.


तब तक हमलोगों के उपर किसी एक एक टीचर के लिए समझदार,बफादार औऱ बाकियों के लिए बेकार होने का ठप्पा नहीं लगा था। आमतौर सभी टीचरों से अपनी बात होती,सबों के छोटे-मोटे काम करने के लिए हमलोग मुंह बाये रहते। आज भले ही कोई भी कुछ करने को कह दे तो इगो, आइडेंटिटी,दूसरे टीचरों से उनके गणित, कहां तक पावरफुल है आदि सवालों पर विचार करने लग जाते हैं। नहीं तो एमए के दौरान हम उन टीचरों के लिए भी घंटेभर तक इंतजार कर ऑटो रुकवाते जो सालों भर कासिम की दवाई के भरोसे हमें पढ़ाने आते। क्लास में बार-बार कहते भी कि बेटा, क्लास लेने के अलावे कहीं भी बाहर नही जाते. सीनियर लोग इस कहीं नहीं जाने का अर्थ इंटरव्यू के लिहाज से फुके हुए पटाखे के तौर पर बताते. ये वहां भी नहीं जाते और अगर जाते भी हैं तो इनकी चलती नहीं है, कहकर हमलोगों के गुरु प्रेम पर तरस खाते। एक ही बात करते, अपनी तरफ से आनेवालों के साथ यही दिक्कत है कि वो प्रैक्टिकल नहीं होता।
हमलोग इमोशनल के नाम पर इमोशनल फूल कह जाते। जिन लोगों ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई डीयू से की है, वो तो इस मामले में पहले से ही समझदार थे। लेकिन एमए करने आए हमलोगों में व्यक्तिगत स्तर पर लगभग सारे टीचरों से पहचान बनाने की ललक बनी रहती। वो हमें डराते भी, फलां मास्टर के साथ घूमते हो, एम.फिल् में बहुत दिक्कत होगी लेकिन हम इस बात पर अड़ जाते कि हमें एमए के आगे पढ़ना ही नहीं है- अब बोलो। वो चुप हो जाते। जब यही मन है तो फिर है उस तुलसीदास वाले मास्टर के लिए इतनी जहमत उठाने की क्या जरुरत है जो दो साल पहले ही रिटायर्ड हो गया है। पकड़ों जवान और पावरफुल को जो कहीं अखबार-उखबार में लगा दे। हम अपनी मर्जी की करते रहे और मास्टरों से अपनी बात होती रहती।

इसी क्रम में आगे चलकर पुराने लोग धीरे-धीरे आने बंद हो गए और नए टीचर आने शुरु हो गए। हमने भी आगे की पढ़ाई जारी रखने का मन बनाया, बाकी मीडिया में जाने की कीड़ा को साइड से पोसते रहे। अपना फिर वही पुराना फार्मूला कि सबसे बात करेंगे, सबके साथ घूमेंगे। लेकिन एम.फिल् आते-आते इतना समझने लग गया था कि काम करने के लिए मुंह बाये रहना छोड़ना पड़ेगा।

एम.फिल् के शुरुआती दौर तक सबके साथ वाला फार्मूला काम करता रहा औऱ होता ये कि बुक फेयर में प्रगति मैंदान के गेट नं 5 से एक टीचर के साथ घुसते तो 7 नंबर हॉल में किसी और के साथ घुमने लग जाते। हमे अच्छा लगता औऱ मन ही मन जमकर जेएनयू वाले को गरियाते कि- उनके यहां का खेल ही अलग है, एक से बात करो तो दूसरे मास्टर मुंह फुला लेते हैं, अपने यहां मामला सही है। हम अपने विभाग पर फुलकर कुप्पा रहते।

हम मस्ती से तीन-चार लोगों औऱ एक सरजी के साथ घूम रहे थे। सामने से मनोहरश्याम जोशी जी गुजरे- मैं तेजी से लपका। सबों से कहा- मुझे एक मिनट पहले राजकमल जाने दो, जोशीजी के सारे उपन्यास खरीदने हैं, सब पर उनके ऑटोग्राफ लूंगा, मैं अधीर हो उठा था। कभी किसी के ऑटोग्राफ लेने के लिए मैं इतना बेचैन नहीं हुआ, न हिन्दू कॉलेज में आए नामचीन साहित्यकारों के औऱ न ही मीडिया में रहते हुए सिलेब्रेटी के। जोशीजी को लेकर पता नहीं क्या हो गया था।

पीछे से एक बंदे ने जबरदस्ती मुझे खींचा- तुम्हें जिससे भी और जब भी साइन लोना हो, ले लेना लेकिन अभी चलो, जिस मास्टर के साथ तुम जा रहे हो, वो जोशीजी को एक रत्ती भी पसंद नहीं करते हैं, जानते ही भड़क जाएंगे। आअभी चल हमारे साथ। मैं उनलोगों के साथ चला गया लेकिन मुड़-मुड़कर जोशीजी को देखता रहा। बुकफेयर में दोबारा वो नहीं दिखे। करीब दस दिन बाद मैं हांफते हुए किसी तरह हिन्दी भवन में जाकर उनकी तस्वीर के आगे फूल चढ़ाने पहुंच गया।

हिन्दी किताबों की सेल्फ से कामायनी खोजते हुए कसप हाथ लग जाने पर एक ही बात सोचने लगा- इस पर जोशीजी की साइन होती तो कितना अच्छा होता, कितना अच्छा होता उस दिन हम किसी मास्टर के साथ न होकर अकेले होते।
| edit post
3 Response to 'अच्छा होता, उस दिन किसी गुरु के साथ न होते'
  1. जितेन्द़ भगत
    https://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_18.html?showComment=1232297280000#c4090460943158742149'> 18 जनवरी 2009 को 10:18 pm बजे

    पक्षधरता के बगैर आदमी के भीतर का आदमी कई बार मुर्दे की तरह जीने के लि‍ए वि‍वश हो जाता है। आप एक ही चीज हो सकते हैं- या तो इमोशनल या प्रैक्‍टीकल।

     

  2. सुशील छौक्कर
    https://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_18.html?showComment=1232371080000#c8075350553018320950'> 19 जनवरी 2009 को 6:48 pm बजे

    ये चीज तो मैने स्कूल टाईम से देखी और झेली है। और इसी खुन्नस के पीछे बहुत बार छोटी छोटी बात पर पीछे ड्डे भी खाए है विनीत भाई।

     

  3. डॉ .अनुराग
    https://taanabaana.blogspot.com/2009/01/blog-post_18.html?showComment=1232376000000#c7457624212572593611'> 19 जनवरी 2009 को 8:10 pm बजे

    क्या कहे ..बड़ी दुर्गति है.....मैत्रीय पुष्पा अब राजेंदर यादव की बपोती हो गई है..ऐसा नामवर सिंह का कहना है..ओर प्रभा खेतान भी हंस के खेमे में थी.......नामवर सिंह अपने भाई को बढ़ने में लगे है...ऐसा बाकी लोग कहते है....ऐसे में हम जैसे आम पाठक सोचते है....की कहाँ जाये ? .वैसे बाद में कभी मौका मिला या नही.......

     

एक टिप्पणी भेजें