सच में, हसीना खाला की तरह मैं भी चाहे कितनी भी सड़ी गर्मी हो,सोते वक्त देह पर रजाई या कंबल डाले बिना सो नहीं सकता. दिनभर की थकान और मानसिक तनाव को जब खूंटी पर टांगने और आले पर रखने की कोशिश करता हूं तो उसकी एवज में शरीर के उपर इन रजाई और कंबल का बोझ साथ रख लेना जरुरी लगता है. इतना जरुरी कि शायद मैं उसके बिना दिनभर की थकान और आदिम तनाव को रात के सोते वक्त अपने से अलग कर ही नहीं सकता..
मैं यशोदा सिंह की "दस्तक" से पंक्ति दर पंक्ति
गुजरता हूं और जिसे रविवार के दिन के उजाले में पढ़ना शुरु किया था और देर रात से
शुरु होनेवाले सोमवार पर जाकर खत्म कर देता हूं. सॉरी, खत्म मैं नहीं करता बल्कि उसके
आगे हसीना खाला की कहानी खत्म हो जाती है. शायद जिस मुकाम पर जाकर हसीना खाला
सुकून पाती है, यशोदा नहीं चाहती कि वहां से उठाकर हसीना
खाला को आगे भी चलने को कहे,जहमत उठाए.
रविवार के इस पूरे दिन
मैं पुरानी दिल्ली के उन इलाकों-ठिकानों में भटकता-अटकता रहता हूं जहां नजरअंदाज
और नजर के बीच गहरा फासला है. हम जिस भीड़-चिल्ल-पों, हो-हल्ले के बीच फंसी-दुबकी
संवेदना से महरुम रह जाते हैं, यशोदा हमें बार-बार खींचकर ले
जाती है. रविवार के दिन दिनभर दरियागंज मार्केट में चक्कर काटते हुए, एयरलाइंस की चम्मचें, इय़र बड मीडिया और कल्चरल
स्टडीज पर किताबें छांटते हुए जो थकान होती है और इन पैरों पर खीझ भी कि ओटोवाले
को कहूं- जा,मेरे इन दोनों पैरों को डीयू पहुंचा आ, बाकी इनके भाई-बहन, हाथ-गला-मुंह-कान पीछे से आएंगे,
कुछ-कुछ वैसा ही महसूस कर रहा हूं. नींद से आंखे बोझिल है लेकिन
कीबोर्ड पर उंगलियां "मियां की दौड़ मस्जिद तक" के फलसफे के मानिंद एक
ढर्रे में दौड़ रही है. अबकी बार आंखों को तकिए पर गिर जाने कह रहा हूं और उसके
बाकी भाई-बहन बिस्तर पर पीछे से आएंगे.
यशोदा की दस्तक में
हसीना खाला पुरानी दिल्ली के एक-दूसरे से बिल्कुल कटे और निस्संग परिवारों के बीच
अपने को टेलीफोन या बिजली की तार की तरह जोड़े रखती है जिसका एक के घर से गुजरने
के बावजूद कोई गंभीर अर्थ नहीं है लेकिन उनका न गुजरना कई आगे वाले घरों के लिए
गैरमौजूदगी. हम इसे पढ़ते हुए अपने शरीर को इसी तरह एक-दूसरे से अलग,नितांत महसूस करते हुए भी
अनिवार्य रुप से जुड़ा पाते हैं और जिन कारणों और जरुरतों से जुड़ा है वो है हसीना
खाला. मेरे डॉक्टर साथी और भइया ऐसी लाइनें पढ़कर क्रेक और मेंटल घोषित करने में
दस मिनट भी नहीं लाएंगे शायद. लेकिन वेवजह के बीच वजह बनती हसीना खाला की तरह ही
तो हम और हमारा समाज जिंदा है और जीता है.
रात के इस सन्नाटे में
तुरंत-तुरंत पढ़कर उठने पर भला किसमें यशोदा जैसा लिखने की होड़ न मचे लेकिन लेखन
कायनात तो है नहीं कि बस दस मिनट की कीबोर्ड की किटिर-पिटिर से आ जाए. वक्त लगेगा, खूब सारा वक्त..और भी क्या
गारंटी कि आ ही जाए.
यकीनन हम हसीना खाला की
तरह आज क्या कभी भी इत्मीनान नहीं हो सकते क्योंकि हमने अपनी आपाधापी जिंदगी के
बीच से कतर-ब्योतकर कुछ हिस्सा लोगों के बीच बिखेरने के बजाय जीवन बीमा कंपनियों
और म्युचुअल फंड की मुंह में ठूंस आए हैं. जिसे लेकर, देखकर हम दावा करते हुए उसकी तरह
इत्मीनान हो लें कि- इसके भीतर एक टुकड़ा मैं हूं, मैं यानी
हसीना खाला. बावजूद इसके पता नहीं इस दस्तक में ऐसा क्या है कि मैं पुरानी दिल्ली
के उन्हीं इलाकों से गुजरते हुए( पन्ने दर पन्ने) रश्क करने लग जाता हूं जहां पांच
मिनट डीटीसी की बस या ऑटो रुक जाए तो इरिटेशन होती है. लेकिन अब है कि मुझे अपनी
सोसायटी की चौड़ी सड़के वाहियात लगने लगी है,मैं अपने बिस्तर
पर बिछी झकझक बेडसीट उठाकर मिट्टी में सानकर गंदला करके बिछाना चाहता हूं, मैं हर चीजों में रस्सी-पेंच-कील की जोड़ चाहता हूं और तो और अपने भीतर
हसीना खाला को खोजने की हास्यास्पद कोशिश करता हूं और खुश होता हूं-
हां, मैं भी सड़ी गर्मी में कंबल
ओढ़कर सोता हूं, मैं भी औरतों के बीच घुसकर बतियाता हूं और
मुझे भी आलमारियों में कपड़े सहेजकर रखना, फर्श को आइने की
तरह चमकाना अच्छा लगता है..जरुरत पड़ने पर काज-बटन भी लगाना और हां दाल बघारते
वक्त पतीले में जो झुन-झुन की आवाज आती है तो लगता हमारी दाल नहीं घुघरुवाली पायल
बनकर तैयार हो गई,मैं खुश हो जाता हूं.
प्रभात सर, आपका बहुत-बहुत शुक्रिया. स्नेह,
लाड़ और थोड़ी बहुत उम्मीद से ये किताब मुझे भेंट करने के लिए. आप
कहेंगे कि मैं प्रतिक्रिया देने के बजाय यशोदा से मुकाबला करते हुए प्रतिफिक्शन
लिखने बैठ गया और उदय प्रकाश के सान्निध्य का दूसरा दावेदार बनने के लिए मचल रहा
हूं. लेकिन यकीन मानिए, फिलहाल मैं इस पर किसी भी तरह की
आलोचनात्मक टिप्पणी नहीं कर सकता. इसके लिए फिर कभी दिन के उजाले में तैयारी होगी.
फिलहाल तो हम इस खुमारी में पड़कर हसीना खाला की तरह वही टेडीवियर सी मुलायम भइया
की दी हुई रजाई ओढ़कर सोने की कोशिश/ नाटक कर सकते हैं.( जाहिर है इस मुलायम/कॉटन/फाइन मटीरियल की कमीनी आदत को कोसते हुए) कानों
में हसीना खाला के वो वाक्य लिए- पति-पत्नी( इसे मैं थोड़ी अल्टर करके ब्ऑयफ्रैंड
और गर्लफ्रैंड कर दे रहा हूं बस) के बीच से हक शब्द हटा दें तो फिर बचता क्या है ? सुबह होते ही पता नहीं ये 'हक' शब्द बिस्तर पर पड़ा मिले या फिर निर्वात में गुम हो जाए.
https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post_17.html?showComment=1347848990443#c6370248169335853518'> 17 सितंबर 2012 को 7:59 am बजे
वाह.. जीवंत.. बधाई..
https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post_17.html?showComment=1347850002951#c352202017864145010'> 17 सितंबर 2012 को 8:16 am बजे
पढ़ने की आशा जगा गया आपका आलेख..
https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post_17.html?showComment=1347871809558#c8746640346544161043'> 17 सितंबर 2012 को 2:20 pm बजे
बहुत बढ़िया लेखन...
https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post_17.html?showComment=1347883986695#c565431393201066491'> 17 सितंबर 2012 को 5:43 pm बजे
दस्तक पर मुक्मल दस्तखत उकेरे