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गाहे-बगाहे का नया ब्लॉग- टीवी PLUS

Posted On 10:26 am by विनीत कुमार |



साथियों, टेवीवजिन पर मुक्कमल बातचीत के लिए कल रात मैंने एख नया ब्लॉग शुरु किया है। आमतौर पर हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर स्टिरियो तरीके से कभी सास-बहू सीरियलों को लेकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं तो कभी न्यूज चैनलों के स्वर्ग की सीढ़ी और क्या एलियन पीते हैं गाय का दूध दिखाए जाने पर आपत्ति दर्ज करते हैं। एक आम मुहावरा चल निकला है- इसलिए तो अब हम टीवी देखते ही नहीं है, बकवास है, सब कूड़ा है।

लेकिन अव्वल तो टेलीविजन में सिर्फ सास-बहू के सीरियल ही नहीं आते औऱ न ही सिर्फ सांप-सपेरे, स्वर्ग की सीढ़ी दिखाए जानेवाले चैनल हैं। इसके अलावे हैं भी है बहुत कुछ। टेलीविजन ऑडिएंस काएक हिस्सा वो भी है जो टेलीविजन के इस रुप की आलोचना करते हुए भी टेलीविजन देखना बंद नहीं करते। वो डिशक्वरी, एनीमल प्लैनेट, हिस्ट्री या फिर नेशनल जियोग्राफी जैसे चैनलों का रुख करते हैं। वहां भी वो सो कॉल्ड ग्रैंड नरेटिव के मजे लेते हैं, देश औऱ दुनिया को नेचुरल स्पेस के तौर पर समझने की कोशिश करते हैं। इसलिए मीडिया,जिसमें सूचना और मनोरंजन दोनों शामिल हैं, इऩके बीच टेलीविजन को सीधे-सीधे गरियाना किस हद तक जायज है, इस पर फिर से विचार किया जाना जरुरी है।
दूसरी बात समाज का एक बड़ा तपका टेलीविजन को किसी भी तरह की इन्टलेक्चुअलिटी से प्रभावित होकर नहीं देखता। इसमें सिर्फ कम पढ़े-लिखे लोग ही शामिल नहीं है। कई ऐसे लोग हैं जो बौद्धिक स्तर पर समृद्ध होते हुए भी टेलीविजन के उन कार्यक्रमों को देखते हैं जिसे अगर लॉजिकली देखा जाए तो समय बर्बाद न भी कहें तो महज टाइम पास होता है। उन्हें पता होता है कि इसका कोई सिर-पैर नहीं है, वाबजूद इसके वो ऐसे कार्यक्रमों को देखते हैं। क्या कोई दावा कर सकता है कि पढ़े-लिखे लोग इंडिया टीवी के उन कार्यक्रमों को नहीं देखता जिसमें भूत-प्रेत खबर के तौर पर शामिल किए जाते हैं। संभव है ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक न हो लेकिन तय बात है कि टेलीविजन देखने में बौद्धिकता औऱ क्लास फैक्टर काम नहीं कर रहा होता है। किस ऑडिएंस को टेलीविजन में क्या अच्छा लग जाए, इसका कोई ठोस आधार नहीं है, इसलिए एकहरे स्तर पर इसका विश्लेषण भी संभव नहीं है।

इससे बिल्कुल अलग वो ऑडिएंस जो अब भी टीवी की सारी बातों को तथ्य के रुप में लेती है। उनके बीच अभी भी ये भरोसा कायम है कि टेलीवजिन दिखा रहा है तो झूठ थोड़े ही दिखा रहा होगा। हॉ, थोड़ा-बहुत इधर-उधर करता है लेकिन असल बात तो सच ही होती है। ये नजरिया आमतौर पर न्यूज चैनलों को लेकर होता है जबकि मनोरंजन चैनलों को वो उम्मीदों की दुनिया के रुप में देखते हैं, रातोंरात हैसियत बदल देनेवाली ऑथिरिटी के रुप में देखते हैं। देश के पांच-छ बड़े शहरों में इसके कार्यक्रमों की ऑडिशन देने आए लोगों को देखकर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि तकदीर बदल देने, बेहतर जिंदगी देने औऱ जिंदगी का सही अर्थ देने के दावों में टेलीविजन राजनीति से भी ज्यादा असर कर रहे हैं। फिलहाल इस बहस में न जाते हुए भी कि चंद लोगों की तकदीर बदल जाने से भी क्या पूरे देश की तस्वीर बदल जाती है, इतना ही कहना चाहूंगा कि देश की एक बड़ी आबादी इस मुगालते में आ चुकी है। वो टेलीविजन के जरिए विकास की प्रक्रिया में शामिल होना चाहती है।
बच्चों और टीनएजर्स की एक बड़ी जमात उन विधाओं में जी-जान से जुटी है जिसे की रियलिटी शो में स्पेस मिलता है। एक लड़की की यही तमन्ना है कि जितेन्द्र औऱ हेमा मालिनी जैसे जज उसके बाप के सामने हॉट और सेक्सी कहे। आप औऱ हम जिस टेलीविजन को बच्चों के करियर चौपट कर देने के कारण कोसते रहे, आझ वही टेलीविजन एक रेफरेंस के तौर पर उनके बीच अपनी जगह बना रहा है, उसे देखकर अपनी स्टेप दुरुस्त कर रहा है।

पहले के मुकाबले सोशल इंटरेक्शन बहुत कमता जा रहा है। पड़ोस क्या घर के भी लोग टीवी देखते हुए बातचीत नहीं करते, मल्टी चैनलों ने विज्ञापन के बीच के लीजर को खत्म कर दिया है। एक हिन्दी दैनिक ने कुछ दिनों पहले लिखा कि ज्यादातर वो लोग टीवी देखते हैं जो आमतौर पर अकेल और फ्रशटेटेड होते हैं लेकिन इसी दैनिक ने बदलती सामाजिक संरचना औऱ घटते मनोरंजन स्पेस पर एक लाइन भी नहीं लिखा।
इसलिए पहले के मुकाबले आज टेलीविजन के विरोध में दिए जाने वाले तर्कों का आधार कमजोर हुआ है औऱ ये हमारी जिंदगी में पहले से ज्यादा मजबूती से शामिल होता चला जा रहा है। कल की पोस्ट पर घुघूती बासुती ने लिखा कि ये अब घर का देवता होता जा रहा है, लेकिन कुछ घरों में ये जगह कम्प्यूटरों ने ले ली है। लेकिन कम्पयूटर पर शिफ्ट हो जानेवालों की संख्या टीवी के मुकाबले कुछ भी नहीं है।
कुल मिलाकर स्थिति ये है कि टेलीविजन एक स्वतंत्र संस्कृति रच रहा है जो कि इस दावे से अलग है कि अगर ये नहीं होता तो भी संस्कृति का यही रुप होता। हम जिसे संस्कृति का इंडीविजुअल फार्म कह रहे हैं, उसे रचने में टेलीविजन लगातार सक्रिय है। इसलिए मेरी कोशिश है कि टेलीविजन को लेकर लोग अपनी-अपनी राय जाहिर करें, इस पर एक नया विमर्श शुरु करें। नए ब्लॉग टीवी प्लस http://teeveeplus.blogspot.com/
करने के पीछे यही सारी बातें दिमाग में चल रही थी। पहले तो हमने सोचा कि इस पर गाहे-बगाहे पर ही लिखा जाए बाद में लगा कि व्यक्तिगत स्तर पर शुरु किया गया ये ब्लॉग कुछ महीनों बाद एक साझा मंच बने। लोग बेबाक ढंग से टेलीविजन, मनोरंजन, संस्कृति और लीजर पीरियड पर अपनी बात औऱ अनुभव रख सकें।
इस देश को टेलीविजन का देश के रुप में विश्लेषित करने पर समाज का कौन-सा रुप उभरकर सामने आता है, इसे जान-समझ सकें। मेरी ये कोशिश आपके सामने है, आप बेहिचक अपने सुझाव दें।
लिंक है- http://teeveeplus.blogspot.com/
देन
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3 Response to 'गाहे-बगाहे का नया ब्लॉग- टीवी PLUS'
  1. sushant jha
    https://taanabaana.blogspot.com/2009/01/plus.html?showComment=1231051140000#c7688775351972845639'> 4 जनवरी 2009 को 12:09 pm बजे

    good initiative...will contribute time to time.

     

  2. Unknown
    https://taanabaana.blogspot.com/2009/01/plus.html?showComment=1231053840000#c8369654264544851545'> 4 जनवरी 2009 को 12:54 pm बजे

    बहुत अच्छा अभियान शु्रु किया है आपने, शुभकामनायें… किस प्रकार का सहयोग अपेक्षित है बतायें… हम हाजिर हैं…

     

  3. महेंद्र मिश्र....
    https://taanabaana.blogspot.com/2009/01/plus.html?showComment=1231080540000#c1774803204546437167'> 4 जनवरी 2009 को 8:19 pm बजे

    अच्छा अभियान प्रारम्भ करने के लिए और नया ब्लॉग का स्वागत है .

     

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