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कल NDTV24X7 पर बरखा दत्त को कटघरे में लाने के बाद 1 दिसंबर की रात 9 बजे हेडलाइंस टुडे ने आजतक पर सीधी बात करनेवाले प्रभु चावला और कार्पोरेट पत्रकार वीर सांघवी को अपने पक्ष में बात रखने के लिए बुलाया। इन दोनों से सवाल-जबाव करने के लिए  एमजे अकबर, एन राम, किरन बेदी और दिलीप चेरियन को पैनल में शामिल किया गया और 2G स्पेक्ट्रम मामले के बाहने मीडिया एथिक्स पर बात की गयी। उपरी तौर पर देखने से तो ऐसा लगता है कि न्यूज चैनल्स और मीडिया संस्थानों  इस पूरे मामले में अपने नाम आने से चिंतित हैं और वो नहीं चाहते कि उनकी बदनामी हो,संभवतः इसलिए वो पूरे मामले को ऑडिएंस के सामने रख दे रहे हैं।

 कथित तौर पर जो भी मीडियाकर्मी शक के घेरे में हैं,उन्हें आडिएंस के सामने ला दे रहे हैं ताकि किसी तरह की कोई शंका न रह जाए। कल एनडीटीवी की एंकर सोनिया सिंह ने कहा भी कि जब हम इस पर बात नहीं कर रहे थे तो लोगों को लगा कि हम कुछ छुपा रहे हैं,इसलिए इस तरह से शो करना जरुरी समझा। चैनलों के इतिहास के तौर पर देखें तो ये शायद पहला मौका है जब मीडियाकर्मी अपनी सफाई में खुद अपने-अपने चैनल के कटघरे में एक आरोपी के तौर पर खड़े हैं और पैनल के लोगों के सवालों के जबाव दे रहे हैं। कल जब हमने दिन में एनडीटीवी की साइट पर बरखा दत्त के इसी तरह एक खास शो में सवालों के जबाव देने की बात पढ़ी तो हमें भी अच्छा लगा कि चलो इसी बहाने कई चीजें साफ होगी। लेकिन देर रात जब हमने शो देखा तो महसूस किया कि ऐसा करके न तो बरखा दत्त औऱ न ही चैनल किसी तरह का भरोसा कायम कर पाए हैं तो वह हमें पाखंड से ज्यादा कुछ भी नहीं लगा। 1 दिसंबर को NDTV24X7 ने बरखा दत्त की दलील को लिखित तौर पर अपनी ऑफिशियल साइट में लगायी है लेकिन पाठकों के लिए कमेंट के ऑप्शन नहीं दिए। अब 1 दिसंबर को हेडलाइंस टुडे ने लाइव शो के इसी पाखंड को दोहराया।

चैनलों पर आकर शक के घेरे में आए पत्रकारों जिसमें अभी तक बरखा दत्त,वीर सांघवी औऱ प्रभु चावला का नाम विशेष तौर पर लिया जा रहा है,अपनी बात रखने में कोई हर्ज नहीं है औऱ न ही हम इनकी नीयत पर कोई शक कर रहे हैं लेकिन चैनल अगर ये सबकुछ अपनी ब्रांड इमेज को मजबूत करने औऱ पहले की तरह बरकरार करने के लिए कर रहे हैं तो उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिलेगा। साफतौर पर शो को देखकर लगता है कि ये सब कार्पोरेट हाउसेज में जो नुकसान हो रहे हैं,उसे डैमेज कंट्रोल के लिए ये सब किया जा रहा है लेकिन आम ऑडिएंस और पाठक के बीच जो इनकी साख गिरी है,उसे दोबारा हासिल कर पाना फिलहाल नामुमकिन है। ऐसे में थोड़ी गहराई में ाकर पूरी बात समझें तो कुछ दूसरा ही खेल नजर आता है।

सबसे पहले तो ये कि 2G स्पेक्ट्रम घोटाला देश के भीतर कुछ प्रभावी लोगों और संस्थानों की ओर से किया गया एक बड़ा करप्शन है जिसमें कि करोड़ों रुपये के घोटाले उनलोगों के पैसे के किए गए हैं जो कि दिन-रात एक औशत जिंदगी जीकर-खटकर सरकार को टैक्स के तौर पर अदा करते हैं। ये कोई रामगोपाल वर्मा की बनायी फिल्म रण नहीं है जिसमें कि विजय हर्षवर्धन मलिक( अमिताभ बच्चन) आए और बहुत ही भावुक तरीके से लाइव माफी माग ले कि हमने अपने चैनल के माध्यम से जो कुछ भी किया,वह गलत है। अभी जो चैनलों ने अपने पक्ष में बात रखने का काम शुरु किया है वह इस पूरे मामले का स्वाभाविक हिस्सा न होकर कर्मकांड भर है। और उससे भी खतरनाक बात ये कि ऐसा करके पूरे मामले को सॉफ्ट करने और उसकी हवा निकालने की कोशिश है। आप खुद ही सोचिए न,जिन मीडियाकर्मियों पर नीरा राडिया के साथ संवाद करने और दो पार्टियों के बीच कौन क्या बनेगा,उसके लिए लॉबिंग करने के आरोप हैं,वह सीधे-सीधे अपराध का मामला है,इसमें मीडिया एथिक्स पर क्या बहस करनी है? लेकिन नहीं आज हेडलाइंस टुडे ने मीडिया एथिक्स पर  अपने को फोकस रखा और कल बरखा दत्त पूरी बहस को इसी दिशा में ले जाने की कोशिश करती नजर आयी। ये तो स्वप्न दासगुप्ता ने कहा कि आज हम यहां मीडिया एथिक्स पर बात करने नहीं आए हैं,तब जाकर मुद्दे पर बात हो सकी। इस पूरे मामले को मीडिया एथिक्स काम मामला बनाने का मतलब है कि मुद्दे को सॉफ्ट स्टोरी या परिचर्चा में तब्दील करने की साजिश की जा रही है। ऐसी परिचर्चा आए दिन दूरदर्शन और लोकसभी चैनल पर होते रहते हैं,इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है। इसलिए सबसे जरुरी बात है कि इस पर मीडिया एथिक्स का मामला न बताकर अपराध या मीडिया अपराध का मामला बताकर बात करनी होगी। ऐसा करके चैनल एक-दूसरे के लिए डीफेंड करने का ही काम करते हैं और आपसी बचाव के लिए माहौल बनाने का काम कर रहे हैं।

दूसरी बात कि चैनलों पर जिस तरह से पंचायती दौर शुरु हुआ है उससे ऐसा लग रहा है कि चैनल पर आकर कुछ लोग जो तय कर देंगे वही इन मीडियाकर्मियों के लिए अंतिम फैसला होगा। ये मुझे यूनिवर्सिटी कैंपस में पांच साल रहते हुए उसी तरह का मामला लग रहा है कि दबंग टाइप के ग्रुप कमजोर को दमभर मारते और फिर आपसी सुलह कर लेने के नाम पर पूरे मामले को दबा दिया जाता। ये मामला सिर्फ नैतिक नहीं है और जब तक पूरा फैसला आ नहीं जाता,अपराध के घेरे में ही आता है। इसलिए इस पर सिर्फ और सिर्फ नैतिक आधार पर बात करने का मतलब है पूरे मामले से ऑडिएंस की नजर को भटकाना और केस को कमजोर करना। ये मामला उस आधार पर नैतिक जरुर है कि जब तक फैसला आ नहीं जाता,बरखा दत्त,वीर सांघवी,प्रभु चावला औऱ बाद में जितनों के भी नाम आएं नैतिकता के आधार पर पत्रकारिता कर्म छोड़ दें। चैनलों पर वी दि पीपुल औऱ सीधी बात करने से अपने को अलग कर लें। वो मान लें कि जब तक उनके दामन को पाक-साफ करार नहीं दिया जाता,तब तक वो दूसरों से सवाल-जबाब नहीं करेंगे। ये नैतिक औऱ मीडिया एथिक्स के दायरे में आएगा। ये कभी नहीं आएगा कि जो बाकी के लोगों के लिए अपराध है औऱ जिसे मीडियाकर्मियों ने किया है वह बस मीडिया एथिक्स का हिस्सा है।

आप समझिए न कि ये मीडिया की ओर से कितनी बड़ी चालबाजी है कि देश के तमाम लोगों के लिए फैसला देने का काम कानून और जूडिशियरी करती है और मीडिया के लोग आप ही पंचायती करने बैठ गए हैं। ये कोई रजत शर्मा की आप की अदालत शो है कि किसी बड़ी शख्सियत को बुलाऔ और कहो कि आप पर मुकदमा चलेगा और अंत में बाइज्जत बरी कर दो। ये कर्मकांड औऱ चोचलेबाजी उस खास दिन में चैनल की टीआरपी बढ़ाे के काम जरुर आएंगे लेकिन लोगों का भरोसा हासिल होने के बजाय इस साजिश पर उंगली उठाने का मौका मिलेगा। ऐसे शो करके मीडिया संस्थान न केवल अपने को पाक-साफ करार देने की कोशिश कर रहे हैं बल्कि मामले को बिना फैसले के प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। उन सबों की नैतिकता वहीं तक है कि सब फैसले आने तक अपने को जर्नलिज्म से दूर रखे, फिक्शन लिखें। इसके आगे वो जो कुछ भी करते हैं वह अपने को बचाने के लिए कोशिश औऱ साजिश का हिस्सा होगा,इससे ज्यादा कुछ नहीं। कानून को अपने तरीके से काम करने देना चाहिए। अभी यही सबकुछ एक औसत व्यक्ति के साथ होता जिसके फुटपाथ पर गोभी बेचने से छ आदमी के पेट पलते हैं तो सलाखों के भीतर होता,पुलिस की रोज पूछताछ होती। खुद चैनल के भीतर ही औसत हैसियत के साथ काम करनेवालों की छुट्टी हो जाती लेकिन चूंकि इसमें कई सेक्टर के लोगों की गर्दन फंसी हुई है और उनकी हैसियत से इन मीडियाकर्मियों की हैसियत मेल खाती है इसलिए चैनल ने ड्रामेबाजी शुरु कर दी है। इन्हें चाहिए कि ये सब नाटक बंद कर सीधे अपने संस्थानों से इन सबों को फैसले आने तक अलग कर दें।......नैतिकता भी इससे कम की मांग नहीं करती।

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