उम्र बढ़ने के साथ-साथ चश्मे की पावर प्वाइंट का घटते चले जाना, सुखद आश्चर्य के साथ ही भ्रम पैदा करती है. ऐसा लगता है कि दिन-रात टीवी औऱ लैप्पी स्क्रीन और अब टच स्क्रीन पर भी जो हम आंखें गड़ाए रखते हैं, उससे निकलनेवाली किरणें आंखों में जाकर विटामिन में तब्दील हो जाती हैं. जैसे मां जब आए दिन नसीहतें देने कि ठीक से खाना पीना, खाली पढ़ाई-लिखाय कम्पूटर नहीं है लैफ में, शरीर है त सबकुछ है, अभी आंख बचाके रखोगे,तब न बुढ़ापा में मेरी तरह पोता-पोती को हंसते-खेलते देख सकोगे अब थककर जैसे आशीषों में बदलती चली गई कि हे ठाकुरजी,इ बुतरु तो मेरी बात मानेगा नहीं, आंख का जोति रहने दीजिए इसका...और लगता है इधर दस-बारह दिन सिलिंडर न होने के चक्कर में मुसल्ली,ओट और सैलेड खाया न, उसने भी अपना असर दिखा दिया..:)
वैसे दिनभर के लिए चश्मे को दूकान पर छोड़कर, बिना चश्मे के बौखना एक अलग किस्म का अनुभव रहा. लगा शरीर का एक हिस्सा हम कहीं औऱ डिपोजिट कर आए हैं. अगर आप चश्मा पहनते हैं तो चश्मे के ढीले न होने पर भी आपकी आदम में शुमार हो जाती है, हाथ से उसे उपर करते रहने की. जैसे जो लड़की शार्ट टॉप या टीज पहनती है, उसकी आदत पड़ जाती है, समय-समय पर पीछे से खींचकर नीचे करने की..बिना चश्मे के एक अलग ही दुनिया हो जाती है. आप दुनिया देख नहीं रहे होते हैं, उसका अंदाजा लगा रहे होते हैं. सामने से आती लड़की में आपको एम की क्लासमेट, चैनल की कोलिग, कैंपस की जॉकिंग मेट दिखाई देने लगती है. वो दूर से शाहिद कपूर के लिए हाथ हिलाती है और आप आप बेवजह अपने लिए समझकर हाथ हिलाने लग जाता हैं. वो किसी और को प्लाइंग किस्स दे रही होती है और आप जमा करने के लिए अपनी टिफिन आगे कर देते हैं. अंदाज की ये दुनिया वाकई बहुत दिलचस्प लेकिन तकलीफदेह होती है. आपका अन्तर्मन में शरीर की एकइन्द्री के कम काम करने पर बाकियों पर बोझ बनने लग जाती है. दिमाग को ज्यादा चौकस रहना होता है. मेरे जैसा आदमी तो दिमाग की स्विच ऑफ करके खालिस भावना में बहने लग जाता है. कोई बात नहीं, रिम्मी नहीं थी तो क्या हुआ, लग तो वैसी ही रही थी न.
अच्छा, आपकी इस छोटी सी जिंदगी में उलाहने देनेवाले कुछ लोग हमेशा आपके आसपास होते हैं. आपको जिंदगी के आखिर तक नहीं पता चलेगा कि वो आपसे चाहते क्या हैं ? थोड़े दुबले हुए नहीं कि क्या जी, मेहनत ज्यादा पड़ रही है, थोड़ा गेन किया नहीं कि- अरे आप ही का ठाठ है, दू कलास पेलिए और सरकार का माल गटकिए. हमलोगों को तो 12 घंटे की घिसाई. ऐसे लोग चश्मा साथ न होने की स्थिति में आदतन दूर से हांक लगाते है जैसे आप अंडमान निकोबार में बैठकर मछली पकड़ रहे हों और दिल्ली में उनके होने से आवाज आप तक जा नहीं रही हो या फिर आप टंकी पर चढ़े हों और बसंती, वीरू और मौसी नीचे हो. आप फिर अतिरिक्त दिमाग को सक्रिय करते हैं और मैं फिर भावनात्मक होकर एक्स को एक्स समझने की कोशिश किए बगैर बाई की कल्पना करने के साथ ही उसके संदर्भों में खो जाता हूं. वो चिल्लाते हुए नजदीक आ जाता है और हमें होश नहीं रहता. अचानक नोटिस बोर्ड पिन की तरह चुभती उसकी बात आपको लगती है- हां, त बड़ा आदमी हो गए हैं तो काहे ल हम जैसे टटपूंजिया को चिन्हिएगा..भई बड़ा आदमी का तो लच्छन ही है देख के अनदेखा करना, आप कुछ गलत थोड़े ही कर रहे हैं.
हम और आप उन्हें ये समझाने की कोशिश करते हैं, बिना चश्मे के दूर की चीजें साफ नहीं दिखाई देती लेकिन वो फिल्म दोस्ताना टाइप की डायलॉग मारने से बाज नहीं आते- इतना भी किसी का आंख कमजोर नहीं होता कि वो चार साल साथ रहे हॉस्टलर को भूल जाए..अगर वो चश्मे के न होनेवाली मजबूरी को सुन भी ले तो दूसरी नोटिस बोर्ड पिन- हां त बुढ़ारी में देखे कि कैंपस में ढेरे तितली है, चश्मा लगाके घूमेंगे त शायद काम न बने, बिना चश्मा के रहेंगे त न आपको भी सब लौंड़ा-छौंड़ा टाइप का समझेगी. आप और हम ऐसे लोगों से कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं होते हैं. बस इस बात पर आकर टिक जाते हैं- यार, किसी इंसान का दिमाग इतना एक्ट्रा वर्जिन होता है कि आठ साल पहले जैसे बोला और सोचा करता था, आज भी वही का वही है.
ऐसे उलाहनाबाजों से पिंड छूटने के साथ ही चश्मे का पावर घटने की खुशी में हम आर्टस फैक के छोले-कुलचे खाने का जो मूड बनाया था, वो तो झंड़ हो जाती है लेकिन तभी कुछ अलग और इतना अलग होता है कि कुलचे को गोली मारकर सीधे हंसराज कॉलेज के सामने की राउलपिंडी के छोले-भटूरे की तरफ भागते हैं.
मामला कुछ इस तरह बनता है. ट्राउजर ऑल्टरेशन के लिए हम जिस शोरुम में जाते हैं, वो इतना गौर कर चुकी होती है कि मैं चश्मा लगाकर आया हूं और उसे ठीक-ठीक याद भी रह जाता है. अगली बार, एक घंटे बाद वो देखती है कि मेरे चेहरे पर चश्मा नहीं है. वो अपने को रोक नहीं पाती है और पूछ बैठती है- एक्सक्यूज मी सर, आपने अपनी स्पेक्टस कहीं छोड़ तो नहीं दी, आप एक घंटे पहले तो पहनकर आए थे. फर्ज कीजिए कि चश्मा पहनेवाला मैं न होकर कोई लड़की होती और टोकनेवाला शरुम की वो लड़की न होकर लड़का होता तो ? तो होता ये कि लड़की के मन में ये बात बैठ जाती कि इस शोरुम के लड़के चीप है, ताड़ते हैं. उसे क्या मतलब मेरी स्पेक्ट्स से..मैं पहनूं या फेंक दूं. अब नहीं आना है इस शोरुम में. लेकिन
लेकिन टोकनेवाली लड़की थी और जिसे टोका था वो लड़का..लिहाजा,मुझे बेहद अच्छा लगा. मुझे हंसराज के अपने साथी और टीचर इन्चार्ज राजेश की याद आ गयी. वो जब भी मीडिया और साहित्य पर कोई कार्यक्रम करते तो अपने प्रिसिंपल के लिए एक लाइन जरुर बोलते- प्रिसिंपल सर अक्सर वीऑन्ड द लिमिट और एक्सपेक्टेशन जाकर मेरी मदद करते हैं. उस शोरुम की लड़की के लिए मन ही मन मैंने वो लाइन दुहरा दी और बहुत प्यार से थैंक्स कहा..फिर मन न माना तो पूछ ही लिया- आप कस्टमर को इतना गौर से देखती हो कि किसका चश्मा छूट गया ? बिल्कुल सर, आप मेरे लॉएल कस्टमर हो, अभी तो मार्केट में हो, याद कर सकते हो कहां छूटी है. घर जाने पर परेशान होते, आना पड़ता.
हां, ये बात तो है. थैंक्स अगेन फॉर द कन्सर्न वट मैं अपना चश्मा कहीं भूला नहीं हूं, ग्लास बदलने दिया है.
अबकी बार न उसकी तरफ से कोई शब्द थे और न ही मेरी तरफ से..बस भीतर ही भीतर कुछ घुल रहा था- हर चौराहे पर हमें केयरिंग इतना प्यारा क्यों लगता है ?
https://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_15.html?showComment=1371297022698#c1987065654276200427'> 15 जून 2013 को 5:20 pm बजे
badiya
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https://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_15.html?showComment=1371299553129#c6304608411666981552'> 15 जून 2013 को 6:02 pm बजे
साफ़ नज़र क्या खेल दिखेगा दुनिया का, बंद आंख से देख तमाशा दुनिया का...
जय हिंद...
https://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_15.html?showComment=1371305441419#c2341889607129036197'> 15 जून 2013 को 7:40 pm बजे
Maja aa gaya!!!
Padh kar!!
https://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_15.html?showComment=1371365917131#c8794438386458155171'> 16 जून 2013 को 12:28 pm बजे
वो किसी और को प्लाइंग किस्स दे रही होती है और आप जमा करने के लिए अपनी टिफिन आगे कर देते हैं.
अबकी बार आयेंगे तो तुम्हारा टिफ़िन खुलवाकर देंखेंगे। :)
https://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_15.html?showComment=1371626807904#c8055424979976327304'> 19 जून 2013 को 12:56 pm बजे
चशमा लगातार प्रयोग करते रहने से वह शरीर का एक अंग ही बन जाता है ऐसे में ये लगना जायज़ है कि आप अपने शरीर का एक अंग डिपाजिट करवा दीये हो....