क
ल की शाम दिल्ली के जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे और उनके समर्थक जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ धरने पर बैठे थे और लोकपाल विधेयक लागू जाने की मांग कर रहे थे, वहीं महमूद फारुकी और दानिश हुसैन अलाइअन्स फ्रांन्सेस (फ्रांस का भाषा और सांस्कृतिक केंद्र) लोदी इस्टेट में दास्तानगोई सुना-सुनाकर हमें लगातार दिल्ली से बाहर मुल्क-ए-कोहिस्तान में खींचे लिये जा रहे थे, जहां बार-बार एक ही आवाज आ रही थी – जुडुम-जुडुम। देशभर के लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में जुटे हैं और यहां दिल्ली में रह रहे लोगों को दिमागी तौर पर ही सही घसीटकर बाहर किया जा रहा था, हमारी बेशर्मी को कुचलने की लगातार कोशिशें हो रही थी। और देखते ही देखते हम अपने से ही सवाल करने लगे थे – जंतर-मंतर के नारे सुनाई पड़ते हैं तो फिर कभी छत्तीसगढ़ की चीख हमें क्यों नहीं सुनाई देती? माफ कीजिएगा, लोदी रोड पर इस जुडुम-जुडुम की आवाज कुछ इतनी ऊंची थी कि जंतर-मंतर पर बैठा जो शख्स सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा गा रहा था, अगर वो यहां पहुंच जाता तो वो गाने के बजाय चिल्लाना शुरू कर देता – नहीं सहेंगे, नहीं सहेंगे।
इस मुल्क का जो हिस्सा घर, गांव, जंगल और कस्बों के बजाय सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया गया हो, लोग घरों के बजाय लश्करों में रहने पर मजबूर हों, हिंदुस्तान के राष्ट्रगान से पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा छिटककर राजनीतिक पार्टियों का एक तिलिस्म बन गया हो, जिसे देश की जनता नहीं अय्यार जादूगर चलाता हो, हिंदुस्तान का मतलब भारत सरकार हो गया हो, जिसे मिली-जुली संस्कृति नहीं, मिली-जुली लंगड़ी-अपाहिज पार्टियां चला रही हों, वहां अन्ना हजारे और उनके समर्थकों के साथ श्रद्धानत होकर सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा गाना मजबूत कलेजे के ही बूते की चीज है। हम जैसे लोगों के लिए ऐसा करने के पहले अभिनय कला की शार्टटर्म ही सही लेकिन कोर्स करने की जरूरत पड़ जाएगी। माफ कीजिएगा, फिजां में राष्ट्रीयता की चिकनाहट कुछ इतनी है कि हमारे शब्द उससे फिसलते हैं, तो खतरा है कि वो सीधे देशद्रोह के साथ जाकर न चिपक जाए और चार दिन पहले जिसे क्रिकेट विरोधी यानी देशविरोधी कहा जा रहा था, अब राष्ट्रगान विरोधी यानी देशद्रोही न करार दिया जाए। इस देश में देशद्रोह होने और कहलाने की शुरुआत प्रतिरोध में खड़ा होते ही हो जाती है। बहरहाल…
छत्तीसगढ़ में सलवा-जुडूम के नाम पर पिछले कुछ सालों से जो कुछ भी होता आ रहा है और सरकार जिस तरह से देशभक्ति का मशीनी पाठ करते हुए उसके प्रतिरोध में राय रखनेवाले को देशद्रोह, माओवादी और आतंकवादी से भी खतरनाक करार देने का काम कर रही है, महमूद फारुकी और दानिश हुसैन ने 16 मई 2008 को भी अपनी दास्तानगोई में उसे व्यक्त किया था। लेकिन अबकी बार यानी 6 अप्रैल 2011 में जब दोबारा इस मसले पर दास्तानगोई की तो तिलिस्मी फैंटेसी रचते हुए भी उसकी शक्ल पहले से बहुत ही स्पष्ट और साफ-साफ दिखाने-बताने की कोशिश थी। दास्तानगोई की जो कथा संरचना है और भाषाई स्तर पर जो उसके प्रयोग हैं, वो सब इसमें पहले की तरह मौजूद थे लेकिन जो दो-तीन बातें मुझे खासतौर से नयी और बेहतर लगी, उसे रेखांकित किया जाना जरूरी है।
अबकी बार महमूद फारुकी और दानिश हुसैन ने विनायक सेन पर लगनेवाले आरोपों और उसके बिना पर चलनेवाली अदालती कार्रवाइयों के प्रसंग को प्रमुखता से शामिल किया। उनके ऐसा किये जाने से एक तो सरकार और कानून ऑपरेट करनेवाले लोगों की मानसिकता किन रंग के सुरक्षा धागों और झंडे-पताकों के इशारे पर काम करती है, इसका पता चलता है। हिंदी विभाग के कारखानों से निकलकर जिस क्लिष्ट और अनूदित हिंदी का प्रयोग कानूनी पंडित करते हैं, उसके पीछे दरअसल किस तरह की सोच काम करती है, उसे इस दास्तानगोई में बारीकी से शामिल किया गया। विनायक सेन के अदालत में पेश किये जाने और उनके अपने पक्ष में दिये जानेवाले तर्कों को पूर्वनिर्धारित फैसले के भीतर दफन करने की जो प्रक्रिया शुरू होती है, आखिर में उसकी परिणति कैसे एक देशद्रोह साबित करने में होती है। मसलन आपने दाढ़ी क्यों रखी? क्या दाढ़ी रखना गुनाह है? गुनाह तो नहीं लेकिन गुनाह का परिचायक तो है जैसी दलीलें एक के बाद एक दलीलें जब हम सुनते हैं, तो कहीं से नहीं लगता कि ये दास्तानगोई का हिस्सा है बल्कि हमारी समझ पुख्ता होती है कि अदालती कार्यवाही इससे अलग क्या होती होगी? पहले छवि निर्मित करके, उस आधार पर फैसले दिये जाने का जो काम इस मुल्क में चल रहा है, इस पूरे प्रसंग को जानने लिए किसी भी चैनल की स्पेशल स्टोरी देखने के बजाय दास्तानगोई के उस टुकड़े को सुना जाना चाहिए।
महमूद फारुकी जब इस दास्तानगोई की शुरुआत करते हैं, तो पहले ही बता देते हैं कि ये मुल्क दरअसल तीन सतहों पर बंटा और बिखरा हुआ है। एक सतह जिस पर कि इस देश को चलानेवाले लोग उड़ रहे हैं, जिसमें मंत्री और मीडिया दोनों शामिल है, दूसरी सतह जिस पर कि लोग संसाधनों के स्तर पर सफल होने के लिए जोड़-तोड़ करके कभी चोला तो कभी चैनल बदलकर तैर रहे हैं और तीसरा जिस पर लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए रेंग रहे हैं, मरे जा रहे हैं। महमूद इस मुल्क का विभाजन जब इन तीन स्तरों पर करते हैं, तो मुक्तिबोध की कविता “अंधेरे में” अचानक बिजली की तरह कौंधती है। दास्तानगोई में स्तरों का विभाजन एक बुनियादी संरचना है, जिसमें पर्दे की बात की जाती है। चूंकि वहां तिलिस्मी दुनिया होती है, जहां जो होता है, वो दिखाई नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता वो होता है लेकिन इस दास्तानगोई में जो दिखाई दे रहा था, वो था भी और जो था वो दिखाई भी दे रहा था लेकिन फिर सवाल यही तो फिर कुछ होता क्यों नहीं? इस तिलिस्मी फैंटेसी में भी सरकार अय्यारों से भी ज्यादा शातिर है, जो जल-जंगल-जमीन को ध्वस्त करके विकास के अपने मायने गढ़ रही है और जनता के असंतुष्ट होने पर उल्टे उन्हीं से सवाल कर रही है कि जब देश 9 फीसदी की दर से विकास कर रहा है तो फिर भी सवाल करने का, असंतुष्ट होने का क्या तुक है?
कुल मिलाकर, महमूद फारुकी और दानिश को दर्जनों बार पिछले कई सालों से दास्तानगोई करते देखता-सुनता आया हूं लेकिन कल शाम पहली बार महसूस किया कि दास्तानगोई के लिए कोई अलग से तिलिस्मी दुनिया रचने औऱ फिर उसमें कहानियां सुनाने की जरूरत नहीं है। इस देश से बड़ा, तिलिस्म और सरकार से बड़ा शायद ही कोई अय्यार होगा, जो चालीस करोड़ से ऊपर की आबादी के गरीबी रेखा से नीचे होने पर भी सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों को ऊपर ठेलता चला जा रहा हो और राष्ट्रगान की अंतिम लाइन जिसे कि 15 अगस्त और 26 जनवरी सहित साल के बाकी दिनों में भी गाया जाता हो – ऑल इज वेल।
♦♦♦
द
लील : खचाखच भरे सभागार में बैठने क्या हमें तो कायदे से खड़े रहने की भी जगह नहीं मिल रही थी। लिहाजा हमने दर्जनों बोलते मुंहों और फुसफुसाती जुबान के बीच अपने कान खड़े करके कुछ सुनने की कोशिश की और इंसानों के कैदखाने के बीच से अपना रिकॉर्डर मुक्त करने की कोशिश करता रहा ताकि कुछ आवाज यहां तक पकड़ में आये। इस आपाधापी के बीच शुरुआत के कुछ हिस्सों को छोड़ दें तो बाकी आवाज बहुत ही साफ है, आप सुनना चाहें तो जरूर सुनें। खासकर विनायक सेन और अदालती प्रसंग। आपको हिंदी भाषा, सरकार की मानसिकता और उसके प्रतिरोध में खड़ा होने पर क्या हश्र होगा, के अंदाज में क्या किया जाता है, सब समझने को मिलेगा। तो एक बार नीचे के लिंक पर चटका लगाकर जरूर सुनें -
हमने जिस शाम जंतर-मंतर पर भ्रष्टाचार के विरोध में बैठे अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को कवर करते हुए सैकड़ों छोटे-बड़े समाचार चैनलों को देखा, वहीं विनायक सेन की रिहाई में आवाज उठानेवालों लोगों को सुनने-समझने के लिए चैनल की न तो एक गाड़ी दिखाई थी और न ही लेबल लगी कोई माइक ही। दोनों जगहों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाजें उठायी जा रही थी। फर्क था तो सिर्फ इतनाभर कि जंतर-मंतर पर जो लोग आवाज उठा रहे थे, वो अपने को देशभक्त कहलाकर गौरवान्वित हो रहे थे लेकिन लोदी इस्टेट में विनायक सेन की रिहाई की मांग और उनके साथ जबरदस्ती करने के विरोध में आवाज उठानेवाले इस देशभक्ति को फिर से पारिभाषित करने की मांग कर रहे थे। दोनों में समानता थी तो इस बात को लेकर कि देशभक्ति की परणिति इंसानियत ही है।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_07.html?showComment=1302167926739#c793775930904053039'> 7 अप्रैल 2011 को 2:48 pm बजे
waah.kaash ham bhi dilhi hote to jantar mantar ke shiwaay kahi nahi hote
https://taanabaana.blogspot.com/2011/04/blog-post_07.html?showComment=1302253875511#c3703445623975415362'> 8 अप्रैल 2011 को 2:41 pm बजे
Bahut sachcha likha Vineet