सहारा श्री से बड़ा देशभक्ति का गवैया इस देश में कोई दूसरा है ? वो बंदा न सिर्फ जन-गण-मन गीत को आत्मा से गाता है बल्कि अपने लाखों कर्मचारियों को गाने के लिए उकसाता( प्रेरित न पढ़ें प्लीज) है. इसकी चर्चा न केवल मीडिया में जमकर होती है बल्कि दर्जनों चैनल के मीडियाकर्मी लखनउ सहाराश्री की इस संबंध में बाइट लेने लखनउ उड़ाए/दौड़ाए जाते हैं, द हिन्दू से लेकर तमाम दूसरे अखबार इस ऐतिहासिक घटना की पूर्ण संध्या पर आधे पन्ने का विज्ञापन छापते हैं. फिर भी है कि आप एक सांसद के वन्दे मातरम् गाए जाने के दौरान उठकर बाहर चले जाने को मुद्दा बनाए दे रहे हैं.
आपलोग वन्दे मातरम् को लेकर जो चर्चा कर रहे हैं और उसमें सहाराश्री( जन-गण-मन के कारण) को किसी भी तरह से शामिल नहीं कर रहे हैं तो एक तरह से गाय पर लेख लिख रहे हैं जिसमे सारी बातें तो बता रहे हैं लेकिन ये लिख ही नहीं रहे हैं कि देशभर में गौमाता सुरक्षित रहे इसके लिए विश्व हिन्दू परिषद् के लोग अथक प्रयास करते रहते हैं. देखिएजी, वैचारिक असहमति अलग जगह पर है लेकिन जो काम जो कर रहे हों, उसकी फुल्ल क्रेडिट देनी चाहिए, इससे अपनी ही आत्मा का विस्तार होता है.
अब कल को ये कहा जाए कि इस देश में लोकसभा/राज्यसभा के अध्यक्ष ज्यादा सम्मानित हैं या सहाराश्री तो स्वाभाविक है कि जवाब में सहाराश्री पर टिक मारा जाएगा क्योंकि ये अकेला बंदा जो लाखों से एक साथ जन-गण-मण और जरुरत पड़े तो वन्दे मातरम् गवा सकता है वो काम अध्यक्ष नहीं कर पाए.कहां से होगा लोकतंत्र बहाल और कैसे होगी राष्ट्रभक्ति ? अब ये मत कर्मचारियों से पूछने लगिएगा कि आपको इस गाने की एवज में कोई और गाने को कहा जाए तो क्या गाएंगे ?
अगर वन्दे मातरम् गाने से ही देशभक्त होना तय है तो यकीन मानिए सहारा श्री, जिंदल, अंबानी, पीवीआर,फन सिनेमा के आगे आपलोग कद्दू हैं. आप खुद भी खखारकर गा लें सो बहुत हैं, ये तो पूरी की पूरी लॉट को एकमुश्त देशभक्त बनाते हैं जी ? जान लीजिए,देशभक्ति इस देश में भाववाचक नहीं जातिवाचक संज्ञा है. जहां अपने मन से भाववाचक के जरिए व्यक्तिवाचक बनने की कोशिश की जिएगा, खट से देशद्रोही करार दे दिए जाइएगा. संविधान और लोकतंत्र का ठेका अब कार्पोरेट के हाथों में है. आउटसोर्सिंग काल में सरकार की भूमिका आउटसोर्सिंग करवाने भर की है. कार्पोरेट इन भावनाओं की भाववाचक संज्ञा में आउटसोर्सिंग करके यानी कच्चे माल को अंतिम उत्पाद की शक्ल में जातिवाचक के रुप में समाज के बीच पेश करती है. भावनाएं जितनी तेजी से जातिवाचक संज्ञा में तब्दील होगी, सरकार और कार्पोरेट के लिए उतना ही आराम होगा और बाकी दिक्कत होने पर स्वयं जनता इस रुप में सक्रिय हो जाएगी कि वो व्यक्तिवाचक बननेवाले को घसीट-घसीटकर अपने पाले में लाएगी. विज्ञापन का शास्त्र बताता है कि उपभोक्ता को इस हालत में कर दो कि वो खुद उत्पादक की रक्षा के लिए मर मिटे और उसके पक्ष में काम करने लग जाए.
https://taanabaana.blogspot.com/2013/05/blog-post_12.html?showComment=1368347163703#c1859866102410058878'> 12 मई 2013 को 1:56 pm बजे
जब कोई विदेश में किसी हवाई हड्डे पर रोक लिया जाता है, तब उसे राष्ट्रीयता का महत्व समझ आता है