कल मुझे "दबंग दुनिया" अखबार की प्रति हाथ लगी. कंटेंट से गुजरने से पहले लेआउट देखकर ही लगा- ये अखबार दैनिक भास्कर और नई दुनिया का कॉकटेल है. अखबार ने भास्कर का लोगो ( पीले रंग का सूर्य) जिस दबंगई के साथ हूबूहू इस्तेमाल किया है, उससे साफ झलक गया है कि वो अखबार की लोकप्रियता और पहचान को भुनाने के साथ-साथ चाहता है जो कि बहुत ही घटिया हरकत है . दूसरी तरफ उसने फांट भी वही रखा है जो कि भास्कर की फांट है. बाकी का हिस्सा देखकर लगता है कि नई दुनिया की लोकप्रियता और लोगों की पकड़ के बीच अपनी सेंधमारी करना चाहता है. ऐसा करते हुए दबंग दुनिया ने एक बार भी नहीं सोचा कि जो वो कर रहा है उससे पाठकों के बीच किस तरह की छवि बनेगी ?
इस देश में वैसे तो डुप्लीकेट मार्केट का बहुत बड़ा बाजार है. इतना बड़ा बाजार कि कई मामलों में तो ऑरिजिनल ब्रांड से बिकनेवाली चीजों से कई गुना ज्यादा डुप्लीकेट माल की खरीद-बिक्री होती है. और दिलचस्प है कि ये सब खुलेआम होता है. आप सलून में चले जाइए, ओल्ड स्पाइस, डेनिम,जिलेट के बिल्कुल हूबहू रंग-रुप की चीजें मौजूद मिलेंगी. बस एकाध स्पेलिंग इधर-उधर की हुई. दिल्ली के गफ्फार मार्केट चले जाइए. नोकिया लिखा मोबाइल हजार-पन्द्रह सौ में. आप अगर इस देश में पसरे मार्केट में बौखना शुरु करें तो आपको लगेगा कि कहीं न कहींडुप्लीकेट होंडा सिटी, फरारी, सेकंड हैन्ड एयर इंडिया के हवाई जहाज भी मिलते होंगे. स्टेशन,बसों में जाइए. पेप्सी,कोक की ही शक्ल में कोलड्रिंक भरी मिलेगी जो कि लोकल रंग-रोगन कोलड्रिंक से भरी बोतलें होती है. बनियान खरीदने जाइए, रुपा औऱ लक्स के नाम पर उसके कई-कई डुप्लीकेट हैं. हर चार में से दो-तीन रिक्शेवाला आदिदास, नाइकी,रिबॉक के छापा टीशर्ट पहनता घूमता नजर आएगा जबकि उन बेचारों को शायद ही पता हो कि एक नाइकी की टीशर्ट की कीमत उसके महीने की कमाई से भी ज्यादा हो सकती है. ये डुप्लीकेट भी दो तरह के होते हैं- एक तो कि जिसे हम खुलेआम जानते हैं. मसलन 50 रुपये में रिबॉक की टीशर्ट नहीं मिल सकती. बावजूद इसके ऐसी टीशर्टों पर उसके नाम का इस्तेमाल उसकी लोकप्रियता की वजह से किया जाता है. लेकिन दूसरा कि ऑरिजिनल रेट से दो-तीन सौ रुपये कम में मिल जाते हैं. इस दावे के साथ कि माल तो ऑरिजिनल है लेकिन बाहर का है, सेल का है या फिर लॉट का है. देशभर में पसरे इस तरह की डुप्लीकेट चीजों के पीछे जो अंधी नकल होती है, उसे बनाने-बेचने से लेकर खरीदनेवाला भी जानता है. लेकिन मीडिया में इस तरह की नकलचेपी हो रही है, वो क्या दर्शाता है ?
सबसे पहले तो ये की तमाम तरह की धंधेबाजी,मुनाफा,कारोबार के बावजूद मीडिया में क्रिएटिविटी की गुंजाईश बची रहती है औऱ रहनी भी चाहिए. आखिर पर कारोबार भी तो इसी क्रिएटिविटी और अभिव्यिक्ति की कर रहे हो. एक ढंग से नाम नहीं चुन सकते, एक लोगो नहीं सोच सकते, डिजायन नहीं कर सकते तो फिर हम ये कैसे मान लें कि आप बिना कहीं से कॉपी-पेस्ट के पक्की खबर दोगे ? जैसे आपने भास्कर का लोगो मार लिया, उसकी खबर भी मारोगे. उसकी नहीं तो किसी अंग्रेजी अखबार की हिन्दी तर्जुमा करके ही चेप दोगे जो कि धडल्ले से हो ही रहा है. फेसबुक पर इस अखबार की तस्वीर लगाने पर जो टिप्पणियां आनी शुरु हुई, उसमें इस बात की प्रमुखता से चर्चा है कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इस अखबार की टीम भी वहीं से टूटकर गई है. टीम टूटकर गई है, इससे उत्पाद का क्या मतलब है ? कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर एक कंपनी छोड़कर दूसरी कंपनी में जाता है तो क्या वहां भी वह पुरानी ही कंपनी जैसी सॉफ्टवेयर बनाता है या फिर वो बनाता है जो नई कंपनी को जरुरत है? आपको एक नया अखबार निकालना है, अपने तरीके से पहचान बनानी है या फिर पहले से स्थापित अखबार का दुमछल्लो बनना है ? और फिर ये हालत सिर्फ किसी एक अखबार की नहीं है. एक न्यूज चैनल ने स्पीड न्यूज शुरु किया,बाकी के भी चैनल उसी काम में हाथ धोकर पीछे लग गए. कोई आधे घंटे में पचास तो कोई उतने ही समय में सौ. जैसे वो खबरें नहीं केले बेच रहे हों कि कौन ज्यादा से ज्यादा उसी रेट पर देता है ? मीडिया के इस तरीके से पहली ही बार में हमारी सख्त नाराजगी बनती है. लेकिन
ऐसा नहीं है कि अखबार को इस तरह की समझ नहीं है और जब वो भास्कर की लोगो और उसकी फांट को हूबहू चिपका रहा था तो उस वक्त ख्याल नहीं आया होगा कि पाठकों पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? उसने सबकुछ समझते हुए ऐसा किया क्योंकि अखबार भी बनियान,कोलड्रिंक, मोबाईल,कॉस्मेटिक से अलग कोई धंधा नहीं कर रहा. अखबार की दबंगई सिर्फ लोगो और फांट मारने तक नहीं है. उसकी असली दबंगई ( माफ कीजिएगा,दिल्ली में दबंग बनिए, वोट दीजिए अभियान के बावजूद मैं इसे नकारात्मक अर्थ में ही इस्तेमाल करुंगा. साथ ही मैं बिल्कुल नहीं चाहता कि हमारा पुलिस इंसपेक्टर चुबबुल पांडे जैसा छैला-मवाली हो ) अखबार के वितरण और लोगों तक पहुंचने में होती होगी. मुझे पक्का यकीन है कि हॉकर, अखबार बेचनेवाला ग्राहक के भास्कर मांगे जाने पर दबंग इंडिया पकड़ा देता होगा. शुरुआत में पाठकों के बीच ये भी भ्रम पैदा करने की कोशिश की गई होगी कि ये भास्कर ग्रुप का ही अखबार है. आम टाइम्स की जगह इमली इंडिया अखबार डालने का संस्कार अखबारवालों को सालों से है. वो दो अलग-अलग रंग-रुप और नाम के अखबार होने पर भी ऐसा करते आए हैं. इस अखबार का तो हुलिया ही हूबहू मिलता है. इस दबंगई का दूसरा स्तर एक तरह की चीटिंग में विकसित होती है.
जिस पैटर्न और सिस्टम से दैनिक भास्कर लोगों तक पहुंचता है, वही काम दबंग इंडिया कर रहा होगा.मसलन दिल्ली में जब नई दुनिया रातोंरात नेशनल दुनिया हो गया तो किसी से बिना पूछे कि हॉकर ने नेशनल दुनिया डालने शुरु कर दिए. बताया तक नहीं कि ये रात का करिश्मा आलोक मेहता जैसे तिनतसिए मीडियाकर्मी का नतीजा है. अखबार खरीदनेवालों का एक बड़ा वर्ग हड़बड़ी में रहनेवालों का है. बसों,ट्रेनों औऱ चलते-फिरते जो लोग अखबार खरीदते हैं, उस वक्त आप नई दुनिया मांगिए तो आपको बिना कुछ कहे हॉकर नेशनल दुनिया पकड़ा देता है. यही काम दबंग इंडिया के साथ भी हो रहा होगा. टिप्पणी में बताया गया कि दैनिक भास्कर से टूटकर जो लोग गए वहीं दबंग दुनिया निकाल रहे हैं. वैसे दबंग अधिकारी ब्रदर्स का क्षेत्रीय चैनल है जिसकी उत्तराखंड/ उत्तरप्रदेश में जबरदस्त लोकप्रियता है. शुक्रवार पत्रिका की जब टीम टूटकर इतवार में गई तो वो पत्रिका भी उसी तरह लोगों के पीछे पहुंचने लगे. लेकिन उन्हीं टूटे हुए लोगों ने इस तरह की भौंडी नकल नहीं की. सवाल लोगों के टूटकर जाने का नहीं है, सवाल नई जगह पर जाकर पुरानी स्थापित चीजों की बदौलत चीटिंग करने की है. इन टूटे हुए लोगों ने एक मिनट भी इस बात पर दिमाग नहीं लगाया होगा कि कैसे एक नया अखबार स्टैब्लिश किया जाए जिससे कि भास्कर के लोगों को रस्क हो कि वो यहां से जाकर कितना बेहतर और अलग कर रहे हैं. इससे ठीक उलट, उनलोगों ने पूरा दिमाग इस बात पर लगाया कि कैसे एक ऐसा अखबार निकाला जाए जो लोगों को कन्फ्यूज करे कि वो दैनिक भास्कर से अलग कोई चीज नहीं खरीद रहे हैं. मेरे ख्याल से इस अहं के साथ भास्कर के लोग दबंग दुनिया को बरी नहीं कर सकते कि तू इस खेल में बच्चा है, पहले अपनी औकात बढ़ा ले,तब बात करना.या फिर ये भी संभव है कि अगर अखबार ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो दबंग इंडिया को तत्काल ये लोगो हटाने पड़ जाएंगे. लेकिन इस लोगों,लेआउट और फाउंट की नकल की बदौलत आप और हम समझ सकते हैं कि इसे लोगों के बीच पहुंचाने तक क्या-क्या धत्तकर्म किए जा रहे होंगे. निश्चित रुप से दैनिक भास्कर इस बात के लिए समर्थ है कि वो इसे हड़काए,हम जैसों को लिखने की जरुरत नहीं है लेकिन ये बताना जरुरी है कि आपने जो अपने अखबार का नाम रखा है वो साहस नहीं लंपटई,जड़ और चोर मिजाज की तरफ इशारा करता है.
https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_05.html?showComment=1338882585988#c5283535083928920470'> 5 जून 2012 को 1:19 pm बजे
और मजेदार बात यह कि चुराया लोगो दबंग पर ही लगा रखा है।
https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_05.html?showComment=1338904703106#c1069769446930440795'> 5 जून 2012 को 7:28 pm बजे
हा हा हा ... खूब नज़र डाली आपने भी ...
इस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - दुनिया मे रहना है तो ध्यान धरो प्यारे ... ब्लॉग बुलेटिन
https://taanabaana.blogspot.com/2012/06/blog-post_05.html?showComment=1338905552110#c4282523883124078894'> 5 जून 2012 को 7:42 pm बजे
अगर ये न करे तो वाक़ई दबंगई काहे की