जहां तक मुझे याद है असीम त्रिवेदी के जिन कार्टूनों को लेकर विवाद हो रहा है, उसी मिजाज के कार्टून्स की प्रदर्शनी उन्होंने जंतर-मंतर पर चल रहे अन्ना आंदोलन के दौरान लगायी थी. कुछ कार्टून्स उन्होंने प्रदर्शनी के तौर पर लगाए थे और उनकी पोस्टकार्ड बनाकर लोगों को बांट रहे थे. इसी क्रम में एक कार्टून उन्होंने मुझे भी दिया था..और पिछले दिनों के एक कार्यक्रम को लेकर शिकायत भी की थी आपलोगों ने हमें बहुत ही गलत ढंग से ट्रीट किया. हमदोनों की बातचीत बीच-बीच में थोड़ी तल्ख हो जा रही थी. लिहाजा अरविंद गौड़ ने उनकी तरफ से कहा- विनीत, ये बहुत ही भावनात्मक जुड़ाव के साथ काम कर रहे हैं, बहुत ही संवेदनशील तरीके से देश और समाज के मुद्दे को हमारे सामने रख रहे हैं. ऐसे में लोगों की तरफ से पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं मिलता तो थोड़ी तकलीफ होती है. फिर मेरे संबंध में उन्होंने असीम से भी यही बातें दोहरायी और कहा- आपदोनों एक ही तरह से काम कर रहे हैं इसलिए मतभेद होने के बावजूद कभी मनभेद न रखें. धीरे-धीरे माहौल हल्का होता चला गया और बात चाय पीने-पिलाने पर आ गयी. असीम ने उस दिन( 27 जुलाई) चाय क्या पिलाई, बारहदड़ी का हुक्का या बीरबल की खिचड़ी थी, करीब सवा घंटे लग गए एक कप चाय आने और पीने-पिलाने में. खैर, इस बीच मैं उनके बनाए सारे कार्टून्स देखता रहा और छोटी सी इस प्रदर्शनी को लेकर लोगों के बीच किस तरह की प्रतिक्रिया है, जानने-समझने की कोशिश करने लगा.
मुझे अच्छा लग रहा था असीम के साथ के लोग सादा कागज लोगों को मुहैया करा रहे थे और चार-पांच साल के बच्चे तक उन पर अपने तरीके से ड्राइंग कर रहे थे. उन्हीं में से कोई भगत सिंह स्केच कर रहा था तो कोई अन्ना की टोपी. मैंने सारे कार्टून्स को करीब से देखे. उन सारे कार्टून्स में वही सारी बातें थी जो मंच से अन्ना आंदोलन के कार्यकर्ता और शामिल लोग कह रहे थे. सरकार को उसी तरह से पोट्रे किया गया था जिस तरह से अन्ना, अरविंद केजरीवाल सहित कुमार विश्वास और बाकी लोग कहते आए हैं. अगर सरकार की छवि खराब करने और उसे वेवजह बदनाम करने की नीयत से असीम ने कार्टून बनाए थे तो उन्हें 25-26 जुलाई को ही गिरफ्तार कर लेना चाहिए था. उनकी गिरफ्तारी अब जाकर हुई है तो इसके दो मायने हैं. एक तो ये कि बाकी मामले की तरह ही इस मामले में भी सरकार की सुस्ती बरकरार रही और उसे बहुत बाद में इन कार्टूनों पर नजर गई और दूसरा कि अगर उनकी गिरफ्तारी अब जाकर हुई है और खासकर उन दो कार्टूनों को लेकर( एक जिसमें कि अशोक स्तंभ के शेर की जगह भेड़िए को दिखाया गया है और दूसरा कि संसद की जगह कमोड दिखाया गया है) तो इस पर हमें थोड़ा ठहरकर सोचना चाहिए. ये सिर्फ और सिर्फ मौजूदा सरकार का विरोध नहीं है बल्कि उस संसदीय व्यवस्था के प्रति हिकारत का भाव है जिसके भीतर लोकतंत्र के होने के दावे किए जाते हैं और जो संवैधानिक प्रावधान के अन्तर्गत है. इसका सीधा मतलब है कि असीम इस व्यवस्था को उसी तरह से देख रहे हैं जिस तरह से कि हिन्दी साहित्य में नई कविता के कवियों ने आजाद भारत को देखा था और मोहभंग की स्थिति में लिखा था- ये आजादी झूठी है, आधी पीढ़ी भूखी है.
आजादी जिसे कि एक मूल्य के रुप में प्रस्तावित किया गया और उसे संवैधानिक स्तर पर सुनिश्चित किए जाने के बावजूद अगर उसके न होने पर रचनाकार इसके प्रतिरोध में कविताएं लिखते आए हैं तो फिर असीम को इस बात की छूट मिलनी चाहिए कि वो जिन संस्थाओं के भीतर आजादी और लोकतांत्रिक मू्ल्यों को बचाए रखने की बात की जाती है, उसके विफल होने की स्थिति में अपनी असहमति जताते हुए कार्टून बनाएं. जो लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को परम सत्य मानते हैं और होनी भी चाहिए, उनके लिहाज से असीम त्रिवेदी के ये कार्टून किसी भी रुप में गलत नहीं है. लेकिन सवाल है कि क्या आजादी,लोकतंत्र के क्षरित होने की स्थिति में और इनसे जुड़ी संस्थाओं के विफल होने की स्थिति में एक तरह का रवैया अपनाया जा सकता है और उसी मिजाज में उसकी अभिव्यक्ति की जानी चाहिए ?
साहित्य और अवधारणाओं के बीच जीनेवाले थोड़े ही सही लेकिन एक तबका राष्ट्र जैसी किसी भी तरह की अवधारणा को नहीं मानता, नेशन स्टेट यानी राष्ट्र राज्य की अवधारणा को पूरी तरह खारिज करता है और ये प्रस्तावित करता है कि भौगोलिक रुप से अगर इसे मान भी लें तो सामाजिक-सांस्कृतिक रुप से इसे इस तरह सीकचे में बांध नहीं सकते. लेकिन क्या वे इसी अंदाज में संवैधानिक प्रावधानों को खारिज कर सकते हैं ? असीम के कार्टून और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संबंध इसी से जुड़ा है. मेरे ख्याल से असीम के कार्टून्स में जो बात मैंने खासतौर पर गौर किया, वो ये कि जिस व्यवस्था के तहत ये देश चल रहा है, वो सही नहीं है. उन कार्टूनों में उन्होंने सरकार की जो आलोचना की वो तो अपनी जगह पर सही है लेकिन जिस तरह से राज्य के अंगों को दिखाया-बताया, सरकार के बदल जाने पर भी उनके प्रति असहमति बनी रहती. ये सही है कि संसद में जिस तरह के नजारे हमें आए दिन देखने को मिलते हैं, उसे देखते हुए असीम के कार्टून्स से अलग कोई छवि हमारे जेहन में नहीं उभरते. लेकिन उसे उसी रुप में व्यक्त कर देना उन प्रावधानों के अनुकूल है जो किसी भी संप्रभु राज्य के बने रहने के लिए जरुरी हैं ? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले तर्क के लिहाज से सोचें तो कुछ भी लिखने-पढ़ने-बोलने और रचने की आजादी होनी चाहिए लेकिन उसी ढांचे को गिरा देने की आजादी क्यों जिससे ये सुनिश्चित होता है कि हमारी आजादी बनी-बची रहने की संभावना है. क्या संसद स्थायी रुप से कमोड है, सौ फीसद कचरा है या फिर अशोक स्तंभ के शेर भेड़िए हैं ?
इन सवालों पर मैं गौर से सोचना शुरु करता हूं तो अरविंद गौड़ की वो बात फिर से याद आती है कि- असीम जैसे लोग बहुत ही भावनात्मक ढंग से काम करते हैं और अगर लोग उन्हें इसी रुप में नहीं लेते तो थोड़ी तकलीफ होती है. मैं इसे थोड़ा पलटकर-बदलकर कहूं तो शायद गलत नहीं होगा. असीम जिस वक्त संसद को कमोड और अशोक स्तंभ के शेर के मुख को भेड़िए के मुख की शक्ल दे रहे थे, मुझे नहीं लगता कि उनके भीतर एक बार भी ये ख्याल नहीं आया होगा कि सार्वजनिक होने पर हंगामा मच जाएगा ? हम जब चैनलों पर,मीडिया पर पोस्टें लिखते हैं, लेख लिखते हैं तो पूरी तरह तो नहीं लेकिन मोटे तौर पर अंदाजा लग जाता है कि इसे लेकर क्या होगा ? कायदे से इसी साल के जुलाई महीने में जिन कार्टूनों की प्रदर्शनी उन्होंने लगायी थी, हंगामा मच जाना चाहिए था लेकिन उस वक्त ऐसा कुछ नहीं हुआ. इसकी एक वजह तो ये हो सकती है कि इस प्रदर्शनी को अलग से देखने के बजाय अन्ना आंदोलन का ही हिस्सा मान लिया गया और दूसरा कि इसके पहले भी "कार्टून अगेन्सट करप्शन" पर पाबंदी लगने औऱ चर्चा में आने के बाद मामला आया-गया हो गया तो लगा अब इसे तूल देने की जरुरत नहीं है. इधर असीम कार्टून के जरिए जो संदेश लोगों तक प्रसारित करना चाह रहे थे, वो बहुत ही प्रभावशाली ढंग से प्रसारित हो रहा था. करीब डेढ़ घंटे तक रुकने पर मैंने खुद भी देखा कि लोग चारों तरफ से उन कार्टून्स को घेरे हुए थे और पूछताछ कर रहे थे. असीम सहित आलोक दीक्षित और उनके साथी सबों को बहुत ही प्यार से सब बता रहे थे. मतलब कार्टून के जरिए वो जो कुछ भी संदेश देना चाह रहे थे, वो अपने स्तर से जा रहा था. लेकिन
मीडिया में इन कार्टूनों की चर्चा ठीक उसी तरह से नहीं हो रही थी, जिस तरह से पाबंदी लगने के दौरान हुई थी. ऐसे में संदेश प्रसारित होने के बावजूद पब्लिसिटी के स्तर पर इन कार्टूनों को असीम की निगाह में शायद कोई असर नहीं रहा हो. लिहाजा, अतिरेक( इक्सट्रीम) में जाने के अलावे असीम ने कोई दूसरा रास्ता नहीं देखा. अरविंद गौड़ जिसे उसी भाव से न लिए जाने पर तकलीफ होने की बात कर रहे थे, वो दरअसल नोटिस न लिए जाने की बैचानी में विस्तार होता दिखाई देता है और चर्चा में आए ये दोनों कार्टून्स कहीं न कहीं इसी की परिणति है.
सवाल है कि असीम या कोई भी दूसरे कार्टूनिस्ट जब कार्टून बनाते हैं, क्या इस बात से परिचित नहीं होते कि वो इसे किसी नैसर्गिक प्रतिभा की अभिव्यक्ति के तहत नहीं बना रहे हैं. जो कुछ भी बना रहे हैं, उसका सामाजिक-सांस्कृतिक और संवैधानिक संदर्भ है. इसकी मल्टी रीडिंग होगी और इस बात पर सोचना होगा कि ये कहीं संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ तो नहीं चला जाता ? ये बात बहुत थोथी लग सकती है और निरा आदर्श का पाठ लग सकता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के तर्क के पहले इस एंगिल से सोचा जाना चाहिए लेकिन अगर सरकार और न्यायपालिका प्रावधानों का खतरा जैसे ढाल बनाकर अक्सर ऐसे मामलों का निपटारा करती है तो फिर इन कार्टूनों के समर्थन में बात करना भी उससे अलग नहीं है न.
लेकिन मुझे तो हैरानी हो रही है कि जिस असीम के कार्टून बनाए जाने पर एक ही साथ लोकतंत्र से लेकर संसद तक के भीतर की कई चीजें टूटती और चटकती नजर आती है( फैसले लिए जाने के तर्क पर गौर करें तो) तो फिर ये जो सांसद इसके समर्थन में खड़े हो रहे हैं, विपक्षी पार्टियां समर्थन कर रही है, उससे संविधान और संसद के किन प्रावधानों का बचाव हो रहा है ? अगर सरकार इस पूरे मामले को राजनीतिक रंग दे रही है तो विपक्ष सहित बारीक दिमाग रखनेवाला बुद्धिजीवी समाज इसे अलग कोई दूसरा रंग कहां चढ़ा रहा है ? आखिर वो भी तो संविधान को अपनी दुर्गा और सरस्वती( एम एफ हुसैन के संदर्भ में रवैये पर गौर करें तो) से नीचे ही रख रहा है. वो भी तो भक्त फिर भी हो सकता है( राजनीति भर के लिए ही सही) लेकिन नागरिक नहीं.
https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post_11.html?showComment=1347336091098#c1616298513286800984'> 11 सितंबर 2012 को 9:31 am बजे
सम्यक और संतुलित विवेचन !
आजकल सत्ता केवल प्रतीकों की रक्षा करती नज़र आ रही है जबकि वास्तविकता में उन्हें दूषित करने का काम वही लोग कर रहे हैं.आलोचना करने वाले देशद्रोही हैं मगर भ्रस्टाचारी और संसद के भीतर मार-पीट करने वाले देशभक्त !
https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post_11.html?showComment=1347358481799#c9006431211999064589'> 11 सितंबर 2012 को 3:44 pm बजे
अफसोस कि हल्का लिखा है 'नागरिक कि कार्टूनिस्ट' क्या पहले है जैसी कोई भंडारे की लाइन नहीं लगी है कि एक के बाद दूसरा आता है... और जबर सवाल पूछें ही..जो ठीक है वो निश्चय ही कार्टूनिस्ट पहले है..इसमें आपको क्या दिक्क्त है... आपका तर्क वही है जो जाति, वर्ण, हर बनी व्यवस्था के पक्ष में दिया जाता है यानि अराजकता से भय...
तर्क कि आप सरकार से चाहें तो नाराजगी रख कह लें पर खबरदार जो संविधान, झंडे, न्यायपालिका ... संस्था से नाराज हुए तो... क्यों न हों भई..इस डर से कि संस्था ढह जाएगी तो विरोध की दुकानदारी और हुँकारगिरी ढह लेगी ?
एकाध संस्था ढहने दो दोस्त..ये वो इमारत हैं जिनके ढहने का वक्त ये खुद ला चुकी हैं। अलग लिखने के लालच में थ्योरिटिकलह इनएड्युकेट भी हो गए हो... लोकतंत्र में संस्थाओं की वैधता का स्रोत व्यक्ति होते हैं न कि व्यक्ति की वैधता संस्थागत होती है।...निराश किया आपने।
https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post_11.html?showComment=1347375788965#c2166749615373085214'> 11 सितंबर 2012 को 8:33 pm बजे
कार्टून में कलम आज़माओ
तब भी शायद सफल हो सको
हुए तो मन खूब खुश होगा