लेखक या साहित्यकार होने पर जिस किसी को भी सबसे अलग या फिर देवता किस्म के इंसान होने की खुशफहमी है, उन्हें लगता है कि वे औरों से हटकर हैं और उनकी धरती पर सप्लाय खास मकसद के लिए हुई उनको उदय प्रकाश की बात से परेशानी हो सकती है। उनकी बात उन्हें अनर्गल लग सकती है और ये भी हो सकता है कि उन्हें सेफ एक्टिविस्ट के रुप में समझा जाए जो क्रांति तो चाहता है लेकिन किसी भी तरह के पचड़े में पड़ना नहीं चाहता। लेकिन जिस भी लेखक या रचनाकार को थोड़ा सा भी इस बात का एहसास है कि वो और लोगों की तरह ही पहले एक नागरिक है और उस पर भी कानून के डंडे और कानून की फटकार चल सकती है वो उदय प्रकाश को एक ईमानदार लेखक माने बिना नहीं रह सकता। वो रचनाकार होने के पहले एक जिम्मेदार और व्यवहारिक आदमी भी है।
ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि आमतौर रचना में लेखक जो कुछ भी लिखता है उससे लोगों के बीच उसकी छवि बनती है कि चाहे जो कुछ भी हो जाए, वो अपने मन की लिखेगा, कभी समझौते नहीं करेगा और न ही रचना प्रक्रिया के दौरान किसी की सुनेगा। लेकिन उदय प्रकाश ने कल सराय में हम पाठकों का जबाब देने के क्रम में साफ कर दिया कि वो भी हमारी तरह एक इंसान ही है और उस पर भी सत्ता की सारे नियम और शर्तें लागू होती है। ऐसे में जरुरी है कि वो बच-बचाकर चले। अब यह अलग बात है कि बचने-बचाने के चक्कर में लेखन एक इन्नोसेंट एक्टिविटी नहीं रह जाती लेकिन ये भी तो है कि रचनाकार अपने को देवता या उसका दूत होने का ढोल भी नहीं पीट रहा। ये पहले से कहीं ज्यादा ईमानदार स्थिति है। नहीं तो अभी तक मैंने यही देखा है कि बड़े से बड़ा आलोचक या साहित्यकार अपने को महान या समाज सुधारक बताने में जिंदगी झोंकने की बात करता आया है। जबकि सच्चाई ये नहीं रही। बच-बचाकर या फिर सत्ता के मिजाज के हिसाब से लिखने की परंपरा का लम्बा इतिहास रहा है। लेकिन उदय प्रकाश ने जब उदाहरणों के माध्यम से ये समझाना शुरु किया औऱ देश-विदेश के कई रचनाकारों की यातनाओं के संदर्भ बताए तो बात समझ में आ गयी कि वो वेवजह सत्ता या राजनीति का चारा नहीं बनना चाहते।
और सही भी है कि हम पाठक तो चाहेंगे ही कि हमें अच्छी से अच्छी और कभी-कभी गुदगुदाने या रोमांचित कर देनेवाली रचना मिले लेकिन इसके एवज में लेखक को कितना कुछ झेलना पड़ सकता है इसकी चिंता हमें कहां है। अब लेखक शेखी न मारकर अपनी समझदारी के मुताबिक लिख रहा है तो इसमें गलत क्या है।
उदयजी से जब मैंने ये सवाल किया कि अगर आपकी रचना को बतौर समाज विज्ञान के रेफरेंस के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो फिर आपको परेशानी क्यों है। उन्होंने इस बात का जबाब बिना कोई लाग-लपेट के दिया। उनका कहना है कि राजनीति या फिर दूसरे संदर्भों में रचना का इस्तेमाल इस तरीके से होता कि रचना का मतलब नहीं रह जाता। अगर हम यह समझें कि रचना को किसी वादों या सिद्धांतों के तहत फिट करने की कोशिश भर होती है और अक्सर इसके लिए रचनाकार को झेलना पड़ता है। बात-बात में पॉलिटिकली करेक्ट होने की बात ढूंधने से संवेदना के स्वर दब जाते हैं, जबकि रचना मानवीयता की तलाश और उसकी स्थापना है। तस्लीमा का उदाहरण देते हुए उदय प्रकाश रचना या फिर रचनाकार को तमाशा नहीं बनने देना चाहते। उनके हिसाब से इस व्यावहारिक समझ को सुविधावादी नजरिया या फिर सुरक्षित मानसिकता का लेखन कदापि नहीं माना जा सकता।
ये उदय प्रकाश की स्थितियों के प्रति समझदारी हीं कहें कि वे हम पाठकों की वाहवही के चक्कर में अपने को हलाल नहीं होने देना चाहते। औऱ न ही उन मठों के सुर में सुर मिलाना चाहते हैं जो कि ये मानता आया है कि लेखन के नाम पर लेखक बड़ा ही महान काम कर रहा है और इस हिसाब से वो महान है।
उदय प्रकाश की ये ईमानदारी साहित्य के बाबाओँ को चुनौती देने के लिए काफी है और उनकी ये अदा कि हम किसी के कहने से हलाल नहीं हो जाएंगे हमें दिवाना कर जाती है।
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https://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_05.html?showComment=1199630040000#c951855036249691329'> 6 जनवरी 2008 को 8:04 pm बजे
विनीत बाबू उदय प्रकाशजी की ही तरह आपका विश्लेषण भी ईमानदारी भरा है. पर ये नहीं मानते आप कि अपने को साहित्यकार और समाज सुधारक बताने वाली किस्म के कुछ प्राणी उदयजी पर बार-बार अपना विचार थोपने की भरसक कोशिश ही नहीं कर रहे थे, बल्कि ठोक रहे थे. बढिया लिखा.