संजीव( संजीव कुमार,युवा आलोचक) को जब भी सुनता हूं, मुझे अपने स्कूल के पाठक सर की याद आ जाती है. किसी शिक्षक का व्यक्तित्व कितना प्रभावशाली होता है कि उनके विषय को न केवल आप मन से पढ़ते हैं बल्कि उनसे प्रभावित होकर उसी विषय से अपना जीवन और करिअर जोड़ने का फैसला ले लेते हैं. मैंने नौवीं-दसवीं कक्षा में जितने मन से साहित्य की पढ़ाई की, उतनी पढ़ाई डॉ. कामिल बुल्के शोध संस्थान में दो साल और फिर कभी नहीं. पाठक सर नौंवी कक्षा में ही लौंग्जाइनस, क्रोचे, आइ.ए.रिचर्ड्स पर किताबें देते और फिर कुछ दिनों बाद पूछते- कितना समझे..मैं थोड़ा-बहुत जो समझ पाता,बता देता. वो कहते- इतना समझ लिए,बहुत है. अंग्रेजीदां माहौल और करिअर मतलब साइंस के बीच हिन्दी पढ़ना,दोस्तों की निगाह में मैं अचानक से बेचारा बन गया था..लेकिन सच में किसी शिक्षक का आप पर कितना गहरा असर होता है कि आप सब झेल जाते हैं.
दिल्ली आने के बाद साहित्य से बहुत जल्द ही विरक्ति होने लग गई. शरीफा के पेड़ के नीचे मैला आंचल,राग दरबारी, झूठा सच पढ़ते हुए, बुल्के शोध संस्थान के कमरे में बैठकर भक्तिकाल, प्रगतिवाद,नई कविता आदि को पढ़कर जो समझ और साहित्य के प्रति जो भाव बने थे..वो तेजी से चटकने लगे. यहां लोग या तो विभागाध्यक्ष थे, या तो टीचर इन्चार्ज, या तो सबसे जुगाडू जिनके साथ होने का मतलब था नौकरी का मामला फिट, कोई दिनेश्वर प्रसाद जैसा खालिस शिक्षक नहीं मिले. सोचिए अगर यहां भी कोई पाठक सर जैसा मिल जाता या आज से आठ साल पहले संजीव मिल जाते तो मैं मीडिया की आए दिन की मारकाट और चिरकुटई पर तीर-तमंचा तानने के बजाए उसी साहित्य को लिख-पढ़ रहा होता, जिसके लिए मैंने बाकी शिक्षकों से,घर से, कुछ रिश्तेदारों से उपहास और व्यंग्य के शब्द झेले थे..संजीव को सुनते हुए एक टीस तो पैदा हो ही जाती है कि हम मीडिया की गली में इस तरह से रम गए कि ये भी याद नहीं रहता कि इसका मुख्य दरवाजा कभी साहित्य रहा था.
संजीव क्लास में क्या और कैसे पढ़ाते होंगे, कल्पना भर कर सकता हूं लेकिन मुझे पता नहीं क्यों,ये जरुर लगता है कि इस दिल्ली शहर में हिन्दी या तो मुगलसराय जंक्शन है( जब कहीं की सवारी न मिले तो यहां आ जाओ) या फिर जोड़-जुगाड़ का अड्डा है, कुछ ऐसे छात्र जरुर मिलेंगे जो इन सबसे वेपरवाह संजीव पर फिदा होकर हिन्दी पढ़ेंगे..हमने जिस माहौल में हिन्दी साहित्य पढ़ा, वहां दूर-दूर तक उसमें करिअर नहीं दिखाई देता था लेकिन पढ़ने के ललक और तड़प ज्यादा था..भीतर से इस बात पर नाज होता था कि हम एक विषय को नहीं बल्कि एक विद्रोह की भाषा सीख रहे हैं..जिस हिन्दी को बिहाउती लड़की और साड़ी-ब्लाउज का बिजनेस करते हए ग्रेजुएशन कर लेने का विषय माना जाता रहा हो, उनके बीच खूब मन से,बाकी विषयों में अच्छे नबंर लाते हुए, स्कूल का होनहार छात्र होते हुए( बाद में जिसने कि हिन्दी लेकर नाम हंसाया और ये बात खुद कॉलेज के प्रिसिंपल ने कही थी) हिन्दी पढ़ रहा था, ये विद्रोह ही तो था.
हम जैसे लोग हिन्दी साहित्य के सेमिनारों, साहित्यिक पत्रिकाओं के लिखने और उन पर बोलने से अक्सर बचते हैं..कोशिश यही रहती है कि जो हिन्दी की परंपरा का ईमानदारी से निर्वाह कर रहे हैं, सरोकारी लेखन कर रहे हैं, उनसे दूर रहें..किसी भी नामचीन के साथ न तो हाथ मिलाने का मन होता है और न ही साथ फोटो खिंचाने का..लेकिन समाज विज्ञान और साहित्येतर विषयों के बीच जब कभी संजीव को बोलते सुनता हूं तो लगता है हाथ में एक पीपीहा लेकर जोर-जोर से फूंकने लगूं- ये संजीव हमारी हिन्दी के हैं, हिन्दी साहित्य के हैं. हमें गुमान होता है कि जिस हिन्दी पब्लिक स्फीयर से बचते हैं, उसमें एक ऐसा शख्स है( बेशक कुछ और भी हैं, जिनकी चर्चा कभी करुंगा) जिन्हें सुनते हुए हिन्दी साहित्य से जुड़े लोगों के प्रति बनी समझ( कई बार स्टीरियोटाइप ही होते हैं) एक झटके में टूट जाती है. जिन लोगों की जुबान पर यू नो ये हिन्दीवाले तकियाकलाम की तरह चिपका रहता है, उनके मुंह से अचानक निकल जाता है- ऑसम..आइ कॉन्ट विलीव. मेरे ख्याल से हिन्दी को बचाने में जोहन्सबर्ग की बारात से कहीं ज्यादा खुदरे-खुदरे रुप में नजर आनेवाले ऐसे शिक्षक ज्यादा काम आते हैं.
कल यशोदा की किताब दस्तक पर बोलते हुए( समाज कार्य विभाग, दिल्ली विश्व) जब संजीव को सुन रहा था तो कुछ ऐसा ही लगा. उन्होंने कहा कि हालांकि प्रकाशकों की एक व्यावसायिक मजबूरी होती है कि वो किताब को किसी कैगेटरी में रखे और इसे समाज विज्ञान की कैटेगरी में रखा है..लेकिन ये समाज विज्ञान का एक पाठ हो सकता है लेकिन उसकी किताब नहीं है, ये साहित्य है..उन्होंने इस किताब के साहित्य होने के पीछे के जो तर्क प्रस्तावित किए, उसे सुनने के बाद हम साफ समझ पा रहे थे कि साहित्य के कितने बारीक और महीन औजार हैं( इसे आप स्क्रयू ड्राइवर किट भी कह सकते हैं) कि अगर कोई आमादा हो जाए तो इससे दुनिया जहान की न जाने कितनी पेंच खोल दे. संजीव का मानना है कि इस किताब ने विधागत विभाजन की आदत को संकट में डाल दिया है..मैं सोच रहा था कि सिर्फ विधागत विभाजन की आदत का संकट नहीं बल्कि साहित्यिक आलोचनाकर्म में सक्रिय लोगों को भी संकट में डालने का काम किया है जो भाषा, वाक्य-विन्यास और अवधारणाओं की जकड़बंदी से खुद तो बाहर नहीं ही निकल पाते, ऐसी किताबों को इन औजारों से नजरबंद करने का काम जरुर करते हैं. लेकिन ऐसी किताब बहुत ही सादेपन के साथ ये एहसास करा जाती है कि किताबी पन्नों के नोचकर लाए जाने और इन रचनाओं की आलोचना करने के क्रम में दोबारा से साटने भर से काम नहीं चलेगा..आपको उन ठिए और ठिकाने पर जाना होगा जहां सिर्फ रचनाकार भर के जाने की अनिवार्यता नहीं है..अब आलोचक को भी थोड़े-थोड़े ग्राम में पत्रकार, कहानीकार,रिपोर्ताज लेखक होना होगा नहीं तो हिन्दी में किताबें तो लिखी जाएगी लेकिन वो उन मूर्धन्यों के उद्धृत वाक्यों के मोहताज नहीं रह जाएगी.
मैं ये भी सोच रहा था कि अगर इसी किताब पर चर्चा समाज विज्ञान विभाग से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित विभागों में होती तो इसमें पता नहीं हैबरमास, अल्थूसर, पीटर मैनुअल से लेकर उन किन-किन अध्येताओं और सिद्धांतकारों से लाद दिया जाता जिसके बारे में यशोदा ने शायद ही कभी विचार किया होगा. लेकिन अंत तक शायद ये समझ पाते कि हसीना खाला और जे.जे.कॉलोनी के बीच संदर्भ ग्रंथ नहीं जिंदगियां सांस लेती है और यशोदा ने उन जिंदगियों को इस नियत से शामिल नहीं किया है कि आगे इस पर कोई भाषा,शिल्प,संवाद योजना और अन्तर्वस्तु पर एम. फिल् करे. उसने बस इसलिए शामिल किया कि अगर नहीं करती तो खुद को बेदखल करती और बेतहाशा दिल्ली के बीच जब बड़ी आबादी बेदखल कर दिए जाने के बावजूद अपने वजूद में जीने की जद्दोजहद करती है तो अपने ही हाथों यशोदा क्यों ? बहरहाल
मैं ये भी सोच रहा था कि अगर इसी किताब पर चर्चा समाज विज्ञान विभाग से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित विभागों में होती तो इसमें पता नहीं हैबरमास, अल्थूसर, पीटर मैनुअल से लेकर उन किन-किन अध्येताओं और सिद्धांतकारों से लाद दिया जाता जिसके बारे में यशोदा ने शायद ही कभी विचार किया होगा. लेकिन अंत तक शायद ये समझ पाते कि हसीना खाला और जे.जे.कॉलोनी के बीच संदर्भ ग्रंथ नहीं जिंदगियां सांस लेती है और यशोदा ने उन जिंदगियों को इस नियत से शामिल नहीं किया है कि आगे इस पर कोई भाषा,शिल्प,संवाद योजना और अन्तर्वस्तु पर एम. फिल् करे. उसने बस इसलिए शामिल किया कि अगर नहीं करती तो खुद को बेदखल करती और बेतहाशा दिल्ली के बीच जब बड़ी आबादी बेदखल कर दिए जाने के बावजूद अपने वजूद में जीने की जद्दोजहद करती है तो अपने ही हाथों यशोदा क्यों ? बहरहाल
संजीव ऐसे जड़ जमाए संकटग्रस्त आलोचक बिरादरी से अलग होते हुए विभाजन की आदत से मुक्त होती हुई दस्तक जैसी किताबों के आलोचक हैं. मुक्त रचना और उसके परिवेश को मिजाज से उतना ही मुक्त आलोचक मिल जाए, इससे बेहतर स्थिति क्या हो सकती है. मैं इन दिनों किसी भी रचना को जब पढ़ता हूं तो अक्सर ये सोचता हूं ये विधागत ढांचे को तोड़ पा रहा है कि नहीं क्योंकि जो किसी विधा में लिख रहा है वो लिखने के पहले ही एक तरह से उसके द्वारा निर्धारित हो जा रहा है कि वो क्या को कैसे लिखेगा ? संजीव की इस बात से हम जैसे न जाने कितने लोगों को ये उम्मीद बंधती है कि असल चीज है लिखना, ये मायने नहीं रखता कि आप लिखते हुए या लिखर कवि हो गए,आलोचक हो गए, कहानीकार हो गए या संदर्भ सूची सहित लेख लिखनेवाले अकादमिक साहित्यिक अधिकारी. ये कुछ-कुछ उन पाठकों की तरह का सुकून है जिसे गोदान पढ़ने के बाद होरी महतो और दातादीन के बीच के वर्ग संघर्ष या फिर इस उपन्यास को किसान जीवन की महागाथा प्रतिपादित नहीं करना है..उसे बस पढ़ना है..ऐसे एजेंड़ाविहीन लेखन-पठन की कद्र करनेवाले संजीव से इतनी उम्मीद तो हम आगे भी करते ही हैं कि यशोदा जैसे उन लेखकों को प्रोत्साहित करेंगे जिनके नाम विधा,विद्यालय और विश्वविद्यालय की रजिस्टरों में दर्ज नहीं है.
https://taanabaana.blogspot.com/2012/10/blog-post_13.html?showComment=1350265409626#c669746601812790702'> 15 अक्तूबर 2012 को 7:13 am बजे
बहुत अच्छा आत्मीय लेख।
लड़कियों के पढ़ने वाला विषय पढ़कर तुमने अच्छा ही किया।