पिछले चार महीने से डीटीसी 212 से मेरी आशिकी अपने उफान पर रही. एक-दो बार तो मुझे कहीं उतरना भी नहीं था और न कहीं जाना, इस पर बैठा और फिर वापस आ गया. उसी डीटीसी 212 से जिसके लिए मैं अपने एम ए के दिनों में हिन्दू कॉलेज की उस लड़की को तिमारपुर बस स्टैंड तक छोड़ने जाता और बस की हालत और गाजर-मूली की तरह ठुंसी भीड़ को देखकर कहता- तुम कैसे चढ़ पाओगी इस बस में. ऑटो से चली जाओ. कई बार बहुत देर इंतजार के बाद भी बस नहीं आती तो जबरदस्ती ऑटो में छोड़ने की जिद करता. वो बस इतना कहती- एक दिन की बात थोड़े ही है कि ऑटो में चली जाउं, रोज का मामला है और उसके बाद पब्लिक ट्रांसपोर्ट, पूंजीवादी नजरिया, मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत के तहत मुझे जितना बुर्जुआ साबित कर पाती, करके उसी डीटीसी 212 में नजरों से ओझल हो जाती. मैं रोज आशंका में रहता, लड़की पता नहीं पहुंची होगी भी या नहीं. किसी ने पर्स न मार लिया हो, किसी ने कुछ कर न दिया हो. हम बिहारी लौंड़े लड़की का दोस्त बनने से पहले उसका बाप बनने या कहें तो मालिक-मुख्तियार बनने से पहले दोस्ती कर ही नहीं सकते. खैर, वो रोज अगली सुबह उसी डीटीसी 212 से धक्की-मुक्की, तुक्का-फजीहत बस के भीतर छोड़कर मुस्कराते हुए माल रोड पर उतरती और मैं उसे सवाल की शक्ल में निहारता- यार, इस लड़की में तो गजब की पेशेंस है. मैं अक्सर कहता- मुझे कभी यमुना पार जाना पड़ा तो मैं तो इस तुम्हारी 212 में कभी नहीं बैठूंगा. वो मुस्कराकर सिर्फ इतना कहती- जरुरत पड़ेगी तो यही 212 तुम्हें गर्लफ्रैंड से भी ज्यादा खूबसूरत लगने लगेगी.
संयोग ऐसा बना कि डीयू नार्थ कैंपस में करीब छह साल रहते हुए मुझे यमुना पार जाने की कभी कोई खास जरुरत नहीं पड़ी. दो-चार बार वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेने अंबेडकर कॉलेज जाना हुआ तो अक्सर पुरस्कार में नकद मिले पैसे की गर्मी से ऑटो में ही आया-गया. लेकिन हंसराज कॉलेज के बाद जनवरी से जब अंबेडकर कॉलेज में पढ़ाना शुरु किया तो डीटीसी 212 पहले बहुत ही मजबूरी, अनिच्छा, फिर थोड़ी-थोड़ी दिलचस्पी और इधर दो महीने से मोहब्बत में जिंदगी का हिस्सा बन गयी, पता ही नहीं चला. हां, इस बीच जब ये बस बजीराबाद पुल की जाम में फंसती तो दो-चार बार ख्याल जरुर आया कि इस पुल पर से कूदकर जान दे दूं लेकिन इससे पहले एक सुसाइड नोट लिखूं- मेरी मौत का कारण सिर्फ ये डीटीसी 212 है जिसके लिए मैंने अक्सर 234 और 971 को छोड़ा..वो जाम में फंसकर घंटों झेलाती आयी है. लेकिन ये वजह बने इसके पहले ही मैं बस से उतर जाया करता और उल्टी दिशा में जाकर ऑटो पकड़ता. ऑटोवाले को कहता सीलमपुर की तरफ से चलो या फिर कई बार ऐसा भी होता कि मैं अपने घर न जाकर मयूर विहार में ही रुक जाता. उस दौरान मुझे यमुना पार की वो शक्ल दिखाई देती जो कि आमतौर पर डीटीसी 212 की रुट पर दिखाई नहीं देती.
पश्तो के रास्ते जिसका एक रास्ता गांधीनगर की तरफ जाता है जिसे कि मेरे भइया लोग रेडीमेड कपड़ों की एशिया की सबसे बड़ी मंडी बताते हैं, इससे ठीक उलट दूसरा रास्त मौजपुर की तरफ जिससे होते हुए मैं अंबेडकर कॉलेज जाया करता. रात मयूर विहार रुक जाने की वजह से आज आखिरी बार भी ऐसा ही किया. दिल्ली के मयूर विहार और कैंपस जैसी शांत जगह में रहने की आदत के बीच शुरु-शुरु में तो ये इलाका मुझे बहुत परेशान करता. मार शोर-शराबा लेकिन भरी दुपहरी में कान में तुनतुना टांगे, एफएम गोल्ड सुनते हुए और लॉलीपॉप चूसते हुए धीरे-धीरे इस इलाके से गुजरने में मजा आने लगा. आप जेहन में दिल्ली के नाम पर सिर्फ जीके वन और टू, बसंत विहार, राजपुर रोड़ लेकर घूमते हैं तब तो आप इन इलाकों में कभी कदम रखना भी पसंद नहीं करेंगे और फिर भी दिल्ली को लेकर जब कुछ लिखेंगे तो बाकायदा इन इलाकों के साथ अन्याय करेंगे लेकिन दिल में थोड़ा कबीर लेकर गुजरेंगे तो आप उन नजारों की कल्पना कर सकेंगे जिस बाजार में खड़े होकर लकुटी लेकर अपना घर जलाकर आने की बात करते नजर आते हैं. एम ए दौरान कुछ अतिक्लिष्ट और विश्वविद्यालय खांचे के हिसाब से विशिष्ट साथियों ने इन पंक्तियों में वैराग्य और अव्यावहारिक दर्शक का अंश खोज डाला था लेकिन मुझे इसमें एक खास किस्म की पब्लिक स्फीयर में मौजूद, बने रहने का बोध दिखता है जिसे कि अब की भाषा में प्रोफेशनलिज्म कहते हैं. कबीर जिस बाजार में खड़े हैं वो वैराग्य और कहें तो आध्यात्म के बिल्कुल प्रतिकूल जगह है. एक ऐसी जगह जहां एक ही साथ कई गतिविधियां साथ चल रही होती है और आप ज्यादा सार्वजनिक होते हैं. इस बाजार मे ंचीजों के साथ-साथ अफवाहें भी पैदा की जाती है और आपकी छवि भी. भला इस घोर एक्टिव स्पेस में खड़े होकर कोई वैराग्य की बात कैसे कर सकता है ?
यहीं पर आकर सीलमपुर, यमुना पार के इस इलाके में कबीर नजर आते हैं. कबीर पर मैंने जो कुछ और जितना भी पढ़ा है जिसं- में हजारीप्रसाद द्विवेदी से लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल की अकथ कहानी प्रेम की तक शामिल है, एक शब्द पर आकर बार-बार टिक जाता हू- कर्मचेतस. आप कबीर की चाहे जो,जैसी और जितनी व्याख्या कर लीजिए, उनमें ये शब्द इस तरह गुंथे हैं कि आप अलग नहीं कर सकते. मेरी अपनी समझ है कि अगर कर्मचेतस शब्द हटाकर कबीर पर बात की जाए तो उनका पूरा दर्शन संभव है और अधिक स्वीकृत,गहन और व्यापक करार दिए जाने लग जाएं लेकिन अपने चरित्र में धुरविरोधी बाजार के बीच भी सोचने की प्रक्रिया की गुंजाईश शायद खत्म हो जाए. कबीर की रमैणी,साखी और सबद से गुजरते हुए उनके व्यक्तित्व के विविध रुपों की झलक फिर भी मिल जाती है, सामाजिक संरचना और उसके चरित्र का भी मोटा-मोटी अंदाजा लग जाता है लेकिन वो बाजार कैसा होगा जहां कबीर खड़े होने की बात करते हैं( प्लीज इसे अभिधात्मक अर्थ में ही फिलहाल रहने दें) ये यमना पार के इन इलाकों में आकर बेहतर अंदाजा लगता है.
आप जिन कचरों, कबाड़ और सेकण्ड हैंड शॉप की दुकानों के बीच गंदगी की अंबार देखते हैं और मोटा-मोटी वही छवि टीवी स्क्रीन पर जाकर जड़ हो गयी है, शायद तभी यमुना पार टीवी सीरियल ने शीर्षक यहां से मार लेने के बावजूद, जीके की लड़की और यमुना पार के लड़के के बीच के प्रेम के बहाने भी इस इलाके को पीछे खिसकाकर चमकदाद दिल्ली में ही ले गए लेकिन यकीन मानिए आप कभी अपनी जेब में, जेहन में एक टुकड़ा कबीर लेकर जाइए, आप इसके पार भी बहुत कुछ देख सकेंगे. इन कचरों के बीच हवा में धुएं नहीं, पसीने के भांप बनकर उड़ते नजर आएंगे. मेहनत खुलेआम सड़कों पर बेआबरु होती नजर आएगी. आपकी सरकार जिस चमकीली दिल्ली पर गुमान करती है, वो किन इलाकों और लोगों की शर्तों की शर्तों पर बन रही है, उसका अंदाजा लग जाएगा. अलग-अलग तरह के काम करते लोग, वो बनती चीजें जो आपके-हमारे कमरे के तापमान को 22 डिग्री पर लाकर खड़ी कर देती है. वो मच्छरदानियां जहां सिलती है तो मच्छरों के बीच ही लेकिन आपके बीच एक भी मच्छर अंदर न घुसने की शर्त में मौजूद रहती है. जो दास्ताने आप दो-चार बार इस्तेमाल के बाद फेंक देते हैं, उसकी लड़ियां बनकर दूकानों में सजी होती हैं और कईयों की पिछाड़ी में कुछ मुलायम के होने का एहसास दिलाती रहती है. तरबूज तो इतने तरबूज की लगे कि आप यूट्यूब की अंतहीन वीडियो फुटेज से गुजर रहे हों. मरिअल सी छोले-भूटरे की रेड़ी के आगे स्कूल से छूटती हजारों लड़कियां. मदर डेरी की आइसक्रीम के ठेले को हसरत से देखते हुए गुजर जानेवाले सैंकड़ों बच्चे. मैं जब इन एक-एक नजारे से गुजतता हूं तो लगता है कि पूछने पर ये क्यों बताते हैं- मैं गद्दे भराई का काम करता हूं, जी मैं गाजर बेचता हूं..साफ-साफ कह दें- हम आपकी चमकीली दिल्ली को खून देने का काम करते हैं.
जिस लाल,हरे,पीले दकदक रंगों को सभ्य समाज लंबे समय तक दिहाती भुच्च रंग करार देकर ग्रे, सफेद और आसमानी पर आकर टिक जाता रहा. यूसीबी और लिवाइस ने जब उन्हीं रंगों में लड़की तो छोड़िए, लड़कों के पाजामे और पैंट सिलनी शुरु कर दी तो अब वो सबके सब रंग हाइप्रोफाइल के हो गए. इन इलाकों से गुजरिएगा तो बुग्गी में लदी हजारों पैंटे, इसी लिवाइस और यूसीबी की स्पेलिंग उच्चारित करती नजर आएगी. जितनी रंगीन ये यूसीबी और लिवाइस मर्द टांगों को रंगीन नहीं करेगी, उससे कई-कई गुना रंगीन ये इलाके पैंटें सिलकर कर देंगे. इस इलाके की हवा में एक शब्द अक्सर गूंजती है- पैंट और जूते क्या, हम पूरा का पूरा डुप्लीकेट आदमी तैयार करके बाजार में पाट देंगे, आप एक बार हुकूम तो कीजिए सरकार.यहीं पर आकर आप पॉपुलर कल्चर के लोकतांत्रिक प्रोजेक्ट में बदलने की घटना और रॉबिन जेफ्री के भारतीय उत्तर-आधुनिक साक्षर समाज के नमून इकठ्ठे देख सकेंगे.
अपने जिद्दीपन और कर्मचेतस मिजाज में दिल्ली का ये यमुना पार इलाका कबीर की हठधर्मिता का हिस्सा लगता है..मैं दिल्ली पर बने चमकीले विज्ञापन और भारत निर्माण में शामिल दिल्ली के बीच जब इसे देखता हूं तो लगता है ये उतना ही बहिष्कृत, उपेक्षित और अपमान झेलता आया है जितना कि स्वयं कबीर. सिर्फ समाज में ही नहीं, लंबे समय तक हिन्दी साहित्य में भी. एलएचएस-आरएचएस प्रूव करने के अंदाज में कहूं तो हम जिस समाज में जीते आए हैं वहां जो जितना कर्मचेतस होगा, उतना ही उपेक्षित होगा चाहे वो कबीर हो या फिर शहर का कोई इलाका.
https://taanabaana.blogspot.com/2013/05/blog-post.html?showComment=1367459191738#c3815053590269971954'> 2 मई 2013 को 7:16 am बजे
१. हम बिहारी लौंड़े लड़की का दोस्त बनने से पहले उसका बाप बनने या कहें तो मालिक-मुख्तियार बनने से पहले दोस्ती कर ही नहीं सकते.
२. हम जिस समाज में जीते आए हैं वहां जो जितना कर्मचेतस होगा, उतना ही उपेक्षित होगा चाहे वो कबीर हो या फिर शहर का कोई इलाका.
ऊपर बिहारी की जगह हिन्दुस्तानी होना चाहिये| :)
जय हो!
https://taanabaana.blogspot.com/2013/05/blog-post.html?showComment=1367463371224#c7146731573221780798'> 2 मई 2013 को 8:26 am बजे
ऐसे बाजारों को मैंने भी पहले देखा है और काफी सोचा है, पर आपके लेख से गुजरते समय लगता है उन विचारों को आज जाकर शब्द मिले हैं...। आप अच्छा लिखते हैं...। इतना अच्छा कि यदि खरीदकर भी पढ़ा जा सकता है।
- आनंद
https://taanabaana.blogspot.com/2013/05/blog-post.html?showComment=1367465644854#c3160935882898881187'> 2 मई 2013 को 9:04 am बजे
नगरों के बाहर का क्षेत्र लगता है कि सतत प्रतीक्षारत है, अपना कर्म निभाने के लिये, नगर को नगर का स्वरूप देने के लिये। अल्हड़ आवारगी के दृष्टिकोण से यह प्रतीक्षा रोचक दिखने लगती है।