क्या पाखंड पैदा करना पूंजी का एक बड़ा काम है ? कल ही लांच हुए नया हिन्दी इंटरटेनमेंट चैनल कलर्स को लगातार पांच घंटे देखने के बाद मेरे मन में सबसे पहले और अंत तक भी यही सवाल बना रहा कि क्या टेलीविजन पाखंड को मजबूत करने का माध्यम है। अब तक ये आरोप न्यूज चैनलों में सांप-संपेरे, स्वर्ग की सीढ़ी और जिंदा है रावण आदि की खबरों को दिखाए जाने के संदर्भ में कहा जाता रहा है। जो लोग मीडिया का विश्लेषण कर रहे हैं उन्होंने तो इसके लिए वाकायदा एक मुहावरा भी गढ़ लिया है कि अब न्यूज चैनलों में मनोहर कहानियां दिखाए जाने लगे हैं. लेकिन इंटरटेंनमेंट चैनलों की तरफ लोगों का ध्यान कम ही गया है. आलोचकों के बारे में ये बात ज्यादा सच है। अभी भी वो इंटरटेनमेंट चैनलों के बारे में सास-बहू सीरियलों को कोसकर ही रह जाते हैं. इधर एक बांग्ला चैनल में हादसा हुआ है जब से लोग रियलिटी शो के बारे में कुछ-कुछ लिखने लगे हैं, उसे भी आप विश्लेषण नहीं ही कह सकते। रियलिटी शो पर लिखा जाना उसी तरह का हो रहा है जैसे कहीं कुछ हादसा या हत्या हो जाने पर इसकी निंदा की जाती है। सारी बातें घटना के विरोध में कही जाती है। इसलिए रियलिटी शो को लेकर जो समीक्षा अभी बाजार में उपलब्ध है उसे आप टेलीविजन का विश्लेषण नहीं कह सकते। इंटरटेनमेंट चैनलों की तरफ बड़े-बड़े पूंजीपति घरानों का ध्यान तेजी से जा रहा है और संभव है कि आनेवाले समय में मीडिया आलोचक भी इसे देखने-समझने के टूल्स विकसित कर लें।
टूल्स विकसित करने का मतलब ये कतई नहीं होगा कि लोग जो अब तक इसके विरोध में लिखते आ रहे हैं, बाद में समझदारी विकसित हो जाने के बाद इसके पक्ष में लिखने लग जाएंगे। बल्कि गुंजाइश इस बात की होगी कि आलोचना के और बारीक तर्क, कारण और इंटरटेनमेंट के बदलते एलिमेंट्स पर अपनी पकड़ मजबूत कर सकेंगे और तब उनकी समीक्षा ज्यादा स्वाभाविक लगेगी। खैर,
टेलीविजन को जो भी स्वरुप हमारे सामने उभर रहा है, चाहे वो न्यूज चैनलों के माध्यम से या फिर इंटरटेनमेंट चैनल के माध्यम से। आनेवाले समय में आप इससे कोई बड़ी क्रांति की उम्मीद नहीं कर सकते। टेलीविजन ऐसा कुछ भी नहीं कर देगा जिससे कि कोई बड़ा सामाजिक बदलाव आ जाएगा। मेरी इस बात को आप थोड़ी देर के लिए दुराग्रह या फिर हठधर्मिता कह सकते हैं लोकिन यह सच है कि मजबूत होती मीडिया की स्थिति के बावजूद भी टेलीविजन कोई क्रांति करने नहीं जा रहा। क्योंकि जिस बड़े स्तर पर क्रांति और बदलाव की गुंजाइश बनती है वहां आकर टेलीविजन का समझौता हो चुका है. यह समझौता पूंजीवाद से है, उपभोक्तावाद से, नेशन स्टेट से है और उस सामाजिक ढ़ांचों से है जहां कि बदलाव के बीज फूट सकते थे। इसलिए मन- मारकर आपको मीडिया और टेलीविजन की छोटी-मोटी उपलब्धि को ही क्रांति का नाम देना पड़ेगा। आपको क्रांति शब्द के अर्थ में कांट-छांट करनी होगी. इस संदर्भ में अगर टेलीविजन अपने को महान होने का, समाज का पहरुआ होने का और समाज हित में काम करने का डंका भी पीटे तो क्रांति और बदलाव शब्द के अर्थ को संकुचित करते हुए मान लेना होगा। क्योंकि ये आप भी जानते हैं कि क्रांति रोज-रोज नहीं होती जबकि टेलीविजन की घोषणा रोज जारी है।
कोई क्रांति संभव नहीं होने का ये मतलब भी नहीं है कि तब टेलीविजन हमारे जीवन के बीच एक निरर्थक माध्यम है। बदलाव की दिशा में अगर टेवीविजन कुछ भी न करे तो भी इसके कई मतलब हैं. इसके असर से कभी भी इनकार नहीं किया जा सकता. वो दिन-रात पूंजीवादी ताकतों को मजबूत करने में लगा रहे तो भी परेशान होने की जरुरत नहीं है। आज के परिवेश में वैसे भी ऐसी कौन सी चीजें और प्रयास बाकी रह गए हैं जिसका ध्येय प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष रुप से पूंजी पैदा करना नहीं रह गया है. इसलिए टेलीविजन भी करे तो कोई बेजा बात नहीं है। हां बाकी चीजों में इसके जैसा असर नहीं होता. यहीं पर आकर टेलीविजन को सोचना पड़ेगा. लेकिन अगर दो बातें इस बीच हो जाए तो टेलीविजन को लेकर अपनी परेशानी काफी हद तक कम हो जाएगी.
पहला तो यह कि टेलीविजन को लेकर आम जनता यह मानना छोड़ दे कि इससे ही हमारे जीवन का सुधार संभव है, हम बिना इसके भी अपनी दशा सुधार सकते हैं। हांलांकि ऐसा मानना आम आदमी के लिए बहुत ही मुश्किल है. जिसका कोई नहीं है, आज उसका टेलीविजन है। हां इतना किया जा सकता है कि पूरी तरह से इस पर निर्भर होने के बजाय साथ में अपनी भी मजबूती बनाने का प्रयास जारी रखे। और दूसरा कि,
चैनल को जो मर्जी आए करे लेकिन देशीय संस्कृति के नाम पर पाखंड फैलाना बंद कर दे। कल पांच घंटे तक लगातार नए चैनल कलर्स को देखने पर मन भारी हो गया। मैं किसी भी मीडिया को सिर्फ पूंजीवाद का हमशक्ल कहकर आलोचना करने के पक्ष में नहीं हूं। उसके भीतर कई ऐसी चीजें हैं जिस आधार पर उसका विश्लेषण किया जा सकता है. इससे पूंजी के बारीक प्रभाव के प्रति भी समझ बनती है। कलर्स के बारे में पता है कि इसमें बड़ी पूंजी का निवेश हुआ है। वायकॉम नेटवर्क १८ का मोटा पैसा इसमें लगा है। अकेले अक्षय को खतरों के खिलाड़ी के एक एपिसोड के लिए डेढ़ करोड़ दिया जा रहा है। खैर, इस पांच घंटे में भारतीय संस्कृति के नाम पर जो पाखंड मैंने देखा, उसे अगर विश्व हिन्दू परिषद् या फिर बजरंग दल का कोई अपना चैनल खुले तो उसकी भारतीयता इस नए चैनल से मेल खाएगी।....कैसे पढ़िए अगली पोस्ट में
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https://taanabaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_22.html?showComment=1216711560000#c867765374707041717'> 22 जुलाई 2008 को 12:56 pm बजे
मेरा तो टीवी देखना कभी-कभार ही हो पाता है....चलिए आपके बहाने कुछ जानकारी मिली
https://taanabaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_22.html?showComment=1216719000000#c6723818362549036894'> 22 जुलाई 2008 को 3:00 pm बजे
आपने सही कहा, आजकल चैनलों में इसकी होड लगी हुई है।