समाजशास्त्री आशीष नंदी ने जयपुर लिटरेचर फेस्टीबल में भ्रष्टाचार और जाति के अन्तर्संबंधों को लेकर जो कुछ भी कहा- अब वो गोबर,कम्पोस्ट की शक्ल में न्यूज चैनलों की स्क्रीन पर अधकचरे एंकरों की ओर से लीपे जा रहे हैं. बयान,प्रकरण,विवाद ऐसी शब्दावलियों की अनुकंपा से माहौल कुछ इस तरह बनाने की कोशिशें जारी है जैसे कि आशीष नंदी कोई चिंतक और समाजशास्त्री न होकर मुहल्ले के छुटभैय्ये नेता हों. अव्वल तो उन्होंने कोई बयान नहीं दिया, जो कुछ भी कहा, उनके विमर्श का हिस्सा है. दूसरा कि ये कोई राजनीतिक रैली नहीं है बल्कि तथाकथित देश और दुनियाभर के बुद्धिजीवियों का जमावड़ा है. ऐसे में जरुरी नहीं कि आशीष नंदी जो कुछ भी कहें वो मैं हूं आम आदमी की टोपी से मेल खाए. ये आम आदमी के विरोध में जाना नहीं बल्कि कार्यक्रम के मिजाज को समझना भर है. ऐसे में ये एक गंभीर सवाल है कि क्या विमर्श की दुनिया में भी हम दबी जुबान से एक लोकपाल की मांग कर रहे हैं और एक किस्म की सेग्मेंटेशन चाहते हैं. फेसबुक पर की गई मेरी कुछ टिप्पणियों से गुजरते हुए आप भी अपनी राय साझा करें-
1. बधाई हो जयपुर लिटरेचर फेस्टीबल.तुम्हारा काम हो गया. भेड़ियाधसान भीड़ में परिचर्चा का कोई वर्थ तो खास होता नहीं, हां पूरी पीआरए एजेंसी विवाद पैदा करने की जी-तोड़ में कोशिश लगी हती है,वो हो गया. लेकिन अफसोस और शर्म के साथ कहना पड़ रहा है जिन चैनलों ने अपने भीतर समाजशास्त्र की एबीसी गायब कर दी है वो आशीष नंदी और उनके बयान को इस तरह से पेश कर रहे हैं जैसे कि वो एक गंभीर समाजशास्त्री और चिंतक नहीं बल्कि मुहल्ले के छुटभैय्ये नेता है. आशीष नंदी को जेल क्या, फांसी पर चढ़ाने की मांग कीजिए. ठहरकर सोचने और उस पर गंभीर राय रखने की गुंजाईश वैसे भी कहां रह गई है इस देश में.
2. आशीष नंदी को लेकर जयपुर लिटरेचर फेस्टीबल के आयोजक चुप्प हैं. आपको लगता है कि बिना उनकी चुप्पी या मौन सहमति के उनकी कही बातें बयान की शक्ल में टीवी स्क्रीन पर बेहूदे ढंग से तैर रही है. अव्वल तो आशीष नंदी किसी चुनावी रैली में बोलने नहीं गए हैं कि उनके कहे को बयान कहा जाए. तथाकथित रुप से ये देश और दुनिया के बुद्धिजीवियों का जमावड़ा है जहां आशीष नंदी बयान देने नहीं,विमर्श करने गए. जेएलएफ के आयजकों को सबसे पहले चाहिए कि वो उनकी बात को बयान का नाम न दे और दूसरा कि वो लगातार टीवी स्क्रीन मॉनिटर करे और समझने की कोशिश करे कि कैसे उसकी टुच्ची मानसिकता और महत्वकांक्षा के आगे एक ऐसे शख्स को डिमीन किया जा रहा है जिसने अपने अध्ययन का बड़ा हिस्सा उन्हीं सारी बातों के खिलाफ लगा दिया, जो अब उन पर थोपे जा रहे हैं. चैनलों के अधकचरे, लफाडे टाइप के लोग जो फतवा जारी करने के अंदाज में एंकरिंग कर रहे हैं, उस पर गंभीरता से विचार करें कि क्या वो अकादमिक दुनिया की बहसों को इसी रुप में देखना चाहते हैं. बयान,सफाई, विवाद..इन शब्दों के प्रयोग से आशीष नंदी देश के समाजशास्त्री नहीं छुटभैय्ये नेता के रुप में पोट्रे किया जा रहा है, जो कि दुखद है.http://www.firstpost.com/living/exclusive-everyone-free-to-interpret-my-statement-says-author-ashis-nandy-603060.html
3. जयपुर लिटरेचर फेस्टीबल तथाकथित देश-दुनियाभर के लोगों का जमावड़ा है लेकिन आशीष नंदी की बातचीत को लेकर हुए विवाद के बाद न्यूज चैनलों में जिस तरह की प्रस्तुति जारी है, वो किसी पार्टी की रैली की हो-हो से ज्यादा नहीं है. चैनल की समझदारी पर गौर करें कि वो आशीष नंदी को किस तरह से पोट्रे कर रहे हैं, आप एक झलक में अंदाजा लगा सकते है कि इन चैनलों को आशीष नंदी के बारे में कुछ पता नहीं है. कुछ नहीं तो पिछले दिनों आई तहलका की कवर स्टोरी ही पढ़ लेनी चाहिए थी लेकिन इतनी समझ कहां है उन्हें. भला हो अभय कुमार दुबे का जिन्होंने एबीपी पर आकर सबसे पहले दुरुस्त किया कि आशीष नंदी सीएसडीएस के निदेशक नहीं है, हमारे ऐसे गुरु हैं जिनसे हमने बहुत कुछ सीखा है और इतना तो खासतौर पर कि वो किसी भी रुप में दलित विरोधी नहीं है.
4. करोड़ों रुपये के खर्चे और प्रायोजकों के भारी दवाब के बीच साहित्य समारोह इसी तरह के हो सकते हैं जिस तरह के जयपुर लिटरेचर फेस्टीबल हो रहे हैं. इस करोड़ों के खर्चे के बीच अगर फेस्टीबल चर्चा में नहीं आए तो फिर खर्चे का क्या तुक है ? आप द टाइम्स ऑफ इंडिया में दिए नमिता गोखले की इंटरव्यू पढ़िए और पैसे के सवाल के जवाब पर गौर कीजिए, आप काफी कुछ समझ सकते हैं. आप बताइए कि एक तरफ तो कहते हैं कि ये बुद्धिजीवियों का जमावड़ा है और दूसरी तरफ इसके भीतर उठनेवाले मामले की ऐसी हू ले ले ले होनी शुरु होती है, अब विमर्श की दुनिया के लिए भी लोपकपाल की मांग करेंगे क्या ? मीडिया में अधकचरे,पीआर और जूते चटकानेवाले लोगों की भरमार होने पर विमर्श की दुनिया इसी तरह तंग होगी. जेएलएफ का क्या है, कार्पोरेट की मंडी में बैठा है, साहित्य नहीं तो सिनेमा पर बहस कराएगा.http://timesofindia.indiatimes.com/home/opinion/interviews/The-confrontation-between-English-vs-bhasha-writing-is-past-Namita-Gokhale/articleshow/18136423.cms?intenttarget=no#write
5. कुमार विश्वास की जानकारी है कि ये जयपुर फिल्म फेस्टीबल है जिसमे सिर्फ सिनेमा के लोग आते हैं,सिलेब्रेटी आते हैं जो कि आमलोगों की समस्याओं से पूरी तरह कटे हुए हैं. एंकर ने उनकी जानकारी दुरुस्त की कि नहीं ये लिटरेचर फेस्टीबल है तब जाकर वो ललित निबंध का सस्वर पाठ करने लगे. हद हो गई, आयोजकों ने मीडिया से लेकर पीआर एजेंसी पर करोड़ों रुपये फूंक दिए और कुमार विश्वास को इतनी भी जानकारी नहीं है कि ये जेएलएफ है क्या बला ?
6. जयपुर लिटरेचर फेस्टीबल के साथ बिडंबना ये है कि उसने बीड़ा तो उठाया है लिटरेचर फेस्टीबल कराने की लेकिन महत्वकांक्षा स्टैंड अप कॉमेडी जैसा पॉपुलर बनाने की है. लिहाजा शुरु से उन शख्सियत को जुटाता आया है जिनके प्रभाव से लोग आएं लेकिन जब ऐसा नहीं हो पाता है..(वहां हो भी जाए तो देशभर में चर्चा के स्तर पर) तो कुछ नहीं विवादों का पलीता बिछा दो. मैं तात्कालिकता में जीनेवाला और कालजयिता का समय-समय उपहास उड़ानेवाले इतना जरुर समझता हूं कि जेएलएफ जिस हड़बड़ी में जिन मुद्दों पर बात कराता आया है, उतनी हड़बड़ी में हम टमाटर तक नहीं खरीदते. गौर कीजिए, इसके पीछे की पूरी स्ट्रैटजी क्या है ? कहीं इतनी तो नहीं, इस देश और कुछ दुनिया के भी साहित्यकार और बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें हम चाह लें तो ताश के पत्ते की तरह फेंट दे सकते हैं. http://ibnlive.in.com/news/i-was-misquoted-had-said-corruption-among-rich-is-overlooked-nandy/317876-3-239.html?from=HP
7. शहर में एक लड़की के साथ बलात्कार होता है तो मीडिया में उसके लिए प्रयोग होता है- दिल्ली गैंगरेप मामला. शहर इस खबर में निशाने पर होता है लेकिन जयपुर लिटरेचर फेस्टीबल में आषीश नंदी की बातचीत के बाद जो कुछ हुआ, उसमें जयपुर लिटरेचर फेस्टीबल इस तरह से इस्तेमाल नहीं हो रहा है. आपको क्या लगता है, ये सब अनायास है ? कहीं मीडिया ऐसे ही मौके पर अपनी साख और होल्ड अर्जित करने में तो तुरंता कोशिश नहीं करने लग जाता है ?
https://taanabaana.blogspot.com/2013/01/blog-post_47.html?showComment=1359210431704#c2890678893391771816'> 26 जनवरी 2013 को 7:57 pm बजे
विनीत कुमार जी,
क्या आप इस गोबर-विमर्श में यह भी जानकारी देंगे कि वहां मौजूद आशुतोष ने आशीष नंदी के "विमर्श" यानी विमर्शात्मक खयालों पर आपत्ति क्यों जताई और उनके खिलाफ क्यों खड़े हो गए...?
https://taanabaana.blogspot.com/2013/01/blog-post_47.html?showComment=1359220968843#c5651794325640059893'> 26 जनवरी 2013 को 10:52 pm बजे
मैंने जो कहा, इस संदर्भ में नहीं कहा था और ना ही मैं ऐसा कहना चाहता था.
पूरे सत्र में जो बात उठी वो इस प्रकार थी.
मैं तहलका के संपादक तरुण तेजपाल की बात का समर्थन कर रहा था. भारत में
भ्रष्टाचार हर तरफ फैला हुआ है. मेरा मानना है कि एक भ्रष्टाचार-मुक्त समाज एक
तरह की तानाशाही जैसा होगा.
सत्र में इससे पहले मैंने ये कहा था कि मेरे या रिचर्ड सोराबजी जैसे लोग जब
भ्रष्टाचार करते हैं तो बड़ी सफाई से कर जाते हैं, फर्ज करों मैं उनके बेटे को
हार्वर्ड में फैलोशिप दिलवा दूं या वो मेरी बेटी को ऑक्सफोर्ड भिजवा दे. इसे
भ्रष्टाचार नहीं माना जाएगा. लोग समझेंगे कि यह उनकी काबिलियत के बिनाह पर
किया गया है.
लेकिन जब कोई दलित, आदिवासी या ओबीसी का आदमी भ्रष्टाचार करता है तो वह सबकी
नजर में आ जाता है. हालांकि, मेरा मानना है, इन दोनों भ्रष्टाचारों के बीच कोई
अंतर नहीं है और अगर इस भ्रष्टाचार से उन तबकों की उन्नति होती है तो
भ्रष्टाचार में बराबरी बनी रहती है. और इस बराबरी के बलबूते पर मैं गणतंत्र को
लेकर आशावादी हूं.
आशा है कि मेरे इस बयान से यह विवाद यहीं खत्म हो जाएगा. अगर इससे गलतफहमी
पैदा हुई है तो मैं माफ़ी चाहता हूं. हालांकि, ऐसी कोई बात हुई नहीं थी. मैं
किसी भी समुदाय की भावना को आहत नहीं करना चाहता था और अगर मेरे शब्दों या
गलतफहमी से ऐसा हुआ है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूं.
आशीष नंदी
https://taanabaana.blogspot.com/2013/01/blog-post_47.html?showComment=1359308629252#c3334254673361053440'> 27 जनवरी 2013 को 11:13 pm बजे
अभी मैंने आशीष नंदी जी का इंटरव्यू पढ़ा। मीडिया का उनके बयान पर रुख देखकर ताज्जुब नहीं हुआ।
यह पोस्ट लिखकर पुण्य का काम किया विनीत !
https://taanabaana.blogspot.com/2013/01/blog-post_47.html?showComment=1359367208616#c4955403366672530639'> 28 जनवरी 2013 को 3:30 pm बजे
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/01/130128_nandy_case_skj.shtml
जयपुर महोत्सव में एक चर्चा के दौरान जिसमें नंदी, आईबीएन7 चैनल के संपादक आशुतोष, रिचर्ड शोराबजी और जाने माने पत्रकार तरुण तेजपाल थे.
तेजपाल के इस वक्तव्य पर कि भ्रष्टाचार सभी को एक जगह लाकर खड़ा कर देता है, नंदी ने कहा कि वो इसका समर्थन करते हैं.
नंदी ने आगे कहा कि भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार के मामले अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी वर्ग के आते हैं.
उनका कहना था, ‘‘यह कहना बहुत अशोभनीय और घिनौना होगा लेकिन तय़् यही है कि सबसे अधिक भ्रष्ट लोगों में ओबीसी, अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों की संख्या बढ़ रही है. जब तक ये होगा तब तक मुझे अपने गणतंत्र से उम्मीद है.’’
इससे पहले कि वो आगे और विवरण देते आईबीएन7 के संपादक ने इसका कड़ा विरोध किया और फिर दर्शकों ने भी.
इस घटना के "बाद" "फर्स्ट पोस्ट" को दिए इंटरव्यू में नंदी ने अपने बयान को और स्पष्ट करते हुए कहा कि उनके कहने का पूरा मतलब ये था कि दलितों और ओबीसी लोगों की तुलना में ऊंची जाति के लोगों के पास अपने भ्रष्टाचार को छुपाने के कई उपाय होते हैं और इसलिए वो पकड़े नहीं जाते हैं