तहलका में "एक छोटी सी जिंदगी" पर लिखा तुम्हारा पढ़ा,पहिले से बहुत साफ और बढ़िया लिखने लगे हो,अच्छा लगा पढ़कर,मां को भी पढ़वाए हम।(पापा ने मुझे बचपन में थोड़ा-बहुत पढ़ाया है जिसमें मैंने हिन्दी में चौदह को एक बार चोदा लिख दिया था और तब देह पर खून की रेखाएं उभार दी थी पापा ने। उन्हें लगा था कि मैंने बदमाशी से ऐसा किया है लेकिन एलकेजी का ये बच्चा तब कहां जानता था इन शब्दों का क्या अर्थ होता है) अभी दूकान पर कोई कस्टमर नहीं है तो सोचे कि हाल-चाल जान लें। गर्मी तो दिल्ली में भी बढ़ गया होगा तो लगा कि बोल दें कि कूलर लगा लेना।..पापा इन दिनों मुझे रोज किसी न किसी बात को लेकर जो कि बहाने की शक्ल में होती,फोन करने लगे हैं। फोन पर बात शुरु करने से पहले वो कोई ऐसी सफाई देते हैं जैसे टीनएज का कोई लौंडा अपनी किसी क्लासमेट पर दिल आ जाने पर जज्बाती तरीके से किसी न किसी बहाने फोन करता है,जान-बूझकर क्लास में नोट्स नहीं लेता है और कहता है-रिया तुम कल आ रही हो न,प्लीज सोशल साइंस की अपनी नोटबुक लेती आना। वो सीधे कैसे कह दे कि तुम्हें मिस्स करता हूं सो फोन किया।..पापा इन दिनों इसी तरह से बहाने बनाकर फोन करते हैं,सालों से उनके मन में मेरे प्रति जो अविश्वास रहा है,नालायक हो जाने की आशंका बनी रही है,भावनाओं के वेग से उसे इस कठोर जंगले को कैसे टूटने दे दें और वो भी सिर्फ इस एक लाइन में कि तुम्हारी याद आ गयी तो फोन कर दिया। बहरहाल,मुझे अब मजा आने लगा है और अच्छा भी लगता है,एक उत्सुकता भी बनी रहती है कि देखें,अबकी बार पापा किस बहाने फोन करते हैं?
पापा हमें बचपन से अपनी रिप्लिका बनाना चाहते थे। इस रिप्लिका के बनाने में जरुरी था कि मेरे भीतर जो मेरी मां बढ़ रही थी,उसे कतरकर छोटी कर दें। लोगों की तकलीफ में तुरंत संवेदनशील हो जाना,बहुत ही मामूली बातों को भी गंभीरता से लेना,गलत होने पर गम खाने के बजाए तुरंत अपनी असहमति जाहिर करना और सबसे ज्यादा तो ये कि पढ़े-लिखे से ही बाल-बच्चा आदमी बनता है का समर्थन करना। पापा मुझे अपनी रिप्लिका बनाने के फेर में अगर मेरे भीतर की बढ़ती मां को कुतरने की कोशिश न करते तो शायद हम कुछ-कुछ पापा की तरह भी बन पाते और ये भी कि वो ज्यादा बेहतर होता। कम से कम बात-बात पर मां की तरह आंखों में आंसू तो नहीं ही आते,निरुपमा राय की फिल्मों में तो जाकर न धंसते और दुनियादारी के मामले में थोड़े ढीठ तो हो लेते जो कि आज की दुनिया में जीने के लिए जरुरी है। जब मुझे अपनी मां पर गुस्सा आता है तभी कहता हूं कि इससे बेहतर होता कि पापा की राह पकड़ते,कम से कम हमारी भावनाओं के साथ तो कोई धोखाधड़ी तो नहीं करता। करता भी तो पापा की तरह मूलधन के साथ सूद वसूलने के तरीके तो आते ही हमें। मां की संगति ने मुझे नकरोना बना दिया जो कि थोड़ी सी तकलीफ से हों.हों.हों.हों. करके बिसूरने लग जाता है।
फिर भी, बचपन से ही हम पापा से इसलिए नहीं दूर होते चले गए कि वो हमें आदर्श और नसीहतों की बेडियों में बाधंकर बड़े होने देना चाहते थे बल्कि इसलिए कि मेरी हर बुरी आदत का जिक्र करने के साथ एक लाइन अलग से जोड़ देते- जैसा पैदा की है,वैसा हुआ है। अब मेरी मां ने मुझे पैदा ही लुच्चा,नकरोना,नालायक के तौर पर किया तो फिर मेरा भविष्य भला बेहतर कैसे होता? मेरा तब दिमाग कहां चलता था उस वक्त लेकिन हां इतना जरुर समझता कि गलती हम करते हैं तो इसका मां के पैदा करने से क्या संबंध है? मुझे नहीं पता कि मेरे पापा किस एकांत क्षणों में मां की समझ,तर्क और काबिलियत की सराहना किया करते थे लेकिन जब भी हमने सुना तो मां को हमेशा कटघरे में ही खड़े रखने पर आमादा रहे। नतीजा,कई अच्छी बातों के होने पर भी चूंकि पापा मेरी हर गलतियों पर मां को मेरे पैदा होने के दोष के साथ जोड़कर देखते,हमने उनकी बातों से,उनकी नसीहतों से पिंड छुड़ाने के लिए कोशिशें करते रहे। डर से हम उनकी बातें मान भी लेते लेकिन अन्तर्रात्मा में उन बातों के लिए कोई सम्मान नहीं होता। इन बातों को वो महसूस करने लगे थे और जब भी मैं छुट्टियों में रांची से घर जाता वो मां से कहा करते- आता है तो तुम्हारे पास ही घुसा रहता है,हमसे बोलता-बतिआता नहीं है। मेरे बचपन की पूरी पढ़ाई घर के उन जगहों पर हुई जहां-जहां पापा गैरमौजूद होते और रसोई से बेहतर जगह शायद ही कोई होती। हम पापा से जितनी नजरें बचाते,मां के पीछे-पीछे होने के लिए उतनी ही कोशिशें करते। मां कभी-कभी चिढ़ भी जाती कि लुटकुन्ना जैसे पीछे-पीछे लगा रहता है..इ क्या कि आदमी पर-पेसाब के लिए भी जाय तो बाहर अगोरिया के लिए खड़ा है। धक्के देकर कहती जाओ,बाहर खेलो। दुनियाभर के बाल-बच्चा ऐसे थोड़े ही फोहवा(नवजात शिशु) की तरह मां के पीछे पड़ा रहता है। मां की इस तरह की संगत ने मुझे घरघुसरा बना दिया है। घर से सोलह साल से बाहर रहने पर भी मैं जिस भी कमरे में रहता हूं,तब तक वहां से बाहर नहीं निकलता,जब तक कि निकला एकदम से जरुरी न हो जाए।
कॉलेज जाने तक मेरी समझ थोड़ी बढ़ने लगी। उसी बीच स्त्री विमर्श और पितृसत्तात्मक समाज को पढ़ना शुरु किया। प्रभा खेतान से लेकर वर्जिनिया वुल्फ तक को तो लगा कि मेरे पापा पितृसत्तात्मक समाज के सबसे जिंदा और सक्रिय उदाहरण हैं। लिहाजा,उनके प्रति असहमति और बहुत-बहुत गुस्सा जो मेरे भीतर मां के नहीं पनपने देने को लेकर था,इन अवधारणाओं से सुविधा ये हुई कि मैंने मानसिक तौर पर घोषित कर दिया कि मेरे पापा पितृसत्ता के समर्थक हैं और मुझे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि मैं किसी ऐसे शख्स से प्यार करुं। इन किताबों ने पापा के प्रति असहमति के साथ थोड़ी घृणा भी पैदा कर दी थी। इधर मेरी पढ़ाई और वो भी साहित्य को लेकर नाउम्मीद हो चुके थे। हमदोनों ने अपने-अपने हिस्से से एक-दूसरे से दूरियां(भौगोलिक तो हो ही चुकी थी,मानसिक तौर पर भी) तो बनाने के लिए तर्क और वजह ढूंढ ली थी। पापा के आगे दर्जनभर हिन्दी के मिश्रा,तिवारी,झा और सिन्हाजी जैसे हिन्दी के मास्टर थे जो पान-सूरती के चस्के में अपने मसूड़ों को खंडहर की शक्ल दे चुके थे,होली की उधारी को दीवाली में चुकाने से ये प्रमाण दे चुके थे कि हिन्दी पढ़कर यही हाल होता है और इधर मैंने तय कर लिया था कि एक पितृसत्ता के संरक्षक से किसी तरह की मदद नहीं लेनी है। किसी बाप की अपने बेटे को लेकर नाउम्मीदी और हाफ फ्राय उम्र में बेटे का अवधारणा की जकड़बंदी में जा फंसने पर कोई उपन्यास है तो प्लीज मुझे सजेस्ट करें,नहीं तो मेरे हिस्से अनुभव का ये बेहतर नमूना तो है ही।
चैनल की नौकरी छोड़ने के बाद मैं धुंआधार लिखने लगा था। भइया अक्सर समय मिलने पर मेरी पोस्टें पढ़ते और पापा को बताते कि आप पर भी लिखता है विनीत। पापा शुरुआत में खुन्नस से कहते- हमही मिले हैं लिखने के लिए तो किस पर लिखेगा,हम उसका नरेटी(गला) दबाते रहे तो लिखेगी नहीं? लेकिन बाद में जब कुछ लोगों ने खासकर नानीघर के लोगों और वहां के प्रभात खबर,हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण अखबारों ने मेरी पोस्टें छापनी शुरु की तो पापा अकड़ से लोगों को बताने लगे कि-हमरा लड़का भी लिखता है,लेखक बन रहा है। भइया या मां से कहते,तिवारीजी को लगता है कि एक वही काबिल हैं,हम मुंहए पर कह दिए कि सुनिए तिवारीजी,हमरा लड़का भी वही सब पढ़ रहा है,जो आपलोग पढ़ाते हैं। पापा को मेरे प्रति अनुराग जगने लग गया था। इसलिए नहीं कि मैं आर्थिक तौर पर कुछ बेहतर कर रहा था बल्कि इसलिए कि वो समाज के जिन लोगों के बीच उठते-बैठते,मेरे नाम से,मेरे लिखे से उनका अहं तुष्ट होता है। अब मैं इसे भी पितृसत्ता का ही एक चिन्ह मानकर उघड़ने लग जाउं तो अलग बात है लेकिन मैं फिलहाल थोड़ा इमोशनल होना चाहता हूं। मेरे लिखे पर नामवर सिंह अपनी राय दे इससे कहीं ज्यादा मेरे लिए सुखद है कि पापा पढ़कर बताते हैं कि-पहले से साफ लिखने लगे हो(मतलब चौदह को चोदा नहीं लिखते और अगर लिखोगे भी तो उसकी प्रासंगिकता तय करोगे टाइप का भाव)। लेकिन
इन सबसे भी एक मजेदार बात( मिहिर का असर है,इस शब्द को लेकर) कि पापा मेरे भीतर की विकसित हुई मेरी मां को बहुत प्रोत्साहित करने लगे हैं। कई बार तो हूबहू वही लाइनें बोलने लगे हैं जो कि मां कहा करती है- खाने-पीने पर ध्यान देना,जितना हो,उतना ही काम करना। जान देवे से कोई फायदा नहीं है। जिंदगी जान-बचेगा तो बहुत पैसा औ नाम होगा। यही पापा पहिले मां की इन बातों को सुनकर चिढ़ जाते और कहते- बउआ है जो एतना तोता जैसा समझाती हो,सब कर लेगा। मुझे नहीं पता कि पापा को अपना विपक्षी होने से खुन्नस थी या फिर मां के आसपास घिरे रहने से लेकिन वो इन सब बातों को स्वाभाविक तौर पर नहीं लेते। मैं अब खुश होता हूं कि वो मां की शब्दावली को उधार लेकर मेरे लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। मैं यही तो चाहता था कि पापा मां से कुछ उधार लेकर मुझे दें,उनकी इस अकड़ को भरभराकर टूटते हुए देखना अच्छा लग रहा है। अब मैं अपने पापा पर भरोसा कर सकता हूं कि वो मेरी बातें,मेरे तर्क को उस जमीन पर रखकर सोचेंगे जहां उनकी राय मुझे प्रभावित करेगी,असहमति में भी एक खास किस्म का सुकून पहुंचानेवाली होगी,वो नसीहत के बजाय शेयरिंग की कैटेगरी में शामिल की जाएगी। इस इमोशनल एप्रोच में भी मैं महसूस करता हूं कि उनके भीतर का पितृसत्ता के चिन्ह ध्वस्त हो रहे हैं और फिर मां से इन सब बातों की चर्चा कि पापा ऐसे बात करते हैं और मां का जबाब कि पहिले से बहुत ज्यादा बदल गए हैं इ आदमी। लेकिन इस बीच,जिद में,इगो में आकर पापा की वो जो अच्छी बातें मैं इग्नोर करता आया और मां की अव्यावहारिक बातें जिसे अतिउत्साह में सीने से चिपकाए रहा,धीरे-धीरे क्रमशः अपनाने और छोड़ने की कोशिश में हूं। अपने भीतर पापा के भी कुछ हिस्से को भी शामिल करने लगा हूं।..और तभी,एक ही वक्त में मां का कयामत से कयामत तक और पापा के गाइड देखने के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करना चाहता हूं। पापा की जिद से मैंने यूथ कल्चर को डिफाइन करते वक्त यहां आपके जमाने के गाने बजेंगे, बाप के जमाने के गाने नहीं कहनेवाले चैनल को न केवल डीफेंड किया बल्कि रेडियो के पुराने लिस्नर से बदला लेने के तौर पर प्रस्तावित किया,अब एफ एम गोल्ड सुनने लगा हूं। उन पुराने गाने को सुन रहा हूं जिसके सुनते हुए पापा मधुबाला,नरगिस और सुरैया की चर्चा इतने सम्मान से करते जितना कि आज कोई अपनी बहू-बेटियों की भी शायद ही करता हो। फैन होकर अपनी सेलेब्रेटी के सम्मान के लिए शब्दों का चयन पापा का अद्भुत हुआ करता। अब तो सारी पसंद ही लड़कियां और हीरोईनों की तारीफें हॉट और सेक्सी दो जातिवाचक संज्ञा में जाकर खो जाती है।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html?showComment=1304157161698#c5728548709618157710'> 30 अप्रैल 2011 को 3:22 pm बजे
पापा को अपने भीतर ज्यादा स्कोप दो विनीत। समाज के बुनियादी ढांचे में आज भी पितृसत्ता और दुनियादारी की तरकीबें की काम कर रही हैं। समाज को समझने और उसकी समानुभूति करने के लिए पापा का चश्मा बहुत काम आएगा। बहुत अच्छा लगा इस लेख को पढ़कर। खुद को अकादमिक तरीके से खोल दिया है। भावनाओं का पोस्टमॉर्टम। शायद पोस्टमॉर्टम शब्द ठीक नहीं है, लेकिन....
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html?showComment=1304163019400#c4421758551020555865'> 30 अप्रैल 2011 को 5:00 pm बजे
अब बड़े होकर पिताजी की तरह सोचते हैं तो लगता है कि पिताजी कितने सही थे।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html?showComment=1304163616570#c4551647473867503315'> 30 अप्रैल 2011 को 5:10 pm बजे
दिल खोल कर लिखा है बंधु। कई मौकों पर हम अपनी मां की ही प्रतिछाया बनते हैं तो कई बार पिता की। पिता ऐसे ही लगते हैं बचपने में जैसा कि आपने लिखा। और जब हम बड़े हो जाते हैं तो उन्हें अपने ही बनाए उसे खोल से बाहर निकलने के लिए बहाने की ही जरुरत पड़ती है शायद।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html?showComment=1304165553674#c398077323638234741'> 30 अप्रैल 2011 को 5:42 pm बजे
हमारे यहां पापा कभी बताते नहीं कि वो हमसे कितना प्यार करते है. दर असल मां और पापा के बीच एक बांटी हुई भूमिका है जिसका वो सहज निर्वाह करते हैं. इसमें पापा सख्त और मां नर्म होती है. लेकिन भाई साहब आप ने जिस बिस्तर को गीला किया है उसपे आपके पापा भी लेटते थे. याद है न!
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html?showComment=1304212329468#c3908770656576436981'> 1 मई 2011 को 6:42 am बजे
बड़ा मुश्किल है stiff upper lip सिंड्रोम से बाहर आ पाना किसी भी पिता के लिए
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html?showComment=1304218471835#c6042845745087252929'> 1 मई 2011 को 8:24 am बजे
पापा सच मे बहुत ज्यादा प्यार करते है...बस जता नही पाते माँ की तरह..जब मुझे अपने बच्चों का पापा भी बनना पड़ा तब लगा कि ये नही हो सकता.(बचपन मे तो खास पता नहीं चला पर अब जब बच्चे बड़े हो गए है तो लगा)..पापा सिर्फ़ "पापा" ही बन सकते है माँ..पापा कभी नहीं बन सकती...एक जगह खाली हुई सो हुई...एफ़ एम गोल्ड की बात ही निराली है...
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html?showComment=1304231742352#c6082618491162069243'> 1 मई 2011 को 12:05 pm बजे
ओह कितनी ही सच्ची सी और अच्छी सी पोस्ट लिखी आपने। विनीत जी जिन चीजों का हमें देर से भान होता है, उनमें से एक पिता का प्यार होता है।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_30.html?showComment=1304331718845#c5891090313731090696'> 2 मई 2011 को 3:51 pm बजे
न. कोई टिप्पणी नहीं. फिलहाल इस पोस्ट के प्रभाव में हूं, बाहर निकलूं, तो कुछ लिखूं.