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हिन्दी मीडिया का काला अध्याय

Posted On 5:09 pm by विनीत कुमार |


एक प्रोडक्शन हाउस ने हाल ही में खोले गए अपने हिन्दी इंटरटेन्मेंट चैनल से एकमुश्त ३० स्थायी मीडियाकर्मियों की छंटनी कर दी औऱ अब ये सारे के सारे सड़क पर आ गए हैं। हाउस ने छंटनी करने के एक दिन पहले तक उन्हें नहीं बताया कि उन्हें नौकरी से निकाला जा रहा है। छंटनी के दिन उनसे सीधे कहा गया कि अब हमें आपकी जरुरत नहीं है।

हिन्दी टेलीविजन के इतिहास में पहली ऐसी घटना है जहां एक साथ ३० लोगों को बिना पूर्व सूचना के काम से बाहर निकाल दिया गया। यह कानूनी तौर पर गलत तो है ही साथ ही मीडिया एथिक्स के हिसाब से भी गलत है। वाकई हिन्दी मीडिया के इतिहास का यह काला अध्याय है और हम ब्लॉग के जरिए इसका पुरजोर विरोध करते हैं।

मीडिया संस्थानों से पत्रकारों को निकाल-बाहर करने की यह कोई पहली घटना नहीं है। इसके पहले भी कई चैनलों से बड़े-बड़े अधिकारियों को आपसी विवाद या फिर चरित्र का मसला बताकर निकाल-बाहर किया गया है। लेकिन टेलीविजन के इतिहास में शर्मसार कर देनेवाली शायद ये पहली घटना है जब एक ही साथ तीस मीडियाकर्मियों को जरुरत नहीं है बताकर निकाल दिया गया। इनमें नीचे स्तर से लेकर प्रोड्यूसर लेबल तक के लोग शामिल हैं। हाउस अगर निकालने की वजह सबके लिए व्यक्तिगत स्तर पर बताती है तो इसके लिए उसे काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। संभव है कि अगर ये सारे लोग मिलकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाएं तो प्रोडक्शन हाउस पर भारी पड़ जाए।
हाउस ने इतनी बड़ी छंटनी की है इसका बड़ा आधार हो सकता है कि वो इसके जरिए अपने वित्तीय घाटे को पूरा करना चाह रही हो। उसे इन कर्मियों के वेतन का बोझ उठाना भारी पड़ रहा हो। उसकी स्थिति शायद ऐसी नहीं बन रही हो कि वो अधिक मैन पॉवर का खर्चा उठा सके। वैसे भी बाजार में इस प्रोडक्शन हाउस के शेयर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। जिस हाउस के शेयर १०४ रुपये तक गए थे, आज वो लगातार गिरकर ३३ रुपये पर आ गया है। इससे इसके वित्तीय स्थिति का अंदाजा साफ झलक जाता है। लेकिन एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि मीडिया सेक्टर बिजनेस के बाकी सेक्टर से अलग है। एक तो मीडिया अभी भी शुद्ध बिजनेस की शक्ल में सामने नहीं आ पाया है औऱ अगर भीतर से हो भी गया हो तो आम जनता के बीच इसकी छवि बिजनेस की नहीं बन पायी है। एक हद तक मीडियाकर्मी भी पूरी तरह से बिजनेस के हिसाब से मीडिया में काम करने के लिए अपने को तैयार नहीं कर पाए हैं। अधिक पैकेज और पद को लेकर वो चैनल बदल लेते हों तो भी। इसलिए अगर चैनल को घाटा भी होता है तो भी एक हद तक उसे मीडिया इथिक्स फॉलो करना अनिवार्य है। यह मीडिया इथिक्स कई मामलों में बिजनेस प्रोफेशनलिज्म से अलग है।

....औऱ फिर इस हाउस के प्रमुख की पृष्ठभूमि खुद भी एक पत्रकार की रही है। उन्होंने भी पत्रकार की हैसियत से इस स्थिति में तनाव जरुर झेले होंगे। एक पत्रकार के मनोभावों को समझने की क्षमता उन्हें है, इस बात की तो उम्मीद की ही जा सकती है। इसके साथ ही इतने बड़े चैनल में बड़ा निवेश करने और उसके नफा-नुकसान पर संतुलित ढंग से कदम उठाने का तरीका भी उन्हें बखूबी आता ही होगा। हम उनसे उन लालाओं की तरह के हरकतों की उम्मीद नहीं करते जो कि अपने फायदे के लिए अपने कर्मचारियों को ही दूहने लग जाए। चाहे वो मशीन पर काम करनेवाले कर्मचारी हों चाहे डेस्क पर काम करने वाले मीडियाकर्मी।चैनल की वित्तीय स्थिति अगर पहले से दिनोंदिन खराब होती जा रही है औऱ उसे नियंत्रण में लाए जाना जरुरी है। इस नियंत्रण के लिए यह भी जरुरी है कि साधनों में कटौती की जाए लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि साधनों में कटौती के नाम पर सबसे पहली गाज वहां के मीडियाकर्मियों पर गिरायी जाए। जो संस्थान करोंड़ों रुपये की लागत से चैनल खोलने का माद्दा रखता है उसे उसके नफा-नुकसान की स्थिति में संयमित रहने का कौशल जरुर आना चाहिए। उसे इस बात की पूरी चिंता होनी चाहिए कि हमारे यहां काम करनेवाले लोग किस हद तक कम्फर्ट हैं।कटौती के सौ तरीके हैं औऱ हो सकते हैं। और इन सबके वाबजूद भी अगर चैनल के पास कटौती के और कोई रास्ते नहीं बचते हैं और अपने कर्मियों को निकालना जरुरी हो जाता है तो इसके दो या तीन महीने जो कि पेपर पर लिखा होता है, पहले बताना चाहिए ताकि लोग अपना विकल्प तलाश लें।

दरअसल जितनी हड़बड़ा से चैनल लांच किए जा रहे हैं औऱ महीने-दो-महीने बाद जिस तरह से उसके परिणाम सामने आ रहे हैं उससे साफ लगता है कि चैनल के लोग कंटेंट पर भले ही रिसर्च कर लेते हों कि क्या चलाया जाए कि टीआरपी आसमान छूने लग जाए, पहले के सारे चैनल ध्वस्त हो जाएं लेकिन इस बात पर काम नहीं होता कि कितने लोगों को किस काम के लिए रखना है, उनसे कितना काम लेना है। शुरुआत में आंधी-तूफान की तरह लोगों को भर्ती किए जाते हैं लेकिन बाद में जब चैनल की स्थिति अच्छी नहीं बनती तो फिर किसी न कीसी बहाने से निकालते चले जाते हैं। चैनल को इस मामले में बाकी के बिजनेस की तरह पहले से तय करना होगा और काम करनेवाले लोगों को एश्योर करना होगा कि वो सेफ हैं। नहीं तो लोगों के बीच जो असंतोष पनपेगा, उसका सीधा असर चैनल पर दिखेगा।

अभी इस चैनल ने प्रोड्यूसर लेबल के लोगों की छंटनी की है, हो सकता है इसका प्रभाव बड़े अधिकारियों पर भी पड़े और वो आगे के लिए अपने विकल्प तलाशने लग जाएं या फिर चैनल उन्हें भी चलता कर दे। ऐसे में पूरी मीडिया पर क्या असर होगा, यह वाकई चिंता का विषय है।जिन तीस लोगों को निकाल-बाहर किया गया है, संभव है वो किसी तरह की कारवाई नहीं करें। अपने जीवन का एक छोटा सा हादसा मानकर कहीं और जाने की कोशिश में लग जाएं। एक आदत के तौर पर इसे पचा जाएं। उनके लिए कोई यूनियन भी नहीं है क्योंकि पर्सनल लेबल पर अपने को ब्रांड बनाने के फेर में मीडियाकर्मियों खासकर टेवीविजन के लोगों ने यूनियन फार्म करना जरुरी नहीं समझा। लेकिन इसके साथ ही दूसरे चैनल भी यही रवैया अपनाने लग जाएं। मसलन इस चैनल की सिस्टर न्यूज चैनल ही ऐसा ही करने लग जाए तो फिर मीडिया में काले अध्यायों की भरमार होगी और जिसे हटाने के लिए कोई नहीं आएगा, शायद मीडियाकर्मी भी नहीं। इसलिए इस तरह के हादसों को होने से रोकना अभी से ही बहुत जरुरी है।
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5 Response to 'हिन्दी मीडिया का काला अध्याय'
  1. अनिल रघुराज
    https://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_24.html?showComment=1214311680000#c2945643936820111859'> 24 जून 2008 को 6:18 pm बजे

    विनीत जी, यह सच है कि जिस मीडिया हाउस का जिक्र आपने किया है, उसके प्रमुख खुद भी एक पत्रकार रहे हैं। लेकिन वे शुरू से ही खांटी दलाल पत्रकारों की श्रेणी में शामिल रहे हैं। लाला से कहीं ज्यादा खतरनाक होता है सत्ता का दलाल पत्रकार। इसलिए इस नेता-दलाल-पूर्व पत्रकार और क्रिकेट 'राष्ट्रभक्त' से कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।

     

  2. Tarun
    https://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_24.html?showComment=1214362500000#c7637498204926149559'> 25 जून 2008 को 8:25 am बजे

    विनीत जी, एक तरफ आप विरोध की बात कर रहे है और दूसरी तरफ दोनों का पक्ष ले रहे हैं। सही देखा जाय तो इसमें काला अध्याय जैसा कुछ नही है, ये सिर्फ शुरूआत है और ऐसा धीरे धीरे लगभग सभी जगह सुनायी देगा। यहाँ तो ये आम बात है कोई कंपनी १०० से कम लोगों को निकाले तो खबर में भी नही आता।

    हाँ जिन्हें निकाला गया उनके लिये दुख जरूर है लेकिन सभी को इस तरह की घटना के लिये मानसिक रूप से तैयार होना ही पड़ेगा।

     

  3. अनुनाद सिंह
    https://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_24.html?showComment=1214364780000#c2740795390648632135'> 25 जून 2008 को 9:03 am बजे

    यदि आपमें इतना भी साहस नहीं है कि लिखते समय खुलकर उस मिडिया हाउस और उसके कर्ता-धर्ता का नाम लिख सकें तो इस लिखने से फायदा क्या है? क्यों चार वाक्यों में लिखी जा सकने वाली बात को चार-सौ वाक्यों का बना रहें हैं?

     

  4. आशीष कुमार 'अंशु'
    https://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_24.html?showComment=1214389080000#c7648777783792988395'> 25 जून 2008 को 3:48 pm बजे

    सत्य वचन

     

  5. डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava)
    https://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_24.html?showComment=1214457720000#c6679574231605163763'> 26 जून 2008 को 10:52 am बजे

    भाई लोग,इस पूरे मसाले को आप भड़ास पर जाकर देख लीजिये यहां पर भाई ने आपको एक सूत्र दिया तो आप इनकी ही खींचने लगे कि पूरी खबर क्यों नहीं दी। यार आप लोग भी तो पत्रकार हैं अब जानकारी मिली है तो बाकी खबर और आगे का प्रभाव खुद तलाश लीजिये
    जय हिन्द
    डा.रूपेश श्रीवास्तव

     

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