कुछ दिनों पहले मैंने एक लड़की की स्वेट शर्ट के उपर लिखा देखा था- रामजस कॉलेज, डिपार्टमेंट ऑफ हिन्दी। मुझे ये वाक्या वाकई बहुत अच्छा लगा और मैंने एक पोस्ट लिखी कि अब हिन्दी पढ़नेवालों को बताने में शर्म नहीं आती कि वे हिन्दी के स्टूडेंट हैं। और अब मैं ये मानकर चल रहा था कि हिन्दी में कुंठा या फिर हीनताबोध धीरे- धीरे खत्म होता जा रहा है। लेकिन इधर मास्टरों का नजारा देखकर कुछ अलग ही राय बन रही है।
हिन्दी मास्टरों को अंग्रेजी के अखबारों या पत्रिकाओं में छपते कई बार देखा है। और अच्छा लगता है कि देखो हिन्दी का मास्टर या मास्टरनी इंग्लिश में लिख रहे है। मुझे याद है, एक बार मैंने तहलका की साइट देखी तो देखा हमारे मास्टर साहब लगातार अंग्रेजी में लिख रहे हैं। कईयों को फोन करके बताया। अपने पांडेजी अक्सर कहा करते कि कुछ लोग हिन्दी के नहीं देवनागरी के मास्टर हैं, बीच-बीच में अंग्रेजी डालते हैं( देखिए, कथादेश॥ भूमंडलीकरण और भाषा, विशेषांक )। लेकिन सारे लेख को देखकर लगा कि नहीं खालिस इँग्लिश में भी लोग लिख रहे हैं।
इधर मैं लगातार देख रहा हूं कि अँग्रेजी में लिखने के बाद मास्टरजी लेखक परिचय के तौर पर अपने को सोशल एक्टिविस्ट, सोशल कमन्टेटर या फिर इसी तरह कुछ और बता रहे हैं। कभी उन्होंने नहीं लिखा कि वे हिन्दी विभाग में रीडर हैं। लिख दिया होता तो हम भी दूसरे स्ट्रीम के लोगों के सामने तानकर खड़े होते कि देखो हिन्दी के मास्टरों की क्वालिटी और फिर उस हिसाब से बंदा अंदाज लगा लेता कि कल को ये भी इंग्लिश में लिख सकेगा।
एक मास्टरनीजी की एक किताब पर कल नजर पड़ गयी। परिचय में लिखा था- रीडर, मीडिया एवं ट्रांसलेशन। ये कोर्स एमफिल् के लोगों के लिए एक साथ तैयार किया गया है। जाहिर है जब वो आयीं थीं तो ऐसा कोई भी कोर्स नहीं था। तब वो हिन्दी की रीडर ही रही होगी। समझ नहीं आता कि हिन्दी के अलावे किसी दूसरे मसले पर लिखने के बाद ये हिन्दी से जुड़े होने का परिचय क्यों नहीं देना चाहते। सवाल सिरफ पहचान बदलने की नहीं है।
सवाल ये भी है कि ऐसा करना उनके लिए जरुरी हो जाता है क्योंकि शायद वे हिन्दी से कुछ बड़ा काम कर रहे हैं जो कि हिन्दी के दूसरे मास्टर नहीं कर सकते। इसलिए वे अपने को हिन्दीवालों की पांत में अपने को खड़ा नहीं करना चाहते। वे देश के अलग-अलग मसलों पर लिख रहे हैं जो कि आमतौर पर हिन्दी के लोग नहीं करते। उतने एक्टिव नहीं है। ऐसा लिखने से ये फर्क साफ समझ में आ जाए, इसलिए भी ये जरुरी है। और अपने को अलग दिखाने की परम्परा कोई नई नहीं है। ये तो पहचान ही अलग बता रहे हैं। पहले के तो मास्टर जब लिखते या फिर कुछ बोलते तो मार संस्कृत के श्लोक पेलते जाते। बचपन यानि दसवीं-बारहवीं में तो मुझे लगता कि हिन्दी पढ़ने के लिए संस्कृत पर कमांड जरुरी है, जैसे आज लगता है कि एमबीए बिना इंग्लिश के हो ही नहीं सकती।
व्यकितगत रुप से मुझे ये बात बार-बार खटकती है कि जब आप ये कहते हो कि हिन्दी में भी अब सारे नए डिस्कोर्स शामिल हैं और काफी कुछ नया लिखा-पढ़ा जा रहा है तो फिर नया लिखने के बाद पहचान बदलने की अनिवार्यता क्यों महसूस करते हैं और फिर हम स्टूडेंट या फिर एकेडमिक्स के लिए पहले तो रीडर या लेक्चरर हो तब फिर और कुछ। मास्टरों में भी बच्चों वाली बीमारी है, पता नहीं ऐसा मानने को मेरा मन नहीं करता।
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https://taanabaana.blogspot.com/2008/01/blog-post_02.html?showComment=1199284380000#c4393735706482990921'> 2 जनवरी 2008 को 8:03 pm बजे
क्या बंधु क्या हिन्दी विभाग की एकही मास्टरनी के पीछे पड़े हो कभी उनकी साड़ी में फिनाइल की गंध आती है कभी उनके स्पेसलाइजेशन से समस्या :)
वैसे मुद्दा बरोबर है। इसलिए जब हम खुद को मास्टर कहके ही मिलाते हैं। और यही नहीं जब कोई कह देता है (कहने वाला सोचता है कि कंप्लीमेंट दे रहा है) कि बंधु आप तो हिन्दी वाले लगते ही नहीं... तो पिल जाते हैं कि क्या मतलब...हिन्दी वालों के सींग होत हैं क्या...।
अगली बार ये 'रीडर इन मीडिया' मिलीं तो पूछा जाएगा।