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ज से ठीक दस साल पहले यानी 31 दिसंबर 2000 को आजतक न्यूज चैनल की शुरुआत हुई। यह देश का पहला चौबीस का घंटे का न्यूज चैनल था, जिसकी पहचान सबसे तेज के तौर पर बनी। अरुण पुरी ने इसकी शुरुआत सदाव्रत, सत्य और अहिंसा के विस्तार के लिए नहीं की थी बल्कि ये शुद्ध रूप से उनका व्यावसायिक फैसला था, जिसे कि उन्होंने बहुत ही डरते-डरते लिया था। उन्हें इस बात की आशंका थी कि इंडिया टुडे के धंधे में जिस तरह के मुनाफे हो रहे हैं, शायद सेटेलाइट टेलीविजन चैनल में न हो। लेकिन चौबीस घंटे का न्यूज चैनल शुरू करने के पीछे उनके पास दो बड़े अनुभव थे। एक तो वीडियो कैसेट की संस्कृति के दौर में न्यूजट्रैक वीडियो मैगजीन को जो सफलता मिली थी, उसने यह साबित कर दिया था कि लोगों के बीच मनोरंजन कार्यक्रमों के अलावा खबरों में भी दिलचस्पी है, आनेवाले समय में खबरों का भी एक बड़ा बाजार है।
यह वह दौर था, जब लोग दूरदर्शन की खबरों के प्रति लापरवाह होकर, भाड़े पर लाये गये वीसीआर पर “खुदगर्ज” या “गंगा मईया तोरे पियरी चढ़इबो” जैसी फिल्में देखा करते। उन पर इस बात का दबाव रहता कि अगर रात में देखकर खत्म नहीं कर ली, तो कल दुगना किराया देना होगा। लेकिन 1988 में अपनी शुरुआत के साथ ही न्यूज ट्रैक मैगजीन ने बेहद कम समय में जबरदस्त मार्केट पकड़ लिया। एक कैसेट की कीमत 150 रुपये होती और लोग इसे खरीदने (बाद में कुकुरमुत्ते की तरह वीडियो लाइब्रेरी खुलने से किराये पर भी) के लिए लाइन लगाया करते। 1990 में मंडल कमीशन के दौरान इस मैगजीन को भारी लोकप्रियता हासिल हुई। उस दौरान इसकी विश्वसनीयता दूरदर्शन से ज्यादा बनी।
दूसरा कि 1995 में डीडी मेट्रो पर 20 मिनट के लिए जिस आजतक की शुरुआत हुई, उसने और भी बेहतर तरीके से साबित कर दिया कि पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग के अलावा भी एक खाली स्पेस है, जिसे कि निजी मीडिया के माध्यम से भरा जा सकता है। आजतक का यह अंदाज दूरदर्शन के समाचारों से बिल्कुल अलग था जिसे कि ऑडिएंस ने हाथोंहाथ लिया। एसपी सिंह ने टेलीविजन की भाषा को लेकर जो प्रयोग किये थे, खबरों के साथ पैश्टिच तैयार की थी, उसने बहुत जल्द ही ऑडिएंस का एक बड़ा वर्ग तैयार कर लिया था। एसपी सिंह ने दूरदर्शन के रिवाजों को कई स्तरों पर तोड़ा और खबर को सरकारी कर्मकांडों से बाहर निकालने का काम किया। जिस दूरदर्शन की लगभग सभी बुलेटिन प्रधानमंत्री ने कहा है कि से शुरू होती, एसपी सिंह ने उसमें समाज के नये चेहरों, अल्पसंख्यक, दलित और स्त्रियों के स्वर को शामिल करना शुरू किया। दूसरी तरफ खबरों में टीआरपी के बताशे बनाने के जो खेल शुरू हुए हैं, उसकी शुरुआत भी उन्होंने ही की। होली पर पटना में कोई खबर नहीं है, तो लालू की होली शूट कर लाओ। उन्होंने ही अपने संवाददाता को मोटरसाइकिल से लालू की होली शूट करने के लिए भेजा था, आप याद कीजिए, उसमें आपको पीपली लाइव का दीपक नजर आएगा। दूरदर्शन इसे चलाने से एतराज कर रहा था लेकिन एसपी सिंह की ठसक की वजह से ये स्टोरी चली और पहली बार कोई राजनीतिक व्यक्ति गैरराजनीतिक खबर के लिए इस्तेमाल में लाया गया। एसपी सिंह की चर्चा करते वक्त उनकी इस ट्रीटमेंट की चर्चा कम ही होती है। आगे चलकर ऐसा किया जाना ट्रेंड बन गया और अब राजनीतिक व्यक्ति शौक से कॉमेडी सर्कस में भी आने की इच्छा रखते हैं।
आजतक ने दूरदर्शन पर कार्यक्रम प्रसारित करते हुए भी उससे अपने को बिल्कुल अलग रखने की कोशिश की और पहचान बनायी। आगे चलकर तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री प्रमोद महाजन ने इस बात पर अपनी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा – अगर एक अखबार में दो संपादकीय नहीं हो सकते तो फिर यह कैसे संभव है कि दूरदर्शन पर दो अलग-अलग किस्म के समाचार हों। डीडी वन पर अलग तरह के समाचार और डीडी टू पर उससे ठीक अलग समाचार। अगर ऐसा है तो फिर डीडी के एक ब्रांड होने का क्या मतलब है। 29 जनवरी 1999 के इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक ये संकेत मिलने लगे थे कि दूरदर्शन पर आजतक बहुत ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता। प्रमोद महाजन ने इस पर भी एतराज जताया था कि आज से तीन साल पहले जब आजतक की शुरुआत हुई थी, तो तय ये किया गया था कि इस पर सामयिक मसले से जुड़े कार्यक्रम दिखाये जाएंगे। लेकिन मैं देख रहा हूं कि ऐसा नहीं हो रहा है। प्रमोद महाजन का इशारा उन खबरों की तरफ था, जिसमें खबर के नाम पर लोकप्रियता बटोरने की कोशिशें होने लगी थी। दूसरी वजह ये भी थी कि खुद दूरदर्शन के समाचार इस तरह से पेश किये जाते कि उसके मुकाबले लोगों को आजतक बहुत पसंद आता। दूरदर्शन ने जिस बेतहाशा तरीके से लाइसेंस फीस लेकर निजी मीडिया हाउसों को स्लॉट दे रखे थे, उसका उसे भारी नुकसान उठाना पड़ रहा था। प्रमोद महाजन ने तब कहा था कि सरकार दूरदर्शन को 1700 करोड़ रुपये इस बात के लिए नहीं देती कि उस पर किसी तरह का नियंत्रण नहीं रहे। बाहर से आनेवाले को इस बात की छूट नहीं दी जा सकती कि 25000 हजार रुपये देकर प्रसार भारती को ही चलाने लग जाए। इशारा साफ था कि आजतक जैसा कार्यक्रम दूरदर्शन को लॉन्चिंग पैड की तरह इस्तेमाल कर रहा है। लिहाजा अरुण पुरी को इन दोनों उपलब्धियों का स्वाद मिल चुका था और अब इसे दूरदर्शन से अलग करने का भी मन वे बना चुके थे। 31 दिसंबर 2000 को आजतक को एक निजी सेटेलाइट चैनल के तौर पर लांच कर दिया गया।
आजतक ने दूरदर्शन का सरकारी भोंपू न बनने वाली छवि का पूरा फायदा उठाया। उसने ऑडिएंस के बीच अपनी इस तरह से पहचान बनायी कि उन्हें लगने लगा कि ये चैनल सरकार से कहीं ज्यादा भरोसेमंद और उनके प्रति चिंतित है। आजतक के कम समय में सफल होने की वजह तकनीक के स्तर पर मजबूत पकड़ और भाषा के स्तर पर क्लासरूम के बजाय कैंटीन और चौपाल की तरफ लौटना था। उसने बाकी मीडिया हाउस की तरह महंगे सेटअप के बजाय विदेशों की छोटी-छोटी कंपनियों से तकनीक आधारित सौदे किये और एसेंबल्ड तकनीक पर जोर दिया। तब आजतक के कैमरे एनडीटीवी के कैमरे से चार गुना कम कीमत पर होते। ज्यादा खबर, स्पॉट की खबर और कैमरा और आंखों के भरोसे को एक करने देने की रणनीति ने उसे ऊपर उठाया। चैनल ने अपनी ब्रांडिंग इस भरोसे को जीतने के तौर पर की। 2005 में रायटर ने जो सर्वे किया, उसमें आजतक को दूरदर्शन से ज्यादा विश्वसनीय बताया गया। आजतक को 11 प्वाइंट मिले थे जबकि दूरदर्शन को 10… लेकिन आगे चलकर आजतक ने अपनी इस विश्वसनीयता को बनाये रखने के बजाय खुद को महज ब्रांड के तौर पर स्थापित करना शुरू कर दिया।
दमदार खबरों के दम पर उसने मीडिया इंडस्ट्री में जिस तरह की इंट्री ली थी, धीरे-धीरे अपनी पहचान रिड्यूस करके टीआरपी की पहचान पर जीने लग गया। शुरुआत के चार-पांच सालों तक टीआरपी और धार दोनों साथ-साथ चलते रहे लेकिन 2005-06 के बाद से सिर्फ टीआरपी ही उसकी पहचान बनती चली गयी। नतीजा, जोड़-तोड़, उठापटक और तमाशों को किसी तरह दिखाकर चैनल नंबर वन की कैटरेस में किसी तरह तो बना रहा लेकिन उसकी साख धीरे-धीरे मिट्टी में मिलती चली गयी। दूसरा कि जिस गोबरछत्ते की तरह टेलीविजन पर न्यूज चैनल सवार हैं, उसके बीच चैनल ने अपनी अलग पहचान खो दी। पिछले दो-तीन साल से ऐसी स्थिति बनी कि जो आजतक पर चले, वही खबर है की भी ताकत खत्म हो गयी। मतलब कि वह इंडस्ट्री का ट्रेंड सेटर नहीं रह गया। वह कभी चार घंटे के लिए इंडिया टीवी हो जाता तो अगले दो घंटे के लिए स्टार न्यूज तो फिर अगले तीन घंटे के लिए संस्कार या आस्था टीवी। चौबीस घंटे के भीतर आजतक दो घंटे तक के लिए भी आजतक नहीं बना रहा। पुण्य प्रसून वाजपेयी इस पूरी स्थिति को गिरावट के तौर पर देखते हैं, जिससे लगता है कि इसने अपना स्वर्ण युग खो दिया है। लेकिन…
मेरी अपनी समझ है कि आजतक की शुरुआत कोई संतई कर्म के लिए नहीं हुई थी। उसका शुरू से उद्देश्य था कि इसे मुनाफा का माध्यम बनाया जाए। हां, शुरुआत में जो खबरें दिखायी गयीं, उसमें उन तमाम ऑडिएंस की चिंता होती जो कि सीधे तौर पर चैनल से परिभाषित होते हैं। बाद में जब वो ऑडिएंस पहले टीआरपी बक्से से और तब थोड़ा बहुत जेनरल कांशसनेस से पारिभाषित होने लगे तो कंटेंट बदलना शुरू हो गया। अब ऑडिएंस की पसंद और इच्छा के नाम पर उसके फ्लेवर हैं, जिसके नाम पर चैनल चल रहा है। इस बीच चैनल की पहचान सिर्फ और सिर्फ टीआरपी के स्तर की है। खबर का असर अब उसी तरह से है, जैसा कि बाकी चैनल विज्ञापन के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इंडस्ट्री के बीच यहां के लोगों की पहचान भी उसी रूप में है कि अगर आजतक में कोई काम करके आया है तो जाहिर है कि उसे टीआरपी के बताशे बेहतर तरीके से बनाने आते होंगे। शुरुआती दौर के मीडियाकर्मी, जिन्होंने कि एसपी सिंह के साथ काम किया, वे भी एक हद तक तमाम चैनलों के मैनेजिंग एडीटर या प्रमुख इसलिए बने क्योंकि इस कला को लेकर उन पर भरोसा किया जा सकता था। वे चैनल चला सकते थे, यानी कि चैनल को टीआरपी और मुनाफे के फार्मूले के साथ जोड़कर रख सकते थे। आजतक के किसी भी मीडियाकर्मी को इसलिए नहीं बुलाया जाता कि वह कोई सरोकारी पत्रकारिता करेगा? पुण्य प्रसून वाजपेयी ने ऐसे ही पत्रकारों को ब्रांड में तब्दील हो जाना कहा है। बिजनेस के लिहाज से सोचें तो चैनल को न तो आज से दस साल पहले कोई नुकसान था और न ही आज कोई नुकसान है। लेकिन ऑडिएंस और मीडियाकर्मी के स्तर पर सोचें तो इस चैनल को भारी नुकसान हुआ है। ये नुकसान हालांकि सब्जेक्टिव किस्म का है, जिसका हर कोई आकलन अलग-अलग तरीके से कर सकता है। लेकिन हम जैसे लोगों के लिए एक ऐसा चैनल, जिसे देखकर एक ही साथ तीन सपने देखे थे और जो कि अब शायद ही कोई ऐसा देखता हो…
(1) स्कूल से ही ये सपना कि बड़ा होकर पत्रकार बनना है
(2) आजतक का पत्रकार बनना है और
(3) पुण्य प्रसून वाजपेयी और शम्स ताहिर खान जैसा पत्रकार बनना है
ये सपने वक्त के साथ ध्वस्त हो गये। तमाम बातों के बावजूद इस चैनल ने लंबे समय तक एक पीढ़ी को इस बात के लिए प्रेरित किया है कि बड़ा होकर उसे पत्रकार बनना है। शायद ये नास्टॉल्जिया का हिस्सा हो लेकिन हमने बचपन के इसी सपने के बूते आजतक की इंटर्नशिप के नाम पर दिल्ली के कम से कम 20-35 इलाकों में टेंट हाउस से लाकर कुर्सियां लगवाने का काम किया। उस दौरान जहां-जहां चैनल के शो होते, उसकी व्यवस्था में लगा रहा। घोर नास्तिक और भाग्य और ज्योतिष पर ठोकर मारने की आदत होने पर भी आपके तारे जैसे कार्यक्रम पर रोज कुंडलियां देखी, फर्जी ज्योतिष के बकवास के ग्राफिक्स बनाये। कई बार ये ख्याल आया कि ये हमारा वो आजतक नहीं है, जिसे देखते हुए हम अपनी होमवर्क की कॉपियां रोल करते और पुण्य प्रसून की नकल उतराते – कैमरा मैन आसिफ के साथ पुण्य प्रसून वाजपेयी, दिल्ली, आजतक। फिर भी…
ये बचपन में आजतक को लेकर देखे गये सपने का असर ही था कि हम दिनभर जब ऐसे काम करते जिसे कि हमने कभी भी मीडिया का हिस्सा नहीं माना, जो काम घर-दुकान के नौकर-चाकर कर दिया करते हैं, बुरी तरह थककर चूर हो जाते तो खाली स्टूडियो में जाकर पुण्य प्रसून वाजपेयी की तरह हाथ रगड़ते और कई बार जी बोलते, स्क्रिप्ट में ज्यादा से ज्यादा बार कहीं न कहीं और आम आदमी घुसेड़ते। मैं हूं प्रतीक त्रिवेदी और आज खड़ा हूं जंतर-मंतर पर। जी हां, एक ऐसे इलाके में जहां कुछ भी कहा जाए, तो आवाज सीधे सरकार के कानों तक जाती है। हमने बचपन के उन सपनों के भरोस दस साल तक मीडिया की पढ़ाई कर ली, लिखना और बोलना सीख लिया। आजतक में काम करने का मौका मिला तो उन सपनों की बदौलत सब कर गये। मन में सवाल उठते तो अपने को समझाता – तुम यहां मीडिया का काम नहीं, बचपन के अपने सपने पूरे करने आये हो, वो पूरे हो रहे हैं। खुश रहो। आज मैं सोचता हूं कि क्या आजतक को देखकर इस पीढ़ी के बच्चे उसी तरह के सपने पालते होंगे और उन्हें भी दो-चार ऐसे पत्रकार जंच गये होंगे जिसकी वो नकल उतारकर उनकी तरह बनना चाहते हों। अरुण पुरी के लिए वो सब तब भी धंधा था और आज भी है। लेकिन तब के धंधे में एक मासूमियत थी, बॉटमलाइन की एक सच्चाई थी जो ऑडिएंस के भरोसे को बनाये रखती। आज ये भरोसा खत्म हो गया है। ऑडिएंस और पत्रकारों को नुकसान इसी स्तर पर है।
आज से तीन-चार दिन पहले पुण्य प्रसून वाजपेयी ने अरुण पुरी की उस मीटिंग का जिक्र किया है (टीवी पत्रकारिता कहां से चली थी, कहां पहुंच गयी?), जिसके अनुसार उन्होंने रिपोर्टरों को बुलाकर कहा कि अब ये चैनल आपके हाथ में है, आप इसे चाहे जैसे चलाएं। वाजपेयी अरुण पुरी की ये बात रिपोर्टरों की ईमानदारी और काबिलियत रेखांकित करने के तौर पर कर रहे थे। अच्छी बात है कि अरुण पुरी ने तब अपने रिपोर्टरों और मीडियाकर्मियों पर भरोसा किया और उन्हें अपने मुताबिक काम करने का मौका दिया। लेकिन इस प्रसंग का दूसरा पक्ष भी है कि अरुण पुरी किस दौर में आकर अपने रिपोर्टरों और मीडियाकर्मियों से ये कहना शुरू करते हैं कि सवाल ईमानदारी का नहीं है। सवाल इतने बड़े वेंचर के बने रहने, आपलोगों को समय पर सैलरी मिलती रहने और चैनल की टीआरपी बनी रहने की है। दूसरे चैनलों की बात छोड़ दें तो आजतक एक ऐसा चैनल है, जिसमें कि मालिकाना हक से लेकर बाकी स्तरों पर बहुत कम ही फेरबदल हुए हैं। ऐसे में इस दूसरे पक्ष की पड़ताल बहुत जरूरी है। पहले जिन रिपोर्टरों को बिना बाइट के भी, अगर उसे अपनी खबर पर भरोसा है, तो चला देने को कहा, अब ऐसी कौन सी स्थिति आ गयी कि बलात्कार तक की खबर (पीड़ित के मौजूद होने पर भी) बिना एसएचओ की बाइट के नहीं चलने पाती है। ऐसा क्या हो गया कि पांच करोड़ पर प्रियंका चोपड़ा के शीला की जवानी गाने पर नहीं नाचने से आजतक की एंकर आश्चर्य प्रकट करती हैं, जैसे कि वो खुद मना नहीं कर सकेगी? चैनल के भीतर खबरों को लेकर जो नजरिया बदला है, वो क्या सिर्फ टीआरपी के बक्से के डर से है या फिर यह पूरा मामला मुनाफे के पैटर्न के बदल जाने का है? क्योंकि बात जब हम अरुण पुरी के आजतक चैनल की कर रहे हैं, तो हम पूरी तरह होशोहवास में हैं कि हम एक ऐसे शख्स से बात कर रहे हैं, जिसने कि चैनल की शुरुआत ही सरोकार उद्योग से की लेकिन अब उससे सरोकार शब्द हट गया। अगर ये डर और बदलाव टीआरपी के बक्से की वजह से है तो हमें आजतक के दस साल होने पर जश्न मनाने के बजाय मनुस्मृति की तरह टीआरपी के बक्से को जलाना चाहिए जिसने मुनाफे की स्थिति में भी चलनेवाले हमारे एक भरोसेमंद चैनल की जुबान खींच ली।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_31.html?showComment=1293930878414#c7109440075278408430'> 2 जनवरी 2011 को 6:44 am बजे
Dear Vinit,
Mass Communication has always been used as a tool by politicians and Corporates and It will remain the same.
As far as credibility of AajTak is concerned, it left no stone unturned to make its image but that was not for the sake of credibility, it was, it is and it always will be only to earn more profite.
Most of the media house nothing has to do with public welfare and being a watch dog of the society. They are open shops now where you buy the time & space and put anything you like in that time & space. They never bother....