मुझे नहीं पता कि साहित्य अकादमी ने उदय प्रकाश को साल 2008 का साहित्य अकादमी पुरस्कार देकर अपनी किस भूल को सुधारने की कोशिश की है? मुझे यह भी नहीं पता कि जिस लेखक के "मोहनदास" की नौकरी पर साजिश करके कब्जा कर लिया जाता है, सरेआम उसका हक मार लिया जाता है,उसी लेखक को अकादमिक जगत में कभी भी नौकरी न देने और अब साहित्य अकादमी देने के बीच क्या साम्य है? मुझे ये भी नहीं पता कि यह पुरस्कार आज के दौर के हिन्दी के सबसे सक्रिय और संवेदनशील लेखक के लिए सम्मान है या फिर पढ़ने-पढ़ानेवाली दुनिया से निर्वासित रखकर अब मुआवजा देने की कोशिश? हां इतनी दिलचस्पी जरुर रहेगी कि हमें कोई बता दे कि पुरस्कार चयन समिति में वे कौन लोग थे जिन्होंने उदय प्रकाश के नाम पर पहली बार अडंगा न लगाया हो और अपने स्वाभाविक कर्म से चूक गए? लेकिन मैं परसों से लेकर आजतक बहुत खुश हूं। अपने प्रिय लेखक को लेकर तब तक खुश रहूंगा,जब तक फेसबुक,ट्विटर और वर्चुअल माध्यम पर उनके लिए बधाई संदेशों का तांता लगा रहता है। मैं इसलिए खुश हूं कि हमारा प्रिय लेखक इस पुरस्कार से खुश है। रचना के स्तर पर अगर मेरा लेखक एक चरित्र की हैसियत से आता है और रचना के आखिरी पन्ने तक उदास,व्यवस्था के प्रति उदासीन और अपने साथ किए जानेवाले कुचक्रों को लेकर संवेदना के स्तर पर या तो अतितरल या अतिकठोर हो जाता है तो मुझे कोई तकलीफ नहीं होती,कुछ भी अटपटा नहीं लगता। लेकिन जीवन के ठोस,निर्मम और वास्तविक धरातल पर मैं हमेशा चाहूंगा कि वह खुश रहे। यह एक पाठक की बहुत ही स्वाभाविक सद्इच्छा है,प्लीज इस पर नजर न लगाएं और न ही इसमें गहन बौद्धिकता के क्षण तलाशने की कोशिश करें।
मेरे बधाई संदेश के बाद उदय प्रकाश की तरफ से जो जबाबी संदेश मिला,उसे तीन-चार बार पढ़ते हुए सहज ही अंदाजा लगा सका था कि उन्हें इस पुरस्कार को लेकर कितनी खुशी हो रही होगी? हम चाहेंगे कि वो इस खुशी को लंबे समय तक के लिए अपने भीतर समेटे रहें। लेकिन हम अपने कमरे में बैठे-बैठे महसूस कर रहे हैं कि उनकी यह खुशी कुछ पाने के बजाय खो जाने के बीच मिल जाने की खुशी है जो स्वाभाविक खुशी से कहीं ज्यादा गाढ़ी,स्थायी और टिकाउ है। मुझे खतरा इस बात का है कि कहीं उदय प्रकाश को सिस्टम के प्रति एक बार फिर से न भरोसा जाग जाए। लेकिन फिर सोचता हूं कि एक लेखक होने के पहले नाक से सांस लेनेवाले और आंखों से नम हो जानेवाले औसत दर्जे के इंसान के तौर पर उदय प्रकश के बीच इस रत्तीभर भरोसे का लौट आना अनिवार्य है,ये भरोसा उन्हें सहमति से कहीं ज्यादा सुकून देगा। लगातार छीजती जाती उम्मीदों के बीच पैबंद की ही तरह ही सही,सिस्टम की देह पर टांगे रखेगा। इस रत्तीभर भरोसे का बना रहना औसत दर्जे के इंसान उदय प्रकाश के साथ-साथ इस पूरी व्यवस्था के लिए भी जरुरी है नहीं तो या तो आत्मघाती या फिर बर्बर हो जाने का बराबर खतरा बना रहेगा।
उदय प्रकाश से मेरी कुल मुलाकात आधे दर्जन के आसपास की होगी। इस आधे दर्जन की मुलाकात में कभी ज्यादा सघन तो कभी थोड़ा कम लेकिन सामान्य रहा- एक समृद्ध सोच,उत्साहित कर देनेवाला अंदाज,लगातार लिखते रहने के लिए सुलगा देनेवाली तारीफें और जिंदगी पर भरोसा करने की हिदायतें और सलाह। यह सबकुछ मिलकर अपने आप एक ऐसा व्योम रच जाता कि जिससे निकलने का मन नहीं करता। एक बार मैंने उनके ब्लॉग पर कमेंट कर दिया था- उदय प्रकाश मुझे हिन्दी के अकेले ऐसे रचनाकार लगते हैं जिन्हें देखकर महसूस करता हूं और भरोसा जगता है कि आप लिखकर भी वो सबकुछ हासिल कर सकते हैं जिसके लिए लोग दुनियाभर के समझौते करते हैं। अपने प्रिय लेखक ने अपने घर की एक-एक चीज को दिखाते हुए कहा था- ये सब हासिल कर सकते हैं,आपने कहा था न। हां,सब हासिल कर सकते हैं,बस भरोसे से लिखते रहिए। लेकिन इस भरोसे के बीच भी जिसे कि लंबे समय तक खुश रहने की कामना के साथ भी उस प्रसंग और उस परिवेश को याद करना जरुरी लग रहा है।
उदय प्रकाश के साथ मैं जब भी मिला,वो बहुत ही समृद्ध माहौल रहा। ये समृद्धि सिर्फ वैचारिक या फिर अनुभव के स्तर पर नहीं ठेठ वस्तु आधारित समृद्धि के स्तर पर जिस पर हिन्दी समाज दुनियाभर की शैतानी स्टीगरें चस्पाता है और जिसे हासिल करने के लिए मारा-मारा फिरता है। यूनिवर्सिटी का सबसे खूबसूरत सेमिनार हॉल,दिल्ली का सबसे पॉश इलाका,किताबों और मंहगी शराब की बोतलों के बीच अटके हमलोग। लेकिन इस समृद्धि के बीच कई बार वो भाव आ जाते जिसे महसूस करते हुए मुझे अफसोस होता। यह मुझे एक लेखक के दर्द से कहीं ज्यादा हिन्दी समाज के ओछेपन और बजबजाती मानसिकता का हिस्सा लगता। मुझे नहीं पता कि अकादमिक जगत में किसी को नहीं जुड़ने देने के पीछे उसकी कौन सी कमी आड़े आ जाती है लेकिन जिन योग्यताओं और खूबियों के बारे में सुनता आया हूं,वो सब तो अपने लेखक के पास सालों से है। फिर वह क्यों इस दुनिया से निर्वासित कर दिया गया? मैं देश के अंग्रेजी अखबारों और विदेशी पत्रिकाओं की कतरनों के बीच उनके साथ बैठा हूं जो कि उन पर लिखे गए हैं। हमें अपने उपर भी भरोसा नहीं होता और जैसे कभी आंखों में आंसू के छलक जाने पर पास की चीजें भी बहुत दूर की दिखाई देती है,वैसी स्थिति बनती है और लेखक बिल्कुल पास में बैठा है। क्या इतनी सारी चीजें,तारीफ और सम्मान में लिखे गए इन हजारों शब्दों के बीच लेखक इस स्तर पर आकर इतना इमोशनल हो जाएगा,यकीन नहीं होता। मुझे फिर लेखक पर गुस्सा आता है,इतनी चीजों के बावजूद अकादमिक दुनिया में न होने का दुख सालता है,यह सचमुच इतना बड़ा दुख है? फिर मैं अपने को धिक्कारता हूं कि तुम अपने लेखक की इस स्वाभाविक स्थिति के साथ पिंड़ छुड़ाकर भागना चाहते हो? फिर जब-तब महसूस करता हूं कि आप दुनियाभर में कितने भी फूलों से न लाद दिए जाएं,तारीफों के मानपत्र से दराज भर जाएं लेकिन अपने ही समाज में,अपने ही लोगों के बीच निर्वासित कर दिए जाने का दर्द उस पर भारी पड़ता है। मैंने तब भी कहा था और आज भी कहता हूं कि आप जिस मुकाम पर है, लोग देखकर न जाने अपनी कितनी रातें और कितनी चेलों की खेप वहां तक पहुंचने के लिए खेप देते हैं? लेकिन
इस अकादमिक सींकचों को छोड़ दें तो उदय प्रकाश इससे ठीक उलट पाठकों से प्यार पानेवाले सबसे ज्यादा खुशनसीब लेखकों में से हैं। उन तमाम बड़े लेखकों से भी कहीं ज्यादा जो विश्वविद्यालयों की सिलेबस में तो जगह पा लेते हैं लेकिन जिन पर प्रश्नोत्तर तैयार करते समय छात्र बिना उनके साहित्यिक अवदान पर गौर फरमाए, आड़ी-तिरछी गालियां बक दिया करते हैं। ये उदय प्रकाश के लिए कितना सुखद है कि वो ऐसे महान रचानकार नहीं बने जिन्हें लोग परीक्षा में सफल होने के लिए पढ़ा करते हों और जिनकी लिखी गई रचनाएं परीक्षा खत्म होने के बाद व्ऑयज टायलेट में गंधाने लग जाती हों। ये कितना अलग और खुश होने की वजह है कि उनकी रचनाएं लाइब्रेरी की तोड़-जोड़ से नहीं पाठकों की मांग पर बिकती है. उनकी एक-एक रचनाओं को जीनेवाला पाठक,उनके एक-एक गढ़े गए चरित्रों में अपने हिस्से का सच खोजनेवाला पाठक बेहतर तरीके से जानता है कि उसके लेखक का क्या कद है? वो अपनी कद के साथ जीता रहे,इससे बड़ी खुशी एक पाठक के लिए और क्या हो सकती है?
उदय प्रकाश को सुनिए बीबीसी हिन्दी पर- सच बोलकर आप खतरें में घिरते हैं
उदय प्रकाश को सुनिए बीबीसी हिन्दी पर- सच बोलकर आप खतरें में घिरते हैं
https://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_23.html?showComment=1293081088066#c7651172961175913741'> 23 दिसंबर 2010 को 10:41 am बजे
उदय प्रकाश के पुरस्कार मिलने पर आपकी ही तरह मैं भी खुश हूँ. इसलिए नहीं कि मैंने उनकी कहानियों पर एम.फिल. किया है. बल्कि इसलिए कि साहित्य में जब सब कुछ जोड़-तोड़ के हवाले हो गया है एक लेखक ऐसा है जो केवल अपने लेखन के कारण इतना बड़ा हो जाता है कि सब उसके सामने बौने नज़र आने लगते हैं. उदय प्रकाश हैं तो हम जैसे लेखकों की उम्मीद बची हुई है, सुन्दर की सम्भावना बची हुई है. वैसे आपके सूचनार्थ बता दूं कि दिल्ली विश्वविद्यालय के सिलेबस का हिस्सा उदयजी भी हो चुके हैं. बहुत दिनों तक इतने बड़े लेखक की उपेक्षा नहीं की जा सकती.
वैसे मेरा उनसे कोई संवाद नहीं है, लेकिन तीन दिनों से उनके ऊपर कोई भी लिखता है अंदर से खुशी महसूस होती है. आपको इतना सुन्दर और साफ़ लिखने के लिए बधाई.
https://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_23.html?showComment=1293093890109#c6559642083381055205'> 23 दिसंबर 2010 को 2:14 pm बजे
जैसे ही साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हुई और उनमें उदय प्रकाशजी के नाम के बारे में पता चला तो सबसे पहले मैं हैरान थी, इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा है। उनके जैसा व्यवस्था से दूर रहने वाला लेखक जब पुरस्कार पाता है तो खुशी से ज्यादा हैरानी होती है।
लेकिन पाठक के तौर पर क्या वाकई इस बात से अंतर पड़ता है, हम उन्हें तब से पढते आ रहे हैं जब कोई पुरस्कार उनके साथ नहीं था। हंस में जब "पीली छतरी वाली लड़की" प्रकाशित हुई थी उन दिनों हंस के लिए बारी लगती थी। उदय प्रकाश के पाठक उनके लिखे को कितना चाहते हैं, ये सब जानते हैं। आज के दौर के हिन्दी के सबसे सक्रिय और संवेदनशील लेखक का पुरस्कार पाना हैरानी और खुशी दो भावों के बीच कहीं झुला देता है क्योंकि वो एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने ये सब किसी जोड़-तोड़ से नहीं अपने लेखन से अर्जित किया है।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_23.html?showComment=1293095346850#c6953148725893769520'> 23 दिसंबर 2010 को 2:39 pm बजे
मैंने पहली बार(ब्लॉग को छोड़कर) उन्हें करीब चार महीने पहले पढ़ा था 'तिरिछ' में.. उसके बाद से मुझे उनकी कोई भी किताब जहाँ कहीं भी मिली मैंने उसे पढ़ने का मौका खोया नहीं.. मेरे भी पसंदीदा लेखकों में मात्र चार महीने में ही उन्होंने अपनी जगह बना ली..
मुझे भी बेहद अच्छा लगा था यह समाचार सुन कर..
https://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_23.html?showComment=1293124958693#c8198866573670836852'> 23 दिसंबर 2010 को 10:52 pm बजे
विनीत जी ! आपने अपनी जिस सच्ची और गहरी संवेदना से लिखा है वो मन को छू गया ....! मेरे सबसे प्रिय लेखक का सम्मान करके साहित्य अकादमी खुद सम्मानित हुई है... ,उदय जी ने जो कुछ लिख दिया है... रच दिया है उसके सामने ये सारे सम्मान अब बहुत छोटे हैं .... जो उन्हे बहुत पहले दिया जाना चाहिए वह सम्मान अब जब उनकी चौखट पर पहुँचा है तो खुद ही गदगद है '' मोहनदास ''से मिलकर ।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_23.html?showComment=1293132738890#c9166873601516751459'> 24 दिसंबर 2010 को 1:02 am बजे
खुश तो मैं भी बहुत हूँ आज !
https://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_23.html?showComment=1293177032936#c7255348378838457586'> 24 दिसंबर 2010 को 1:20 pm बजे
aap hame pasand hain aur .... shradhye udai prakash
ji aapko pasand hain .... sahitya ka sangayan bilkul
na ho pane ke babzood aapki samiksha hame bahut bhati hai .... so lekhak ab to dohri pasand ke ho
gaye.....
sadar.