दिल्ली जैसे शहर में सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों की कमी नहीं है। आए दिन इतने कार्यक्रम होते हैं कि लोग उनमें शिरकत करते थक जाएं। कई बार तो इसकी अधिकता को देखते हुए लोगों में अरुचि पैदा हो जाती है, लोगों को जाने का मन नहीं करता है। इसलिए आप देखते हैं कि इंडिया हैबिटेट सेंटर औऱ मंडी हाउस के त्रिवेणी सभागार जैसी जगहों पर कई बार लोगों को बुला-बुलाकर बिठाना पड़ता है। लेकिन सफ़र की ओर से एक सीधा सवाल कि इन गतिविधियों के लिए शहर के कुछ निश्चित जगह ही क्यों? इस तरह के केन्द्र क्यों कि जिन लोगों के बारे में या जिनके मसलों पर बातचीत हो वे ही उसमें शिरकत न कर पाएं? कार्यक्रम के बजाय स्पेस को अधिक महत्त्व दिए जाने का नतीजा है कि कई मर्तबा इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लोगों में सामाजिक-सांस्कृतिक रुझान किस तरह का है। आए दिन कार्यक्रम होते रहते हैं और केन्द्र के रुप में घुम-फिर कर ये गिने-चुने स्पेस ही रह जाते हैं।
सफ़र ने इस लिहाज़ से एक नयी पहल शुरु की है। उसने तय किया है कि अब वह साहित्यिक, सांस्कृतिक औऱ दूसरे भी कार्यक्रम ज़्यादा से ज़्यादा उन जगहों पर आयोजित करेगा जहां कि संभव हो इसकी अभिरुचि के लोग हों लेकिन वहां कभी किसी ने इस तरह के कार्यक्रम करने की पहल न की हो, इस उत्साह से कोई आगे नहीं आया हो कि यहां भी गतिविधियां और कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं।
सफ़र की इस समझ को अर्चना वर्मा ने और अधिक साफ़ करते हुए कहा कि- ऐसा करना सिर्फ़ ट्रेवलिंग के तौर पर करना नहीं होगा कि उन्हीं लोगों को बोलने और सुनने के लिए बुलाया जाए जो शहर में स्थापित अन्य केन्द्रों में आते-जाते रहते हैं। इस तरह के कार्यक्रम का एक उद्देश्य ये भी हो कि जिस कस्बे में, जिस इलाके़ में, जिस गांव या मोहल्ले में कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा हो, वहां के लोग भी इससे जुड़ें। उनलोगों को भी लगे कि ये कार्यक्रम उनके लिए किए जा रहे हैं। मतलब ये कि अब तक साहित्यिकता, बौद्धिकता और परिचर्चा के नाम पर जो हलचलें शहर के गिने-चुने जगहों पर होती रही हैं, जिसका बाकी इलाक़ों में कोई असर नहीं है, लोगों का इससे किसी भी स्तर पर जुड़ाव नहीं है; इस कमी को सफ़र की इस पहल के ज़रिए दूर करने में सहूलियत होगी।
साहित्य, संस्कृति, समाज और बदलाव के सवालों और परिचर्चा में कस्बाई जीवन को भी शामिल करते हुए सफ़र ने ‘आमने-सामने’ नामक कार्यक्रम की एक श्रृंखला शुरू की है जिसमें साहित्य, समाज, मीडिया, संस्कृति, कला, क़ानून और भी कई दूसरे क्षेत्रों से जुड़े लोगों को परिचर्चा के लिए आमंत्रित किया जाएगा जिसका केन्द्र शहर में स्थापित केन्द्रों के बजाय दूर-दराज़ का कोई गांव, कस्बा, मोहल्ला या इलाक़ा होगा। फ़र्ज़ सिर्फ़ इतना है कि शहर में बैठकर जब हाशिए पर के लोगों की बात की जाती है तो इस बात को अकसर नजरअंदाज़ कर दिया जाता है कि हम महज़ कुछ लोगों को ही नहीं पूरे का पूरा इलाक़ा नजरअंदाज कर देते हैं। कोई भी साहित्यिक-सांसकृतिक संस्था साल भर में एक भी ऐसा कार्यक्रम नहीं कराती है जिससे कि ये हाशिए पर जा चुका इलाक़ा कभी केन्द्र की तरफ़ बढ़ने की कोशिश कर सके।
सफ़र ने अपनी इस पहल ‘आमने-सामने’ में सबसे पहले आमंत्रित किया हिन्दी के मशहूर कथाकार, अपने कथ्य को लेकर बराबर चर्चित और विवादास्पद रहे राजेन्द्र यादव को। राजेन्द्र यादव ने सफ़र की इस पहल को किस हद तक सराहा इसका अंदाज़ा आपको इस बात से लग जाएगा कि दो-तीन लघु कथाओं का पाठ करने की बात करके आए राजेन्द्र यादव ने अपनी नौ लघु कथाएं पढीं. अर्चना वर्मा की इस बात पर असहमति जताते हुए कि वो कविता के दुश्मन नहीं हैं, उन्होंतने दो कविताएं भी पढ़ीं। घंटे-डेढ़ घंटे छात्रों, रिसर्चरों और मीडियाकर्मियों के सवालों का जबाब देते रहे और चुटकी लेते रहे। इतना ही नहीं राजेन्द्र यादव ने सफ़र के इस पहल को सिर्फ़ वज़ीराबाद गांव तक सीमित न रखने के बजाय दिल्ली के एक-दो उन ठिकानों के बारे में भी बताया जहां बिना किसी तामझाम के 30-40 लोग इकट्ठा हो सकते हैं और ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है।
बिना किसी औपचारिकता में फंसे वज़ीराबाद गांव का एक बड़ा-सा कमरा जो कि सफ़र के कार्यालय के तौर पर इस्तेमाल होता है, धीरे-धीरे भरने लग गया। राजेन्द्र यादव कहानियां पढ़ते जाते, उस पर चर्चा होती जाती। जिसको जिस बात से असहमति होती, वहीं से शुरु हो जाते, कहीं कोई रोक-टोक नहीं। किसी बात के लिए अतिरिक्त अनुशासन नहीं। इस तरह के जड़ औऱ अप्रासंगिक हो चुके अनुशासनों का टूटना कुछ इसी तरह से था जिस तरह से यादवजी लक्ष्मण रेखा, मेरी पहला झूठ, दो दिवंगत, कहानी जो खत्म नहीं होती, मोस्ट वेलकम सर जैसी लघु कथाओं में कथ्य का ढांचा टूटता है। एक नया अनुभव, उसके बने रहने की अनिवार्यता और लगातार एहसास में बने रहने की ख़वाहिश। वाकई सफ़र के कार्यक्रम में राजेन्द्र यादव का आना और युवाओं के सवालों से गुत्था-गुत्थी करते हुए अपनी बात कहना ये साबित कर गया कि बातचीत के लिए कि साज़ोसामान और फ़र्नीचरों से लदे-फदे सभागार ज़रुरी नहीं होते ...
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https://taanabaana.blogspot.com/2009/02/blog-post_07.html?showComment=1234006500000#c3625274578294707166'> 7 फ़रवरी 2009 को 5:05 pm बजे
सफर का यह सफर यूँ ही चलता रहे. शुभकामना
https://taanabaana.blogspot.com/2009/02/blog-post_07.html?showComment=1234007040000#c7113610395705860878'> 7 फ़रवरी 2009 को 5:14 pm बजे
कल एक अनौखा अनुभव हुआ। जिसके लिए सफ़र का शुक्रिया। और सफर के लिए हमारी शुभकामनाएं।
https://taanabaana.blogspot.com/2009/02/blog-post_07.html?showComment=1234010820000#c7969420949613282529'> 7 फ़रवरी 2009 को 6:17 pm बजे
पोस्ट पढ़ने के बाद यही कहूंगा कि ओह..मै वहां मौजदू नहीं था। सफर अपने कार्यक्रमों को लेकर सचेत रहता है और इसी का उदाहरण शुक्रवार का प्रोग्राम था।
खुशी हुई यह पढ़कर कि यादवजी ने नौ कथाओं को पढ़ कर सुनाया। और हां राकेश सर के लिए - वे यादव जी की सलाह पर ध्यान दें ,जिसके बारे में आपने लिखा है- दिल्ली के एक-दो उन ठिकानों के बारे में भी बताया जहां बिना किसी तामझाम के 30-40 लोग इकट्ठा हो सकते हैं और ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है।
वैसे पोस्ट पढ़ने के बाद महसूस हुआ कि हम भी वजीराबाद के उस बड़े से कमरे में कही थे।
और अंत में-
विनीत भाई आप लैपटॉप लेकर पहुंचे थे न..फोटू में दिख रहा है..तो वहीं से लाइव ब्लॉगिंग काहे नहीं किए।