क्या किसी प्रेम कहानी की शुरुआत नागार्जुन की कविता "अकाल और उसके बाद" से और हाथ से,पेंटिंग की हुई एक पत्ती को पेड़ पर अटकाने की तमन्ना पूरी कर लेने के साथ खत्म हो सकती है ? एचडी और एम पी थ्री प्लेयर के जमाने में मरफी रेडियो बार-बार इतने स्पष्ट रुप से आ सकता है कि हम उसे आखिर तक एक चरित्र के रुप में याद रखते हैं, अखबारों की भीड़ और मारकाट की प्रतिस्पर्धा के बीच अब भी स्टेट्समैन एक बुद्धिजीवी और एलिट समाज की अभिरुचि को रेखांकित कर सकता है और खबरिया चैनलों के पैकेजों के बीच रेडियो के समाचार आप्तवचन करार दिए जा सकते हैं ? फिल्म लुटेरा देखने के दौरान अगर आप इन सवालों से बार-बार टकराते हैं तो यकीन मानिए ये सारी चीजें सिर्फ वायवीय कल्पना पैदा करने या फिर आजादी के ठीक बाद जमींदारी प्रथा खत्म होने के दौरान के ऐतिहासिक परिवेश रचने भर के लिए काम में नहीं लाए गए है. ये फिल्म पर्दे पर ईसवी सन् टांकने के बावजूद अतीत में लौटने की नहीं बल्कि रखड़ खा रहे वर्तमान के बीचोंबीच स्पीड ब्रेकर लगाने का काम करती है..और तब आप नार्गाजुन की कविता से लेकर हाथ से बनी पत्ती को चढ़कर उंचे पेड़ पर टांकने का अर्थ ले पाते हैं.
फिल्म की कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है वैसे-वैसे ये कविता, ये रेडियो, ठूंठ होते पेड़,बार-बार मचोड़कर गुस्से से फेंके गए कागज के अर्थ का न केवल विस्तार होता है बल्कि ये स्वयं कहानी के पात्र और परिवेश बनते चले जाते हैं. ऐसे में अगर आप कहानी के मानव पात्रों को हटा भी देते हैं तो एक स्वतंत्र कहानी बनती दिखती है और ये कहानी हमे जीवन शैली के उन सांस्कृतिक अतीत की ओर ले जाती है जिसे कि हम रफ्तार देती जिंदगी के बीच या तो छोड़ते चले जा रहे हैं या फिर छूट जाना ही स्वाभाविक लगने लग जाता है.
फिल्म की सबसे खास बात है कि मौजूदा दौर में जिन-जिन चीजों को गैरजरुरी, चमकदार न होने के वजह से हाशिए पर धकेलते जाते हैं वो सबके सब फिल्म में एक मिशन में लगा दिए जाते हैं. ऐसा करते हुए फिल्म इत्मिनान का परिवेश तो रचती ही है साथ ही अपनी रफ्तार में भी काफी धीमी हो जाती है. हमारे साथी जो फिल्म का धीमा हो जाना ऐब की तरह देखते हैं, उन्हें ये फिल्म निराश करने के बजाय उनकी इस आदत पर फिर से विचार करने को मजबूर करेगी. पर्याप्त धैर्य, कबाड़ करार दी गई चीजें या फिर उन्हें एंटिक बना दिए जाने की दोनों स्थितियों के बीच ये उन्हें स्वाभाविक बनाती है और ये स्वाभाविकता ही इस फिल्म को बिल्कुल अलग कर देती है. मसलन फेसबुक और व्हाट अप के बीच जहां एसएमएस भी पुराना पड़ गया है, वहां नींव की कलम से पूरी किताब लिखते हुए दिखाना( जिस बहाने हम भले ही सोनाक्षी सिन्हा की बेहद खराब हिन्दी हैंडराइटिंग देख लेते हैं), करोड़ों रुपये की मूर्ति और एंटिक चीजों की चोरी करने के बीच नायक वरुण का पूरी फिल्म में पेंटिंग सीखने के लिए तत्पर रहना, नायिका पाखी का लिखने को जिंदगी की सबसे बड़ी चीज मानना ये दरअसल पूरी फिल्म को साहित्य और कला की उस बहस की ओर ले जाती है जिसे हम रोमैंटिसिज्म और हिन्दी में छायावाद और उसके बाद के कालखंड़ में पढ़ते-लिखते आए हैं. ये जीवन में लोहे-लक्कड-कबाड और फ्लैट के पीछे जान देने के बीच सांस्कृतिक पूंजी( culture capital) को बचाने की जद्दोजहद है. एक लिखकर जिंदा रहना चाहती है और एक पेंटिग करके जिंदगी बचाना चाहता है. लौंग्जाइन्स के काव्य के उद्दात्त तत्व से लेकर क्रोचे का अभिव्यंजनावाद...आपको पूरी फिल्म में पाश्चात्य काव्यशास्त्र और कला के सिद्धांत की बहसें याद आएंगी..और इन बहसों के बीच से आप बार-बार इस सवाल से टकराएंगे- हमारे जीवन में साहित्य और कला की क्या उपयोगिता है और हो सकती है ?
वैसे तो नागार्जुन की कविता की पंक्तियों- कई दिनों तक चूल्हा रोया,चक्की रही उदास के अलावे कला और साहित्य को लेकर न तो कोई विमर्श है और न ही उसका जिक्र लेकिन इस फिल्म में इनके परिप्रेक्ष्य में बातचीत करने की पर्याप्त गुंजाईश है और तब एक हद तक ये निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि जिन्हें कला,साहित्य और ठहराव और जिंदगी के कुछ कोने का धीमा भी होना जरुरी है जैसी चीजों में यकीन और दिलचस्पी नहीं है, उन्हें ये फिल्म बिल्कुल भी पसंद नहीं आएगी. लंबे समय तक हिन्दी फिल्म का मतलब जेनरेटर की तरह भड़-भड़ होना और मेट्रो की तरह स्पीड पकड़ लेने की अभ्यस्त रही ऑडिएंस को ये फिल्म ऊब पैदा करती हुई जान पड़ेगी लेकिन इसके धीमे होने और मद्धिम होने के बीच से हम जिन सवालों,स्थितियों और मनोभावों से गुजरते हैं वो इधर की फिल्मों में शायद ही मयस्सर होते हैं और तभी लगता है कि ये ऑडिएंस को काफी हद तक "सिने-साक्षर" करती चली जाती है. इस पूरी फिल्म की अंडरटोन सिनेमा को कैसे देखा जाना चाहिए और सिनेमा किस तरह का हो है. इन दोनों बातों के बीच सबसे दिलचस्प पहलू है कि इसने दर्शकों की काबिलियत पर भरपूर भरोसा किया है. हिन्दी समाचार चैनलों की तरह सबकुछ की व्ऑइस ओवर नहीं है और न ही स्क्रीन को अखबार बनाने की कोशिश. जो बातें सीन और फ्रेम के जरिए व्यक्त हो जा रही है, उसके लिए संवाद रोक दिए गए हैं. कम संवादों के बीच इन फ्रेम्स और सीन अपने अर्थ का विस्तार कर पाते हैं और तब दर्शक उनसे अर्थ ग्रहण कर पाते हैं. इससे सिनेमा की उम्र बढ़ी है. नहीं तो बैग्ग्राउंड म्यूजिक, अत्यधिक, संवादों. तेजी से स्लाइड शो की तरह बदलते दृश्यों के बीच सिनेमा तिल-तिलकर मर रहा है और ऐसा लगता है कि जैसे तकनीक के आगे निर्देशक ने हथियार डाल दिए हों. इस फिल्म के निर्देशक विक्रमादित्य मोटवाने ने इसके आगे हथियार डालने के बजाय इसकी अनुपस्थिति के बीच के कौशल को फिर से स्थापित करने की बेहतरीन कोशिश की है.
जब आप पुराने साहित्य बारहमासा पढ़ेगे, यहां तक कि छायावाद और अंग्रेजी में रोमैंटिसिज्म पढ़ेंगे जिसका एक हिस्सा नेचर प्रेजिंग पोएट्री है तो वहां एक मूलभूत सिद्धांत काम करता है कि मानवीय दशा के अनुसार ही प्रकृति दिखाई देती है. मतलब नायक-नायिका खुश तो प्रकृति भी खुश, उदास तो वो भी उदास.लेकिन इस फिल्म में आपको प्रकृति का या तो बिल्कुल तटस्थ,उदासीन या फिर खलरुप दिखेगा, यहां तक कि डलहौजी जैसी खूबसूरत जगह में भी. प्रकृति के इस रुप को देखकर आपको जयशंकर प्रसाद की कामायनी की याद आएगी..साहित्य और कला के ऐसे प्रसंगों के याद आने से एक किस्म का उत्साह भी होता है और एक तरह से कचोट भी कि जिन चीजों को पिछले दस सालों से बदरंग,बोरिंग,उदास और उबाउ कहकर इसके खिलाफ वोकेशनल की मार्केट तैयार की गई, वो आज कैसे धीरे-धीरे और एक-एक करके उस माध्यम में लौट रहा है, जिन पर करोड़ों रुपये के दांव लगे हैं. एक कॉलेज और विश्वविद्यालय जब साहित्य, कला और सैद्धांतिकी को गंभीरता से पढ़ने-पढ़ाने का रिस्का नहीं उठा पा रहा हो, ऐसे में सिनेमा के जरिए इन सबका मौजूद होना, बहस में आना इसके स्थायी महत्व और जीवन में इसकी जरुरत को मजबूती से रेखांकित करता है. क्या जिसने इस घोर कर्मशियल फिल्म में बाबा नागार्जुन की कविता अकाल और उसके बाद घुसा दी, उन्हें पता नहीं होगा कि कॉन्वेंट स्कूलों से पढ़कर आयी हमारी जेड जेनरेशन की ऑडिएंस ने हिन्दी को कुनैन की गोली की तरह लिया है, वो इसे कितना समझेगी..लेकिन बाजार के जरिए ही इसकी स्वीकार्यता का विस्तार तो कर रहे हैं न ? और फिर अगर हमारी जिंदगी से ये कविताएं, साहित्य और कला के विमर्श गायब हो जाएं तो हम कैसे समझ सकेंगे कि जिस पाखी रॉय चौधरी का प्रेमी उसके बाप को धोखा दिया और जान चली गई, अपने दोस्त की जान ले ली और जिसे वो स्वयं सोचती है कि जान से मार डाले, वो आखिर तक क्यों उसके प्रेम की बारीकियों को समझ लेती है ? क्या जिंदगी की ये बारीकियां मैनेजमेंट और पीआर कोर्स करके समझी जा सकती है ?
फिल्मों को लेकर अच्छी,खराब,सो-सो,पैसा वसूल, तीन मिर्ची..टाइप से कैटेगराइज करने की जो कवायदें शुरु हुई है तो सच पूछिए ऐसी फिल्मों के लिए जो ये तरीका अपनाते हैं और इसे ही विमर्श का हिस्सा बनाते हैं, वो सिनेमा के लिए "विशेषण की बहुलता" की मांग करती है. विशेषण की इस बहुलता में हां,न,अच्छी,बुरी,सो-सो,टाइम पास जैसी वनलाइनर कमेंट के बजाय अपनी कहानी और ट्रीटमेंट के अनुरुप ही पैसेज-दर-पैसेज चर्चा की मांग करती है..जो सिनेमा की इस तरह की चर्चा में दिलचस्पी में यकीन रखते हैं, उनके लिए ये एक बेहद ही खूबसूरत फिल्म है और जो घर में कूकर में राजमा-चावल चढ़ाकर आए हैं और लौटने की जल्दी है( सिर्फ अवधि के स्तर पर नहीं,दिमागी प्रबंधन के स्तर पर भी) उनके लिए तो पुलिसगिरी सेम डे,सेम टिकट पर है ही..:)
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373074529059#c7667521081479384425'> 6 जुलाई 2013 को 7:05 am बजे
सीधे-सीधे बताओ कि देखें कि मटिया दें। :)
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373091691454#c666479376752640809'> 6 जुलाई 2013 को 11:51 am बजे
bahut sunder likhaa!
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373110187707#c1573307803136460137'> 6 जुलाई 2013 को 4:59 pm बजे
अच्छी समझ के साथ लिखा है
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373526006538#c4879540487517107163'> 11 जुलाई 2013 को 12:30 pm बजे
Mera comment kahan gaya?
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373565467078#c8874454809186971643'> 11 जुलाई 2013 को 11:27 pm बजे
Vaise bada hi sateek vishleshan hai.
Ye chalchitra hame sahitya ke taraf le jata hai.
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373566359619#c4603994675027881996'> 11 जुलाई 2013 को 11:42 pm बजे
pranam sir
AB comment bhi chori hone lage
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373567104657#c3268294965925957671'> 11 जुलाई 2013 को 11:55 pm बजे
नीरजजी, मैं तो इस पोस्ट के छह दिन बाद नेट पर आया. आप न हो तो फिर से कर दें. संभव है आपने लिखने के बाद पोस्ट न किया हो.
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373713957233#c7129431506062637813'> 13 जुलाई 2013 को 4:42 pm बजे
ओह, जैसी लगी यह फिल्म, वैसी ही यह समीक्षा भी ..एकदम कम्प्लीट, मास्टरपीस,सुपर्ब, बेहतरीन...
बहुत बहुत आभार विनीत जी, हमारी भावनाओं को यूँ सुन्दर शब्द/अभिव्यक्ति देने के लिए ..
https://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_6.html?showComment=1373714324279#c6788082594717334666'> 13 जुलाई 2013 को 4:48 pm बजे
ओह, जैसी लगी यह फिल्म, वैसी ही यह समीक्षा भी ..एकदम कम्प्लीट, मास्टरपीस,सुपर्ब, बेहतरीन...
बहुत बहुत आभार विनीत जी, हमारी भावनाओं को यूँ सुन्दर शब्द/अभिव्यक्ति देने के लिए ..