.


बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीति पर आधारित टीवी सीरियल बालिका वधू अब दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे की शादी सेट में पूरी तरह तब्दील हो चुका है. गले में एक धागा भर पहननेवाली जिस आनंदी को शुरु से ही भारी गहने और कपड़े से चिढ़ रही है,जिसे पहनकर वो अमिया तक नहीं तोड़ सकती थी, अब उसे मेंहदी लगाकर रखने की नसीहत देनेवाले रिश्तेदारों और सहेलियों की सिमरन की तरह सजाया-संवारा जा रहा है..और ये सबकुछ हो रहा है आनंदी के उस ससुराल में जहां वो जगिया की बालिका वधू बनकर आयी और जहां आकर दिन-रात उसने यही सोचा- कैसे इस ससुराल और दादी सा की चंगुल से निकलकर वापस बापू के घर भाग सकती है. लेकिन अगले दो-चार एपीसोड में कलक्टर साहब की पत्नी बनकर अपने पहले ससुराल यानी दादी सा के घर से विदा होनेवाली आनंदी के लिए सामाजिक कुरीति के तहत मिला जगिया, उसके साथ का अतीत और मौजूदा दगाबाजी ही पहला प्यार लगता है.



कलर्स चैनल ने आनंदी और जगिया की शादी के बहाने भले ही बाल विवाह जैसी सामाजिक कुरीति के प्रति समाज को संवेदनशील बनाने का स्वांग रचा हो और हेडलाइंस टुडे सहित दूसरे दर्जनभर चैनल इसके जरिए इस कुरीति के हमेशा के लिए खत्म होने के दावे में खड़े नजर आए हों लेकिन आनंदी के लिए वो कुरीति नहीं, कच्चे धागे के पक्के रिश्ते हैं. अब उसकी पूरी चिंता इस बात पर आकर टिक गयी है कि कलक्टर साहब और उनके घर के लोग जो उन्हें प्यार देंगे, बदले में वो उन्हें क्या लौटाएगी क्योंकि प्यार तो जिंदगी में एक ही बार होता है और वो तो उसी जगिया से है जिसने उसे छोड़कर गौरी से शादी कर ली, उसी दादी सा से है जिसने उसके पढ़ने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी थी, रातभर कमरे में भूखा रखा था..ये सब नजारा देखते हुए हम दर्शकों के दिमाग में ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या बालिका वधू को बड़ा होकर इसी तरीके से समझदार होना था और विवाह संस्था, उत्सवधर्मी माहौल,पारिवारिक मूल्यों और जूलरी-कपड़ों की आउटलेट के बीच चहलकदमी करती हुई टीवी सीरियलों की स्त्री छवियों की नियति पहले से निर्धारित है. साल-दो साल के एपीसोड में भले ही उसे एकता कपूर के सास-बहू सीरियलों से अलग दिखाने की कोशिश होती रही हो लेकिन आखिर में हरेक स्त्री को तथाकथिक उसी पारिवारिक मूल्यों, भारी-भरकम जेवरातों, चमकीले फर्नीचर और सतरंगे पर्दे से सजी बेडरुम के आगे नतमस्तक होना है जिसे कि टीआरपी की कोख से पैदा होनेवाले बाजार और विज्ञापन के तर्क ने तय कर दिया है
?

सिर्फ आनंदी ही क्यों गहना( बालिका वधू),ललिया( अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ), इचकी( उतरन), सिया(लाडो न आना इस देश में), इंदिरा( हिटलर दीदी), मिसेज मेघा( ना बोले तुम ना मैने कुछ कहा) और यहां तक कि बड़े अच्छे लगते हैं की प्रिया भाभी को वैसा नहीं होना था जैसा कि वो आगे चलकर हो गई. अपनी कहानी की बुनावट में ये चरित्र जिस तरह से शामिल किए गए थे, उसे आगे चलकर अपने उस अतीत का रोल मॉडल बनना था जिसकी शर्तों पर वो सास-बहू सीरियलों की बारहमसिया घरेलू कलह,पारिवारिश रंजिशें,नायक-खलनायक के बीच बंटे चरित्रों के तमाशे से आगे निकलकर दर्शकों के बीच भरोसा कायम करने की कोशिश की थी कि- टीवी सीरियलों के जरिए कुछ नहीं तो स्त्रियों के प्रति संवेदनशील माहौल पैदा करने का काम हो रहा है. मसलन, गर्लचाइल्ड होने पर उसकी हत्या करने पर मजबूर करनेवाली अम्माजी के खिलाफ अकेले खड़ी होनेवाली सिया को सीन से गायब नहीं होना था, सीरियल के इतिहास में अपने को छोटी जाति की होने की बात करनेवाली ललिया को ठाकुर के महल की चकाचौंध में खो नहीं जाना था, उतरन पर पलनेवाली इचकी जैसी क्रिएटिव माइंड को मंहगे कपड़ों और जूलरी से लदकर दिन-रात आंसू नहीं बहाना था, अपने पति पर लगे झूठे आरोप के लिए मुकदमा लड़नेवाली मिसेज मेघा को पत्रकार मोहन के साथ ब्याह नहीं रचाना था. इसी तरह हिटलर दीदी से मशहूर इंद्राणी के संघर्षों की परिणति ऋषि कुमार से शादी में नहीं होनी थी. यहां तक कि नकुषा( लागी तुमझे लगन) को अपनी उसी शक्ल को लेकर आगे जाना था जिसे समाज ने बदसूरत मानकर लगातार नफरत किया था. सीरियलों की नई खेप में पिछले चार-पांच साल के ये वो दर्जनभर से भी ज्यादा चरित्र हैं जो स्त्री छवि के स्याह-सफेद विभाजन से अलग थे. जिन्हें आप सीधे-सीधे अच्छा या बुरा करार नहीं दे सकते. जो पहले से निर्धारित आदर्श बेटी,पत्नी/ गर्लफ्रैंड या बहू के खांचे में फिट नहीं बैठते थे. ये अपना चरित्र जीते हुए समाज के उन-उन ठिकानों की तरफ हमें ले जा रहे थे जो मर्दवादी सोच,विवाह-संस्था और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर जकड़बंद नहीं थे. जो भव्य बेडरुम,लीविंग स्पेस, ऑफिस यानी प्रायोजकों की जमीन पर नहीं जी रहे थे, वो इन सबसे आजाद उस परिवेश में जी रहे थे जिसे दूरदर्शन के बाद निजी चैनलों ने पूरी तरह खत्म कर दिया था. याद कीजिए स्टार प्लस के सीरियल, आप यकीन ही नहीं कर सकते थे कि इस देश में गांव भी है, कस्बे भी हैं, आए दिन फैशन अपडेट्स के बीच कोई ऐसी भी स्त्री चरित्र है जो दो ठकुए के लिए ठाकुर के घर अनगनित घड़े पानी भर सकती है(ललिया). ये वो चरित्र रहे हैं जिनके जरिए समाज का दोमुंहापन, उसकी पेचीदगी,कमीनापन ज्यादा खुलकर सामने आ पा रहा था. नहीं तो इससे पहले के सीरियलों को लेकर स्थिर धारणा कायम हो गई थी कि टीवी सीरियलों की स्त्रियां या तो झगड़ालू/खलनायक होती है,दिन-रात बिसूरनेवाली होती है, पति-प्रेमी की इच्छाओं के आगे जान देने के लिए तैयार होती है या फिर वेवकूफ होती है. ऐसे में तृष्णा(कहानी घर-घर की), काकुल( क्या दिल में है), तुलसी( क्योंकि सास भी कभी बहू थी) और रानी( वो रहनेवाली महलों की) सिर्फ चरित्र भर नहीं रह जाती, एक गाइडलाइन बनती गईं जहां उन सबको इनमें से कोई एक बनना होगा. लेकिन

कलर्स ने 2007 में अपने बिजनेस पैटर्न के तहत बालिका वधू के साथ-साथ उतरन,लाड़ो न आना इस देश में, बैरी पिया जैसे एक के बाद एक सामाजिक समस्याओं पर आधारित सीरियलों को लांच किया और जबरदस्त व्यावसायिक सफलता मिली, उसने एक तरह से सीरियल के सेट पैटर्न को तोड़ने का काम किया. इस दौरान एकता कपूर के के फैक्टर के एक के बाद एक सीरियल धड़ाधड़ बंद होने शुरु हुए और उसी के साथ तुलसी,पार्वती,कुसुम जैसी आदर्श पत्नी,बहू के आगे कन्या भ्रूण हत्या, विदर्भ के किसानों की आत्महत्या, अपहरण जैसी सामाजिक समस्याएं इतनी प्रमुखता से सामने आने शुरु हुई कि लगा कि जो सीरियल वूमेन स्पेस( कंटेंट,दर्शकों और चरित्रों की संख्या के आधार पर) होने के नाम पर जनाना डब्बा बना हुआ था, उसे अचानक खुले विमर्श के लिए छोड़ दिया गया है. इसका एक फायदा सिग्मेंटेड ऑडिएंस के बजाय पुरुष और बच्चे दर्शकों की संख्या में इजाफा तो हुआ ही, साथ ही जिन स्त्री चरित्रों को सीरियलों ने वेनिटी बॉक्स और ड्रेसिंग टेबल के आसपास फंसाए रखा था, वो उससे छिटककर समाज के बीच चली गई. आप गौर करें तो पिछले चार-पांच सालों के सीरियलों में ये स्त्री चरित्र उन मुद्दों और मसलों से जूझती नजर आयीं जो हार्डकोर पुरुष-सत्ता के अधीन रहा हो. लाडो न आना इस देश में अम्माजी के खिलाफ सिया का चुनाव लड़ना, इससे पहले सीरियलों में राजनीति शामिल नहीं थी. न तो मैं अपने मां-बापू के घर जाउंगी और न ही आपके और आपके बेटे की कोई जोर-जबरदस्ती सहूंगी. ब्याहकर लायो हो म्हारे को जैसे संवाद के जरिए उत्तराधिकार की लड़ाई में शामिल गहना जैसे चरित्र पैदा किए. कलर्स की इस व्यावसायिक सफलता ने उन चैनलों और सीरियलों को खुली चुनौती दी जिसके पास स्त्री को आदर्श पत्नी,बहू,बेटी से अलग करके देखने का कलेजा नहीं था. नतीजा, वही चैनल और वही एकता कपूर जैसी सोप ओपेरा की महारानी समस्यामूलक सीरियलों की तरफ मुड़ती चली गई और ये इस स्थिति तक जाकर पहुंचा कि अपने को ठंके की चोट पर छोट जात का कहनेवाली चरित्र ललिया को दर्शकों ने स्वयंवर रचाने लायक बना दिया.

कलर्स के अलावे सामाजिक समस्याओं को लेकर जीटीवी, सोनी, स्टार प्लस और भूतपूर्व चैनल एनडीटीवी इमैजिन ने जितने भी सीरियल बनाए, एकबारगी तो उसने सीरियलों की लैंडस्केप बदलने के साथ-साथ स्त्री-चरित्रों में वरायटी तलाशने की भरपूर संभावना पैदा की, जो कि शुरुआत के कुछ एपीसोड में स्वाभाविक भी लगे. यहां तक कि मधुबाला( कलर्स) तक आते-आते तीन एपीसोड ने इस फ्लेवर को बचाए रखा और फिल्म सेट पर पैदा होनेवाली मधुबाला को भी चैनल ने सादगी भरा बख्श दिया(जाहिर है तीन एपीसोड तक ही). लेकिन बहुत जल्द ही चैनलों ने ये स्पष्ट कर दिया कि वे मनोरंजन चैनल हैं और उनका काम न्यूज चैनलों की नाटकीयता पैदा करनी तो है लेकिन मीडिया जैसा कोई स्थायी असर पैदा करना नहीं. नतीजन, एक-एक करके सारे सीरियल उसी सास-बहू वाले पुराने ढर्रे की तरफ लौटते चले गए जिससे कि दर्शक मेट्रमोनियल वेबसाइट और एजेंसी से गुजरने का सुख पा सके. ये काम इतनी बारीकी से हुआ कि उन दर्शकों को ऐसी आदर्श पत्नी चुनने में मदद मिल सके जो कि सोशल एक्टिविज्म की पृष्ठभूमि से आते हुए भी आखिर में ये समझ चुकी होती है कि परिवार,पति और बच्चे के आगे कुछ भी नहीं है, उसकी दुनिया इसी के इर्द-गिर्द घूमनी है. दूसरी तरफ इन सामाजिक समस्याओं को पैदा करने और बरकरार रखनेवाला मर्द पहले के सीरियलों से थोड़ा सॉफ्ट कर दिया गया है. मसलन सूरज टिपिकल पति की तरह नहीं चाहता कि अपनी पत्नी संध्या को चूडी-बिंदी तक फंसाकर रखे, वो खुद भले ही मिठाई की दूकान पर बैठे लेकिन संध्या कम से कम बीएड कर ले.

सामाजिक समस्याओं से चंद एपीसोड तक मुठभेड़ करके आनेवाली स्त्री चरित्रों और एकता कपूर के करीब एक दशक तक मौके के हिसाब से सजने-संवरनेवाली स्त्री चरित्रों(जिनमें बा जैसी सास भी शामिल हैं) के बीच एक तीसरे किस्म के स्त्री चरित्रों का विस्तार तेजी से हो रहा है जो कि व्यावसायिक सफलता और लोकप्रियता के लिहाज से खासा पॉपुलर हो रहा है. बड़े अच्छे लगते हैं की प्रिया भाभी, कुछ तो लोग कहेंगे की 24 साल की इन्टर्न डॉ निधि वर्मा, परिचय की सिद्धि मलिक( एकता कपूर की पैदाइश), कृष्णा राज( अफसर बिटिया) ऐसे ही चरित्र हैं जिनमें अलग-अलग स्तर पर जीवन संघर्षों और सामाजिक समस्याओं से जूझने की फ्लेवर तो शामिल है ही,साथ ही ये भी बखूबी जानती है कि किस मौके पर अपने जीवनसाथी को क्या सलाह देनी है, घर बैठकर उनकी कमाई खाने और सजने के बजाय कैसे प्रोफेशनली मदद करनी है और हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहकर उनके सारे दुखों को हर लेना है. आप इन चरित्रों पर गौर करेंगे और आसपास की उन स्त्रियों की जिंदगी से मिलान करेंगे जो ऑफिस भी जाती है और घर भी संभालती है तो यकीन हो जाएगा- दरअसल पूरी टीवी सीरियल देश के उन कुंवारे लड़कों/अधेड़ की गिरफ्त में फंसा हुआ है जिसे पढ़ी-लिखी, किट्टी-कॉकटेल पार्टी में गर्लफ्रैंड और घर आकर घरेलू/आदर्श पत्नी बनकर जीनेवाली लड़की की शिद्दत से तलाश है. तभी असल जिंदगी में 37 साल का लड़का और 24 साल की लड़की भले ही बेमेल विवाह हो लेकिन सीरियलों में ऐसी जोड़ियां न सिर्फ सुपरहिट है बल्कि खुशनसीब है. ये सीरियल उन प्रायोजकों की इजारेदारी है जिनके स्त्री चरित्र भारी-भरकम जूलरी नहीं पहनेंगे, मंहगे फर्नीचर,सेटअप के साथ आलीशान घर में नहीं रहेंगे तो उनके बिजनेस का भठ्ठा बैठ जाएगा. और तब आप कहेंगे जिन स्त्री-चरित्रों पर घर,परिवारिक मूल्यों, विवाह-संस्था, भावनात्मक जमीन के साथ-साथ बाजार बचाने की जिम्मेदारी लाद दी गई हो वो इन सबसे अलग भला कैसे हो सकती है ?          
सीरियलों में ये चरित्र सास-बहू और समस्यामूलक सीरियलों के चरित्रों की एक ऐसी कॉकटेल है जिसका आगे विस्तार होना है. जो स्त्री अधिकारों,आधी दुनिया के सवाल, पहचान की राजनीति को एक-एक करके बकवास करार देने जा रही है. जो उन्हीं मान्यतों और तथाकथित मूल्यों को अपनाने जा रही है जिसे हम और आप सास-बहू सीरियलों के निर्धारित चरित्रों में पूरी तरह खारिज कर चुके हैं लेकिन अब उतनी ही आसानी से नहीं कर सकते. ऐसा इसलिए कि इन चरित्रों ने अपने जीवन में वो सबकुछ करके देख लिया जिससे उसकी अपनी पहचान, इच्छाओं की उड़ान, निजता की रक्षा और स्वतंत्र व्यक्तित्व मिलने-बनने थे. अब वो इस निष्कर्ष तक पहुंची है कि पुरुष के बिना जीवन जिया नहीं जा सकता, पति परमेश्वर नहीं भी तो सोलमेट है और अगर हम परिवार नहीं बचा सकते तो फिर वीरपुर की पंचायत चुनाव लड़कर ही क्या बदलाव ले आएंगे.

मूलतः प्रकाशित, तहलका हिन्दी महिला विशेषांक जनवरी 2013
| edit post
2 Response to 'टीवी सीरियल के लिए स्त्रियां मर्दों की विटामिन गोली भर है'
  1. Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून
    https://taanabaana.blogspot.com/2013/01/blog-post_5.html?showComment=1357471187202#c5703336764309461403'> 6 जनवरी 2013 को 4:49 pm बजे

    अगर सरकार को दिक्कत न हो तो ये ब्लू फ़िल्में भी चलाने से न हिचकें

     

  2. ANULATA RAJ NAIR
    https://taanabaana.blogspot.com/2013/01/blog-post_5.html?showComment=1357494248786#c4448075495909586217'> 6 जनवरी 2013 को 11:14 pm बजे

    सच्ची.....नाकाबिले बर्दाश्त हैं ये सीरयल....

    अनु

     

एक टिप्पणी भेजें