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कुछ दिनों पहले म.गां.अं.वि. वर्धा से सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी का मेल आया कि आगामी होनेवाले ब्लॉग कार्यक्रम में आपको मुख्य वक्ता और पैनलिस्ट के रुप में आना है. लिखा- आपको कार्यक्रम की जानकारी तो होगी ही, नहीं तो हायपर लिंक पर चटकाकर देखे जा सकते हैं. इन दिनों इंटरनेट पर न के बराबर आने से अपडेट नहीं हो पाया था. खैर, इस विश्वविद्यालय ने जब इलाहाबाद में पहली बार ऐसा आयोजन कराया था तो मैं उसका हिस्सा था. तब ब्लॉग नया-नया था और हम तकनीकी रुप से काफी कमजोर भी थे. दूसरी बार हम आमंत्रित नहीं थे जो कि स्वाभाविक ही था. आगे जो संदेश हमें भिजवाए गए उसने बेहतर स्पष्ट किया कि- विनीत जैसे लोगों को बुलाने से दिक्कत हो सकती है. खैर, इस बात ये इतना अस्वाभाविक हुआ कि न केवल हमें बुलाया गया बल्कि मना करने की स्थिति में ये भी कहा कि आप नहीं आ पा रहे हों तो अपने कुछ उन लोगों के नाम सुझाएं जिन्हें लेकर आपको लगता है कि बुलाया जाना चाहिए. इस पर हम कुछ अपनी बात करते कि आयोजक ने एक लंबी सी पोस्ट तान दी जिसकी अंडरटोन है कि ऐसे कैसे संभव हैं कि हम बुलाएं और आप न आएं. शीर्षक ऐसे उत्तर-आधुनिक डाले गए कि धुंआधार हिट्स मिले, अपनी ही पीठ पर कोड़े मारकर हिट्स बटोरु- सेमिनार फ़िजूल है: विनीत कुमार 

मुझे इस बात का रत्तीभर भी अंदाजा नहीं था कि जिस ब्लॉग कार्यक्रम को यज्ञ करार देकर अपनी-अपनी आहुति देने की डंका पिटी जा रही हो, उसके शुरु होने के एक महीने पहले ही पहली आहुति मेरी ही दे दी जाएगी. हम सच में ऊब गए हैं ब्लॉग सम्मेलनों,सेमिनारों,परिचर्चा की दालमखनी से.हमे ये शादी-ब्याह,गोदभराई,जनेऊ में जाने जैसा झेल काम लगता है.( गिनती के दो-चार में ही जाकर). फिर अगर किसी संस्था का कभी न बुलाना,कभी बुलाना जितना स्वाभाविक और उनकी मर्जी है, उतना ही स्वाभाविक और जाने से मना कर देना वक्ता की भी..अब इसे लेकर इस तरह चाबुक मारने की क्या जरुरत है. लिहाजा, अपनी चुप्पी तोड़ते हुए मुझे सिद्धार्थजी को लिखना जरुरी लगा-

सिद्धार्थजी, अगर मुझे इस बात का अंदाजा पहले से होता कि आपके दो राउंड फोन किए जाने के दौरान हुई बातचीत को इस तरह से लिपिबद्ध करेंगे तो मैं आपको इतनी मेहनत करने देने के पहले सारी बातें खुद ही विस्तार से लिखकर मेल करता लेकिन आपकी तत्परता ने ऐसी स्थिति आने नहीं दी. आपने कुल तीन बार जो फोन किए,वो तीनों बार बातचीत करने की स्थिति नहीं थी. एक बार भारी बारिश में फंसा, दूसरी बार बस के लिए भागता हुआ और तीसरी बार चोरी में वॉलेट गंवाकर घर में थोड़ा परेशान लेकिन मैंने बिना किसी दुराव-छिपाव के अपनी बात रखी. खैर, इससे मेरी वैचारिकी में बिल्कुल भी फर्क नहीं पड़ता और मैं सचमुच इस तरह के आयोजन के सीधे-सीधे खिलाफ न भी कहें तो अपने को दूर रखता हूं.

आपको मेरे इलाहाबाद आने का प्रसंग बेहतर याद है और मुझे उतना ही दूसरे सम्मेलन में न बुलाए जाने की आपके विश्वविद्यालय की वाजिब वजह कि विनीत जैसे लोगों को बुलाने से दिक्कत हो सकती है. मैं नहीं समझ पाया कि वर्धा विश्वविद्यालय जो अपने पुलिसिया रवैया के लिए कुख्यात रहा है, इस बार इतना लोकतांत्रिक कैसे हो गया कि आप न केवल बार-बार आग्रह करके मन बदलने की बात कर रहे हैं बल्कि मेरे न आने की स्थिति में मुझसे ये भी पूछ रहे हैं कि आप कुछ उन नामों का सुझाव दें जिन्हें बुलाया जा सके. सिद्धार्थजी, शुरुआत के एक-दो ब्लॉग सम्मेलनों और कार्यक्रमों में मैंने जरुर हिस्सा लिया और उसकी अपनी वजह भी रही..पहली तो ये कि तब ये बिल्कुल नया था और हम रवि रतलामी जैसे लोगों से तकनीकी रुप से कुछ अतिरिक्त सिखना चाहते थे.हालांकि अभी भी सीखा जा सकता है लेकिन ये बाद शिद्दत से महसूस करता हूं कि ब्लॉग लेखन के लिए जितनी तकनीकी समझ की जरुरत होती है, वो काम चलाने लायक कर ले पा रहा हूं.
दूसरा कि हमने ये बात ऐसे एक-दो कार्यक्रमों में जाने के बाद अंदाजा लगा लिया कि बात चाहे जो भी और विषय चाहे जैसे भी रखे जाएं, आखिर तक आते-आते उसकी दालमखनी( मां की दाल) ही बन जाती है. हम ठहरे दीहाड़ी चाहे वो पढ़ाने को लेकर हो या फिर पत्रिकाओं में लिखने या उन चैनल की परिचर्चाओं में शामिल होने की जिसकी चर्चा आपने मेरी तारीफ में उपर की है. हम इन कार्यक्रमों के अभ्यस्त नहीं हो पाए. मुझे बेहद अफसोस है कि मैंने जिस शालीनता और भावनात्मक अंदाज में अपने न आने की वजह बतायी, आपने उसे ऐसी शाब्दिक अभिव्यक्ति दी कि जैसे कोई कंसपिरेसी का हिस्सा हो.आपका दूसरे ब्लॉग सेमिनार या सम्मेलन में मुझे न बुलाना और बैकडोर से संदेश भिजवाना जितना स्वाभाविक था, उससे कहीं ज्यादा स्वाभाविक तो ये है न कि आपने मना करने के ठीक बाद पूछा- आपके पास समय नहीं है या फिर आना ही नहीं चाहते और मैंने बड़ी स्पष्टता से कहा- आप यही समझ लीजिए कि हम आना ही नहीं चाहते. आपने बात आगे बढ़ाई और मैंने ब्लॉग के पूरे परिदृश्य को लेकर इसके पीछे की वजह बतायी कि मैं ब्लॉग के इस विकसित रुप के बीच सम्मेलन किए जाने या जुटने के सैद्धांतिक रुप से पक्ष में नहीं हूं..मेरे मना करने के बाद आपने खुद ये प्रस्ताव रखा कि कल आपको फोन करता हूं, शायद आपका मन बदले. आपने फोन किया और आखिर-आखिर तक हमने यही कहा कि नहीं मुझे रहने दें

हमारी बातचीत इस बिन्दु पर आकर खत्म हो गयी कि आपकी इस संबंध में जो भी राय है, उसे आप हमें लिखकर भेजेंगे और साथ ही आप कुछ उन ब्लॉगरों के नाम सुझाएंगे जिन्हें लेकर आपको लगता है कि उन्हें बुलाया जाना चाहिए. ये बेहद स्वाभाविक है. मेरे पास जब कभी फिल्म पर, साहित्यिक पत्रिका में लिखने के संदेश आते हैं मैं बहुत ही सहज भाव से मना कर देता हूं कि मैं अलग से आपके लिए कुछ नहीं लिख सकता..आगे वो कुछ लोगों के नाम बताने की बात करते हैं और हमें लगता है तो बता देते हैं. इसे मैं साझेदारी का हिस्सा मानता हूं. मुझे लगा कि आप मेरे ब्लॉग सम्मेलन संबंधी राय के भेजे जाने का थोड़ा वक्त देंगे लेकिन आपकी तत्परता आपको रोक नहीं पायी..कोई बात नहीं.

मैं अब भी मानता हूं कि ब्लॉग की असल ताकत, पहचान और क्षमता वर्चुअल स्पेस पर लिखे जाने की सक्रियता से है. शुरुआत में इसकी संभावना को लेकर दालमखनी बनते थे और अभी दस साल भी नहीं हुए कायदे से कि चुनौतियों पर चर्चा शुरु हो गई. मुझे लगता है कि हम साहित्य की वही बासी बहसें यहां लाकर पटक दे रहे हैं. दूसरा कि पता नहीं कौन-कौन से मनीषी रातोंरात पैदा हो गए जो ब्लॉग का विभाजन साहित्यिक और साहित्येतर करने लग गए. वैसे इस क्षेत्र में जहां किताबों की अग्रिम बुकिंग करने पर इतिहास में नाम दर्ज करने की परंपरा शुरु की जा सकी हो तो कुछ भी संभव है. मैं इन सबको बिल्कुल भी बेकार, वाहियात कहने के बजाय इससे अपने को अलग रखने की कोशिश करता आया हूं. मुझे सच में उन महंतों,मठाधीशों के आगे ब्लॉग को लेकर अपनी बात रखने में दिक्कत रही है जो इसे हर हाल में साहित्यिक मानकों के खांचे में फिट होता देखना चाहते हैं.

इन सबके बीच निश्चित रुप से वर्धा विश्वविद्यालय कई संभावनाओं और वैचारिकी को आगे बढ़ाने की नियत से ये कार्यक्रम कर रहा हो लेकिन मेरी अपनी समझदारी बस इतनी है कि जिस विश्वविद्यालय ने प्रतिरोध की आवाज को, उसकी जमीन को लगातार कुचलने का काम किया है, वो ब्लॉग जैसे उन्मुक्त माध्यम पर कार्यक्रम करवाने का कितना नैतिक अधिकार रखता है. दूसरी तरफ मीडिया विश्लेषण,मंच और संगोष्ठी के नाम पर इस विश्वविद्यालय में क्या होता आया है,ये हम सबसे छुपा नहीं है. वक्त-वेवक्त हममे से कई लोग इस पर लगातार लिखते-बोलते आए हैं. फिलहाल इस बहस में न जाते हुए भी इसमें न आने की बात कहनेवाले को दाएं-बाएं करके घसीटने की कोशिश करे, ये किसी भी लिहाज से सही नहीं है. आपलोग हमें लगातार पढ़ते आए हैं, याद करते हैं, मेरे लिए ये काफी है और जहां तक वहां आकर लाभान्वित होने और जो वर्चुअल स्पेस से वंचित हैं, उनकी समझदारी की बात है तो देखिए ब्लॉगिंग के मामले में मैं प्रेमचंद को याद करना चाहूंगा- बिना मरे स्वर्ग नहीं जाया जा सकता( हालांकि हम इस स्वर्ग-नरक की मान्यता को नहीं स्वीकारते). ब्लॉगिंग के प्रति बेहतर समझ व्याखायान और भाषणों से नहीं, खासकर जो करने के बजाय इसी से लाभान्वित होना चाहते हैं, इसमे गहरे उतरकर ही संभव है और इसके लिए जरुरी नहीं कि हम ब्लॉगर शरीरी रुप से मौजूद ही हों. असल में वर्धा विश्वविद्यालय ब्लॉग के ढांचे/ठठरी को लेकर चिंतित है और हम उसकी लगातार आत्मा बचाए रखने की कामना करते रहेंगे. आत्मा को खत्म करके आप चाहे जो भी सम्मेलन,समारोह और चिंतन शिविर करा लें,इसका विकास संभव नहीं है. क्या पता ये चुनौती और संभावनाओं से जुड़े सवाल इसी कृत्य से निकलकर आते हों.

सिद्धार्थजी,आपके शब्दों में एक तरफ हम जैसे लोगों के आने से मना करनेवाले लोग हैं तो दूसरी तरफ ऐसे लोगों की भारी संख्या है जो अपने पैसे से टिकट कटाकर आने के लिए तैयार हैं. हमें इन स्थितियों के बीच हमेशा की तरह लिखने दें. इस देश में ब्लॉग के नाम पर आए दिन कार्यक्रम होते रहते हैं, लोग अक्सर दिल्ली आते रहते हैं, मेरे फोन पर न पहचाने जाने के आरोप मढ़कर भी जाते हैं..हमें कभी कुछ अजीब और भारी नहीं लगता..हम ब्लॉगरों के लिए ये पुरस्कार है.हमारे लिए तिरस्कार,अपमान,व्यंग्य और उपहास सब ग्राह्य है. कल तक गैरब्लॉगर करते थे, बिना संदर्भ को समझे और आज आप जैसे लोग संदर्भ बदलकर ऐसा कर रहे हैं..क्या फर्क पड़ता है ? बस ये है कि लिखने के प्रति यकीन बना रहे..अपनी तमाम असहमतियों के बावजूद हमारे लिखे को पढ़ने की ललक बनी रहे, हमारे लिए काफी है..हम जैसे कुछ नहीं भी शामिल होते हैं तो क्या हो जाता है,वर्चुअल स्पेस पर तो हम मौजूद हैं ही जैसा कि पहले भी रहे हैं.उम्मीद करता हूं कि मेरी इस टिप्पणी को, मेरे न आने को एक व्यक्तिगत फैसले के रुप में लेंगे और जो आड़ी-तिरछी मेरी समझ है, उसे जगह देंगे..हां ये है कि आपने अपनी पोस्ट में अपने लिए(मेरी तरफ से) सर का प्रयोग किया है तो ऐसा लग रहा है कि मैं कोई गुहार लगा रहा हूं.हर वाक्य के साथ सर तो नहीं ही कही थी. लिप्यंतरण में कई बार निजी समझदारी भी शामिल हो जाती है. खैर

( इस पोस्ट के लिखे जाने के बाद सिद्धार्थजी ने हमें वो पुरानी बातचीत इनबॉक्स की है जो ये प्रस्तावित करता है कि उन्होंने हमें पहले भी बुलाया था लेकिन हम अपने स्वास्थ्य की वजह से जा नहीं पाए थे. ऐसे में न बुलाए जाने की बात तथ्यहीन है. हम इस बुलाए जाने के मुद्दे को खींचना नहीं चाहते, बावजूद इसके जरुरत पड़ी तो वो संदेश भी लगाउंगा कि जिसमे बुलाने से दिक्कत है और इस पर आयोजक से बात करके बुलाने के लिए कहनेवाली बात शामिल है और सच में उनके ऐसा करने के एकाध ही दिन बाद सिद्धार्थजी का मेल आ गया)

आपलोगों का
विनीत 



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6 Response to 'आपकी ये मजाल कि हम वर्धा विश्वविद्यालय बुलाएं और आप मना कर दें'
  1. प्रवीण पाण्डेय
    https://taanabaana.blogspot.com/2013/08/blog-post_15.html?showComment=1376528879447#c7065113797148478389'> 15 अगस्त 2013 को 6:37 am बजे

    लिखने के प्रति उराव बना रहे..यही पर्याप्त है, हम सबके लिये। विश्वविद्यालयीय चेतना का क्या, उसे भी तो अपना विस्तार दिखाना होगा।

     

  2. दिनेशराय द्विवेदी
    https://taanabaana.blogspot.com/2013/08/blog-post_15.html?showComment=1376534073312#c4944865036804277763'> 15 अगस्त 2013 को 8:04 am बजे

    एकदम सही! मैं आप की बात से सहमत हूँ।

     

  3. अनूप शुक्ल
    https://taanabaana.blogspot.com/2013/08/blog-post_15.html?showComment=1376535202081#c5853902436294858819'> 15 अगस्त 2013 को 8:23 am बजे

    यह पोस्ट जिस पोस्ट के जबाब में लिखी गयी उस पर हमारी टिप्पणी है-

    विनीत कुमार के बारे में हमारी राय अभी भी वही है जो इलाहाबाद सम्मेलन में उनसे मिलने पर थी। विनीत ने (ब्लॉगिंग जो हिन्दी विभाग की पैदाईश नहीं है) वाला लेख तीन साल पहले ज्ञानोदय के लिये लिखा था। ब्लॉगिंग को वर्चुअल स्पेस तक ही सीमित रखने की बात वे पहले भी कहते रहे हैं। जब लखनऊ विचार मंच/छत्तीसगढ़ विचार मंच बन रहे थे तब भी उन्होंने इस प्रवृत्ति के खिलाफ़ लेख लिखे थे।

    इसके पहले इलाहाबाद और बाद में वर्धा में भी जो सम्मेलन हुये उनकी सफ़लता का श्रेय सिद्धार्थ त्रिपाठी के सक्षम संगठन और इंतजाम को ही जाता है। तमाम असहमतियों और विरोध के बावजूद सिद्धार्थ ने चुपचाप इंतजाम किये। बाद में अपनी बात विनम्रता से धर दी। इस बार उद्धाटन ही पोस्टबाजी से हो गया। जय हो।


    पहले दो सम्मेलन जब हुये थे तब सिद्धार्थ वर्धा विश्वविद्यालय के मुलाजिम थे। आज वे उससे जुड़े नहीं हैं लेकिन इसके इंतजाम का जिम्मा उनको सौंपा गया सो वे संयोजन में जुटे हैं।

    हां जी हां जी कल्चर के खिलाफ़ (TTM और दाल मखानी भी) अपनी बातें वहीं वर्धा के मंच से कहने के लिये जाना चाहिये भाई तुमको विनीत। वो भारत सरकार का संस्थान है किसी अकेले की जागीर थोड़ी है।

     

  4. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    https://taanabaana.blogspot.com/2013/08/blog-post_15.html?showComment=1376563114505#c8011860008990529664'> 15 अगस्त 2013 को 4:08 pm बजे

    आदरणीय अनूप जी, एक तथ्यात्मक सुधार- मैं वर्धा विश्वविद्यालय का मुलाजिम तब बना जब इलाहाबाद का सेमिनार बीते आठ महीना हो चुका था। उस समय मैं उत्तर प्रदेश सरकार की सेवा (कोषाधिकारी) में था। बाद में वि.वि. द्वारा मुझे प्रतिनियुक्ति पर बुलाया गया था।

    विनीत जी, आपको मेरी बात या मेरी पोस्ट से “मजाल” वाला अंडरटोन कैसे सुनायी दे गया यह मैं अभी भी नहीं समझ सका हूँ। यह तो प्रत्येक व्यक्ति का स्वतंत्र अधिकार है। हाँ एक संयोजक के रूप में बड़े-बड़े लोगों को बुलाने का प्रयास करने का अधिकार तो मुझे भी है। :)

    मैं तो इस बात से चिंतित हूँ कि ब्लॉग और सोशल मीडिया के क्षेत्र में विशेषज्ञता रखने वाले जाने कितने और बड़े लोग हैं जिनके बारे में मुझे पता ही नहीं है। मैंने दूसरे मित्रों से भी राय ली है। मैंने आपसे भी सहज ही यह अनुरोध कर लिया था कि आप नहीं आ सकते तो अन्य ऐसे लोगों का नाम बता दीजिए। लेकिन आप इसका भी क्या-क्या अर्थ लगा बैठे।

    जरूरी नहीं कि हर बात के पीछे कोई बड़ी साजिश या स्ट्रेट्जी ही काम कर रही हो। कुछ बाते बहुत सरल भी होती हैं।

     

  5. अनूप शुक्ल
    https://taanabaana.blogspot.com/2013/08/blog-post_15.html?showComment=1376571230252#c2422367260745528168'> 15 अगस्त 2013 को 6:23 pm बजे

    हां यह बात गलत लिखी मैंने कि पहले सम्मेलन मे समय सिद्धार्थ जी इलाहाबाद के हाकिम-ए-खजाना था।

    सिद्धार्थ जी से अच्छी तरह परिचित होने के नाते यह तो मैं भी कहूंगा कि उनके व्यक्तित्व में ’मजाल’ वाली ऐंठ तो नहीं है। :)

     

  6. PD
    https://taanabaana.blogspot.com/2013/08/blog-post_15.html?showComment=1379073441017#c8214241440024694148'> 13 सितंबर 2013 को 5:27 pm बजे

    क्या फर्क पड़ता है. कोई जाए या ना जाए? ऐसे सम्मलेन हों या ना हों? अधिकांश लोगों के साथ मुझे यही दिक्कत दिखती है की उनके पास असहमति का कोई स्पेस नहीं दिखता है. यहाँ भी मुआमला कुछ वैसा ही दिख रहा है, हो सकता है की मैं गलत हूँ.

    2006 से सक्रीय ब्लोगिंग में बिना किसी झोल-झाल के हूँ, और कम से कम पचास लोगों से व्यक्तिगत रूप से मिला भी हूँ(बिना किसी ब्लोगर सम्मलेन के) और सौ से अधिक लोगों से फोन से संपर्क में आया. और जो अच्छे लगे उनसे आज भी संपर्क में हूँ, बाकियों से संपर्क तोड़ दिया. तो यह भी हमारा ही निर्णय है की कहाँ किससे मिलें और किससे ना मिलें कहाँ जाएँ और कहाँ ना जाएँ, पूरी तरह से व्यक्तिगत मामला है यह.

    मुझे तो यही लगता है की आज से लगभग तीन साल पहले लिखी गई यह पोस्ट आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी - http://prashant7aug.blogspot.com/2010/12/blog-post.html

     

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