क्या जनसत्ता के भीतर कुछ ऐसे लोग हैं जो इसकी छवि को लगातार खराब करने में लगे हुए हैं या फिर यहां का वर्किंग कल्चर ही बहुत ढीला-ढाला है। कोई पाठक अगर ध्यान से इसे पढ़ने लग जाए तो संभव है कि रोज कुछ न कुछ गड़बडी़ उसे समझ में आ जाए। ऐसा होने से इस अखबार के प्रति लोगों की विश्वसनीयता कितनी घटती है इसका अंदाजा शायद काम करने वालों को नहीं है। यह वही अखबार है जिसे कभी हम जैसे पाठकों को हिन्दी विभाग के टीचरों ने नियमित पढ़ने की सलाह दी थी और बताया था कि इसे आप पढ़े, आपकी हिन्दी दुरुस्त हो जाएगी. लेकिन यही क्या यही बात आज हम बीए कर रहे लोगों को उसी विश्वास के साथ कह सकते हैं. शायद नहीं। ऐसा कहना मजाक भर से ज्यादा कुछ भी नहीं होगा।
गड़बडि़यों की श्रृंखला में ही कल यानि २९ अगस्त की एक भारी गड़बड़ी पर गौर करें। मुख्य पृष्ठ पर गंगा प्रसाद की स्टोरी छपी है- कोशी की बाढ़ राष्ट्रीय आपदाः मनमोहन। इस स्टोरी के तीसरे पैरा पर आप गौर करें। नौंवे लाइन से फिर वही बात शुरु हो जाती है जो बात दूसरे पैरा के आठवें लाइन से शुरु होती है। पहली बार जब मैंने पढ़ा और दूसरे पैरा से तीसरे पैरा पर गया तो लगा कि इसी बात को दोबारा पढ़ रहा हूं। एक बार फिर से पढ़ना शुरु किया तो पाया कि स्टोरी में सात लाइन वही छापी गयी है जो कि दूसरे पैरा में भी है। यानि सात लाइन दो-दो बार छाप दी गयी है। दो बार छपे हुए अंश हैं-
... खुद मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, जल संसाधन मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव और आपदा प्रबंधन मंत्री
नीतिश मिश्र कई बार यह दोहरा चुके हैं कि चार-पांच दिन में स्थिति और बिगड़ सकती है। सात-आठ
लाख क्यूसेक पानी जिला में जमा हो जाएगा। ऐसी स्थिति में लोगों को बचाना दूभर हो जाएगा।
इस तरह की गड़बड़ियों को आप तकनीकी स्तर की गड़बड़ी मानकर नजरअंदाज कर सकते हैं औऱ कह सकते हैं कि पेज लगाने वाले की नजर नहीं गयी है। लेकिन इस तरह से किसी व्यक्ति या फिर विभाग को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराना संस्थान का काम है। पाठक इतनी बारीकी में नहीं जाता, उसे सीधे-सीधे इतना ही समझ में आता है कि ये अखबार की गड़बड़ी है। जनसत्ता के भीतर जिस तरह से लापरवाही नजर आ रही है इससे इसकी साख जरुर कमजोर होती है। साथ ही पाठकों के बीच एक असुरक्षा का भी भाव बढ़ता है कि अब किस अखबार की ओर जाएं। बचा-खुचा एक ही तो अखबार रहा जिस पर कि भरोसा किया जा सकता था, अब वो भी लापरवाह होता जा रहा है। मुख्य पृष्ठ पर १८५७ की बजाय १९५७ छाप रहा है, तस्वीर किसी और चीज की है और कैप्शन किसी और चीज की लगा रहा है. इन सारी बातों पर विचार किया जाना जरुरी है.
और इन सबके बीच दुखद स्थिति ये है कि जनसत्ता कभी भी अपनी इन गड़बड़ियों को अगले दिन सुधार के साथ पाठकों से क्षमा मांगते हुए प्रकाशित नहीं करता। ये काम दि हिन्दू करता है और संपादकीय के ठीक बगल वाले पेज पर स्पेस ही तय कर रखा है. पाठक गलतियां खोजकर उसे पोस्ट या मेल कर सकते हैं. जनसत्ता में अगर सबकुछ सही-सही छापने की क्षमता नहीं है तो कम से कम ये काम तो कर ही सकता है।
दुनियाभर के अखबारों के ऑफर को छोड़कर, बाकी के अखबारों से पच्चीस-पचास पैसे ज्यादा देकर महज १२ पेज के अखबार के लिए पाठक अगर ३ रुपये खर्च कर रहा है तो ऐसा नहीं है कि वो मूर्ख है। वो ये कीमत खबरों की प्रामाणिकता, भाषाई दक्षता और विश्लेषण की परिपक्वता के लिए दे रहा है और अगर अखबार से धीरे-धीरे यही सब गायब होने लग जाए, बेसिक चीजों को लेकर ही भारी गड़बड़ी हो तो फिर कोई आधार नहीं है कि पाठक इसे विशिष्ट मानकर खरीदे। पाठक जिस मूल्य के चलते सादे-सपट्टे इस जनसत्ता खारीदाराहे है, उसे इस मूल्य को बचाए रखना बहुत जरुरी है। नहीं तो बाजार की दौड़ में तो वो कब का पिट चुका है।
इसके पहले जनसत्ता की गड़बड़ियां-
गलत स्पैलिंग के आगे जनसत्ता फुस्स
'जनसत्ता' देखकर जोशीजी का मन रोता नहीं ?
गड़बडि़यों की श्रृंखला में ही कल यानि २९ अगस्त की एक भारी गड़बड़ी पर गौर करें। मुख्य पृष्ठ पर गंगा प्रसाद की स्टोरी छपी है- कोशी की बाढ़ राष्ट्रीय आपदाः मनमोहन। इस स्टोरी के तीसरे पैरा पर आप गौर करें। नौंवे लाइन से फिर वही बात शुरु हो जाती है जो बात दूसरे पैरा के आठवें लाइन से शुरु होती है। पहली बार जब मैंने पढ़ा और दूसरे पैरा से तीसरे पैरा पर गया तो लगा कि इसी बात को दोबारा पढ़ रहा हूं। एक बार फिर से पढ़ना शुरु किया तो पाया कि स्टोरी में सात लाइन वही छापी गयी है जो कि दूसरे पैरा में भी है। यानि सात लाइन दो-दो बार छाप दी गयी है। दो बार छपे हुए अंश हैं-
... खुद मुख्यमंत्री नीतिश कुमार, जल संसाधन मंत्री बिजेन्द्र प्रसाद यादव और आपदा प्रबंधन मंत्री
नीतिश मिश्र कई बार यह दोहरा चुके हैं कि चार-पांच दिन में स्थिति और बिगड़ सकती है। सात-आठ
लाख क्यूसेक पानी जिला में जमा हो जाएगा। ऐसी स्थिति में लोगों को बचाना दूभर हो जाएगा।
इस तरह की गड़बड़ियों को आप तकनीकी स्तर की गड़बड़ी मानकर नजरअंदाज कर सकते हैं औऱ कह सकते हैं कि पेज लगाने वाले की नजर नहीं गयी है। लेकिन इस तरह से किसी व्यक्ति या फिर विभाग को इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराना संस्थान का काम है। पाठक इतनी बारीकी में नहीं जाता, उसे सीधे-सीधे इतना ही समझ में आता है कि ये अखबार की गड़बड़ी है। जनसत्ता के भीतर जिस तरह से लापरवाही नजर आ रही है इससे इसकी साख जरुर कमजोर होती है। साथ ही पाठकों के बीच एक असुरक्षा का भी भाव बढ़ता है कि अब किस अखबार की ओर जाएं। बचा-खुचा एक ही तो अखबार रहा जिस पर कि भरोसा किया जा सकता था, अब वो भी लापरवाह होता जा रहा है। मुख्य पृष्ठ पर १८५७ की बजाय १९५७ छाप रहा है, तस्वीर किसी और चीज की है और कैप्शन किसी और चीज की लगा रहा है. इन सारी बातों पर विचार किया जाना जरुरी है.
और इन सबके बीच दुखद स्थिति ये है कि जनसत्ता कभी भी अपनी इन गड़बड़ियों को अगले दिन सुधार के साथ पाठकों से क्षमा मांगते हुए प्रकाशित नहीं करता। ये काम दि हिन्दू करता है और संपादकीय के ठीक बगल वाले पेज पर स्पेस ही तय कर रखा है. पाठक गलतियां खोजकर उसे पोस्ट या मेल कर सकते हैं. जनसत्ता में अगर सबकुछ सही-सही छापने की क्षमता नहीं है तो कम से कम ये काम तो कर ही सकता है।
दुनियाभर के अखबारों के ऑफर को छोड़कर, बाकी के अखबारों से पच्चीस-पचास पैसे ज्यादा देकर महज १२ पेज के अखबार के लिए पाठक अगर ३ रुपये खर्च कर रहा है तो ऐसा नहीं है कि वो मूर्ख है। वो ये कीमत खबरों की प्रामाणिकता, भाषाई दक्षता और विश्लेषण की परिपक्वता के लिए दे रहा है और अगर अखबार से धीरे-धीरे यही सब गायब होने लग जाए, बेसिक चीजों को लेकर ही भारी गड़बड़ी हो तो फिर कोई आधार नहीं है कि पाठक इसे विशिष्ट मानकर खरीदे। पाठक जिस मूल्य के चलते सादे-सपट्टे इस जनसत्ता खारीदाराहे है, उसे इस मूल्य को बचाए रखना बहुत जरुरी है। नहीं तो बाजार की दौड़ में तो वो कब का पिट चुका है।
इसके पहले जनसत्ता की गड़बड़ियां-
गलत स्पैलिंग के आगे जनसत्ता फुस्स
'जनसत्ता' देखकर जोशीजी का मन रोता नहीं ?
https://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_30.html?showComment=1220076060000#c8451837406214969663'> 30 अगस्त 2008 को 11:31 am बजे
sahi kaha ekdam!
https://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_30.html?showComment=1220093220000#c2236330186491968035'> 30 अगस्त 2008 को 4:17 pm बजे
अजी बुढउती चढ गयी है,इस अखबार पर शायद...
https://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_30.html?showComment=1220114760000#c6326258419150032413'> 30 अगस्त 2008 को 10:16 pm बजे
मीडिया के बारे मे ब्लोग देख कर अछ्छा लगा.
जनसत्ता अगर ऐसे ही उदासीन रहा तो सिर्फ नाम के बल पर ज़्यादा दिन नही चल सकेगा.
https://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_30.html?showComment=1220167620000#c2047576968399985732'> 31 अगस्त 2008 को 12:57 pm बजे
kaya kah rahe hain aap.Parbhash Joshi to us din se ro rahe hain, jab se unhone Om Thanvi ko editor banvaya thaa.Aap kahte hai Jansatta me hi koi Jansatta ka dushman,yanha to baad hi khet ko khaa rahi hai.Om Thanvi Jansatta tevron ke aadmi nahi the,vah to susat gati se chalne vale ,beete jamane kee soch vale Rajasthan Patrika me ,malikon kee chaaplusi se Chief sub ban kar khud ko editor kahte the,Parbhash joshi ne unke haath me Jansatta soanp kar jindgi kee sab se badi bhool kee.Tevron wala ek akhbaar khatam kar diya.
Jansatta ka shubh chintak.