22 साल का तरुण. तरुण सहरावत, तहलका का फोटो पत्रकार. हम सबके बीच से चला गया,हमेशा के लिए. हमारे आदि पत्रकार, हम सबके आदर्श भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से भी बहुत पहले. सोचिए तो,पत्रकारिता के पेशे में 22 की उम्र क्या होती है ? इस उम्र में और अक्सर इससे ज्यादा ही में मोटी रकम झोंककर कोर्स करनेवाले मीडिया के हजारों छात्र इन्टर्नशिप के लिए इधर-उधर कूद-फांद मचाते रहते हैं. कायदे से दो स्टोरी किए बिना ही बरखा दत्त,राजदीप, अर्णव गोस्वामी जैसी एटीट्यूड पाल लेते हैं या फिर तथाकथित अनुभवी पत्रकारों की चमचई के शिकार हो जाते हैं.
कल आधी रात गए जब मैं तरुण की खींची तस्वीरों के बीच डूबता-उतरता जा रहा था और एफबी चैट बॉक्स पर एक के बाद एक ऐसे ही मीडिया कोर्स करनेवाले के सवाल आ रहे थे कि सर आइआइएमसी में जाने का सपना था, नहीं हुआ, अब आजतक वाले इन्सटीट्यूट में जाउं या विद्या भवन तो मन झन्ना गया. एक तरफ तरुण के गुजर जाने का सदमा था, इतनी छोटी सी उम्र में की गई उसकी बेहतरीन और खोए हुए अर्थ की पत्रकारिता थी और दूसरी तरफ चैटबॉक्स में उनलोगों के संदेश थे जिनका सपना पत्रकार बाद में या शायद कभी नहीं होता, उससे पहले किसी चमकीले संस्थान में प्रशिक्षु पत्रकार का गर्दन में पट्टा लगाने का ज्यादा होता है. मन में आया, उन सबों को तरुण के काम की लिंक फार्वड कर दूं लेकिन रुक गया. लगा नहीं कि वो पत्रकारिता के भीतर के जज्बात को समझ पाएंगे. तरुण ऐसे हजारों मीडिया छात्रों को जो स्क्रीन पर चंद दमकते चेहरे को देखकर इस चमकीले कोर्स में आते हैं, बता गया- जिस पीटीसी में कैमरामैन को बहुत ही चलताउ ढंग से याद करने का ख्याल तुम्हारे दिमाग में आता है, असल पत्रकारिता की जमीन उसके आस-पास ही होती है. उन सैंकड़ों दढ़ियल, चीनी के मरीज, पोलो और बिलियर्ड के शौकीन बॉसनुमा मीडियाकर्मियों को बहुत ही आहिस्ते से जवाब देकर चला गया जो हजारों "तरुण" को इन्टर्नशिप भर के लिए इतना थकाते रहे हैं कि वो इस पेशे में आने के पहले ही फ्रस्ट्रेट हो जाया करते हैं. जिन्हें अक्सर इस उम्र के पत्रकारों में कभी किक और संभावना नजर नहीं आती,तरुण बहुत ही जबरदस्त किक मारकर चला गया. पत्रकार के नाम पर जो बंधुआ बना लिए जाते हैं, उन्हें समझा गया- चाहे तुम कितना भी आगे-पीछे करते रह जाओ, मरने के बाद सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा काम रह जाएगा जैसे कि मेरा.
मैं अपने भीतर से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की तस्वीर को थोड़ा पीछे खिसकाकर इस तरुण की तस्वीर पहले लगाना चाहता हूं. बिना इस बात की परवाह किए कि आचार्य रामचनद्र शुक्ल के श्रद्धालुओं पर इसका क्या असर होगा और पत्रकारिता के इतिहास में भला इससे क्या बनेगा-बिगड़ेगा.
मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा कि जिस पत्रकार से कभी मिला नहीं, कभी बात नहीं हुई वो मुझे पिछले तीन दिनों से इस तरह बेचैन कर सकता है. मुझे नहीं पता कि जिन दर्जनों मीडियाकर्मियों को टीवी स्क्रीन पर रोज देखता हूं, उन्हें लेकर इस तरह की बेचैनी होगी भी कि नहीं. मैं पर्सनली नहीं जानता था तरुण को. बस उसकी खींची तस्वीरें देखी थी. लेकिन जब से प्रिंयका( प्रियंका दुबे, तहलका) की एफबी वॉल पर उसके बारे में पढ़ा जिसका आशय कुछ इस तरह से था कि तरुण तुम्हें हर हाल में लौटना होगा,ठीक होना होगा तो समझ नहीं आया क्या हो गया है उसे ? हालांकि इससे एकाध महीने पहले ही शोमा चौधरी ने अपनी राइटअप में विस्तार से बताया था कि तहलका के फोटो पत्रकार तरुण सहरावत और तुषा मित्तल स्टोरी के सिलसिले में अबूझमाड़, छत्तीसगढ़ गए थे और एक ही साथ कई बीमारी की चपेट मे आ गए. दुर्भाग्य से मैं वो स्टोरी पढ़ नहीं पाया था. तरुण की वॉल पर जब गया तो वहां सिर्फ और सिर्फ गेट वेल सून, जल्दी आओ तरुण, तुमने वादा किया था,कब आ रहे हो जैसे दर्जनों संदेशों से उसकी दीवार अटी पड़ी थी. उन संदेशों के बीच तरुण की तरफ से कोई जवाब नहीं था. मैं भीतर तक चला गया, मई तक, फिर अप्रैल के संदेशों तक. मुझे समझ नहीं आया. आखिर में प्रियंका दुबे के लिए संदेश भेजा- क्या हो गया तरुण को, सबलोग ऐसे क्यों लिख रहे हैं ? थोड़े समय बाद उसने उपर की लिंक के अलावे शोमा चौधरी की राइट अप की एक और लिंक भेजी.
शोमा चौधरी ने इस दूसरी राइट अप में तरुण के बारे में जिस तरह से लिखा बिना अपने आप आंखों में आंसू छलछला गए. मैंने उसके कुछ हिस्से का हिन्दी तर्जुमा करके एफबी पर लगाया. कुछ दिनों पहले वो खुद से सांस ले पा रहा था,ज्यादा तो नहीं पर थोड़ा-बहुत ही सही चलने लग गया था, चाय की चुस्की ले सकता था. ये सब विज्ञान का चमत्कार और उसकी खुद की इच्छाशक्ति थी. जब उसके भीतर थोड़ी ही चेतना आयी थी कि उसने सबसे पहले अपने कैमरे के बारे में पूछा..उसके बाद से फिर सबकुछ पहले की तरह..बेजान,उदास.. तहलका की प्रबंध संपादक ने तरुण के बारे में बताया था कि जिन दिनों तरुण तेजपाल को लगातार धमकियां मिलती रही थीं और तहलका के इतिहास में वे बहुत ही बुरे दिन थे, रणवीर भइया यानी तरुण के पिता उनकी बेटी को स्कूल ले जाते और लाते थे. वो उनकी गाड़ी ड्राइव करते थे. जब उनका बेटा तरुण और अरुण बड़ा हुआ तो उसे तहलका ने अपनी टीम में शामिल कर लिया. तरुण बतौर फोटो जर्नलिस्ट और अरुण आइटी डिपार्टमेंट में.
शोमा चौधरी की इस राइटअप से गुजरने के बाद से मन स्थिर नहीं रह सका. बेचैनी बढ़ती गयी. तब तक तहलका से जुड़े पत्रकार और लेखक उसके बारे में कुछ-कुछ संदेश लगाने लग गए थे. उन सबों को पढ़ते हुए उसकी एक छवि मेरे मन में बन गयी कि वो अपने स्वभाव में कैसा था..अगली सुबह अतुल चौरसिया ने अपनी वॉल पर लिखा- Tarun died a death he didn't deserve. completely shattered. फिर ये कि cremation time is 3PM today at lodhi colony crematorium. Please be there to give a last salute to a great soul. हम जैसे घर में बैठे लोग इसी सूचना के आधार पर मुक्तिधाम, लोदी रोड़ चले गए.
समय से पहले मुक्तिधाम पहुंचना शोक से पहले आध्यात्म से गुजरने की प्रक्रिया है. आप पहले पहुंचकर जब वहां लगी शेड के नीचे बैठते हैं और चारों तरफ जीवन,सत्य,मृत्यु को लेकर दोहे और सूक्तियां के बोर्ड से गुजरते हैं तो दिमाग में बस एक ही सवाल आता है- दुनियाभर की हाय-तोबा, शोर और कोलाहल किसके लिए. जितनी लकड़ियों में अपने बेडरुम के फर्नीचर तक नहीं बन सकेंगे, उससे भी बहुत कम लकड़ियों में हम यहां आकर राख हो जाएंगे. अगर आप साहित्य के विद्यार्थी हों और आपने लाख दूसरे कवियों, रचनाकारों को पढ़ा है लेकिन उस जगह पर बैठकर आपको सबसे ज्यादा कबीर याद आएंगे. संभव हो उस कबीर में हजारी प्रसाद द्विवेदी की स्थापना और डॉ धर्मवीर का धारदार तर्क शामिल न हो. वहां से निकलकर यूनिवर्सिटी जाने के रास्ते तक इसी गुत्थागुत्थी में कट गया- आखिर मुक्तिधाम जाते ही सबसे ज्यादा कबीर ही क्यों याद आते हैं-
हाड जरै ज्यों लाकड़ी,केस जरै ज्यों घास.
सब जग जलता देख, भया कबीर उदास.
पवन ( पवन के वर्मा ) से मुलाकात हुई. वो एक-एक करके बताने लग गया तरुण के बारे में वो सारी बातें जिसने उसे 22 साल की उम्र में ही एक संवेदनशील और जरुरी फोटो पत्रकार बनाया था. छत्तीसगढ़ की उन चालीस तस्वीरों पर तरुण का एक के बाद एक विवरण और उससे निकलकर आयी तहलका हिन्दी के लिए स्टोरी..मैं सबकुछ तरुण के जीवन के बीच का तिलिस्म की तरह सुनता जा रहा था. मुझे महमूद की दास्तानगोई याद आ रही थी. दास्तानगोई के बीच से जुडूम-जुडूम की आवाजें. लोग जुटने लगे थे. तहलका के पत्रकारों का जत्था. तरुण के घर के लोग और फिर आखिर में तरुण भी. उदासी विलाप में बदलने लगी थी. कितना रो रहे थे ये सारे पत्रकार. मैंने दिल्ली शहर में पत्रकारों को कभी रोते नहीं देखा और वो भी इस तरह, ऐसे मौके पर. जिसे भी देखा- गाड़ी,फ्लैट,ब्ऑयफ्रैंड/गर्लफ्रैंड/ रिलेशनशिप की खींचतान, डाह-निंदा और अहंकार के बीच उलझे हुए ही. जिनकी उंगलियां ब्लैकबेरी और मैक पर थिरकती नजर आती है..लेकिन आज सबके सब रो रहे थे. मुझसे रहा नहीं जा रहा था. मन कर रहा था उनमें से किसी को भी पकड़कर खूब रोउं. हम एक बिल्कुल ही अलग दुनिया में डूबते जा रहे थे. पार्क में खड़ी पजेरो,जायलो,होंडा सिटी टिन के बक्से नजर आने लगे थे जिसमें बैठते-उतरते लोग सपनों के कैद होते बिंब भर लग रहे थे.
आखिर में वो मनहूस समय भी आया जिसके लिए हम कभी तैयार नहीं होते. आग की लपटों के बीच से तरुण का अद्म्य साहस आसमान की ओर तेजी से बढ़ रहा था. चटखती लकड़ियों के बीच मुझे सिर्फ और सिर्फ एक ही शब्द सुनाई दे रहा था- जज्बा. आखिर वो जज्बा ही तो था जो लाइफस्टाइल की बीट कवर सा दिखनेवाले तरुण को एक जमीनी स्तर का पत्रकार बना गया था. मैं उससे जब भी मिलता, उसकी तमाम कमिटमेंट के बावजूद पूछता- तरुण, तुम्हें कभी लगा नहीं कि मॉडलिंग में जाउं ? उन लपटों के बीच से उड़ता राख मेरी सफेद टीशर्ट में चिपकती जा रही थी. मैं लोगों को रोता देख रहा था. चारों तरह काठ को जलता देख काठ बन जाने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था.. बाहर निकलकर रिंग रोड़ पर कदम बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे. हम नार्मल नहीं थे..लगा कुछ हो जाएगा. बड़ी मुश्किल से एक ऑटो तैयार हुआ डीयू कैंपस जाने के लिए. हम उसी कबीर की किंवदंतियां पर पर्चा सुनने जा रहे थे जो आज मुझे सबसे ज्यादा याद आ रहे थे.
पहुंचते-पहुंचते पर्चा पढ़ा जा चुका था. लोग सवाल-जवाब भी कर चुके थे. हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो.गोपेश्वर सिंह का अध्यक्षीय भाषण बाकी था. उन्होंने बोलना शुरु किया. हमारी कबीर पर अब तक की पढ़ी बातों से थोड़ा अलग और कहीं-कहीं प्रभावी भी.- सवाल है कि आलोचकों ने कबीर को जितना बड़ा क्रांतिकारी बना दिया है, पहले देखना होगा कि वो इसके हकदार है भी कि नहीं. कुछ समय बाद ऐसा होगा कि लगेगा कि कबीर ने पहले कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़ा और फिर अपनी बातें कही. अगर उन्हें समाज बदलने का काम करना था तो क्या कोई संगठन बनाया ? आगे से किसी ने कहा कि लेकिन सर वो रचना के जरिए समाज बदलना चाह रहे थे. प्रोफेसर का बोलना जारी था लेकिन उनके वक्तव्य से मुझे मोर का पंख लगाए कबीर का ध्यान रत्तीभर भी नहीं आया. मुझे उस कबीर का ध्यान आ रहा था जिन्हें मैं तरुण की जलती चिताओं के किनारे बैठा देखा था. वो कबीर जो ओनजीसी के साइनबोर्ड क बीच भी अपनी मौजूदगी बनाए हुए थे. उनके बोलते रहने के बीच मुझे धुकधुकी लगी रही- कहीं मैं जोर से चिल्ला न दूं- सर, ये सब रहने दीजिए. मुझे सिर्फ इतना बताइए- मुक्तिधाम में सिर्फ और सिर्फ कबीर क्यों आते हैं, तुलसी,मीरा,सूर और यहां तक कि मुक्तिबोध भी क्यों नहीं ?
तीन,चार.पांच..नींद नहीं आयी. मुझे अब भी हैरानी हो रही है. तरुण से तो मिला भी नहीं था मैं. फिर ऐसा क्यों हो गया मेरे साथ? क्या ये सब शोमा चौधरी,प्रियंका दुबे,अतुल चौरसिया,गौरव सोलंकी जैसे लोगों के लिखे का किया-धरा है ? मुझ पर सुबह होते क्रम की रात हावी है और मैं फिर से एफबी वॉल से गुजरता हूं.फिर वही शब्द जज्बा और जज्बात..और इन सबके बीच तरुण की मुस्कराहट जिसके बारे में इनलोगों ने लिखा है- उसकी एक मुस्कान के पीछे पूरी दुनिया सिमटकर आ जाती थी.
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https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_16.html?showComment=1339843618158#c1503388554271253695'> 16 जून 2012 को 4:16 pm बजे
विनम्र श्रद्धांजलि सत्य के उद्घोषक को..
https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_16.html?showComment=1339854443405#c9180801925091829644'> 16 जून 2012 को 7:17 pm बजे
दु:खद. एक प्रखर आत्मा के यूँ असमय चले जाने पर
https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_16.html?showComment=1339865912225#c4128109119004545241'> 16 जून 2012 को 10:28 pm बजे
पढकर मन उदास हो गया। अफ़सोस। तरुण को विनम्र श्रद्धांजलि।
https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_16.html?showComment=1340042990267#c7518786367078365255'> 18 जून 2012 को 11:39 pm बजे
विनम्र श्रद्धांजलि ...
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