रेडियो का जब भी पक्ष लिया जाता है तो एक बात बहुत ही मजबूती से की जाती है कि यह डिस्टर्विंग माध्यम नहीं है। यानि इसके साथ लोग रोटी बनाते हुए, आयरन करते हुए, खेतों में बीज बोते हुए, दर्जी कपडो़ की सिलाई करते हुए भी जुड़ सकते हैं। मीडिया की किताबों में वाकायदा इस तरह के उदाहरण दिए होते हैं। गूगल इमेज पर जाएंगें तो आपको कई ऐसी तस्वीरें मिलेंगी जिसमें लोग काम करते हुए रेडियो सुन रहे हैं। बाकी माध्यमों के साथ ऐसा नहीं है।एफ।एम। के प्रचलन से लोग ऑफिस जाते हुए बसों और अपनी निजी गाडियों में मजे से एफ.एम. सुनते हुए जाते हैं। अब तो लोग मोबाइल में भी रेडियो होने से देश-दुनिया से बेखबर एफ।एम. सुनते हुए निकल लेते हैं।स्टूडेंट हल्के से रेडियो बजाते हैं और रौ में काम करते चले जाते हैं। लेकिन रेडियो सुनने के मामले में मेरा अनुभव कुछ अलग किस्म का है।
पढ़ाई करते हुए जब भी मैं रेडियो सुनता हूं तो थोड़ी देर के बाद जब पढ़ने में मन रम जाता है तब मैं इसे बंद कर देता हूं। तब मुझे तमाम अच्छे गाने और कार्यक्रम आने के बावजूद ये डिस्टर्विंग लगता है। दूसरी स्थिति ये होती है कि रेडियो बजाकर पढ़ने बैठता हूं और उसके बाद पढ़ने में मन नहीं लगता तो पढ़ना बंद कर देता हूं और पूरे मन से रेडियो सुनने लग जाता हूं। कई बार तो पढ़ाई और रेडियो सुनने के बीच रस्साकशी चलने लग जाती है और दोनों में साथ-साथ मजा आता है।
पढ़ाई करते हुए जब भी मैं रेडियो सुनता हूं तो थोड़ी देर के बाद जब पढ़ने में मन रम जाता है तब मैं इसे बंद कर देता हूं। तब मुझे तमाम अच्छे गाने और कार्यक्रम आने के बावजूद ये डिस्टर्विंग लगता है। दूसरी स्थिति ये होती है कि रेडियो बजाकर पढ़ने बैठता हूं और उसके बाद पढ़ने में मन नहीं लगता तो पढ़ना बंद कर देता हूं और पूरे मन से रेडियो सुनने लग जाता हूं। कई बार तो पढ़ाई और रेडियो सुनने के बीच रस्साकशी चलने लग जाती है और दोनों में साथ-साथ मजा आता है।एम।फिल रिसर्च के लिए विषय तय हो जाने के बाद मेरे मेंटर प्रो.सुधीश पचौरी सर मुझसे बार-बार एक ही बात कहते, अरे भइया रेडियो सुनते हो कि नहीं, खूब सुना करो, उसी से बातें निकलकर आएगी. वो रेडियो को ऑडियो लिटरेचर और टीवी को विजुअल लिटरेचर कहा करते हैं जिससे कई साहित्यप्रेमियों को असहमति भी हो सकती है।रिसर्च के विषय में ये तय नहीं था कि मुझे किस वक्त के रेडियो कार्यक्रमों की रिकार्डिंग करनी है और कब तक की करनी है. इसलिए अपनी सुविधा के अनुसार रिकार्डिंग करता। लेकिन एक बार मेंटर ने कहा कि- कभी तुमने २४ घंटे लगातार रेडियो सुना है, सुनकर देखो, अलग ढंग का अनुभव होगा। पहले तो मुझे लगा कि ये बहुत ही अटपटा किस्म का काम है लेकिन उत्साह भी बना कि देखें क्या होता है और कैसा लगता है।
हॉस्टल में एक कमरे में दो लोग रहते थे और अगर मैं रातभर रेडियो सुनता तो मेरे पार्टनर को परेशानी हो सकती थी, सो प्रेसीडेंट से सेटिंग करके कुछ दिनों के लिए यूनियन रुम की चाबी ले ली।.....और पन्द्रह अगस्त की सुबह ९ बजे रेडियो, रिकार्डर, पानी, जूस, कुछ टेबलेट्स, ब्लैंक ऑडियो टेप लेकर कमरे में बैठ गया और चार बजे शाम तक बिना पेशाब-पानी के रेडियो सुनता रहा औऱ रिकार्डर का टेप बदलता रहा। चार बजे के बाद हल्का हुआ और जूस पिया। फिर चार बजे से रात के एक बजे तक लगातार रेडियो सुनता रहा। एक बजे के बाद से सिर्फ गाने आने लगते हैं और बीत-बीच में चैनल का नाम कि ये है रेडियो सिटी फ ९१ fm .. . सुबह के छ बजे से फिर नई सुबह के साथ कार्यक्रम शुरु होते।
पहली बार मैं चौबीस घंटे तक सिर्फ रेडियो सिटी सुनता रहा। उसके दस दिन बाद फिर वैसा ही किया और अबकि बार चौबीस घंटे तक सिर्फ रेडियो मिर्ची सुनता रहा। इस बीच मैं खाने की कुछ भी चीजें नहीं लेता। एक तो नींद आने का खतरा और दूसरा कि बदहजमी होने का डर। लेकिन तीसरी बार जब मैं फिर चौबीस घंटे के लिए दोनों चैनलों के अलावे बाकी चैनलों को बदल-बदलकर सुनने का मन बनाया तो गड़बड़ी हो गयी।
मैं एक बजे के बाद नींद बर्दाश्त नहीं कर पाया औऱ आंख लग गयी। कमरा खुला था औऱ किसी ने रिकार्डर मार लिया। नींद खुलते ही देखा-रिकार्डर गायब। थोड़ी देर के लिए हो-हल्ला हुआ लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला। मैं रिकार्डर चोरी होने से ज्यादा रिदम के टूट जाने को लेकर परेशान था और इस बात की चिंता थी कि फिर से जुगाड़ करना होगा। खैर,
चौबीस घंटे तक लगातार रेडियो सुनने का जो मेरा अनुभव रहा उसमें ध्यान और पूजा को लेकर जो पाखंड फैलाए जाते रहे हैं, उसकी बात में समझ में आ गयी और वो यह कि- आप एक मन से पूजा करें या फिर रेडियो सुने, आप संतुलित जरुर हो जाते हैं, आपको शांति का एहसास हो जाता है। रेडियो पर लगातार कुछ न कुछ बजते रहने के बाद भी अंदर से मैं बहुत शांत और भराभरा महसूस कर रहा था।...औऱ समझ गया था कि कोई पूजा न करके ध्यान से रेडियो सुने, कोई और काम करे, उसकी एकाग्रता बनेगी। इसलिए इसका कोई अर्थ नहीं होता कि आप किस मंत्र का जाप कर रहे और कौन से देवी-देवता का नाम ले रहे हैं। महत्वपूर्ण है कि आप प्रोसेस में शामिल होते हैं। इसलिए चौबीस घंटे की इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद कॉन्फीडेंस से कह पाता हूं कि- ये ध्यान, पूजा सब बकवास है, पाखंड है, कोई चाहे तो एक बार रेडियो के नाम पर जागरण करके देख ले।
https://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_25.html?showComment=1219646580000#c1790188657653266047'> 25 अगस्त 2008 को 12:13 pm बजे
कभी जरुर जागरण करके देखुंगा।
https://taanabaana.blogspot.com/2008/08/blog-post_25.html?showComment=1219992720000#c6504887788306467811'> 29 अगस्त 2008 को 12:22 pm बजे
क्या शानदार निष्कर्ष है जी...अजी लगता है अब रेडियो सुनना ही पड़ेगा जिससे हम जैसे नास्तिकों को मन की शांति मिले :)