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मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा माननेवाले और उसके प्रति उसी भाव से आस्था रखनेवाले हमारे मीडिया श्रद्धालु पाठकों को ये सुनकर शायद झटका लगे कि वो देश के जिन तीन बड़े और लोकप्रिय अखबार को खबर और उसकी विश्सनीयता के लिए पढ़ते आए हैं वे कोयले के धंधे में भी शामिल हैं. उसी कोयले के धंधे में जिसके भीतर करोड़ों रुपये के घोटाले होने की बात सामने आने पर पिछले दस दिनों से संसद में हंगामा मचा हुआ है. सरकार से लगातार इस बात की मांग की जा रही है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफा दिए बगैर संसद में किसी भी तरह की कार्यवाही संभव नहीं है. मीडिया इसे रोज प्राइम टाइम के तमाशे की शक्ल में पेश करता आ रहा है और एक तरह से कहें तो ऐसा माहौल भी बना रहा है कि सचमुच इस्तीफे के अलावे कोई दूसरा रास्ता नहीं है. लेकिन

आज प्रभात खबर, दैनिक भास्कर और लोकमत अखबार के संबंध में जो खबर आयी है, उससे गुजरने के बाद सबसे पहले और बुनियादी सवाल मन में आ रहा है कि क्या समाचार चैनल जो पिछले पन्द्रह दिनों से कोलगेट( कैग की रिपोर्ट के बाद कोयला घोटाले से संबंधित) की खबर को डेली रुटीन का हिस्सा मानकर प्राइम टाइम में इससे जुड़ी खबरें दिखा रहा है, बहसें हो रही है, आज इन अखबारों के कोयला धंधे पर बात करेगा ? क्या जिस तरह से वो सरकार पर इस्तीफे की मांग को लेकर दबाव बनाने से लेकर विपक्षी पार्टियों की राजनीति के लिए स्पेस तैयार कर रहा है, आज इन अखबारों की ऐसे दलाली के धंधे के पीछे की सक्रियता को हम दर्शकों के सामने रखेगा ? जिस नैतिकता के आधार पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस्तीफे की मांग की जा रही है, उसी आधार पर गर्दन की नसें फुलाकर टीवी चैनलों से लेकर सेमिनारों में मीडिया की नैतिकता पर बात करनेवाले  इन अखबारों के संपादक हरिवंश( प्रभात खबर), लोकमत( कुमार केतकर) और श्रवण गर्ग( भूतपूर्व लेकिन आबंटन इनके कार्यकाल में ही हुआ होगा) से इस्तीफे और पत्रकारिता के पेशे से अलग हो जाने की मांग की जा सकती है ? चैनल इस बात पर बहस करा सकता है कि ऐसे संपादकों को अपने पद पर बने रहने का क्या अधिकार है जब उसका अखबार मुनाफे के लिए दलाली और ठेकेदारी के धंधे में लगा हुआ है ?

खबर है कि कोयला ब्लॉक की ठेकेदारी और मुनाफे में  इन तीनों अखबारों की मदर कंपनी/सहयोगी कंपनियां शामिल है. दैनिक भास्कर की कंपनी डीवी पावर लिमिटेड ने छत्तीसगढ़ में कोयले के ब्लॉक लिए वहीं प्रभात खबर की अपनी कंपनी उषा मार्टिन लिमिटेड ने झारखंड में कोयले जैसे मुनाफे के धंधे में हाथ डाला. इधर मराठी अखबार लोकमत की जेएलडी यावतमल्ल लिमिटेड ने छत्तीसगढ़ में कोयले के धंधे में अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित की. मतलब साफ है कि ये कंपनियां कोयले के जरिए बिजली और दूसरे उर्जा निर्माण, स्टील और दूसरे धंधे में अपनी दखल मजबूत करना चाहती है. 

इन शूरवीर संपादकों का ये तर्क शायद कुछ लोगों को प्रभावित करे कि हमारा काम अखबार के कामकाज को देखना है न कि उसकी मदर कंपनी कौन-कौन से और क्या-क्या धंधे में लगी है, उस पर नजर रखना. लेकिन फिर सवाल ये भी उठते हैं कि जब आपको इतना भी नहीं पता तो फिर अखबार को आंदोलन और डंके की चोट पर अपनी बात कहने का दावा कैसे कर सकते हैं ? दूसरा कि अगर आपको ये सब पता है बावजूद इसके चुप्पी साधे हैं तो इसका साफ मतलब है कि आपके नाक के नीचे से दलाली का साम्राज्य विकसित हो रहा है और आप वेवजह मीडिया की नैतिकता की कंठी-माला लिए घूम रहे हैं ? एक तीसरी बात ये भी हो सकती है कि संपादक दूसरे पदों पर काम करनेवाले मीडियाकर्मियों की तरह ही एक कर्मचारी है और वह अपने संस्थान के खिलाफ नहीं जा सकता. बिल्कुल सही बात है और पद को बनाए रखने के लिए व्यावहारिक भी. लेकिन कोई इन संपादकों से पूछे तो सही कि तब आप किस नैतिक साहस के तहत मीडिया सेमिनारों और टेलीविजन पर होनेवाली मीडिया नैतिकता की बहस में गर्दन की नसें फुला-फुलाकर न केवल सरोकारी पत्रकारिता करने का दावा करते हैं बल्कि दागदार मीडियाकर्मियों पर फैसला सुनाने का काम करते हैं. अगर आपने 2जी स्कैम मामले में बरखा दत्त से लेकर वीर सांघवी के घेरे में आने और उनकी साख में बट्टा लग जाने के बाद होनेवाली टेलीविजन बहसों को देखा होगा तो लोकमत के संपादक कुमार केतकर और दैनिक भास्कर के तत्कालीन संपादक श्रवण गर्ग छाए रहे. श्रवण गर्ग ने तो आगे जस्टिस काटजू के बयान पर यहां तक कहा था कि तो फिर हम छोड़ देते हैं ये काम, सरकार और जस्टिस काटजू ही मीडिया चलाएं, दर्जनों चैनल चलाएं.

इससे ठीक पहले साल 2007 में हुए पेड न्यूज मामले में प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश मीडिया के मसीहा बनकर अखबारों और चैनलों पर छाए रहे. ये अलग बात है कि पेड न्यूज मामले में प्रभात खबर का भी नाम आ चुका है. इसके बाद इसी साल मार्च- अप्रैल महीने में निर्मल बाबा धोखाधड़ी मामले में हरिवंश तमाम चैनलों पर पाखंड विनाशक संपादक-पत्रकार की हैसियत से छाए रहे. इन अखबारों से जुड़े इन तीनों संपादकों ने अपनी छवि इस तरह से निर्मित करने की कोशिश की है कि मीडिया मंडी में तमाम तरह की उठापटक और बिकवाली होती रहने के बावजूद इनका दामन न केवल बिल्कुल साफ-सुथरा है बल्कि दूसरे के दामन दागदार होने पर फैसला सुनाने का महान काम भी इन्हीं का है.

सवाल ये नहीं है कि इस खबर के आते ही हम अखबार का सार्वजनिक विरोध करने के बजाय इनसे जुड़े संपादकों/ मीडियाकर्मियों पर पिल पड़ें. सवाल है कि इनके संस्थान जब तमाम तरह के उल्टे-सीधे धंधे जिसका कि एकमात्र ध्येय धन की उगाही है में सक्रिय हैं तो फिर इनके भीतर ये नैतिक साहस कहां से बचा रह जाता है कि वो दूसरे मीडियाकर्मियों और संस्थानों पर फैसले सुनाने का काम करें. इसका साफ मतलब है कि ऐसा वे अपने ही संस्थान के धंधे को मजबूत करने के लिए करते हैं. दूसरा कि ये कैसे न समझा जाए कि वे सरकार, राज्य, प्रशासनिक अधिकारियों और संगठन के जिन फैसले का विरोध करते हैं, उनके पीछे अपने संस्थान को लाभ पहुंचाना नहीं रहता है और संपादक के पद पर एक तरह से मालिक के जमूरे बनकर काम करते हैं. नमूने के तौर पर सामाजिक प्रतिबद्धता की पैकेजिंग कर देते हों, ये अलग बात है.

कोयले की ब्लॉक लेने से जुड़ी इस खबर को पढ़ने के बाद क्या ये बात अलग से बताने-समझाने की जरुरत रह जाती है कि इन मीडिया संस्थानों की मदर कंपनी ने इसके लिए वे तमाम कर्म-कुकर्म और हथकंडे अपनाए होंगे, जो कोई ठेकेदार, राजनीतिक या रसूकदार अपनाता है ? मीडिया संस्थान ने अपने लोकतंत्र के चौथे खंभे की ताकत का इस्तेमाल ऐसे धंधे को चमकाने के लिए नहीं किया होगा, कर रहा है या आगे भी करेगा ? सरकार की नाकामी और उसके भीतर का भ्रष्टाचार तो फिर भी तमाम तरह के मीडिया मैनेजमेंट के बावजूद मसककर सामने आ जाता है लेकिन इन मीडिया संस्थानों की वो तमाम हरकतें जिनकी प्रकृति राजनीति और कार्पोरेट में सक्रिय संगठनों और संस्थानों से अलग नहीं है, उसका क्या ? आज हिन्दुस्तान टाइम्स ने इन तीन अखबारों के लेकर खबरें प्रकाशित की है. हमें जानकारी मिली और इसके लिए अखबार का शुक्रिया अदा करें लेकिन ये खबर भी पत्रकारीय कर्म का हिस्सा है या फिर मदर कंपनियों की टकराहट और प्रतिस्पर्धा की प्रतिध्वनि, ये कौन जानता है ? उपर से हम जो अखबार बनाम अखबार का मामला देख रहे हैं क्या वो उतना ही  ठेके और उद्योग के धंधे में लगी दो मदर कंपनी के बीच की टकराहट नहीं है जिसमें कि मीडिया कहीं नहीं है ?
खैर, इस खबर का शायद आगे भी विस्तार हो लेकिन फिलहाल ये न मानने की गुंजाईश नहीं रह जाती है कि इस देश में जितने भी धंधें हैं, मीडिया के हाथ और गर्दन उसमें सक्रिय है और इसलिए जितने भी घोटाले सामने आएंगे, उसमें अनिवार्यतः किसी न किसी मीडिया संस्थान का जिक्र आएगा. कोई चाहे तो घोटाले-दर-घोटले मीडिया संस्थानों की लिस्ट बनाकर शोध कर सकता है.

हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर के लिए चटका लगाएं-http://paper.hindustantimes.com/epaper/viewer.aspx
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2 Response to 'कोयले के धंधे में दागदार तो नहीं- प्रभात खबर, दैनिक भास्कर और लोकमत ?'
  1. अफ़लातून
    https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post.html?showComment=1347086248356#c2564431548573340057'> 8 सितंबर 2012 को 12:07 pm बजे

    हरिवंश किसी समय मानते थे कि वे एक मात्र संपादक हैं, बाकी सब व्यवस्थापक। चन्द्रशेखर के जीवित रहते हुए उन्होंने अपने ग्रुप के मजे के शेयर पा लिए थे। विनीत कुमार थोड़ा गहरे उतरिए,न।

     

  2. प्रवीण पाण्डेय
    https://taanabaana.blogspot.com/2012/09/blog-post.html?showComment=1347199248304#c3613044455249350684'> 9 सितंबर 2012 को 7:30 pm बजे

    पता नहीं कालिमा कहाँ तक छिटकेगी।

     

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