रात के अंधेरे में भी हमें दिल्ली का विकास दिखे इसके लिए पूरे शहर में निऑन वल्ब की कीऑस्क से पूरे शहर को पाट दिया गया है. आप जब देर रात शहर से गुजरेंगे तो संभव है इन किऑस्क के आसपास हाथ को हाथ न सूझे लेकिन "यहां विकास दिखता है" के साईनबोर्ड दूधिया रोशनी में नहा रहे होंगे. एक तरह तीन बड़े-बड़े निऑन वल्ब लगे होते हैं और चारों तरफ जोड़ लें तो कुल बारह वल्ब जिससे कि सीलमपुर,तुर्कमान गेट की उन तंग गलियों में जहां हवा भी नहीं घुस पाती, कम से कम डेढ़ से दो दर्जन पंखे चल जाएंगे. कुछ जगहों पर इन किऑस्क के अलावे ग्राउंडबेस पर पूरी सेटअप लगायी गयी है जिनमें कम से कम दो दर्जन ट्यूब लाइट होंगी. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस एक सेटअप से कम से कम दो दर्जन घरों में पंखे चल सकते हैं, उतनी बिजली में एक मात्र किऑस्क और सेटअप को रोशनी से नहलाया जा रहा है ताकि मतदाताओं को यकीन हो सके कि दिल्ली में विकास दिख रहा है. इन होर्डिंग से गुजरेंगे तो आपको अजीबोंगरीब नजारे देखने को मिलेंगे..या तो विकास देखने के लिए आपको अपनी आंखें फोड़ने की हद तक नजर दौड़ानी होगी या फिर ऐसा भी समय आएगा कि इतनी मशक्कत के वाबजूद अगर आपको दिल्ली में विकास नहीं दिखता है तो सरकार आपकी आंखें फोड़ देगी.
इन नजारों को देखकर आपके मन में सवाल उठेगा कि क्या दिल्ली सरकार को इस बात की थोड़ी भी समझ नहीं है कि शहर की जनता सिर्फ होर्डिंग देखने की ही नहीं, उस गंदगी, अंधेरे और भारी कुव्यवस्था को देखने का माद्दा रखती है. एक बात, दूसरी बात कि गंदगी से गुजरने पर क्या ये महसूस करना मुश्किल है कि सरकार का कामकाज किस तरीके से चल रहा है. हां,यहां पर जरुर है कि इस फैली गंदगी के लिए एक हद तक जनता को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है लेकिन मैं खुद कई बार केले, ब्रेड के छिलके-पैकेट हाथ में लिए आधे-आधे किलोमीटर तक पैदल चलता हूं लेकिन कहीं कोई कूडेदान दिखाई नहीं देता. अधिकांश को तो जाड़े के दिनों में कूड़ा जमाकर जलाने की प्रथा के तरह प्लास्टिक के कूड़ेदान तक को स्वाहा कर दिया जाता है और बाकी कूडेदान में एकाध बार बम फटने की घटना क्या हो गई, कूड़ेदान को ही या तो उलट दिया गया या फिर इसे धीरे-धीरे गायब कर दिया गया. लेकिन कूड़े डम्प करने के विकल्प हम राह चलती जनता को नहीं दिए गए.
ब्रांड,उत्पाद और कंपनियां इन दैत्यों के आकार की होर्डिंग और किऑस्क लगाती है तो बात समझ आती है कि वो ग्राहक के पूरे सपने को अकेले अपने इस उत्पाद से निगलना चाहती है लेकिन सरकार भी इस तरह के आक्रामक विज्ञापन में बेशर्मी से उतरकर क्या साबित करना चाहती है ? जितनी मेगावाट बिजली की खपत इन किऑस्क को दूधिया रोशनी में नहलाने के लिए खर्च किए जाते हैं, उतनी बिजली से अंधेरी गलियों या सामुदायिक संस्थानों में बिजली मुहैया कराने में लगाए जाएं तो सरकार का ये काम क्या जनता को दिखाई नहीं देगा ? ठीक है कि राजनीतिक विज्ञापन के दौर में राजनीतिक पार्टियां और स्वयं मौजूदा सरकार भी ब्रांड की तर्ज पर ही काम करती है लेकिन ब्रांड भी इस हद तक बेशर्मी नहीं करते. आपने सुना है कि जिन शैम्पू ने इस तरह के दैत्याकार होर्डिंग लगाए, उन शैम्पू के इस्तेमाल से अचानक से बाल झड़ने शुरु हो गए, डैन्ड्रफ पहले से कई गुना बढ़ गए, बाल पकने लगे. ऐसी कम्पनियां अपने आत्मविश्वास को पहले के मुकाबले और विस्तार देने के लिए विज्ञापन करती है और उनके पास पहले से कुछ तर्क और परिणाम मौजूद होते हैं न कि सरकार की तरह खोए हुए आत्मविश्वास और नाकामी पर पर्दा डालने के लिए विज्ञापन को हथकंड़े के रुप में इस्तेमाल करने के लिए.
अच्छा, विज्ञापन आप उस बात के लिए करो न, जो कि सचमुच तर्कसंगत हो. आपने होर्डिंग लगायी है कि पहले इतने हजार ही बेड थे, अब बढ़ाकर इतने हजार हो गए. इस होर्डिंग के नीचे जो नरक है, कचरे का अंबार है और उन पर दर्जनों घातक मच्छर,मक्खी पनप रहे हैं क्या बिस्तर की संख्या इसलिए बढ़ायी है कि हम इन होर्डिंग्स को यहां रुककर गौर से देखें और सीधे उन बिस्तरों का लाभ उठाएं ? सरकार इतनी बेशर्म हो भी जाए तो भी जनता को बेसिक चीजों की समझ है जिसे कि राजनीतिक विज्ञापन बनानेवाली और पीआर एजेंसियों के जरिए अपनी छवि चमकानेवाली सरकार और राजनीतिक पार्टियां समझ ही नहीं पा रही हैं. उन्हें इस बात का रत्तीभर भी यकीन नहीं है कि जो सरकार अपनी ही लगायी होर्डिंग्स के आसपास साफ-सफाई का ध्यान नहीं रख पा रही है, वो भला बिस्तर ही बढ़ाकर कौन सा तीर मार लिया होगा या फिर उन बिस्तरों के पीछे का सच क्या होगा, समझ आता है. करिश्माई तेल,मलहम की बात तो छोड़िए लेकिन कायदे के किसी भी उत्पाद,कंपनी और ब्रांड के विज्ञापन न तो हवा में जारी किए जाते हैं और न हवाई किले की तरह उनके दावे होते हैं. वो अपने ग्राहकों की बौद्धिक क्षमता पर भरपूर यकीन करते हैं और तब उस हिसाब से विज्ञापन जारी करते हैं. सरकार अगर समाज के सच को नहीं भी समझना चाहे तो बेहतर हो कि विज्ञापन के मूलभूत सिद्धांत और तर्क को समझे. नहीं तो ऐसे विज्ञापन तमाशे के साथ-साथ गहरे रुप से नकारात्मक असर करते हैं.
https://taanabaana.blogspot.com/2013/05/blog-post_6.html?showComment=1368066269821#c6058647065833644706'> 9 मई 2013 को 7:54 am बजे
लिखने वाले की निगाह हर तरफ़ है।
अच्छा लेख।