मूलतः दस्तक टाइम्स,15 मई अंक में लखनउ से प्रकाशित।
किसी खबर के निर्माण से लेकर प्रकाशन,प्रसारण तक में जितनी लागत लगती है,उसके मद्देनजर हम बिनी विज्ञापन औऱ बाजार के सहयोग के पाठक,दर्शक तक पहुंचने की उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए विज्ञापन के स्तर पर मीडिया की आलोचना करना पूर्णतया व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं होगा। गंभीर चिंता इस बात को लेकर है कि अगर मीडिया के भीतर विज्ञापन के अलावा भी खबरों को छापने,दिखाने के स्तर पर पैसों के लेनदेन हो रहे हैं तो क्या इसका हिसाब-किताब है। इन पैसों को आप किस श्रेणी में रखेंगे। दुनिया भर के काले धन का उपयोग मीडिया संस्थान चलाकर व्हाइट मनी बनाने के लिए किया जा रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मीडिया हाउसों के भीतर तेजी से काला धन बढ़ रहा है। वह धन जिसे कि न तो मीडिया के विस्तार में और न ही जागरुकता बढ़ाने के काम में लाया जाना है। राजनीति और बिजनेस के भीतर जो काला धन है उसकी नॉनप्रोडक्टिविटी पर तो हम लंबे समय से बात करते आये हैं लेकिन मीडिया के भीतर बढ़ने वाले काले धन का क्या होगा,इसकी धरपकड़ कौन करेग,ये कई सारे सवाल एक साथ उठते हैं।
उस समय हमलोग अपने-अपने स्तर पर मीडिया औऱ चुनाव के बीच के अंतर्संबंधों को समझने में लगे हुए थे। 24 अप्रैल की दोपहर आनंद प्रधान सर से इस मसले में पर चैट करते हुए बातचीत हुई कि आखिर मीडिया पैसे लेकर जिस तरह से खबरों को छाप औऱ दिखा रहा है,उससे जो पैसे मिल रहे हैं, उसका क्या हिसाब-किताब है, क्या इसे हम काला धन कह सकते हैं? आनंद प्रधान से साफ कहा कि आप ये जो सारी बातें हमसे कह रहे हैं आप ऐसा कीजिए कि आप इसे एक हजार शब्दों में लिखकर शाम तक मुझे भेज दीजिए। एकबारगी तो मुझे ऐसा लगा कि भरी दुपहरी में जबकि सोने का मन कर रहा हो,कहां फंस गया। लेकिन लिखना तो था ही सो चार बजे तक मामला फिट हो गया और ठीक एक हजार से चार शब्द ज्यादा लिखकर मेल कर दिया।
आमतौर पर अपने रेगुलर पढ़नेवाले लोगों के बीच लंबे-लंबे लेख लिखने के लिए बदनाम हूं। जो मेरे दोस्त हैं वो मुझे लगातार छोटा लिखने की नसीहतें देते हैं और जो खुलेआम रुप से अपने को दोस्त साबित नहीं करते वो इसी आधार पर आलोचना भी करते हैं। यहां मैं पहली बार मांग और आपूर्ति पर खरा उतरा, क्योंकि मामला गुरु का रहा। लेख छपकर आ गया और फोन पर ही आनंद प्रधान सर ने अफसोस जाहिर करते हुए कहा कि उनलोगों ने अपनी तरह से कांट-छांट कर दी है। लेख देखकर तो अफसोस मुझे भी हुआ। लेख के ढांचे को देखकर ऐसा लगा कि दिल्ली से भेजे गए इस लेख के हाथ-पैर,बाल,आंख,नाक,कान लखनउ तक पहुंचते-पहुंचते लोगों ने रास्ते में कतर दिए हों। नया-नया लिखनेवालों में होने पर भी मेरे लेखों के साथ ऐसा न के बराबर हुआ है। खैर, मैं लेख की मूल प्रति भी साथ में लगा रहा हूं ताकि आप मीडिया और उसके भीतर पनपनेवाले काले धन के पूरे संदर्भ को ज्यादा बेहतर तरीके से देख सकें।
लेख की मूल प्रति-
अखबार के पहले पन्ने पर अक्सर कोई खबर न देखकर किसी बड़ी कम्पनी या संस्थान का विज्ञापन देखकर मुंह से एक ही शब्द निकलता है- विज्ञापनों के आगे पत्रकारिता ने घुटने टेक दिए हैं। पाठक खबर पढ़ने के लिए अखबार खरीदता है लेकिन पहले पन्ने पर ही खबर नदारद होती है। अखबार के मालिक को इस बात का अंदाजा है भी या नहीं कि उसका पाठक सुबह-सुबह झल्ला जाता है लेकिन विज्ञापन आसानी से साबित कर देता है कि हम अखबार से भी बड़े हैं,अखबार की खबरें हमारे आगे कुछ भी नहीं है,हममें वह ताकत है कि देश के किसी भी बड़े अखबार का नक्शा बदल दें। यही हाल समाचार चैनलों के कार्यक्रमों को लेकर है. आप देश और दुनिया की हलचल जानने के लिए टीवी के आगे बैठे हैं लेकिन आलम ये है कि टेलीविजन स्क्रीन का आधा से ज्यादा हिस्सा विज्ञापनों से भरा है। स्क्रीन को देखकर ऐसा लगेगा कि किसी महानगर के मेला-पूजा पंडाल की तरह टेलीविजन के लोग स्क्रीन के एक-एक इंच को विज्ञापन के लिए इस्तेमाल करने के लिए परेशान हैं। बात यहीं तक खत्म नहीं होती, किसी भी कार्यक्रम के पहले आपको कंपनियों का नाम लेना होता है। कार्यक्रम के नाम की शुरुआत ही कंपनी के नाम के साथ शुरु होती है- बजाज एलयांस वोट इंडिया वोट, हीरो होंडा हमलोग या फिर आइडिया हेडलाइंस। कोई चैनल देश का पीएम खोजने निकला है तो देश की जनता से ज्यादा हीरो होंडा और बनियान के फुटेज प्रसारित होते हैं। अब तो चैनलों ने प्रजेन्टस औऱ प्रस्तुत करता है जैसे योजक शब्द भी लगाने छोड़ दिए हैं, सीधे विज्ञापन कंपनी और कार्यक्रम का एक-दूसरे से मिलाकर नाम होता है। मीडिया,बाजार औऱ विज्ञापन के आपसी गठजोड़ औऱ एक-दूसरे की अनिवार्यता को समझने के लिए पाठकों औऱ दर्शकों के सामने मौजूदा स्थिति में यह मजबूत उदाहरण है। सच पूछिए तो अब ये मुहावरा से ज्यादा कुछ भी नहीं है कि विज्ञापन के आगे मीडिया लाचार है। इस लिहाज से मीडिया की आलोचना करने में कुछ नयापन भी नहीं है.
लेकिन इधर चुनावी महौल और आइपीएल सीजन में कुछ नए तरह की बहस मीडिया के भीतर चलनी शुरु हो गयी है। कल रात हिन्दी के एक समाचार चैनल पर पैनल डिशकशन के लिए आए राजनीतिक पुरुष ने कहा कि-आप सिर्फ नेताओं पर आरोप लगाने पर क्यों तुले हुए हैं,अखबार का एक-एक कॉलम बिका हुआ है, सब पैसों के हाथ बिक गए हैं। प्रश्न पूछनेवाले पत्रकार ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जाहिर की और कहा कि आपके पास ऐसा कहने का कोई आधार नहीं है। अगर ऐसा है तो आप प्रेस कांफ्रेस कराइए लेकिन यहां आकर आप इस तरह की बातें नहीं कर सकते। साथ में बैठे राष्ट्रीय दैनिक के संपादक महोदय ने पक्ष लेते हुए कहा- आपलोगों ने खुद पैसे दे-देकर लोगों को भ्रष्ट किया है औऱ आप जबरदस्ती हम पर आरोप लगा रहे हैं. खैर, उस परिचर्चा में इस बात को बहुत अधिक तूल नहीं दी गयी कि मीडिया और पैसे के बीच का आपसी रिश्ता क्या है लेकिन राजनीतिक पुरुष का संकेत विज्ञापन के आधार पर मीडिया के बिकने की ओर नहीं था। उनका साफ मानना था कि बिकने का यह मामला, खबरों औऱ कॉलम तक को लेकर भी है। इस बाबत रांची से प्रकाशित प्रभात खबर अखबार के संपादक हरिवंश ने अपने एक लेख के जरिए करीब डेढ़ महीने पहले ही खुलासा कर चुके हैं कि राजनीतिक पार्टियों की ओर से खबर,इंटरव्यू,फीचर और कवरेज को लेकर रेट तय कर दिए गए हैं। इस बात की खबर आने पर इस बात की भी चर्चा होनी शुरु हो गयी कि अंग्रेजी के कुछेक बड़े अखबार अपने यहां इंटरव्यू छापने की मोटी रकम लेते हैं।
इन सब बातों की चर्चा मैंने ब्लॉग के जरिए शुरु ही की थी कि एक पत्रकार ने कमेंट के जरिए यह साफ किया किया कि आइपीएल की कवरेज को लेकर मुंबई के कुछ चैनलों ने पैसे लिए हैं और जिस भी टीम से पैसे लिए हैं,उनके पक्ष में खबरें दिखा रहे हैं।
यहां सवाल इस बात का नहीं है कि मीडिया जिसने अपने उपर सामाजिक जागरुकता और सच को सामने लाने की जिम्मेवारी ली है,वह स्वयं ही पूंजी के खेल में बुरी तरह फंस गया है। खबर निर्माण से लेकर प्रसारण तक में जितनी लागत लगती है, हम बिना विज्ञापन और बाजार के सहयोग के बड़े स्तर पर मीडिया के पहुंच की उम्मीद नहीं कर सकते,इसलिए विज्ञापन के स्तर पर मीडिया की आलोचना करना पूर्णतया व्यावहारिक दृष्टिकोण नहीं होगा। गंभीर चिंता इस बात को लेकर है कि अगर मीडिया के भीतर विज्ञापन के अलावे वाकई खबरों को छापने,दिखाने के स्तर पर पैसों के लेनदेन हो रहे हैं तो क्या इसका कोई हिसाब-किताब है। इन पैसे को आप किस श्रेणी में रखेंगे। दुनियाभर के काले धन का उपयोग मीडिया संस्थान चलाकर व्हाइट मनी बनाने के लिए किया जा रहा है,अब कहीं ऐसा तो नहीं है कि मीडिया हाउस के भीतर तेजी से काला-धन बढ़ रहा है। वह धन जिसका कि न तो मीडिया के विस्तार में और न ही जागरुकता बढ़ाने के काम में लाया जाना है। राजनीति और बिजनेस के भीतर जो काला धन है, उसकी नॉनप्रोडक्टिविटी पर तो हम लंबे समय से बात करते आए हैं लेकिन मीडिया के भीतर बढ़नेवाले काले धन का क्या होगा,यह हमारी वित्तीय व्यवस्था को कैसे खोखला कर देगा और फिर इसकी धर-पकड़ कौन करेगा, ये कई सारे सवाल एक साथ उठते हैं.
दूसरी बात कि देश के दूरदराज इलाके में बैठे पाठक और दर्शक, अखबार और टेलीविजन की जिन सामग्री से गुजरकर अपनी राय बना रहे हैं,उनकी विश्वसनीयता का आधार क्या होगा। उन्हें इस बात का अंदाजा कहां है कि वह जिस इंटरव्यू,फीचर या रिपोर्ट को खबर के स्तर पर पढ़ रहा है,वह पैसे के दम पर छापा और प्रसारित किया गया है। कंपनियां या फिर राजनीतिक पार्टियां मार्केटिंग स्ट्रैटजी के तहत लाख विज्ञापन कर लें लेकिन एक स्तर पर आकर उसके प्रभाव के सीमित हो जाने की चिंता को वे समझते हैं. शायद इसलिए उन्होंने एडविटोरियल औऱ लिटरेचर के रुप में अपना विज्ञापन करवाना शुरु किया। सरस सलिल से लेकर दैनिकपत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित इस विज्ञापन को लोग शुरुआती दौर में खबर की तरह पढ़ते रहे,एक हद तक छले भी जाते रहे लेकिन यह जानने पर कि वह वाकई कोई खबर नहीं,विज्ञापन है,छिटकते चले गए। अब पाठकों के लिए यह जानना मुश्किल होता जाएगा कि वे खबर नहीं पेडस्टोरी (paid story)पढ़ रहे हैं। क्या ऐसी स्थिति में रेडियो औऱ टीवी की तरह खबरें भी”बिग खबरें ” नहीं हो जाएगी जिस पर कि देश के गिने-चुने लोगों का कब्जा होगा। अब तक कि स्थिति यही रही कि माध्यम औऱ संचार के तमाम संसाधन पूंजीपतियों के हाथ होते चले गए लेकिन एक हद तक खबरें अभी भी आम लोगों के बीच रही। लेकिन जो स्थिति तेजी से बन रही है उसमें खबरें भी बिकती चली जाएगी। माध्यमों पर बाजार और विज्ञापन का कब्जा होने पर ही हम मीडिया के जरिए बड़े स्तर पर सामाजिक सरोकर की बात नहीं सोच सकते,अब जबकि खबरें ही बिकने लगें तो फिर सामाजिक जागरुकता औऱ लोकतंत्र की अभिव्यक्ति आदि की बातें कैसे सोच सकते हैं। यह पूरी तरह एक छलना है जिसे कि अब तक हमारी आंख खोलते रहनेवाला मीडिया के हाथों होने की आशंका जाहिर की जा रही है, अब इससे बचने का विकल्प क्या हो, सोचना जरुरी है।
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