.

डिस्‍क्‍लेमर : संस्मरण के तौर पर मोहल्ला लाइव के दो साल पूरे होने पर जो लिख रहा हूं, उसके पीछे मोहल्ला या अविनाश की कोई प्रशस्तिगाथा या उसके बहाने अपने को चमकाने की नीयत नहीं है। ध्येय है तो बस इतना कि कुकुरमुत्ते की तरह हर दस मिनट में मौज में आकर ब्लॉग बनने और फिर कुछ ही दिनों बाद उत्साह खत्म हो जाने की स्थिति में उसके मर जाने के बीच कैसे मोहल्ला ने अपनी एक अलग पहचान बनायी, सैकड़ों लोगों को ब्लॉग लेखन की तरफ प्रेरित किया और लोगों ने इसके जरिये ब्लॉग को जाना, इसे रेखांकित करना है। मेरी जगह कोई दूसरा चाहे तो वो मोहल्ला को लेकर तटस्थ इतिहास जरूर लिखे लेकिन मैंने लेखन की दुनिया में इसके जरिये अपने को लगातार सक्रिय किया है तो माफ कीजिएगा, भावुकता को त्यागकर मैं इसके बारे में नहीं लिख सकता इसलिए मोहल्ला के बारे में मेरे लिए लिखना संस्मरण का हिस्सा होगा, इतिहास का नहीं। आपको पूरी छूट है कि आप मेरी भावना के बीच तर्कों की चिमनी लगाकर इसके पक्षों की ठोक-पीट करें लेकिन इस तर्क पर मैं आगे भी लिखूंगा कि भावुकता पर अधिकार सिर्फ कवियों का नहीं है, एक ब्लॉगर भी यदा-कदा भावुक हो सकता है : विनीत कुमार
मोहल्ला लाइव को मैं थोड़ा फ्लैशबैक में ले जाकर देखना चाहता हूं, जिससे कि मुझे अपने अनुभव और भावनात्मक लगाव के बारे में कहने का दायरा बढ़ सके। सच पूछिए तो उस फ्लैशबैक के बिना मोहल्ला लाइव को मैं याद ही नहीं रख सकता और न मेरे से याद किया जा सकेगा।
साल 2006-07 के कथादेश सम्मान में मेरे बचपन के साथी और अब युवा आलोचक राहुल (कार्यालयी नाम राहुल सिंह है) ने मंडी हाउस में मेरा परिचय अविनाश से कराया। अविनाश तब एनडीटीवी में थे। राहुल ने मेरे बारे में उन्हें जो कुछ भी बताया, उसके पीछे उसकी सदिच्छा इतनी भर थी कि अविनाश के लिए अगर संभव हो सके, तो वो मेरे लिए कहीं इंटर्नशिप के बारे में बात करें, कुछ सहयोग करें। अविनाश के लिए मैं कोई पहला मीडिया न्यूकमर नहीं था, जिसे लेकर वो बहुत सीरियस होते और वैसे भी मीडिया के भीतर का ढांचा इतना बदल चुका है कि चैनल के जिन चेहरों को हम तोप समझते हैं, उनके लिए अपनी नौकरी भी बचाये रखनी बहुत बड़ी बात है। और वैसे भी पढ़ने-लिखने और अलग तरीके से सोचनेवाले लोग इस तरह की बातों पर कम ही ध्यान देते हैं। खैर, अविनाश ने तब मुझसे सिर्फ इतना ही कहा – मोहल्ला देखिएगा कभी मौका मिले तो।
मुझे अपनी कोशिश पर इंटर्नशिप मिल गयी थी और थोड़े समय की धक्का-मुक्की, फटेहाली के बाद मामूली ही सही नौकरी भी। मीडिया में एक तरह से रमने लगा था कि यूजीसी जेआरएफ परीक्षा में पास हो गया और उसी दिन ये साफ हो गया कि पांच साल तक दिल्ली में रहने-खाने और अपने मन की लिखने की कोई समस्या नहीं होने जा रही है। चैनल की नौकरी छोड़ने में हमने बहुत वक्त नहीं लिया। लेकिन जिस दिन चैनल की नौकरी छोड़ी थी, उसकी अगली सुबह पांच बजे उठते हुए बहुत अजीब महसूस कर रहा था। एक खास किस्म का खालीपन और बेरोजगारी भी। जब तक सारी चीजें प्रोसेस नहीं होती, पैसे मिलने की निश्चिंतता के बावजूद एक किस्म का निकम्मापन तो था ही। मैंने ठीक उसी सुबह मोहल्ला को पहली बार खोला था। उत्साह में उस पर दिनभर समय दिया और अगली सुबह तय किया कि मुझे भी अपना ब्लॉग बनाना चाहिए। मन में एक हुलस थी कि मोहल्ला पर मेरा भी कुछ लिखा आये लेकिन तब वहां इतने बड़े-बड़े दिग्गजों के नाम होते थे कि ऐसा सोचना अश्लील होता।
चैनल की नौकरी ने अपनी औकात को बहुत कमतर करके देखने की आदत डाल दी थी, नहीं तो हिंदू कॉलेज से एम ए और डीयू से एम फिल किया कोई शख्स इतनी समझ और हौसला तो रखता ही है कि वो खुलकर एक बेहतर मंच पर अपनी बात रख सके। बहरहाल, अगली सुबह हमने अपना ब्लॉग बनाया। अविनाश से हम जैसे लोगों का संपर्क करने का बस एक ही जरिया था – मोहल्ला की वॉल पर राइट हैंड साइड में ब्लू रंग का एक चैट बॉक्स हुआ करता था। अविनाश से हम जैसे न्यूकमर को बात करनी होती थी, तो वहां वो अपना मोबाइल नंबर या मेल आइडी छोड़ देते और बाद में अविनाश फोन या मेल से या तो उनसे संपर्क करते या फिर वहीं बक्से में जवाब देते। हंसिएगा मत प्लीज, जब पहली बार बतौर मोहल्ला के मॉडरेटर अविनाश ने उस चैट बॉक्स पर जवाब देते हुए लिखा था कि आप अपना नंबर दीजिए तो यकीन मानिए मैं घंटों नशे में झूमता रहा। मैंने बाद में बात की और कहा कि मैंने भी अपना ब्लॉग बनाया है और चाहता हूं कि हिंदी समाज के भीतर की सडांध को सामने लाऊं। अविनाश को मेरी ये बात जज्बाती लगी होगी और मुझे हिंदी विभाग का जानकर राय दी कि सड़ांध क्या, आप कुछ क्षणिकाएं ही लिखिए तो हिंदी समाज को कुछ आनंद मिल सके। मुझे तब थोड़ा बुरा भी लगा था लेकिन इस देश में एक औसत हिंदी के विद्यार्थी की इससे अलग छवि नहीं है। …तो भी मैं अपने ब्लॉग पर लगातार लिखता रहा और अविनाश उन्हें शायद कभी-कभार पढ़ते रहे होंगे।
मोहल्ला को लेकर क्रेज उसमें छपी सामग्री को लेकर तो था ही, हम जैसे लोगों के बीच एक और भी उत्‍साह था कि किसके ब्लॉग का लिंक मोहल्ला पर लगा है। ऐसा करके मोहल्ला हिंदी के बेहतरीन ब्लॉग की सूची तो बना ही रहा था, पाठकों को एकमुश्त मतलब के जरूरी ब्लॉगों से परिचय करा ही रहा था, लेकिन इससे भी ज्यादा कि वो अपनी तरफ से एक तरह की मान्यता प्रदान कर रहा था कि हजारों ब्लॉगों के बीच कौन-कौन से ब्लॉग हैं, जिसे कि पढ़ा जाना चाहिए? तभी जब मोहल्ला पर मेरे ब्लॉग का लिंक अविनाश ने लगाया तो भीतर एक अलग किस्म का आत्मविश्वास और लेखक के करीब कुछ हो जाने का गुरूर पैदा हुआ। ये गुरूर किसी अखबार में छपने से रत्तीभर भी कम नहीं बल्कि ज्यादा ही था। दिमागी रूप से हम आश्वस्त हो चले थे कि हम ठीक-ठाक लिखने लगे हैं। ऐसा इसलिए कि चैनलों में कॉपी लिखते वक्त अच्छा-खराब का पैमाना बहुत ही पॉलिटिकल और स्टीरियोटाइप का होता। जिस कॉपी को एक शख्स सही कहता, वही दूसरे को कूड़ा लगता और एक खास किस्म की कुंठा अपने लिखे को लेकर पनपने लगी थी। ब्लॉग पर आकर उस कुंठा ने अपने को एक संभावना के तौर पर विकसित किया। मोहल्ला पर जाकर आज भी देखें तो जो लिंक लगे हैं, वो अपने दौर के महत्वपूर्ण ब्लॉग हैं, जिनमें से कई सक्रिय भी हैं।
कुछ महीने बाद मोहल्ला ने नियमित लेखकों की एक सूची जारी की और लिखा कि ये सब मोहल्ला के नियमित लेखक होंगे और मुझे भी मेल किया कि आपको भी इस सूची में शामिल कर रहे हैं। मुझे नहीं पता कि तार सप्तक में शामिल होनेवाले दिवंगत कवियों को तब कितनी खुशी मिली होगी लेकिन मोहल्ला के लेखक समुदाय में शामिल होने पर हम कल्पना कर पा रहे थे कि कैसा लगता है जब किसी को बतौर लेखक या रचनाकार माना जाने लगता है। बड़े-बड़े दिग्गज नामों के बीच मेरा भी नाम छपा था उस सूची में मोहल्ला पर और हम आज भी उस खुशी को याद करते हुए ठीक-ठीक शब्द नहीं दे पा रहे हैं। चैनल के मेरे कई दोस्त, जो कि मीडिया की नौकरी छोड़ने के बाद मुर्दा मान चुके थे, मेरा वहां नाम देखकर फोन किया था, जिसमें आश्चर्य के साथ उलाहना शामिल थे – तू इतना बड़ा आदमी बन गया, ग्रेट यार और एक बार बताया तक नहीं।
चैनल के लोगों के बीच मोहल्ला की एक खास पहचान थी। उस दौरान मोहल्ला पर जो पोस्टें आयीं हैं, अगर उससे गुजरें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि देश के कई अखबार के संपादकीय पन्ने शर्म से डूबकर अपने को छपने से इनकार क्यों नहीं कर देते या फिर किसी अखबार ने मोहल्ला की रोज की पोस्टों को सीधे अखबार के संपादकीय पन्ने पर आउटसोर्सिंग पैटर्न पर छापना क्यों नहीं शुरू किया? अविनाश ने जब बतौर मोहल्ला लेखक मुझे घोषित कर दिया, तो मेरे भीतर पहली बार लिखने को लेकर एक तरह की जिम्मेदारी आ गयी और तब मैं दनादन पोस्टें लिखने लगा। मैंने इससे पहले कभी भी किसी अखबार या पत्रिका के लिए कोई लेख नहीं लिखे थे। नौकरी या इंटर्नशिप के दौरान जो भी जहां लिखा, उसे मैं इससे अलग मानता हूं। तभी मैं मोहल्ला को याद करता हूं, तो लगता है कि अगर हमने यहां से लिखना शुरू नहीं किया होता या इस पर लिखने का चस्का नहीं लगता, तो शायद हम अच्छा-बुरा, पाप-पुण्य के तराजू से अलग हटकर इतना न लिख पाते। मेरे साथ के कई दोस्त हिंदुस्तान, भास्कर, जागरण जैसे अच्‍छा पेमेंट देनेवाले अखबारों में लिखते और मुझे भी सलाह देते कि फोकट में मोहल्ला के लिए लिखने का क्या फायदा? पोस्ट पढ़कर लगता है कि काफी मेहनत से लिखते हो, अविनाश भी मेहनत से लगाते हैं तो उसे अखबार के लिए दिया करो। कहो तो हम बात करते हैं अपने यहां। मैं हंसकर टाल देता। मेरे साथ के साहित्यकार साथी तब साहित्य की सरोकारी पत्रिकाओं में जगह कब्जाने में लगे थे और उभरते, उगते, युवा जैसे अलंकारिक उपसर्गों के साथ छपने लगे थे। हमने उधर कभी तब कोशिश नहीं की थी लेकिन मोहल्ला पर लिखने की गति जारी थी।
हमने अखबारों या पत्रिकाओं में अलग से लिखने में सिर नहीं खपाया क्योंकि मेरे लिए एक बार लिखे को दोबारा संशोधित करके लिखना लगभग असंभव है। मोहल्ला पर हम जो भी लिखते, वो अविनाश के गंभीर संपादन के बाद छप जाता और हम खुश हो लेते। लिखकर पैसा कमाने की नीयत शुरू से नहीं रही। दो-चार बार ऑफिसों या सेमिनारों में अपने अखबारी, सरोकारी और साहित्यिक लेखक साथियों के साथ गया और उन्होंने जब मेरा परिचय कराना शुरू किया तो इसके पहले उन्होंने ही कहा – अरे, इनको बहुत अच्छे से जानता हूं… या फिर मोहल्ला में लिखते हैं ये, कौन नहीं जानता। बाद में कुछ लोगों ने मेरे बारे में बताते हुए सम्मान से जोड़ना शुरू किया – ये मोहल्ला में लिखता है।
[ आगे भी जारी... ]
मूलतः प्रकाशितः- मोहल्लाlive
| edit post
2 Response to 'मोहल्लाlive के हुए पूरे दो साल,अपनी कुछ यादें'
  1. प्रवीण पाण्डेय
    https://taanabaana.blogspot.com/2011/05/ive.html?showComment=1306468479055#c4306230268543381625'> 27 मई 2011 को 9:24 am बजे

    बहुत बधाई हो आपको। आपका ब्लॉग पढ़ना अच्छा लगता है।

     

  2. सञ्जय झा
    https://taanabaana.blogspot.com/2011/05/ive.html?showComment=1306573807474#c1772686782338910450'> 28 मई 2011 को 2:40 pm बजे

    badhai ho babua.......

    sadar.

     

एक टिप्पणी भेजें