showComment=1372926577639#c7384517209581473668'> 4 जुलाई 2013 को 1:59 pm बजे
well written